Mahatvakansha - 1 in Hindi Moral Stories by Shashi Ranjan books and stories PDF | महत्वाकांक्षा - 1

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महत्वाकांक्षा - 1

महत्वाकांक्षा

टी शशिरंजन

(1)

साक्षात्कार के बाद कोलकाता से खुशी खुशी मैं वापस लौट रहा था । राजधानी एक्सप्रेस के प्रथम श्रेणी के जिस केबिन में मैं चढा, उसमें पहले से एक और आदमी मौजूद था । जल्दी ही पता चला कि वह मेरी सीट पर बैठा है। मैने उसे कहा भाई साहब आप अपनी सीट पर नहीं हैं । यह मेरी सीट है । उसने मेरी ओर देखा और शायद क्षमाप्रार्थी होते हुए दूसरी सीट पर चला गया । गाड़ी चल पड़ी । तबतक मैने अपना सामान भी सेट कर लिया था। मेरे मन में एक अजीब प्रकार की प्रसन्नता थी । मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मैं नौकरी लेकर आ रहा हूं।

मैं जितना ही प्रसन्न था । सामने वाले भाई साहब उतने ही खिन्न थे । मैने मोबाइल निकाला और मां को बताया कि मैं कोलकाता से सीधे दिल्ली जा रहा हूं और घर नहीं आउंगा । मेरी बात से शायद उन भाई साहब को भी मां की याद आ गयी और उन्होंने भी फोन कर कह दिया कि वह दिल्ली जा रहे हैं और घर नहीं आ पायेंगे । मैने सोचा दिल्ली तक चलेगा । बातचीत में रास्ता भी कट जाएगा । अगले ही पल मुझे लगा कि यह तो साइलेंट मोड में है । यह क्या बातचीत करेगा ।

गाड़ी पूरी गति में थी । राजधानी की खिड़की से बाहर देखने में प्रकृति का दृश्य बेहद सुकून देने वाला था । इतने में वेटर आया और पानी दे गया । मैने पानी पीते हुए कहा कि काफी गर्मी है । उन्होंने कुछ नहीं कहा । इस पर मैने उन्हें टोकते हुए कहा भाई साहब आप से ही बात कर रहा हूं । उन्होंने मेरी ओर सवालिया निशान से देखते हुए मुस्कराने की कोशिश की । मैं समझ गया कि उन्हें कोई परेशानी है फिर मैने उन्हें नहीं टोका । अगले ही पल वेटर सूप और कुछ रिफ्रेशमेंट लेकर आ गया । उन्होंने मना कर दिया । इस पर मैने वेटर से कहा कि वह इसे यहीं रख जाये । भाई साहब बाद में खा लेंगे ।

आदतन मैने उन्हें फिर टोका । उन्होंने इस बार बातचीत की । धीरे धीरे बातचीत होने लगी और कुछ ही पलों में हम घुल मिल गए । शायद मुझसे बातचीत कर उन्हें भी हल्का लगा होगा । खाने की बात पर उन्होंने अनमने ढंग से मना कर दिया । मैं उनकी सीट पर जा कर बैठ गया । मैने कहा आप मुझसे उम्र मे बडे हैं मैं यह भी जानता हूं कि मेरी आपकी मुलाकात उतनी ही पुरानी है जितने समय से यह गाड़ी चल रही है फिर भी आप बताईये कि क्या बात है । इससे आपका मन हलका हो जाएगा ।

उन्होंने कहा, “आदमी के जीवन में कभी कभी ऐसी परिस्थिति सामने उत्पन्न हो जाती है कि निर्णय करना मुश्किल हो जाता है कि वह क्या करे । ऐसी ही परिस्थिति मेरे सामने भी उत्पन्न हो गयी है । महत्वाकांक्षा आदमी को उंचाई पर पहुंचा देता है लेकिन व्यक्ति अगर अतिमहत्वाकांक्षी हो तो उंचाई पर जाने के चक्कर में ऐसे स्थान पर पहुंच जाता है जहां से उसका समाज में फिर से लौटना कभी कभी मुश्किल हो जाता है ।’’

मैने फिर कहा कि आप बताईये शायद मैं हल निकालने में आपकी कोई मदद कर सकूं । उन्होंने बताना शुरू किया -

नौकरी के दूसरे ही दिन मेरी उससे मुलाकात हुई थी । उसने स्वयं ही आकर मेरा नाम पूछा था । मैने उसे बता दिया । बाद में पता चला कि उसने भी कुछ ही दिन पहले अपना योगदान दिया था । वह भी उसी विभाग में थी जिसमें मैं था । नौकरी में योदान देने के बाद हमारा ओरिएंटेशन शुरू हो गया था । सभी विभागों में कुल मिला कर कुल 30 लोगों ने नौकरी ज्वाइन की थी । इसमें मैं और वो भी थे । हम सब लोगों की नौकरी राजधानी दिल्ली में हुई थी ।

तीसरे दिन फिर उससे मेरी मुलाकात हुई । वह मेरे से आगे वाली कुर्सी पर बैठी थी । छोटे शहर से आने के बाद मुझे थोड़ी झिझक होती थी । इसलिए मैं ओरिएंटेशन में अधिकतर चुप ही रहता था और सबसे पीछे वाली कुर्सी पर बैठता था । उसने पीछे मुड़कर कहा-

कैसे हैं आप ।

मैं ठीक हूं, मैंने कहा।

कहां से आते हैं ।

जी, निर्माण विहार से ।

आपने अपना नाम क्या बताया था ।

पंकज, मैने कहा ।

मैने झिझकते हुए पूछा आपका नाम क्या है ।

प्रियंका, उसने अपना नाम बताया ।

मैने कहा बड़ा अच्छा नाम है ।साथ ही पूछा कहां से आती हैं आप।

उसने कहा -उत्तम नगर से ।

मैने पूछा - कहां की रहने वाली हैं । फिर उसने कहा की सबकुछ अभी ही पूछ लेंगे, कुछ बाद के लिए भी रहने दीजिये क्योंकि अभी कक्षा शुरू होने वाली है .

मैंने हँसते हुए दोबारा पूछा तो उसने कहा वाराणसी उत्तर प्रदेश ।

उसने तपाक से पूछा - आप ?

मैने कहा काशी से ।

अगले दिन मैं पहले पहुंच गया था । मैं अन्य लोगों के साथ बैठ कर बातें कर रहा था; तबतक वह भी आ गयी । उसने मेरी बगल वाली कुर्सी की ओर इशारा करते हुए पूछा आपको आपत्ति न हो तो मैं यहां बैठ जाउं । मैने कहा आपकी कुर्सी है, आपके लिए है, आप बैठ जाईये ।

धीरे धीरे उससे बातचीत कर मेरे अंदर की झिझक जाती रही । फिर तो यह रोज की बात हो गयी । वह अब मेरे ही बगल में बैठने लगी थी । कई मौकों पर वह मेरी मदद भी करती तो कभी मुझसे मदद भी लेती । ओरिएंटेशन में एक बार कुछ काम करने को मिला । मैने अपना काम पूरा कर लिया । इसी बीच वह आयी और मेरे नोट बुक से पन्ने फाड़कर अपना नाम लिखा और डे दिया । सभी ने अपना काम पूरा किया था । केवल मैं ही था जो अपना काम पूरा नहीं कर सका था। इसके लिए मुझे डांट भी पड़ी थी ।

इस घटना के बाद उसने मुझे उसी शाम इंडिया गेट पर मिलने के लिए बुलाया और कहा कि मेरी वजह से आपको डांट पड़ी है इसके लिए मैं आपसे माफी चाहती हूं । मैने कहा कि कोई बात नहीं है ऐसा तो स्कूल कालेजों में चलता ही रहता है । इसके बाद ऑफिस के इतर भी मुलाकातों का सिलसिला शुरू हो गया । इस बीच ओरिएंटेशन भी समाप्त हो गया था ।

मैने महसूस किया कि वह मेरे काफी करीब आ गयी थी । हालांकि, बातचीत में उसकी महत्वाकांक्षा झलकती थी । मैं सोचता कि इससे मुझे क्या । हर आदमी को महत्वाकांक्षी होना चाहिए । लेकिन मैं अतिमहत्वाकांक्षी होने की बात से आज भी सहमत नहीं हूं ।

अब तो धीरे धीरे चाय पीना, दोपहर का खाना सब साथ में होने लगा । कई बार मेरे हिस्से का काम भी करने लगी थी । मेरे मना करने के बावजूद वह मेरे हिस्से का काम कर देती । खास तौर से इम्पैक्ट बनाने का काम जो मुझे सबसे अधिक बोरिंग लगता था. मैं भी धीरे धीरे उसकी ओर आकर्षित होने लगा था, लेकिन इसका मुझे पता नहीं था । साथ काम करने वाले अन्य लोगों ने कमेंट करना भी शुरू कर दिया लेकिन हमने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया और हमारा दैनिक कार्य रोज की भांति चलता रहा।

क्रमशः

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