Bhatke huye log in Hindi Moral Stories by Rajesh Bhatnagar books and stories PDF | भटके हुये लोग

Featured Books
Categories
Share

भटके हुये लोग

भटके हुये लोग

“अब क्या खून पियेगा मेरा ? शरीर मे दूध बचा हो तो तुझे पिलाऊ ? जा, मर जा जाकर कही।”

“अरे कोसती क्यों है, बच्चा ही तो है, उसे क्या पाता कि तेरे शरीर में दूध बचा है या नहीं

आपको तो पता है ? तीन दिन से कुछ भी नहीं खाया.... कुछ खाऊॅ तो दूध उतरे........।“

सरस्वती बहु की बातंे सुनकर चुप हो गई। एक नीम खामोषी कमरे में बदबूदार हवा की तरह फैल गई जिसने सरस्वती का मन कड़वाहट से भर दिया। एक बार को तो सरस्वती ने खिड़की खोलकर सड़क पर झांकने की सोची, मगर दूसरे ही पल बन्दूक के फायर की आवाज़ सुनकर कांप उठी। नहीं वह खिड़की भी नहीं खोल सकती। खिड़की खोलते ही या तो दंगाईयों के पत्थर बरसंेगे या फिर किसी सैनिक की गोली का निषाना बन वह वहीं धराषाई हो जायेगी।

उसने पलंग पर पडे़ उसके बुखार से तप रहे पति को देखा जो इलाज और दवाईयों के अभाव में और बीमार होता जा रहा है। आखिकर बाहर जाकर करे भी तो क्या किसके पास जाये....? किसे बताये कि उसकी बहु और उसने तीन दिन से कुछ नहीं खाया है......... कि उसके पति ने दवाई के अभाव में पलंग-पकड़ लिया है और रात भर खांस-खांसकर अधमरा हो जाता है.....? किसे बताये कि उसके घर में उसके अलावा और कोई नहीं जो ऐसे हालातों में उसकी मदद कर सके। उसने कई बार खिड़की खोलकर झांकने का प्रयास किया है मगर हर बार पुलिस की गोली की आवाज सुन वह डर गई।

बच्चे की और जोर से रोने-तड़पने की आवाज़ से वह और बेचैन हो उठी। जल्दी से रसोई में जाकर चावल का डिब्बा खोला खाली था ... दाल का डिब्बा .....खाली था । उसने जानते-बूझते भी एक-एक डिब्बा बार-बार खोला उसमें झांका और फिर निराष हो अपने बोझिल हाथों से उन्हें पुनः बंद कर कमरे में लौट आई। मटके से एक गिलास निकाल, दो घूंट खुद ने पिया, बाकी बहु को बढ़ाते हुये बोली- “ले पानी तो पी ले। अभी जाकर-देखती हूॅ कही कोई जुगाड़ हो जाये।“

उसने पक्का इरादा कर खिड़की से बाहर झांकने के लिये चिटकनी हटाई और अनायास ही “पाकिस्तान जिंदाबाद.... हिन्दुस्तान मुर्दाबाद“ के नारों से सहम गई। उसने खिड़की की झीरी में से डरते-डरते हौले से बाहर झांका। बाहर कुछ ही दूरी पर दंगाईयों का जुलूस शायद सेेना की गोली से मारे गये दंगाई का जनाजा उठाये ........ हाथों में पत्थर लिये सेना और पुलिस के काफिले की ओर-बढ़़-रहा था। वह डर से थरथर कांपने लगी। क्या ऐसे हालातों में उसे पोते के लिये दूध, बहु और स्वंय के लिये रोटी और पति के लिये दवाई नसीब हो सकेगी...? या यंू ही इस बंद कमरे में घुट-घुट कर मर जायेगी ?

उसने देखा-दंगाईयों ने ठीक उसके घर के पास जनाजा रखकर पुलिस और सेना के जवानों पर पत्थर बरसाना शुरू कर दिया। और फिर सेना की ओर से भी गोलियां बरसने लगी....।

वह बुरी तरह सहम गई। खिड़की कसकर बंद कर वहीं धम से बैठ गई। मन नही मन सोचने लगी- आखिरकर कब तक चलेगा ये सब, कब तक हम अपने ही देष में रहते हुये आंतकवादियों ओर उन्हें पनाह देने वालों के जुल्म यूं सहते रहेंगे...? कब तक हमारा पडौसी मुल्क कष्मीरी भाईयों को अपने ही मुल्क के खिलाफ भड़काता रहेगा ? आज तीस बरस हो गये उसे कष्मीर में इन्हीं हालातों को सहते हुये।

उसके ज़हन में बार-बार एक ही सवाल चक्कर लगाता है कि जब पाकिस्तान ने अपनी ही मर्ज़ी से ये वतन-छोड़ा था तो किस हक से कष्मीर पर अपना हक जता कर यहॉं के भोले-भाले कष्मीरियों को भड़काता है ?

करीब.... 20 दिनांे से यही हाल हैं यहां के। कर्फ्यू के कारण दुकान, बाजार, अस्पताल, दफ्तर स्कूल सब बंद................। एक आतंकवादी क्या मरा गया अलगाववादियों ने अपने आकाओं को खुष कर अपनी रोटियां सेकने की खातिर सारे कष्मीर को हिंसा की आग में झुलसा दिया है और वो मुल्क़ जो खुद भूखेां मर रहा है वो हमारे कष्मीरियों के हक़ की बात करता है...? जो देष आतंकवाद की फैक्ट्री चला रहा है वही इन्सानियत और ईमानदारी, धर्म की डींगे हांकता है...? धिक्कार है ऐसे मुल्क़ के रहनुमाओं को ....। आज हम अपने ही देष में बेगाने हो गये ।

उसने टीवी में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को कष्मीर लेकर रहेंगे का नारा देते हुये देखा है। साथ ही कोई ना कोई नेता टी.वी में कष्मीर का अपना भाषण देता नजर आता है मगर यहां के हालात संभालने ............ भूखों को रोटी देने और मरने वाले जवानों को कंाधा देने कोई नहीं आता।

उसे अच्छी तरह याद है उसके जवान बेटे की भी इन दंगाईयों ने इसी तरह पथराव करते हुए जान ले ली थी । उसका बेटा कष्मीर पुलिस में इंस्पेक्टर हुआ करता था जिसे ऐसे ही दंगाईयों ने घेरकर पत्थरों से घायल कर मार दिया था । और तब से आज तक उसकी बहु अपने कलेजे पर वैधव्य का बोझ ढो रही है ।

उसने कितनी ही बार अपने पति को कहा था “सुनो जी, सारे हिन्दु कष्मीर छोड़-छोड़कर जा रहे हैं हमें भी अब यहां से चला जाना चाहिये । आये दिन दंगे-फसाद....आतंकवादी घटनाएं...।

ये लोग भी पाकिस्तान के लिये ही मरते हैं, उन्हीं का झण्डा लिये फिरते हैं ...। मेरा बेटा यहीं शहीद हो गया । अब तो मेरा एक पल भी मन नहीं लगता । जी करता है स्कूल से रिज़ाईन करके यहां से कहीं दूर निकल जायें...।“

“पागल हो गई हो क्या ? यह हमारी जन्म-भूमि है ..। हमारी जड़ें यहीं जमी हैं । सब एक जैसे नहीं होते । कुछ भड़काये , बरगलाये लोगों की वजह से क्या सारा कष्मीर, सारे मुसलमान खराब हो सकते हैं ...? नहीं......कभी नहीं......। कष्मीर हिन्दुस्तान का है...यहां के लोग हिन्दुस्तानी हैं और हमेषा रहेंगे.....।“

“पागल तो तुम हो जो यहां की हवा नहीं समझते ? देखना एक दिन हम सब मारे जायेंगे तब तुम्हें पता चलेगा....।“ और तब उसके पति ने उसकी एक ना सुनी थी ।

सेना की गोलीबारी और दंगाईयों की पत्थरबाजी देख आज उसकेे ज़ख्म फिर से हरे हो गये थे । अपने बेटे की याद कर वह रो पड़ी- “हरामी.....नमक हराम कहीं के...। इन्हीं सिपाहियों और सैनिकों ने इन्हें पिछले साल भयानक बाढ़ से अपनी जान पर खेलकर बचाया था । कितना पैसा दिया था सरकार ने इनके पनुर्वास के लिये......। मगर हरामखोर खाते यहां की हैं और बजाते पाकिस्तान की हैं.......। दोगले कहीं के.......।“ उसके मन से ना जाने कितनी गालियां कष्मीरी मुसलमानों के लिये निकलीं थीं । उसका बस चले तो एक-एक दंगाई और उनके घरवालों को गोली से उड़ा दे ।

अनायास ही उसका दरवाज़ा किसी ने खड़काया । वह सब कुछ भूलकर चौकन्न हो गई । कहीं दंगाई तो नहीं....। कहीं घर में आग ना लगा दें .....या उन्हें मारने तो नहीं .....। वह ऊपर से नीचे तक कांप गई । उसने गौर से सुना बाहर दंगाईयेां के नारे बन्द हो चुके थे । बहुत देर से कोई गोली की आवाज़ भी नहीं सुनाई पउ़ी थी । शायद बाहर अब शांति हो गई थी । वह हौले से दरवाज़े के निकट गई वैसे ही भूखों के मारे उसकी जान निकली जा रही थी तिसपर आतंकी दंगाईयेां का डर.....। उसकी घिग्गी-सी बंध गई । उसने कांपती आवाज़ में पूछा- “कौन है ?“

“अरे सरस्वती मैं हूं, शबनम ...।“

उसने आष्चर्य से पुनः नाम पुकारा-

“षबनम ! मेरे स्कूल वाली शब्बो ?“

“हां...हां....शब्बो । जल्दी दरवाज़ा खोलो ।“

सरस्वती ने दरवाज़ा खोल दिया । शबनम हाथ में बड़ा थैला लिए झट से अन्दर दाखि़ल हो गई -

“इतने दिनों से तुम्हारी कोई खै़र-ख़बर नहीं ...। फोन बन्द पड़े हैं । मुझसे रहा नहीं गया । मुझे पता है भाई साहब की तबियत खराब चल रही थी और कोई घर में देखभाल करने वाला भी नहीं, बहु के सिवा। बस मन कुलबुला रहा था तुम्हारे लिये सो मौका पाकर छुपते-छुपाते चली आई । हमारा काम तो चल जाता है । भाई, अब्बा चुपचाप सामान ले आते हैं । हमें दंगाई कुछ कहते भी नहीं । मगर तुम तो.........। लो इसमें दूध और खाना है इत्मीनान से खा लो । मुझे पता है इन बीस दिनों में तुम्हारा राषन-पानी ख़त्म हो चुका होगा । बच्चे ने कई दिनेां से दूध भी नहीं पिया होगा ....। क्या करें कष्मीर की फ़िज़ा में ज़हर घुल गया है । कुछ लालची लोगों ने अपने फायदे के लिए हमारे ही भाईयों को बहका दिया है जो अपने ही मुल्क से गद्दारी का ये ग़लत काम कर रहें हैं । अल्लाह इन्हें सही राह दिखाये...... ।“

शबनम की बातें सुनकर सरस्वती की आंखेां से आंसूओं का झरना फूट पड़ा था । उसके कानों में उसके पति के कहे ये शब्द गूंजने लगे थे-“पागल हो गई हो क्या ? यह हमारी जन्म-भूमि है ..। हमारी जड़ें यहीं जमी हैं । सब एक जैसे नहीं होते । कुछ भड़काये, बरगलाये लोगों की वजह से क्या सारा कष्मीर, सारे मुसलमान खराब हो सकते हैं ...? नहीं......कभी नहीं......। कष्मीर हिन्दुस्तान का है...यहां के लोग हिन्दुस्तानी हैं और हमेषा रहेंगे.....।“

-----------

राजेश कुमार भटनागर

सहायक सचिव

राजस्थान लोक सेवा आयोग, अजमेर