राय साहब की चौथी बेटी
प्रबोध कुमार गोविल
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घर तो वहीं रहना था। हां उसका सामान सब लड़के अपनी- अपनी ज़रूरत और सुविधा के हिसाब से ले गए।
जिसके यहां सीधी गाड़ी जाती थी, वो बड़े -बड़े सामान भी आराम से ले गया। जिसका रास्ता पेचीदा था, उसने छोटे - छोटे सामानों पर ज़ोर दिया।
और लालाजी के अपने आकलन के हिसाब से जिसने कम पाया, उसे रुपए पैसे से बराबर करने की कोशिश की उन्होंने।
सब नौकरी पर ही जा रहे थे, कोई लड़ -झगड़ कर अलग नहीं हो रहे थे, इसलिए ये ख्याल भी पूरा रखा गया कि जब छुट्टियों में, त्यौहारों पर सब इकट्ठे हों तो यहां भी किसी को कोई दिक्कत न हो।
पीछे से लालाजी भी यहां थे, और उनकी देखभाल के लिए भी कोई न कोई बहू ,बेटी या बेटे को रहना ही था, सो घर में भी कोई कमी न रखी गई।
हां माताजी की साड़ियों और गहनों को लेकर देवरानियों -जेठानियों ने थोड़ी बहुत भड़ास निकाली हो तो वो बात अलग।
एक ही पेड़ के बीजों की सिफत और तासीर भी अलग- अलग निकल आती है।
जहां लालाजी का भरा- पूरा परिवार, वहीं उनके दूसरे भाई की कोई भी आस - औलाद नहीं।
तीसरे भाई की संतति लालाजी से भी ज़्यादा फूली- फली।
घर में कोई ऐसी दीवार नहीं थी कि इस पार हम और उस पार तुम।
जिन ईंटों पर पांव धरके एक भाई घर में घुसे, उन्हीं पर दूसरा।
जिस छत पर ससुर धूप खाए, उसी पर बहू कपड़ा सुखाए।
जिस बरामदे में जेठ अख़बार पढ़े, उसी में भांजी बैठी मेहंदी लगाए।
घर का बंटवारा था तो बस- ज़नाना कमरा, मर्दाना कमरा, कोठी, बरामदा, मेहमान का कमरा, बच्चों के पढ़ने का कमरा, गुसल, पाखाना, अट्टा, भंडार, रसोई, दालान, चौबारा...इस तरह।
सो अब सब निज का तिज करके परमेश्वरी और उसका पति एक बार फिर से राजस्थान जाने के लिए कसमसाने लगे।
घर से सबकी हज़ार यादें जुड़ी थीं। घर के बच्चे सब या तो गांव में हुए थे, या फिर इसी घर में।
कई चचेरे, फुफेरे भाई बहन तो घर के एक कमरे के एक कौने के एक पलंग पर की पैदाइश थे।
जब सब मिलते तो खूब हंसी- ठठ्ठा चलता।
देवरानियों- जेठानियों को जाने कहां -कहां के किस्से याद आते बुजुर्गों के।
जब लालाजी के भाई बीमार पड़े हुए बिस्तर पर दिन -रात डॉक्टर को कोसा करते, तो उनका गुस्सा डॉक्टर की जगह अपनी घरवाली पर उतरता।
वो बेचारी उन्हें परांठा खाने को कैसे दे दे? डॉक्टर ने साफ़ मना किया हो तो।
और उन्हें न दे, तो क्या खुद भी न खाए?
वो अपनी थाली लाती और बस, उनका चिल्लाना शुरू हो जाता। शोर मचा कर कहते- देख, ख़ुद तो पाखाना सा लील रही है, मुझे नहीं देती।
आवाज़ में तो ग़ज़ब का दम। हिम्मत भी पूरी।
उनकी दिन भर की चिल्ल- पौं से घर के सब लोग आजिज़ आ जाते। बाद में जब उन्हें फालिज का असर हो गया तो बिस्तर पर से खुद उठ तक न पाते। मल मूत्र विसर्जन तक के लिए किसी न किसी के आश्रित हो गए।
एक दिन करवट लेने की कोशिश में पलट कर पलंग से नीचे जा गिरे। हड़बड़ा कर ज़ोर से अपने भतीजे पर चिल्लाए, जो कॉलेज जाने के लिए बेहद जल्दी में तैयार हो रहा था, शायद लेट हो गया हो।
चीख कर बोले- अबे साले, उठा मुझे, देख क्या रहा है?
लड़के ने भी उसी तेवर में जवाब दिया- देर हो रही है, अभी नहीं उठा रहा, कॉलेज से आकर उठाऊंगा...!
पड़े पड़े ज़ोर से चिल्लाए- अबे, उठाता है कि अभी आकर हाथ- पैर तोड़ूं तेरे?
- हाथ पैर तोड़ दो, कह कर लड़का बाहर निकल गया, अपनी साइकिल उठाने।
ऐसे सैकड़ों किस्से इस घर में बसे संयुक्त परिवार से वाबस्ता थे, जो सबकी यादों में बसे थे।
जब सब मिलते, याद कर - करके हंसते।
लालाजी ने भरे मन से सबको विदा किया।
परमेश्वरी और उसके पति ने फ़िर से राजस्थान लौट जाने की तैयारी कर डाली।
पिछली बार वहां विद्यालय की अपनी नौकरी के दौरान परमेश्वरी के पति को ये अनुभव हुआ था कि यहां शिक्षण के लिए किसी भी अध्यापक को बीएड पास होना आवश्यक है। उसके बिना उन्हें नौकरी नहीं मिलती।
यदि शिक्षक न होने या कम होने की विवशता में मिल भी जाती है तो नौकरी में पदोन्नति नहीं मिलती। स्थाई नहीं किया जाता।
इसलिए शहर लौट कर उसने एक कॉलेज में दाखिला लेकर बीटी पास कर लिया था। ये बीटी बीएड के समकक्ष ही माना जाता था।
वो वकालत करने की बात तो अब लगभग भूल ही बैठा था।
उसने एलएलबी की परीक्षा में स्वर्ण पदक पाकर यूनिवर्सिटी में टॉप ज़रूर किया था लेकिन वहीं उसके शिक्षकों ने ये भी कहा था कि वो वकील के रूप में आसानी से सफल नहीं होगा।
उन पढ़ाने वाले प्रोफेसर्स का कहना था कि इस पेशे में आदमी को थोड़ा झूठ - सच और ऊंच नीच में पारंगत होना ज़रूरी है। क्योंकि कचहरी के किसी भी मामले में जब वादी और प्रतिवादी आमने- सामने होते हैं तो एक सच्चा होता है, दूसरा झूठा।
जबकि वकील दोनों ओर ही होते हैं।
बल्कि जो सच्चा होता है, वो वकील को ज़्यादा पैसा नहीं देता, दे भी क्यों, जबकि जो झूठा होता है वही स्याह को सफ़ेद करने के लिए बेशुमार धन देने की पेशकश भी करता है।
इसीलिए जो लोग ग़लत, बेईमान, भ्रष्ट लोगों के मुक़दमे लड़ते हैं शहर में उन्हीं के कोठी बंगले जल्दी बढ़ते हैं।
जबकि सच का साथ देने वाले लोगों की तो बस किसी तरह दाल रोटी चलती है।
परमेश्वरी का पति एक तो स्वभाव से ही सीधा सादा, ईमानदार व्यक्ति था, दूसरे कुदरत ने उसे बिना किसी दोष के ये दुर्दिन दिखाया था कि उसका छोटा सा बच्चा होश संभालने से पहले ही अपनी मां को खो बैठा था।
अब तो वह किसी तरह सीधे और सरल मार्ग पर चल कर जीवन काटना चाहता था।
ईश्वर ने उस पर कृपा की थी जो उसका घर फ़िर से बस गया था, और परमेश्वरी जैसी युवती उसके जीवन में आई थी।
लेकिन एक रोचक तथ्य ये था कि घर में सभी भाभियां, बहनें बेटियां आदि उसे वकील साहब ही कहा करती थीं। यहां तक कि यार दोस्तों और रिश्तेदारों में भी वो वकील साहब के नाम से ही मशहूर था।
कभी कभी तो खुद लालाजी के मुंह से भी अपने बेटे के लिए "वकील साहब" ही निकलता था।
तो अब ये वकील साहब राजस्थान में शिक्षक बनने का ख़्वाब लिए परमेश्वरी के साथ जा रहे थे।
वहां पहुंचते ही दोनों को फ़िर से उसी नामचीन विद्यालय में नौकरी मिल गई और उनकी ज़िन्दगी की गाड़ी मन चाही दिशा में बढ़ चली।
दोनों पति पत्नी के वहां से लौट कर जाने और फ़िर वापस आने के दौरान एक बड़ी घटना ये हुई कि उस विद्यालय के संस्थापक जो देश आज़ाद होते ही राज्य के मुख्य मंत्री बन गए थे वे जल्दी ही राजनीति छोड़ कर अपना पद त्याग करके आ गए थे, और अब पूरी तरह उसी विद्यालय के प्रति समर्पित हो गए थे।
विद्यालय ने भी अब एक कॉलेज का रूप ले लिया था।
वकील साहब का बेटा तो किसी बोर्डिंग स्कूल में कहीं दूर रह कर पढ़ाई कर रहा था, किन्तु परमेश्वरी और उनकी बिटिया ने वहीं स्कूल जाना शुरू कर दिया।
वहां रहने वाले लोगों को लड़कियों की पढ़ाई की तो अच्छी और सस्ती सुविधा उपलब्ध थी, किन्तु लड़कों के पढ़ने की वहां कोई माकूल व्यवस्था नहीं थी।
पुत्री का जन्म होने के बाद जो परमेश्वरी ये सोचती थी कि अब लड़की की पढ़ाई वहां सुगमता से हो जाएगी, उसी के घर में अब एक - एक करके तीन पुत्रों का जन्म हुआ।
हर साल मई और जून में गर्मी के मौसम में वहां लंबी छुट्टियां होती और उन लोगों को लालाजी के पास अपने घर जाने का मौक़ा मिल जाता। बच्चों की छुट्टियों के चलते बाक़ी बहुएं भी उन्हीं दिनों वहां आती और घर कुछ दिन के लिए गुलज़ार हो जाता।
ये भी एक संयोग ही कहा जाएगा कि परमेश्वरी के तीनों बच्चों का जन्म गर्मी की छुट्टियों में होने के कारण सभी प्रसव घर पर ही हुए।
प्रसव के बाद जल्दी ही बच्चों को लेकर पुनः गांव में अपने विद्यालय में लौटना पड़ता।
गर्मी की छुट्टियों में जब सब घर आते लालाजी का चेहरा खिल जाता।
वो अपना सब काम - धाम छोड़ कर अपनी बैठक में बच्चों से घिर कर ही बैठ जाते, और उनके साथ - साथ बच्चे ही बन जाते।
बच्चों की मांओं का काम भी कुछ देर के लिए हल्का हो जाता, वो बच्चों का दूध, खिलौने आदि वहां रख जातीं और भीतर इत्मीनान से घर के अपने रोजमर्रा के काम निपटातीं।
लालाजी सब गृहिणियों के लिए बेबी सीटर बन जाते।
लालाजी ने एक पोते को गोद में बैठाया और उसे कुछ मीठा खिलाने लगे। गाते जाते थे- घास खाएं गऊएं, दूध पिएं ग्वालबाल, माखन खाएं हमरे मदन गोपाला...!
लेकिन उनकी ये निष्कपट सरलता भी कभी - कभी उनकी किसी अशिक्षित या अर्ध शिक्षित ग्रामीण पृष्ठभूमि की बहू को खल जाती, जिसकी कोई बेटी भी वहां खेल रही होती।
तनाव या गुस्से में भरी वो लंबा घूंघट लिए आती और अपनी बेटी को झटके से उठा ले जाती। जाते- जाते बुदबुदाती- चलो, बाहर खेलो, तुम यहां क्या कर रही हो, तुम्हें तो घास खानी है...!
लालाजी हक्केबक्के रह जाते।
ऐसे में उन्हें परमेश्वरी जैसी पढ़ी - लिखी बहू की याद आती।
बरसात के मौसम में बच्चों के स्कूल खुल जाते। तब सब अपने अपने नौकरी के नगर चले जाते। घर फ़िर वीरान हो जाता।
तीन पुत्रों को जन्म देने के बाद परमेश्वरी का खोया हुआ आत्म विश्वास जैसे लौट आया था और धीरे धीरे उसके स्वभाव में कहीं ओझल हो चुकी राय साहब की चौथी बेटी फ़िर से उजागर होने लगी।
वो अपने जीवन से संतुष्ट दिखाई देती और साथ ही साथ अपनी शिक्षा को आगे बढ़ाने के लिए भी सचेत रहती।
वो अपने छोटे भाई की बेटी को भी अपने विद्यालय में पढ़ाने की गरज से अपने साथ ले आई।
अपने पीहर के घर से भी उसका संपर्क और स्नेह निरंतर बना रहा। परमेश्वरी की शेष चारों बहनों का आना- जाना और पीहर के घर की सुधि ले पाना उतना संभव नहीं हो पाता था जितना परमेश्वरी करती थी।
इसका एक कारण शायद ये भी रहा हो, कि सभी बहनों में अकेली परमेश्वरी ही ऐसी थी जो नौकरी कर के कमा रही थी।
एक और बड़ी बहन मजबूरी में नौकरी ज़रूर करने लगी थी। पर अब पति के न रहने के बाद अपनी तीन बेटियों की गृहस्थी से उसके लिए समय निकालना मुश्किल हो जाता था।
फ़िर वैसे भी अपनी गृहस्थी टूट जाने के बाद दूसरे की गृहस्थी में दखल दे पाना ज़्यादा निरापद नहीं रह जाता, चाहे वो अच्छे के लिए ही दिया जा रहा हो।
वकील साहब और परमेश्वरी की एक बड़ी समस्या का समाधान अब बैठे- बैठे आसानी से हो गया था। लड़कियों के जिस स्कूल में
वो दोनों काम कर रहे थे वहां काम करने वालों के, और आसपास के कुछ दूसरे छोटे लड़कों के लिए भी एक स्कूल उसी परिसर में खोल दिया गया था, अब उनके तीनों पुत्रों को घर पर रह कर ही पढ़ने की सुविधा मिल गई।
बड़ी राहत मिली, वरना बड़े लड़के की तरह ही इन्हें भी बाहर भेजने की चुनौती आ जाती।
जैसे जैसे यहां व्यस्तता बढ़ी, अब लालाजी के पास आना -जाना भी थोड़ा कम हुआ।
कुछ समय बीता कि तीन पुत्रों के बाद परमेश्वरी के एक बेटी भी हो गई। इस तरह अब चार लड़के और दो लड़कियों का भरा - पूरा परिवार हो गया।
इधर तो बिटिया का जन्म हुआ और चंद महीनों बाद ही शहर से लालाजी के गुज़र जाने का हृदय विदारक समाचार मिला।
पूरे परिवार को लेकर वकील साहब ने वहां जाने का कार्यक्रम बना डाला।
सब भाई बहन भी इकट्ठे हुए थे। जैसे एक पूरे युग का अवसान हुआ हो।
सब बहुएं, बेटे, बच्चे दिन भर लालाजी की बातें करते हुए उन्हें याद करते, उनके किस्सों को याद करते, उनके ज़माने को याद करते।
लालाजी ने जाने से पहले ये इच्छा जाहिर की थी कि उनकी मौत पर रोया न जाए।
वे अपने जीते जी ही ये कह गए कि उनकी मौत पर जब सब इकट्ठे हों तो वैसे ही हंसी -ख़ुशी मिलें जैसे किसी त्यौहार पर मिलते हैं। घर का चूल्हा भी जलता रहे और सबको ठीक से खाना- पीना भी मिले।
भरे मन से, पर फ़िर भी हंसी - ठट्ठे के बीच घर पर कुछ दिन सब रहे।
एक दिन पूरे परिवार का गंगा - जमना के संगम पर स्नान का कार्यक्रम बना।
इसी त्रिवेणी संगम पर नहाते समय एक हादसा हो गया।
परमेश्वरी की सबसे छोटी बेटी घर की किसी महिला के हाथ से नहलाते समय छूट कर संगम में बह गई।
कोहराम मच गया।
सब किंकर्तव्यविमूढ़ से खड़े रह गए। किसी की समझ में न आया कि क्या किया जाए?
पूरे परिवार में एक यही बिटिया ऐसी थी जिसे लालाजी ने देखा न था, क्योंकि इसका जन्म राजस्थान में हुआ था।
तो क्या गंगा मैया लालाजी को दिखलाने के लिए इसे अपने साथ बहा ले गई?
एक नाव पर अचेत पड़ी परमेश्वरी के रुदन- क्रंदन से सारा तट दहल गया।
लेकिन शायद ईश्वर को तुरंत अहसास हो गया कि कुछ गलत हुआ है। ऐसी ज़िन्दगी, जिसने अभी ठीक से दुनिया देखी तक न हो,उसे साथ ले जाकर क्या मिलेगा?
झटपट आसपास से पानी में कूदे गोताखोर मल्लाहों में से एक किसी देवदूत की तरह पानी की लहरों पर से उठा, और उसके हाथ में किसी ताज़ा कमल पुष्प की भांति बिटिया की एक झलकी सभी को दिखाई दी।
कुछ हड़बड़ी, कुछ कृतज्ञता के साथ किनारे पर मौजूद घर के बड़ों ने बिटिया के पेट से पानी निकाला, और उसने आंखें खोल दी।
भगवान एक बार फ़िर परमेश्वरी के साथ था।
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