Is Dasht me ek shahar tha - 11 in Hindi Moral Stories by Amitabh Mishra books and stories PDF | इस दश्‍त में एक शहर था - 11

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इस दश्‍त में एक शहर था - 11

इस दश्‍त में एक शहर था

अमिताभ मिश्र

(11)

गजपति और पार्वतीनंदन यानि गज्जू और पप्पू दोनों ही हिन्दी के प्रोफेसर बने पर दोनों एकदम अलग अलग प्रकृति के। गज्जू बला के पढ़ाकू हिन्दी साहित्य में खासा दखल रखने वाले। नए से नए साहित्य से जुड़े रहते और जीवंत संपर्क रहा उनका तमाम बड़े साहित्यकारों से। पी एच डी उन्होंने की थी पारसी रंगमंच पर जो वाकई शोध थी और वे ढेरों नाटक वालों से मिले हिन्दुस्तान भर घूम घूम कर और कमाल का काम था। वे खुद एक अच्छे गीतकार थे और बहुत सुलझे हुए आलोचक सही समझ वाले और अध्यापक तो कमाल थे ही। उनकी कक्षा में दूसरे विषय के छात्र भी आ जाते थे उनका पढ़ाना सुनने। अंग्रेजी साहित्य, राजनीति शास्त्र, विज्ञान, इतिहास और पता नहीं कौन कौन से विषय के छात्र उनकी कक्षा में बैठे रहते।

और जो हमारे पार्वतीनंदन है उनके लिए प्रोफेसरी मतलब नौकरी और नौकरी को वो सिर्फ और सिर्फ नौकरी की तरह ही करते। कुजी से पढ़ाते, परीक्षा में पास करने के नुसखे बताते। वे हिन्दी साहित्य से अलग भौतिक शास्त्र के शिक्षक होते तो भी उनका ये ही रवैया रहता। पार्वतीनंदन यानि पप्पू में पढ़ाने के अलावा और भी कई हुनर थे। वे एक शानदार मिस्त्री थे। घर की टंकी से लेकर सिंचाई के लिये रहट को बनाना, नहाने के लिए बंबा बनाना। बिजली का काम वे बखूबी कर सकते थे और इसके अलावा वे खाना बहुत बढ़िया बनाते थे। जब घर के सब लोग इकठ्ठा होते थे तो दाल बाफले बनाने का काम उनका होता था और उनके सहायक होते थे उनके बड़े भाई यानि गज्जू भैया। कंडों मे ही दाल बनती कंडों में ही बाफले और चूरमें के लिए बड़े बड़े रोटले भी इन्हीं कंउों पर बनते फिर उन्हे खलबट्टे में पीसा जाता और फिर उसमें घी और शक्कर के साथ हाथ से लड्डू बनाए जाते। बाफले भी उबाल कर फिर कंडों में सिंकते और फिर उन्हें घी में डुबोया जाता और दाल का तो कहना ही क्या। खड़े मसाले की छौंक बघार और प्याज और लहसुन का संग। क्या बात है। इसके साथ बैंगन का भरता एक दिव्य अनुभव है। और इस सब को बनाने में इन दोनों भाईयों को महारत हासिल थी। एक और खाना बनाने में दोनों भाई उस्ताद थे वो था निरामिष खाना। बकरा हो या मुर्गा या मछली दोनों भाई खरीदने से लेकर बनाने तक पूरा काम करते और बहुत उम्दा और लजीज खाना बनाते और हां खाते खिलाते भी उतनी ही तबियत से थे। उसके अलावा एक और हुनर आता था पप्पू को पटाखे बनाने का। मिट्टी के कुल्हड़ में बारूद भरकर अनार बनाना उन्हे बखूबी आता था। लहसुन पटाखा, बम, चकरी, राकेट बना सकते थे वो। बढ़ई कमाल के थे। वे एक चलता फिरता उद्योग थे। बहुत परिश्रमी और बहुत मेहनती और बहुत गुस्सैल। गज्जू उनके ठीक उलट। वे तो बस पप्पू के सहायक थे उनके हुनर में मसलन खाना बनाने में या मिस्त्रीगिरी में या बढ़ईगिरी में या पटाखे बनाने में। पर विद्वता में आगे थे बहुत आगे और प्रोफेसरी में भी। हिन्दी में अच्छे गीत भी लिखते थे कंठ भी बहुत अच्छा था गाते बहुत बढ़िया थे। तो कविसम्मेलनों में भी जाते रहे वे। पहले हम जान चुके हैं कि किस तरह वे शाखा से बाहर हुए इसके बाद उन्होंने एम ए किया हिन्दी में और की पी एच डी भी। और फिर वे कर्नाटक के बेलगांव में महाविद्यालय हिन्दी के प्राध्यापक बन कर पहुंचें। पढ़ाते बहुत अच्छा थे समझ भी थी साहित्य की वे वहां के लोकप्रिय प्राध्यापक थे। यहां पर वे परिवार लेकर नहीं गए थे सोचते सोचते साल गुजर गया। साल बीतते न बीतते उनका चयन गुजरात में आणंद में वल्लभ विश्‍वविद्यालय में चयन हो गया था। अब वे वहां से इन्दौर जाकर परिवार को तैयार कर ले गए आणंद। आणंद में वाकई आनंद रहा। यहां पर एक और पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई जो उनका चौथा पुत्र है।

गुजरात में उनकी मित्रमंडली भी जम गई थी रचनात्मक काम भी हुआ यहां। उनके लेख हिन्दुस्तान भर की पत्रिकाओं में छप रहे थे। अलग अलग शहरों में कवि सम्मेलनों में और व्याख्यायनों में भी जा रहे थे। पर गज्जू का जीवन सदैव सीध मे चले ऐसा होता नहीं था एक दिन किसी मसले पर विभागाध्यक्ष से बहस हो गई संभवतः उज्जैन से अपने गुरूवर को किसी कार्यक्रम में बुलाने संबंधी मसले पर जिनके बारे में उन विभागाध्यक्ष महोदय ने यह बोल दिया कि वे तो कवि क्या सुरा सुंदरी के रसिक हैं उन्हें बुलाएंगे तो यहां की स्त्रियों को खतरा था। बस क्या था गज्जू भैया बेहद गुस्सा । उन्होंने कहा कि यदि सर नहीं आएंगे तो वो नौकरी नहीं करेंगे। और उन्होंने इस्तीफा दिया और चले आए। दो दिनों में इस्तीफा मंजूर भी हो गया था और हमारे गज्जू यानि डाॅक्टर गजपति मिश्रा नौकरी को लात मार कर वापस इंदौर थे उसी पुराने ठीये पर यानि पुश्‍तैनी घर पर। सबको अंदेशा तो था कि इतनी दूर नौकरी इनके बस की नहीं है पर इतने दिन रूक गए इस पर आश्‍चर्य जरूर हो रहा था सबको।

कुछ दिन तो वहां के किस्से कहानी में निकल गए पर अब नए सिरे से फिर जमना था। इस बीच में कुछ समय राशन की दुकान में हम्माली की। कुछ ट्यूशन मिल गई तो काम चल निकला इसी समय उज्जैन के माडल स्कूल की टीचरी की पोस्ट की भरती में अप्लाय कर दिया तो उनका चयन भी हो गया और अब वे एम ए पढ़ाते पढ़़ाते मिडिल स्कूल के बच्चों को भी उसी तल्लीनता से पढ़ाने लगे। बाद को जब उनके गुरूजी को पूरा किस्सा पता चला तो उन्होंने गजपति को बुलाकर डांटा और बोले ” ये वाकया आपने हमें क्यों नहीं बताया और फिर हमारे लिए आप अच्छी खासी नौकरी छोड़ आए। जाइये वो आपको ससम्मान नौकरी पर रखना चाहते हैं बकायदा माफी समेत।“

” अब जाने भी दें सर । अब नहीं जाएंगे इतनी दूर। “

” अच्छा तो क्या करोगे मिडिल स्कूल में मास्टरी । कमाल है भाई। “

उन्होंने फोन लगवाया यूनिवसर्टिी में तो पता चला कि रतलाम कालेज में हिन्दी के प्राध्यापक की जरूरत है तो बस उन्होंने पूछा ” रतलाम जाओगे कालेज में प्रोफेसर बनकर“

” जी सर आप कहेंगे तो चले जाएंगे। “

” तो जाइये रतलाम में कल परसों में जाइन कर लीजिए। “

बाद को फिजीकल फिटनेस को लेकर कुछ बात उलझी तो उनकी दो साल का वेतन अटक गया जिस समय में उनकी मदद की शंकरलाल यानि खप्पू ने। बहरहाल वे पैसे भी मिले उन्हें और वापस भी किए उन्होंने खप्पू को बकायदा ब्याज समेत पर मुसीबत के समय मदद के अहसान को कभी नहीं भुलाया गज्जू भैया ने। आगे हुआ कुछ इस तरह कि उनके गुरूवर ने उन्हें उसी यूनिवर्सिटी में बुला लिया जहां के बाद को वे कुलपति बने। अब गज्जू भैया की ज़िन्दगी राह पर थी। उनके चारों बेटे ज़हीन थे एक इंजीनियर, दो डाक्टर और एक प्रोफेसर बने बाद को।

अब जरा गौर करें गजपति जी के कैरियर या कहें जिन्दगी के ग्राफ पर तो बहुत दिलचस्प मामला है ये। ठेठ आर एस एस से पक्के कम्यूनिस्ट, पढ़ाई घनघोर गरीबी में भी उच्चतम स्तर तक, नौकरी राशन की दुकान से लेकर हम्माली से लेकर स्कूल में पढ़ाने से लेकर अखबार बेचने से लेकर ट्यूशन करने से लेकर कालेज में प्रोफेसर और यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैड आफ द डिपार्टमेंट और डीन आर्ट फैकल्टी।

ज़िन्दगी के सारे उतार चढ़ाव देखे गजपति ने। सबसे ऊपर उनके लिए आदमी ही रहा। वे संघ से जब जुड़े तो ये सोच कर ही जुड़े थे कि लोगों की सहायता ही करेंगे पर वहां की एकतरफा सीखों ने उन्हें बहुत परेशान किया। आजादी में उन सबकी भूमिका ने भी बेहद व्यथित किया वे इस पूरी लड़ाई में गांधी की हिमायत करते रहे और फिर जब अड़तालिस में गांधी जी को उसी विचारधारा के चलते मारा तो उनका मोहभंग हो चुका था। पर वे अठारह साल के थे और संघ के बकायदा प्रचारक सो इनकी गिरफतारी का वारंट जारी हुआ था और दिलचस्प यह था कि उनकी जगह गणपति भैया गिरफ्तार हो गए थे ये किस्सा हम पहले पढ़ चुके हैं। मोह उन्हें कांग्रेसियों से भी नहीं रहा पर फिर भी वे नेहरू के मुरीद थे। गांधी को तो वे दुनिया का सबसे आलातरीन इंसान मानते रहे। बहरहाल उस राष्ट्र की उस धर्म की अवधारणा से उन्हें गहरी आपत्ति रही जो आदमी को अलग अलग कर उससे आपस में नफरत करना सिखाता। वे बहुत जल्दी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से मुक्त हो चुके थे बकायदा उसके सोच से भी।

उनके घर पर अकसर कवि गोष्ठी होती रहती थी और कुछ छात्र भी पढ़ने के लिए रूक जाया करते थे। इस दरम्यान उनके परिचय के दायरे में कुछ ऐसे छात्र भी आए जो बेहद गरीब थे पर पढ़ने की इच्छा बलवती थी सो उन्हें अपने घर पर खाने की व्यवस्था की गई। उनमें से कुछ लगभग नियमित ही हो गए मसलन रामकिशन माली, विद्याधर सागर और भी दो थे। कुछ अड़चन तब आई जब प्रोफेसर गजपति ने असलम को भी खाने का बोल दिया। बस फिर क्या था घर में बबाल मच चुका था। उन दिनों गज्जू बाबू की मां भी आई थीं सो और भी हंगामाखेज था ये।

” काहे गज्जू ई का हो रहा है“

” का माताराम जी“ गज्जू ने आश्‍चर्य से पूछा वे वाकई अनजान थे।

” ई जौन म्लेच्छ को घर में खाना खिलवाए का सोच रहे हो कौनो ठीक थौड़ी ना है। ई जो मुसलमान होत हैं न नीक सुभाव के नहीं होते हैं और चाय वाय पढ़ाना लिखाना तक ठीक है पर उसके आगे नहीं चलेगा। धरम भरस्ट हमरे जीते जी तो न होई। “

” अरे माताराम जी हमारा ध्यान तो इस ओर गया ही नहीं। हमें क्षमा कर दो। पर वो गरीब विद्यार्थी है हमारे कालेज में एम ए कर रहा है घर में खाने के लाले हैं अम्मा। दो रोटी खाता है चार अपने घर के लिए छुपा कर ले जाता है। रही बात धरम की तो हम उसके बरतन बलग करे देते हैं जिसे हम अलग सें धुलवा देंगे या खुद धो देंगे। आगे से पढ़ाते समय हम धरम का भी ध्यान रखेंगे जबकि हमारे लिए तो वो शिष्‍य ही होता है। पर चलो ठीक है माता जी“

गज्जू ने एक लंबी सांस ले कर ये बात पूरी की । अम्मा जी भी भावुक हो गई।

” अरे नहीं हमरा ये मतलब नहीं था। तुम तो पढ़ाए रहे। जौन तुम कह रहे हो वईसा कर लो तो और नीक हो जाए और तुम अपना काम अच्छे से कर रहे हो और आगे भी करते रहो यही हम चाहते हैं बेटा।“

गज्जू ने अम्मा के पैर छुए और गले से लिपट गए। दोनों बहुत देर तक इसी तरह रहे और आंसू बहाते रहे। पता नहीं कब के आंसू थे जिन्होंने अपना रास्ता इस बहाने ढूंढ लिया था। आंसूओं का अजब हिसाब है कि कब निकल लेंगे और कैसे निकलेंगे कोई ठिकाना नहीं। दोनों ने इसमें कोई कसर नहीं छोड़ी ये जानकर कि फिर पता नहीं ये मौका कब मिले।

अब तो बकायदा असलम भी इस परिवार का सदस्य था। बाद को असलम मियां को कालेज में हिन्दी की प्रोफेसरी मिली जिसका अहसान वे हमेशा मानते रहे और कई तरीके से कई मौकों पर उन्होंने इसे सार्वजनिक तौर पर व्यक्त भी किया। बाद को वे विश्‍वविद्यालय में भी आ गए और कुछ समय उन्होंने गजानन के साथ उनकी प्रोफेसरी में काम भी किया।

माली जी ने भी पी एच डी की थी उनके निर्देशन में । रामकिशन माली रहने वाले भौरासा के वहां स्कूल में पढ़ाते थे। कुछ दिन तो स्कूल के बाद आकर निर्देशन प्राप्त करते रहे फिर स्टडी लीव लेकर वहीं एक कमरा किराया लेकर रहने लगे। पैसे की तंगी तो थी। अंततः वो एक महीने के भीतर गज्जू भैया के घर पर डेरा डाल दिए। बैठक वाला तखत उनका हुआ और वो हो गए घर के सदस्य की तरह। पी एच डी कर घर के सब लोगों की दावत करवाई और आज भी हर फसल पर गेंहू का एक बोरा सर के यहां पहुचाते हैं। बाद में जब गजानन सर ने खुद का मकान बनवाया तो चार कमरे चार बेटों के लिए। एक कमरा खुद के लिए बकायदा लाइब्रेरी के मानिंद किताबों के कई रैक अलमारी और सब किताबों से अटी पड़ीं थीं। इसके साथ बनवाया एक बड़ा सा कमरा या कहें हाल। जिसमें कई पलंग डलवा दिए गद्दों समेत। एक ठो सोफासेट भी। वह उनकी बैठक भी थी और तमाम बाहर से आए छात्रों का डेरा था वो। एक चित्रकार उनके यहां कुछ समय रह गया तो उसने बड़ी बड़ी पैंटिंग बना कर उस बैठक में सजा दी। एक थियेटर वाला बंदा रुका तो उसने ड्रामे की रिहर्सल की उस कमरे में और एक शो भी कर डाला। उसके बाद तो छात्र भी रहते हैं, रिहर्सल भी होती हैं और नाटक भी होता है उस हाल में। उनके छोटे बेटे के सीनियर गाते बहुत अच्छा हैं क्लासिकल। उनका गायन हो गया वहां। कवि गोष्ठी तो बहुत सी बार होती थी। उन्हीं गोष्ठियों में चर्चा के दौरान एक पत्रिका निकालने का भी तय हो गया जिसके पच्चीस अंक भी निकले जो खासे चर्चित रहे ।

इस सब उठापटक लष्टम पष्टम में भी गज्जू और पप्पू का जीवन ठीक ही कट गया था। गज्जू केे चारों बेटे पढ़ लिख गए एक इंजीनियर, एक प्रोफेसर फिजीक्स का, दो डाक्टर और क्या चाहिए। उसी तरह पप्पू की तीन बेटियों में से दो डाक्टर, एक एम एस सी कर के अच्छे घर में ब्याह दी और बेटा भी इंजीनियर बन गया जो वाकई उपलब्धि ही मानी जाएगी।

कुछ जिकर गज्जू के चारों बेटों का भी हो जाए तो पता ये चलता है कि किस तरह से राह बनाता है आदमी अपनी और सही राह पकड़ने का कोई सीधा रास्ता भी नहीं होता। दरअसल एक समय में ये चारों लड़के बहुत ही गलत सोहबत में थे। यदि ये वही राह पकड़ते तो यकीन मानिए ये लोग गुंडे होते गैंगस्टर होते और दुनिया के सारे धतकरम कर रहे होते। सबसे बड़े की दोस्तियां लल्लन, तोला, रवि और राजेश, ब्रज से हो चली थी जो उस कस्बेनुमा शहर में सारे गलत ध्ंाधों में षामिल थे और उनके बहुत खास लोगों मे शुमार हो चले थे हमारे बब्बू भाई। तीनों मे से दो को मजा आ रहा था इस दादागिरी में। बब्बू भैया स्कूल में भी किसी को पीट देते थे और कोई चूं भी नहीं कर पा रहा था। इस तरह की दादागिरी में उन्हें मजा आ रहा था पर कुछ घटनाएं इस बीच में ऐसी घटीं कि बब्बू को अपनी इन दोस्तियों पर और अपने खुद के व्यवहार पर सोचना पड़ा बल्कि शरम आना शुरू हुई । मसलन एक दिन जब वे सब लोग रज्जन को पीटने गए थे। रज्जन ने तोला के छोटे भाई को उस समय तमाचा मार दिया था जब वो उसकी दुकान पर से बिस्कुट निकाल कर खा रहा था और समझ रहा था कि किसी ने देखा नहीं। हालांकि गलती गुड्डू की थी पर वो तोला का भाई था और ये जानते हुए भी रज्जन ने ये तमाचा जड़ा था। इस पर भी बब्बू ने कहा था पीटने की जरूरत नहीं है बस धमका आते हैं। पर वहां तो उसे कुछ ज्यादा ही पीट दिया गया। और जब वे बुधवारा से लौट रहे थे तब सुनसान में एक लड़की गुजर रही थी जिसकी छाती पर अशोक ने हाथ मार दिया। वो लड़की जैसे तैसे भागी और बाकी सब बेशरमी से हंसे। उसी दिन उसी पल बब्बू ने इन लोगों से अलग होने का फैसला ले लिया और वहीं पर अशोक को एक थप्पड़ रसीद किया और बोला ये काम तेरी बहन के साथ करे तो।

बाकी लोग सन्न रह गए। अशोक मसोस कर रह गया वो बब्बू से कद काठी में उन्नीसा ही था। उस दिन से बब्बू इन लोगों से और ये दादागिरी वाले मसले से दूर हो गए। फिर बेहतर यूं भी हुआ कि वे लोग वो मकान बदल कर दशहरा मैदान वाले मकान में चले गए थे। ये जगह उससे अलग थी दूर भी थी यहां कुछ नए दोस्त बने जो पढ़ने में ध्यान देने वाले थे सो अब उन चारों की दुनिया कुछ बेहतर हुई। स्कूल भी बदला और खेलकूद भी। यहां कंचे नहीं थे, सरियागाड़ नहीं थे हालांकि इन चारों ने फुटबाल, हाकी और क्रिकेट के साथ साथ कंचे, सरियागाड़, गिल्ली डंडे भी चालू कर दिया था जो दिन में सड़क पर होता था और शाम को फुटबाल, हाकी और क्रिकेट सामने दशहरा मैदान पर होता था। यहां पर भी धीरे धीरे हिचकते हुए चारों ने हर खेल में अपने झंडे गाड़ना शुरू कर दिया। वो क्रिकेट हो कि हाकी कि फुटबाल। स्कूल एक समय में चारों एक ही स्कूल में पढ़े। साथ में एक साथ एक ही यूनिफार्म में चारों सुबह सुबह जब निकलते थे तो एक अलग ही समां होता था। पहले पैदल फिर बाद को जब दो साइकिलें हो गईं तब वे चारों साइकल पर जाते थे।

साइकिल भी बब्बू की जिद पर शनिवार को आई जबकि उन दिनों दादी आईं हुईं थीं और शनिवार को साइकिल आना मतलब कि लोहा खरीदा जाना निषिद्ध था पर बब्बू अड़ गए और ले ही आए घर पर साइकिल। दुकान वाले ने भी टोका था कल ले लेना। शनिवार को ही साइकिल लेना थी सो नई साईकिल कसवा कर वो लाल सीट वाली आगे डलिया वाली पीछे कैरियर वाली। ट्रिंग ट्रिंग घंटी बजाते हुए जब वे घर में घुसे तो पूरा मोहल्ला भौंचक्का था कि ऐन शनिवार के दिन मिश्रा जी के यहां साइकल। ”ये तो घनघोर कलजुगी लच्छन हैं“ ऐसा पंडित व्यास बुदबुदाए।

”कल ले आता छोकरा तो क्या जाता उसके बाप का।“

ठीक उसी समय उसका बाप पीछे बब्बू को बिठाकर घंटी बजाते हुए फर्राटे से निकल गया।

” शिव शिव क्या दिन आ गए। जिन्हें रोकना चाहिए वो खुद ही नियम भंग कर रहे हैं। अब तो अनर्थ ही होगा “

पंडित व्यास नामी गिरामी ज्‍योतिष थे लोगों का भविष्य बताते थे पर खुद की दो बेटियां जब अपनी मरजी से कुजात में शादी करके चल दीं तब लोगों को भी और व्यास जी को भी अपने ज्‍योतिष की निरर्थकता समझ में आई। पहली तो फिर भी गनीमत थी कि पढ़े लिखे लड़के के साथ भगी जिसे बाद मे स्वीकार भी कर लिया गया। पर दूसरी भागी मोहल्ले के सुप्रसिद्ध गुंडे लल्लन के संग और सुबह जो हुई वो कुछ यूं कि सारे शहर के अखबार बांटने वाले चिल्ला चिल्ला कर अखबार बेच रहे थे कि पंडित राजशेखर व्यास जी ज्‍योतिष की लड़की लल्लन के संग भाग गई। सारी दुनिया का भाग्य बांचने वाले को अपने घर की ही चाल समझ नहीं आई और लल्लन ले उड़ा पंडित व्यास जी की छोटी लड़की। लल्लन से सारे लोग जल कुढ़ गए थे इलाके की सबसे खूबसूरत लड़की जो ले उड़ा था। बोला था रानी बनाकर रखूंगा तो रखा भी रानी ही बनाकर। शहर के सबसे पाश इलाके में बड़ा सा मकान लेकर रखा था। ऐशोआराम की सारी चीजें थीं वहां। पर एक हादसे में लल्लन की जान चली गई। हुआ यूं कि लल्लन अपने दोस्त के साथ रात में खा पी कर लौट रहे थे मोटर साइकल पर थे उनके आगे एक ट्रक था जिसमें सरिये निकले हुए थे पीछे तक। एक जगह ट्रक वाले ने ब्रेक लगाया तो लल्लन और उनके दोस्त के आर पार हो गए वो सरिए और वहीं दोनों के प्राण पखेरू उड़ गए।

ये उन दिनों की बात है जब गेहूं इकठ्ठा खरीदा जाता था। पैकेट्स में सामान नहीं मिलता था। तब सत्तू बनवाया जाता था। पहले गेहूं चना को भुंजवाया जाता था। भड़भूंजे की दुकान किसी तिलिस्म से कम नहीं होती थी वहां मक्के को भून कर दस जमाने में घुंघनी और आज पापकार्न कहते हैं बनते थे। बड़े से कढ़ाव में रेत डाल कर भूंजने का काम हुआ करता था। चीजों के स्वाद और रूप् बदलने का तिलिस्म वहां देखने को मिलता था। चारो लड़के ये तिलिस्म साथ देखने जाते थे। भड़भूंजे वाला उन सबको प्रेम से बिठाता और कुछ चने, लइया, घ्ुंाघनी देता । प्रोफेसर साहब की बहुत इज्जत करता था वो सो चारों को बहुत मजा आता था वहां पर। थोड़े से भुने गेंहू और चनों को भड़भूजे के यहां से ले जाकर चक्की में दरदरा सा पिसवाना। यह पूरी उस प्रक्रिया का हिस्सा था जिसे सत्तू बनवाना कहते हैं। फिर सत्तू को आप पानी में मिला कर नमकीन यानि नमक के साथ, मीठा यानि गुड़ या शक्कर के साथ खाया जाता था। गीला लप्सी की तरह या सूखा लड्डू बना कर खाया जाता था। सत्तू दरअसल एक फास्ट फूड की तरह है सस्ता सुंदर टिकाऊ और स्वास्थ्यवर्द्धक भी। भड़भूजे के यहां दिलचस्प नजारा रहता था चारों वहां बहुत समय निकाल सकते थे। समय पता वहां भी नहीं चलता था जब पिता के साथ या अकेले भी कभी उनका कुर्ता बनवाने के लिए भावसार बा के यहां जाना होता था। भावसार बा मालवी के अद्भुत कवि थे। उनसे बातें करना कविताएं सुनना बब्बू को बहुत ही अच्छाा लगता था। बाद को उसे ध्यान है जब एक बार खातेगांव में जब चाचा के यहां गए थे और वहां भावसार बा भी कवि सम्मेलन में शामिल र्थे और बीच कवि सम्मेलन में वो बोल पड़े ”अरे कई रे बब्बू तू यहां कई करि रियो हे। देखो रे लोगों ये उज्जैन से कवि सम्मेलन सुनने आ गिया हे्र। “ तो भावसार बा ना सिर्फ मंचीय मालवी कवि थे बल्कि वे एक बेहतरीन कवि थे। उनसे मालवी सुनना पूरी उस परंपरा को जानना था जो इस इलाके मे बसती है। अब वो मालवी गायब है वो मिठास गायब है। दरअसल आपस में वो मिठास ही नहीं बची तो भाषा में कैसे बचेगी वो मिठास।

गज्जू अपने में मस्त रहने वाले जीव थे। ना किसी के लेने में न किसी के देने में। पर उनकी पत्नी को सारी दुनिया से लेना था। वे हर प्रपंच में लिप्त रहना चाहती थीं और इसीके चलते वे अपने बेटों से आखिर तक कुछ ज्यादा उम्मीदें पाली रहीं। वे ठेठ गांव की थी पड़ना लिखना कुछ हुआ नहीं पर वे इस परिवार के सबसे अधिक पढ़े लिखे आदमी के साथ ब्याही गईं। उनके पिता उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के सराय नाम के गांव में जमीनदार थे। बामन जमीन्दार एक अलग नसल होती है जो वे थे। उनके पास कई बीघा जमीन थी जिन पर वे गंगा नहर से बढ़िया धान की पैदावार करते रहे। गेहूं भी उम्दा किसम का और आम की अमराइयां थीं। उनके पिता यानि गज्जू के ससुर व्यावहारिकता में बहुत ही दमदार थे। जमींदारी उन्होंने बाद को विनोबा भावे के प्रभाव में छोड़ी भूदान कर दिया था उन्होंने। उन्होंने कपडे पहनना कम से कम कर दिया था। वे बस एक धोती पहनते थे बस। सो भी चरखे से कातकर वे उसका कपड़ा बनवाते और वही धोती पहनते।

उनकी तीन बेटियां थीं एक को कानपुर में ब्याहा मास्टर थे उनके बडे़ दामाद पास के गांव में खेती भी थी उनकी। दूसरी बेटी एकदम किसान के यहां ब्याही जो पास के गांव भीमसेन कैंधा के थे। कैंधा वाले दामाद बहुत ही समझदार और शानदार किसान हैं। चकबंदी में उन्होंने पूरे गांव की जमीन उस तरह बांटी कि सबको चौकोर और समतल खेत मिले। वे बढ़िया धान पैदा करते और उसे मंडी में अच्छे दाम पर बेचते। आम की अमरूद की बहुत ही उपजाऊ बगिया थी जिसे बाद में उनके बड़े बेटे ने संभाला।

छोटी वाली के लिए कुछ अलग सा दामाद चुना। ये दामाद एकदम शहर के कालेज में प्रोफेसर थे। उमर थोड़ी सी ज्यादा थी। बड़ी बहन ने पूछा था पिता से कहीं दुहाजू तो नहीं है। पता चला नहीं पढ़ने लिखने में उमर निकल गई एम ए से भी ज्यादा पढ़े हैं। बारत बहुत ही दिलचस्प पहुची थी। पतारा स्टेशन तक ट्रेन से जो कि लगभग चौदह घंटे की सवारी और फिर वहां से बैलगाड़ियों से सराय गांव पहुचा गया। ट्रेन का पूरा डिब्बा हल्ले गुल्ले से गुलजार रहा और फिर जब सजी बजी दस बैलगाड़ियों में बाराती चले तो वो एक अलग ही आनंद था। प्रोफेसर साहब जितने पढ़े लिखे थे उनकी दुलहिन लगभग बिलकुल पढ़ी नहीं। पर अक्षर ज्ञान था उन्हें। और बहुत व्यावहारिक। ये वे ही थीं जिनके दम पर प्रोफेसर साहब के चारों बेटे अच्छा बढ़िया पढ़े। एक इंजीनियर, एक प्रोफेसर फिजीक्स के और छोटे दो डाक्टर। जब तक रहे हो होशोहवास में गजपति तब तक ये चारों भी एक थे पर धीरे धीरे दरार यहां भी पड़ी आपस में नतीजतन या कहें नौकरी के चक्कर में चारों अलग अलग शहरों में रहते रहे। पहले वार त्योहार या यूं भी इकठ्ठा होते रहे चारो परिवार समेत। बल्कि गजपति ने अपने सामथ्र्य और चारों की मदद से पांच कमरे एक हाल वाला मकान भी बनवाया पर वह ज्यादातर सूना रहा।

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