Aughad ka daan - 9 in Hindi Moral Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | औघड़ का दान - 9

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औघड़ का दान - 9

औघड़ का दान

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग-9

ऑफ़िस का शेष समय भी ऐसी ही तमाम बातों के कहने सुनने में बीत गया। छुट्टी होते ही वह चल दी घर को। बड़ी जल्दी में थी। इस बार भी उसके द्वारा पिछली बार का इतिहास दोहराया गया। मगर तमाम कोशिशों के बाद इस बार वह पहले की तरह जुल्फी को चैन से सुबह तक सुला न सकी। तमाम नानुकुर की लेकिन जुल्फी पुत्रोत्पत्ति के लिए अपने हिस्से की सारी मेहनत करके ही माना। और मेहनत करने के बाद कुछ ही देर में सो गया। सोफी की आंखों में नींद थी, वह सोना भी चाहती थी मगर हिमांशु का चेहरा उसे जबरिया जगाए जा रहा था। और नींद आंखों में जलन कड़वाहट पैदा किए जा रही थी। मानो हिमांशु और नींद में जीतने की जंग छिड़ गई थी। नींद उसे सुला देना चाहती थी हिमांशू की यादें उसे अपने में समेट लेना चाहती थी।

आखिर हिमांशु की यादें जीत गर्इं और सोफी उतर गई यादों के सरोवर में। पैठती गई, गहरे गहरे और गहरे। वहां उसे बचपन की वह दुनिया हर तरफ नज़र आई जहां उसने जीवन के करीब उन्नीस वर्ष बिताए थे। एच.ए.एल विभाग की उस कॉलोनी के विशाल परिसर में फैक्ट्री के अलावा बड़ी संख्या में बहु मंजिले आवास बने हुए थे। कुछ छोटे, कुछ बड़े, जिन में से करीब हर पांचवां मकान खाली ही रहता था। क्योंकि कुछ लोगों को बाहर किराए पर रहना ज़्यादा फायदेमंद लगता था।

कॉलोनी के अन्य बच्चों की तरह वह भी कैंपस में ही बने स्कूल में पढ़ती थी। और उन्हीं के साथ शाम को खेलती भी थी। हिमांशु भी उसके साथ खेलता था। बेहद दुबला, पतला लेकिन कुछ ज़्यादा ही आकर्षक नैन नक्स वाला था। मगर न जाने क्यों वह अन्य लड़कों की अपेक्षा स्कूल से लेकर कॉलोनी में खेलने तक उसके साथ ज़्यादा से ज़्यादा करीब रहने की कोशिश करता था। कैसे स्पर्श कर सके इसका मौका ढूढ़ता रहता था। नजरें मिलने पर बस देखता रह जाता और हौले से मुस्कुरा देता। इस पर वह भी नज़रें चुराती हुई मुस्कुरा पड़ती थी। क्योंकि उसके मन में भी उसको देखते ही न जाने क्या कुछ चल पड़ता था, उसे वह बहुत अच्छा लगता था, उसके करीब ज़्यादा रहने का उसका भी मन करता था।

जल्दी ही वह बेहिचक उसका हाथ पकड़ने लगा। उसे अपने से चिपका लेता, उसके गालों को चूम लेता, हाथ बदन के कई हिस्सों तक पहुंचा देता। तब वह जल्दी ही अपने को छुड़ा कर चल देती थी, लेकिन मन में और देर तक यह होते रहने देना चाहती थी। मगर डर और संकोच उसे तुरंत भगा ले जाते। यह चंद दिनों तक ही रहा, उसकी भी हिम्मत बढ़ गई। इस बढ़ी हिम्मत के चलते गर्मी की छुट्टियों में वह और करीब आ गए। हर बार की तरह कॉलोनी के काफी बच्चे अपने-अपने गाँवों या पैतृक घरों को चले गए थे। लेकिन फिर भी बहुत से रह गए थे। इन दोनों का भी परिवार किसी वजह से नहीं गया था।

मई, जून की तेज़ गर्मियों के चलते बच्चों के मां-बाप देर शाम सूर्यास्त होने के बाद ही उन्हें निकलने देते थे। उस दिन भी ऐसा ही हुआ। कुछ दिन पहले ही दोनों का रिजल्ट आया था। जिसमें दोनों ने ही आठवीं कक्षा अच्छी पोजिशन में पास की थी। जिससे घर में कुछ ज़्यादा ही लाड़ प्यार मिल रहा था। और खेलने कूदने का ज़्यादा मौका। इसी के चलते दोनों काफी देर खेल कूद में लगे थे। और भी दर्जनों बच्चे थे जो कई गुट में बंटे अलग-अलग खेलों में व्यस्त थे। इनका गुट छिपने-ढूढ़ने के खेल में व्यस्त था। सब छिप जाते थे, कोई एक सबको ढूढ़ता था, इस क्रम में कोई छिपा हुआ यदि ढूढ़ने वाले के टीप मार देता तो वह फिर ढूढ़ने लगता। छिपने के लिए तीन मंजिले ब्लॉक अच्छी जगह थे, बच्चे वहीं छिपते थे जो खाली पड़े थे। कहीं सीढ़ियों के नीचे खाली पड़ी जगह में तो कहीं एकदम ऊपर छत पर।

उस दिन वह भी छिपी थी सीढ़ियों के नीचे खाली पड़ी जगह में कि तभी हिमांशु भी आ पहुंचा छिपने के लिए। फिर तभी ढूढ़ने वाले लड़के की आहट मिली तो वह एकदम सटकर छिप गया। वह लड़का आया इधर-उधर देखा, ऊपर भी गया और किसी को न पाकर चला गया वापस, तो उसने भी उस जगह से उठ कर जाना चाहा लेकिन हिमांशु ने कसकर पकड़ लिया और चूम लिया उसके गालों पर कई जगह। वह रोमांचित हो उठी और छूटकर जाने की कोशिश भी इस रोमांच में विलीन हो गई। उसने भी उसे पकड़ लिया। उसका सहयोग मिलते ही हिमांशु निश्चिंत हो गया और एक मासूम बादल सा अपनी सोफी पर बरस गया। एक आश्चर्यजनक अनुभव से गुजरने के बाद दोनों चल दिए अपने-अपने घरों को क्योंकि शाम ढल चुकी थी, धरा पर उतरने ही वाला था अंधियारा और लोगों ने शुरू कर दिया था लाइट्स जलाना।

घर जाते वक़्त सोफी को गीलापन बहुत लिजलिजा अहसास दे रहा था। देर से घर पहुंचने पर मां से झिड़की भी मिल गई। इसके बाद तो दोनों एक आध हफ्ते में अक्सर मौका निकाल ही लेते थे मिलने का। फिर बारिश का वह दिन भी आया जो उनके मिलन का आखिरी दिन साबित हुआ। मानसूनी बारिश को शुरू हुए हफ्ते भर हो गए थे। उस दिन भी शाम होने से कुछ पहले तक बारिश होती रही। मौसम अच्छा खासा खुशगवार हो गया था। लोग घरों से बाहर थे, बच्चे भी खेलने-कूदने निकल चुके थे।

कई दिन बाद आज फिर दोनों ने मिलने का मौका निकाल लिया था। हिमांशु तब फिर बरसा था लेकिन पहले की तरह सोफी के तन पर नहीं, बरस गया था उसके भीतर ठीक बाबा और जुल्फी की तरह। दोनों इस अहसास से ऐसे खिल उठे थे जैसे दिन भर बारिश के बाद गर्मी से राहत मिलते ही खिल उठे थे लोगों के चेहरे और फैक्ट्री परिसर में भारी संख्या में लगे पेड़, पौधे, फूल, पत्ते।

सोफी जब घर को चली तो उसे लग रहा था कि जैसे क़दम जमीन पर नहीं हवा में ही पड़ रहे हैं। उस अहसास से वह बाहर ही नहीं आ पा रही थी जो कुछ देर पहले तन के भीतर हिमांशु का कुछ रेंग जाने के कारण हुआ था। इस अहसास ने उसे बहुत देर रात तक सोने न दिया था। इस बीच उसे दर्द की एक लहर के गुजर जाने का भी अहसास बराबर हो रहा था।

सुबह उसे आंखों में तेज़ जलन महसूस हुई जब उसे अम्मी ने झकझोर कर उठा दिया था। कमर के आस-पास के हिस्सों में दर्द का भी अहसास हुआ तभी अम्मी दबी अवाज़ में बोली थी ‘यह सब हो गया और तू घोड़े बेच कर सोती रही ..... चल जा बाथरूम जा कर नहा।’ अम्मी की इस बात से उसका ध्यान धब्बों भरे अपने कपड़े और बेडशीट पर गया। वह डर से थरथरा उठी कि हिमांशु और उसके मिलन का तो यह परिणाम नहीं जिसका भेद अम्मी के सामने खुल गया। वह आंखों में आंसू लिए गिड़गिड़ाई ‘अम्मी मैंने कुछ नहीं किया।’

‘हां ... मुझे मालूम है क्या हुआ है। एक दिन सारी लड़कियों को इस रास्ते से गुजरना होता है। जा पहले, इसको भी ले जा ठीक से नहा धोकर वह सब साफ कर के आ और हां यह भी ले जा।’ कुछ और भी भीतरी कपड़ों के साथ प्रयोग करने के लिए देते हुए उसने कान में भी कुछ कहा। अम्मी की बातों से उसे यकीन हो गया कि उसकी और हिमांशु की बात खुली नहीं है। बात तो कुछ और है जिसके बारे में अस्पष्ट सी बातें कभी-कभी सुन लिया करती थी। जब वह लौटी तो अम्मी ने विस्तार से सब बता कर हिदायत दी कि अब हर महीने चार-पांच दिन ऐसा रहेगा। अब कहीं भी बाहर अकेले नहीं जाना।

सचमुच कितनी खुश थी वह कि कई तकलीफों के बावजूद उसकी चोरी पकड़ी ही नहीं गई। मगर यह खुशी एक दो दिन बाद ही खत्म हो गई थी क्योंकि हिमांशु से मिलने के सारे रास्ते बंद हो गए थे। यहां तक कि स्कूल भी बंद था। इस बीच उसने कई बार उसे अपने घर के पास मंडराते देखा। फिर दस दिन बाद वह खराब दिन भी आ गया जब वह उसके घर आ गया सबसे मिलने के बहाने। उससे मिलने और यह बताने कि उसके फादर का ट्रांसफर बंगलौर हो गया है और सभी लोग लखनऊ छोड़ बंगलौर जा रहे हैं। उस समय उसने कुछ क्षण अलग मिलने की तड़प उसकी आंखों में देखी थी। मगर परिवार के सब लोग आगे थे। वह पीछे थी और हाथ मलती रह गई थी। उसके जाने के बाद उसने सबसे छिप- छिपाकर छत पर बड़ी देर तक आंसू बहाए थे। यह सिलसिला फिर कई रातों तक चला था। हिमांशु से बिछुड़ने का असर उसके व्यवहार और फिर पढ़ाई पर भी पड़ा था।

बचपन का अध्याय पूरा करते-करते सोफी की आंखें भर आई थीं। आखिर में उसके दिमाग में आया कि यदि हिमांशु न बिछुड़ता तो निश्चित ही वह आज उसके साथ होती। यह बात दिमाग में आते ही उसकी नजर घूम कर बगल में पड़े खर्राटे भर रहे जुल्फी पर जा पड़ी। अचानक ही वह बुदबुदा उठी और यहां जुल्फी नहीं हिमांशु सो रहा होता। कितना मासूम, कितना नेक था। न जाने अब कहां होगा, कैसा होगा। सोफी ने फिर आँखें बंद कर लीं कि शायद नींद आ जाए और कुछ राहत मिले। मगर उसे राहत मिली करीब डेढ़ महीने बाद।

***