Nidi in Hindi Classic Stories by Nirdesh Nidhi books and stories PDF | नीडी

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नीडी


“ नीडी “
“आप, यहाँ ?”
नीरू दी को अकस्मात अपने गाँव में देखकर वो विस्मित हो उठे । नीरू दी ने दृष्टि उठाई तो प्रश्न कर्ता को क्षण भर में पहचान कर बस देखती ही रह गईं, उनकी खुद की स्थिति भी प्रश्न कर्ता की तरह ही हो गई । उन्हें भी सहसा अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ , कि इतने बरसों का खोया हुआ धैर्य आखिर यहाँ इस गाँव में कैसे मिल गया । कुछ देर तक दोनों के मध्य एक विचित्र सी, सुखद सी , अलौकिक सी, न जाने कैसी चुप्पी छाई रही । नीरू दी को उनका प्रश्न ज़रा भी महत्व का नहीं लगा था, जो महत्व का था उन्होने बड़ी ही व्याकुलता और अधिकार के साथ पूछा था,
”क्यों चले गए थे उस दिन तुम बिना बताए?” पंद्रह बरसों के लंबे अंतराल का तो जैसे कोई अस्तित्व ही ना हो, और वो अभी कल परसों ही गए हो।
“इतने बरसों बाद मिली हैं, प्लीज़ पहला प्रश्न ही इतना कठिन मत पूछिये, कठिन प्रश्नो को तो मैं हमेशा से बाद में ही हल करता आया हूँ, अगर आपको याद हो तो। “ धीर, गंभीर धैर्य भैया ने अपने विशेष अंदाज़ में अपना सिर झुका कर विनीत स्वर में कहा ।
“हाँ याद है, एक – एक बात याद है।“ नीरू दी ने अपने कंपकंपाते हाथों को एक दूसरे का संबल देते हुए, अपनी व्याकुलता पर अंकुश रखने का पुरजोर प्रयास करते हुए बोला था । फिर थोड़ा रुक कर पूछा था,
“बोलो कैसे हो ?”
”कैसा लगता हूँ?” धैर्य भैया ने धीमे से पूछ लिया था।
“अभी तक गई नहीं तुम्हारी प्रश्न पर प्रश्न दागने की आदत ?” नीरू दी ने भावुकता की मथनी में मथकर मक्खन सी नरम पड़ गई आवाज़ को थोड़ा सा साधकर उलाहना दिया था ।
“नहीं, कोई आदत नहीं गई, या मैंने उन्हें जाने नहीं दिया।“ बड़ी दृढ़ता से बोले थे धैर्य भैया ।
नीरू दी का अभी तक, धैर्य भैया के इस तरह अकस्मात मिल जाने का आश्चर्य गया नहीं था पर वो स्वयं पर खासा नियंत्रण रखते हुए बोलीं थीं,
“तुम देखने में तो एकदम बदल गए हो धैर्य । “
“ये तो परिवेश का निश्चित वाला असर है वरना .... बदला कुछ भी तो नहीं ।“ धैर्य भैया ने एक तरफ गर्दन झुका कर बोलने वाले अपने विशेष, अंदाज़ में विनम्र उत्तर दिया था । नीरू दी सब कुछ पल भर में जान लेने के लिए बेचैन हो उठी थीं । उनके मन में इतने बरसों हर दिन बिना नागा एक काश जन्मता रहा था कि, काश उस समय बिछड़ा हुआ धैर्य अब मिल जाता कहीं।
“बोलो कहाँ थे अब तक ?” उनके मुंह से साधिकार यह प्रश्न, निकल पड़ा था । जैसे धैर्य भैया के लिए ये बताना ज़रूरी हो उन्हें कि वो कब – कब, कहाँ - कहाँ थे । धैर्य भैया ने तो यह अधिकार उनके अंजाने उन्हें दे ही रखा था अतः उनका यह साधिकार, अदृश्य सी शिकायत भरा प्रश्न बहुत भाया था उन्हें जिसका उत्तर देने के लिए पल को धैर्य भैया ने अपनी दृष्टि नीरू दी की ओर उठाई और पूर्ण उत्तरदायित्व व गंभीरता के साथ उत्तर दिया था कि,
“यहीं था, अपने गाँव में , यही है मेरा गाँव मोरना जिसे मैं आपको बरसों पहले दिखाना चाहता था ।“
“इतना पढ़े - लिखे, यहीं पड़े हो धूल मिट्टी हो जाने के लिए ?” न जाने क्यों रोक नहीं पाईं थीं नीरू दी स्वयं को ऐसा कहकर असंतोष जताने से ।
“धूल - मिट्टी भी जीवन के पंचतत्वों में कम से कम एक तो है ही ।“ उन्होने अपने विशेष अंदाज़ में अपना सिर एक तरफ झुकाकर उत्तर दिया ।
“ओह धैर्य , तुम्हारी ये पुरानी दार्शनिकता, समय का खाद पानी ले काफी फल - फूल गई होगी अब तक ।“ नीरू दी ने मासूम सा कटाक्ष किया था । धैर्य भैया भी कहाँ रोक सके थे स्वयं को, दी से दुबारा यह पूछने से कि
“आप यहाँ कैसे ?”
उत्तर में नीरू दी ने बताया था कि ,उन्होने हाल ही में किसी के बदले धैर्य भैया के गाँव के पास रवीन्द्रनगर गर्ल्स डिग्री कॉलेज में प्रवक्ता के पद पर स्थानांतरण लिया था और उस दिन से उनके गाँव में सप्ताह भर के लिए एनएसएस का कैंप शुरू हो रहा था नीरू दी का ।
“पर आप तो अकेली हैं धैर्य भैया ने तत्परता से पूछा था ।“
“अकेली नहीं हूँ छात्राएँ गाँव में गईं हैं स्वास्थ्य, सफाई आदि के लिए जागरूकता फैलाने, मैं यहाँ इस पोखर के किनारे साँझ की ढलती धूप के सौन्दर्य का आनंद उठाने का लोभ संवरण नहीं कर पाई, और यहाँ से जा ही नहीं सकी लंच के बाद ।“ यह कहकर बुदबुदाईं कि, “यहाँ रुकना तो काम आ गया ।“
बरसों पहले नीरू दी को खो देने की निराशा के निविड़ अंधकार में आज तिल भर ही सही, आशा का उजास देखकर बात आरंभ करने का कोई विषय सहज ही किंकर्तव्यविमूढ़ धैर्य भैया को सूझा नहीं था, अपने संकोच की सरसराहट में बस यही पूछ पाए कि,
“आपने कभी गाँव नहीं देखा था न, कैसा लगा आपको गाँव ?”
“इतना सुंदर होता है गाँव ? ये पोखर और साँझ पड़े से पहले ही इस पर तैरता ये सफेद बादलों सा कोहरा, कोहरे और पानी दोनों के बीच तैरती ये बत्तखें जिनके सामने शहरों के तरण तालों पर तैरती लड़कियां भी कुछ नहीं हैं धैर्य । “ न जाने किस रौ में बोलती चली गईं थीं नीरू दी जैसे धैर्य भैया से इतने लंबे अंतराल के बाद आज पहली बार न मिलकर जन्मों से बस यूं ही मिलती आ रही हों बत्तखों भरी इस पोखर के किनारे ।
“ये कुछ ज्यादा नहीं हो गया ?” धैर्य भैया ऐसा कह कर अपनी कंजूस मुस्कान मुस्कुराए।
अभी बातें ठीक से आरंभ हुई भी नहीं थीं कि नीरु दी की विद्यार्थियों के झुंड एक - एक कर शोर मचाते हुए आ पहुंचे। नीरू दी और धैर्य भैया की लंबे अंतराल के पश्चात असंभव सी लगने वाली भेंट संभव हुई तो पर कुछ ही देर में सिमट गई । परंतु अब तो नीरू दी को सप्ताह भर हर दिन आना ही था धैर्य भैया के गाँव सो आज किसी निराशा को गले लगाना कतई न्यायसंगत नहीं था । छात्राएँ एक - एक कर बस में चढ़ चुकीं थीं अब नीरू दी की बारी थी, धैर्य भैया के मुंह से अधीर सा एक प्रश्न निकला ।
“कल कितने बजे आएंगी नीडी ?” भावातिरेक और मन ही मन हरदम दौहराते रहने के कारण उनके मुंह से नीरू दी के लिए बरसों पुराना रहस्यमय सा सम्बोधन “नीडी” स्वतः ही निकल पड़ा था । अपने लिए यह ऐतिहासिक सा सम्बोधन सुनकर नीरू दी निरुत्तर ही रह गई थीं और कॉलेज की बस ने रफ्तार पकड़ ली।
नीरू दी ने पंद्रह बरस पहले जिन अनुभूतियों के अस्तित्व को निश्चित क्या अनिश्चित रूप से भी स्वीकारा नहीं था कभी, आज धैर्य भैया से मिलकर वो सबकी सब मुखर हो अपनी सत्ता स्थापित करने उनके मन पर दृढ़ता से आ डटीं थीं । धैर्य भैया के लिए उन्होने अपनी जिन भावनाओं पर इतने बरसों तक नकेल कस कर रखी थी आज उन सब ने जैसे स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए क्रांति का उद्घोष कर दिया था। घर लौट कर उन्हें लगा कि उनकी काया धरती के गुरुत्व को धता बता तैरती फिर रही थी बस यूं ही यहाँ से वहाँ । हृदय बार – बार हिलोरें ले रहा था, उस दिन नीरू दी का एक पल भी तो उनके खुद के साथ नहीं बीता था बस डूबीं रहीं थीं धैर्य भैया की उन गहरी काली आँखों के सम्मोहन के अथाह समंदर में , जब ज़रा सी उसकी सतह पर आतीं तो बरसों पुरानी सब यादें एक - एक कर कोमल कोपलों सी अजात खुलने लगतीं । नीरू दी को याद आ रहा था अपना छोटा सा शहर, अपना और सुधा दी का मध्यम वर्गीय परिवार और घर और इन सबके बीच बुरी तरह याद आ रहे थे धैर्य भैया ।
धैर्य भैया, नीरू दी की अंतरंग सहेली सुधा दी के भाई, राजू भैया के साथ उनके ही कमरे में पेइंग गेस्ट की हैसियत से रहते थे । परिवार में पूरी तरह घुल मिल गए थे वो शालीन से ग्रामीण , कुछ - कुछ दार्शनिक से, आधे गंभीर, आधे वाचाल से किशोर, धैर्य भैया । सुधा दी और नीरू दी ने उस बरस एमएससी मैथ्स करने के बाद पीएचडी में रजिस्ट्रेशन कराया था । राजू भैया और धैर्य भैया ने इंटर के साथ - साथ इंजीनियरिंग की परीक्षा पास की थी । दोनों एक से बढ़कर एक प्रखर बुद्धि थे । पलक झपकते ही नीरू दी, सुधा दी की बड़ी कक्षा के प्रश्नों को भी हल कर देते । अतः चारों का आपस में संवाद बना रहता । बड़ी - बड़ी हिरनी सी आँखों वाली सामान्य कद काठी वाली गेहुआँ रंग की नीरू दी जैसे ही सुधा दी के घर में प्रवेश करती धैर्य भैया के शब्द जैसे किसी खोह में जा दुबकते परंतु उनकी गहरी काली आँखों में खुशी की जगमगाहट किसी और को न सही मुझे तो साफ - साफ दिखाई देती । वो कम ही सही पर जितना भी बोलते, हमेशा के लिए दिल की भीतरी तह तक समा जाने वाला बोलते। उनकी छोटी वयस की बड़ी समझ पर नीरू दी आश्चर्य में भरकर जब अपनी बड़ी -बड़ी आँखेँ उठाकर उनकी ओर देखती तो वो संकोच से भर कर अपनी आँखों के साथ - साथ धीरे से अपनी गर्दन भी झुका लेते, पर जब कोई बात कहनी होती तो तपाक से बोल भी देते । लेटे - लेटे नीरू दी को वह दिन याद हो आया जब सुधा दी के पापा उनकी बड़ी बहन के लिए कोई लड़का देख कर लौटे और उनकी माँ से बड़े निराश होकर बोले थे, राजू की माँ ये लड़का तो हमारी उर्मी से उम्र में छोटा निकला, सो वहाँ भी बात नहीं बन सकी । तब धैर्य भैया क्षण से पूर्व ही बोल पड़े थे,
“क्या फर्क पड़ता है अंकल जी, किसी एक को तो छोटा होना ही पड़ता है ।“
जिसके उत्तर में सुधा दी की मम्मी ने राजू भैया को संबोधित करते हुए कहा था, “राजू अपने कमरे में जाओ अब तुम दोनों, जाओ पढ़ लो जाकर ।“ और वो दिन , जब नीरू दी सहित सुधा दी की कई सहेलियाँ गाँव के विषय में बाते कर रहीं थीं और नीरू दी ने यूं ही कह दिया था कि,
“मेरा बड़ा मन है गाँव देखने का ।“ उनकी बात सहेलियों के बीच तो शोर में गुम होकर रह गई थी । पर उनका कहा एक – एक शब्द दूर वरांडे में ट्यूशन के लिए लेट हो रहे जल्दी – जल्दी जूते के फीते बांधते धैर्य भैया तक निर्बाध पहुँच गया था । अगले दिन धैर्य भैया ने नीरू दी से कहा था,
“आप गाँव देखना चाहती हैं ना, मैं दिखा सकता हूँ आपको अपना गाँव, “मोरना” ।“
“धैर्य, इतने शोर में इतनी दूर से तुम्हें मेरी बात सुनाई कैसे दे गई !” नीरू दी ने आश्चर्य से पूछा था।
“जब आप बोलती है तो आपकी बात के सिवा मुझे और कुछ सुनाई ही नहीं देता।“ धैर्य भैया ने उनके लिए बिना किसी सम्बोधन अपनी गर्दन झुकाकर, उनकी तरफ देखे बगैर धीमी, लेकिन स्पष्ट आवाज़ में कहा था । उस दिन नीरू दी को निःशब्द होते, अपने दिल से खुद झगड़ते हुए मैंने स्वयं देखा था। मुझे सामने देख, उन्होने सहज होकर कुछ बोलने का असफल प्रयास भी किया था। अरे हाँ मैं कौन ? मैं नीरू दी की माया चाची की बेटी नियाँ ।
उस पूरी रात नीरू दी अपनी अनगिनत यादों के धागे बुनती और उधेड़ती रही थीं । पकी वयस की बीच राह पर खड़ी दी के मन में जैसे किसी किशोरी की बेचैन अनुभूतियाँ आ समाईं थीं, तभी तो सुबह से ही धैर्य भैया से मिलने के लिए कैसा अकुला उठा था उनका मन । गाँव में एनएसएस के कैंप का वो दूसरा दिन था । धैर्य भैया फिर वहीं मिले थे नीरू दी को, बत्तखों से भरी पोखर के किनारे, माघ के घने कोहरे को भेदने की मशक्कत करती मरियल धूप के साथ । धैर्य भैया की स्निग्ध त्वचा पर चढ़ा गोरा रंग गंवई वातावरण में उनकी आयु के समानान्तर चल ताँबई रंग की प्रौढ़ता ओढ़ चुका था । परंतु उनकी गहरी काली किशोरी आँखों का सम्मोहन गत पंद्रह बरसों में अपने आप को तराश कर और भी जीवंत हो उठा सा लगा था नीरू दी को । छात्राएँ गाँव में जा चुकीं थीं । नीरू दी और धैर्य भैया वहीं पोखर के किनारे कैंप के टेंट के बाहर पड़े मूढ़ों पर बैठ गए । चुप्पी धैर्य भैया ने तोड़ी,
“इस गाँव में जागरूकता फैलाने के लिए कुछ मिलेगा नहीं आपको ।“ बड़े ही सामान्य तरीके से बोले थे वो ।नीरू दी उनके इस तरह बोलने पर उनकी तरफ देख कर यही सोच रहीं थी कि पुरुष अपनी भावनाओं को किस कदर अपनी मुट्ठी में कस सकता है जबकि मैं स्वयं हूँ कि चाह कर भी कोई शब्द मुंह से निकाल नहीं पा रही, जैसे जकड़ लिया हो किसी ने मेरे शब्दों को । कभी सोचतीं कि धैर्य को अब मुझसे वैसा प्रेम रहा ही कहाँ होगा जो उस पर भावनाएँ इस कदर हावी हो जाएँ जैसे मुझ पर हो रही हैं । उसकी अपनी दुनिया होगी , मेरा अस्तित्व तो अब बचा ही कहाँ होगा उसमें। कि धैर्य भैया के अगले वाक्य ने उनकी यह उहापोह तोड़ी,
“यहाँ इतने बरसों से यही तो कर रहा हूँ मैं ।“ नीरू दी की प्रशंसात्मक दृष्टि उन पर गई तो उन्होने अपने परिचित अंदाज़ में अपना सिर एक तरफ झुका लिया । नीरू दी उनके विषय में पल में सब कुछ जान लेना चाहती थीं अतः उन्होने खुद के शब्दों की जकड़न को जबरन खोल कर धीमी आवाज़ में ही सही, पर धैर्य भैया पर प्रश्नो की झड़ी लगा दी ।
“परिवार के साथ रहते हो यहाँ ?” सबसे पहले यही पूछा था उन्होने, शायद परिवार का होना, या न होना उनके लिए सबसे महत्व का था अतः वही सबसे पहले जान लेना चाहती थीं ।
“हाँ ।“ संक्षिप्त सा उत्तर दिया था धैर्य भैया ने, इतना संक्षिप्त कि नीरू दी की जिज्ञासा प्यासी की प्यासी ही रह गई थी ।अतः फिर दूसरा प्रश्न परिवार से ही जुड़ा पूछ लिया था उन्होने ,
“परिवार वालों को गाँव में रहने से कोई एतराज़ नहीं ?”
“नहीं, ऐतराज क्यों ?” उनका फिर से संक्षिप्त उत्तर नीरू दी की जिज्ञासा शांत नहीं कर सका था ।पर अब नीरू दी परिवार पर और प्रश्न पूछने का साहस नहीं जुटा सकीं थीं, अतः उन्होने विषय बदल कर पूछा था,
“तुम्हारी एनवायरमेंटल इंजीनियरिंग का क्या हुआ धैर्य ?”
“वो तो तभी हो गई थी ।“ उन्होने उत्तर दिया।
“हमेशा गाँव में ही रहने का विचार है ?” नीरू दी को और कुछ नहीं सूझा तो बस यही पूछ लिया ।
“आपके इस प्रश्न का उत्तर तो काल के गाल में ही है बस, क्यों कि मैंने तो यहाँ इतना रहना भी प्लान नहीं किया था ।“ धैर्य भैया के उत्तर में उनकी दार्शनिकता उभर आई थी । ऐसी ही कुछ अस्तित्व में आई और अनेक अनकही रह गई बातों में माघ की उस मरियल धूप को सांझ ने जल्दी ही अपने डेनों में समेट लिया । शहरी कारवां कल फिर आने के लिए वापस लौट गया। परंतु अगले चार दिनो के लिए धैर्य भैया को पर्यावरण संबंधी किसी बैठक में भाग लेने जाना था अतः उन चारों दिनों नीरू दी से उनका मिलना संभव नहीं हो सका । परंतु धैर्य भैया से मिलने के बाद नीरू दी को यह एहसास हो गया कि पंद्रह बरस पूर्व जिस धैर्य को आयु के अंतर के कारण उनके मस्तिष्क ने कभी गंभीरता से नहीं लिया था, दिल ने उसकी सारी बातों को खुद पर उकेर कर रख लिया था । साधारण से साधारण घटना भी जैसे सुरक्षित थी उनके हृदय के स्पंदनों में और उन्हीं की तरह थी निरंतर भी । नीरू दी कैसे भूल सकती थीं जब उनके विवाह की बात चल रही थी तो धैर्य भैया ने कितने अधीर होकर पूछा था ,
“आप इतनी जल्दी कर लेंगी शादी ?”
“माँ - बाबूजी कहेंगे तो करनी ही होगी।“ दी ने तपाक से उत्तर दिया था ।
“पर कहते हैं न कि इंतजार का फल मीठा होता है।“ धैर्य भैया ने मासूमियत भरी गंभीरता से कहा था ।
“हाँ, जरूर होता होगा पर क्यों और किसका करूँ इंतज़ार ?” कहकर नीरू दी धैर्य भैया की भावनाओं को निर्ममता से खारिज करती हुई बड़ी ज़ोर से खिलखिला कर हंसीं और सुधा दी के साथ चाय बनाने किचन में चली गई थीं।
धैर्य भैया शब्दों का सहारा कम ही लेते , हाँ अपनी काली आँखों की तेज़ धार से तराश कर अनकहे शब्दों को शालीनता में लपेट कर जब हौले से नीरू दी की ओर उछालते तो बिना रुकावट, पल में मनचाहा सब कुछ कह जाते । नीरू दी से पाँच - छह बरस छोटे नई - नई कोपलों सी मुलायम दाढ़ी - मूँछों वाले, कोरे - कोरे से किशोर धैर्य भैया आखिर उनसे क्या कहना चाहते थे, वो बेचारी भी निश्चय कैसे कर पातीं ? अगर निश्चय कर भी पातीं तो भी किस बिना पर स्वीकार करतीं उनके उस अनकहे, अल्हड़ प्रेम को ? क्या पता बड़े होकर उनके भविष्य और चरित्र दोनों का ऊंट किस करवट बैठने जा रहा था, आखिर प्रेम इस कदर अदूरदर्शी तो नहीं हो सकता था नीरू दी की समझ में कि जो कहीं भी, किसी से भी और कभी भी हो सकता हो । भविष्य को सुरक्षित करके आगे बढ़ने की नीरू दी की मध्यमवर्गीय सोच, विशुद्ध प्रेम पर भारी पड़ गई थी । फिर भी कभी - कभी नीरू दी के मन में जन्मे धैर्य भैया के प्रेम के विरोधी सारे तर्क उनकी किशोरी आँखों से झरते प्रेम की बाढ़ में बहते से लगते और उनका मन अंजान सी हलचल के भंवर में चक्कर खाने लगता । धैर्य भैया दृष्टि भर - भर प्रेम की बौछारें उनकी ओर उछालते , सामाजिक नियमों की आयु संबंधी शहतीरों के बीच कैद नीरू दी उन बौछारों के क्षण भर भी खुद पर ठहरने से पहले ही उन्हें उलीचते रहने का अनथक प्रयत्न करतीं । नाकाम हो दिमाग की शरण में जाकर संयत होने का प्रयास करतीं । जो भी हो धैर्य भैया का सानिध्य उन्हें भाता तो अन्तर्मन तक। मैं इसकी प्रत्यक्ष गवाह हूँ, भले ही उस समय मेरी बाल्यावस्था के कारण वो समझती रही हों कि मैं कुछ समझूंगी नहीं पर मैंने सब कुछ समझा ठीक – ठीक, पूरा - पूरा और साफ- साफ । कभी समाज के नियमो के तर्क की कसौटी पर उनके सानिध्य का सुख, अर्थविहीन हो पल में बाजरे के दानों सा इधर - उधर छिटक जाता । परंतु जब धैर्य भैया अपनी दृष्टि की कसी हुई प्रत्यंचा पर चढ़ाकर कच्ची उमर के कोरे - कोरे प्रेम पंगे सम्प्रेषण का तीर छोड़ते तो तर्क से उपजी सानिध्य सुख की अर्थविहीनता को क्षण में धराशाई कर देते। परंतु सब कुछ समझ कर भी कुछ भी ना समझने का प्रमाण देना ही समय की मांग थी नीरू दी के लिए ।
अंततः शारदीय नवरात्रों के अंतिम दिन नीरू दी का रिश्ता किसी प्रवासी भारतीय, संजय बेहट जी के साथ तय हो गया । अगले दिन नीरू दी मिठाई का डिब्बा लेकर सुधा दी के घर सूचना देने आई थीं । मुझे आज भी याद है कि धैर्य भैया ने किस कदर निराशा में डूबी आवाज़ में पूछा था,
“तो फाइनली आप शादी कर ही रही हैं ?”
“हाँ…….” और उस हाँ के बाद उन दोनों के मध्य एक गहरा सन्नाटा पसर गया था। उस दिन नीरू दी ने अपने सपाट उत्तर को धैर्य भैया की डबडबाई आँखों में उतर आई गहरी उदासी में डूबते हुए महसूस किया था और पहली बार उनकी छोटी वयस की कुछ न कर पाने की बड़ी विवशता, कुछ ना कह पाने की विचित्र कातरता से सच्चा साक्षात्कार भी हुआ था उनका । उसदिन शायद पहली ही बार नीरू दी के मन के साथ मस्तिष्क ने भी धैर्य भैया को गंभीरता से लेने का पूर्णतः अनौपचारिक आग्रह किया था, पर अनजानी सी घबराहट से डरकर उन्होने अपनी दृष्टि को धैर्य भैया के चेहरे से बड़ी शीघ्रता से अलग किया था, और उनके सामने से मिठाई का डिब्बा भी हटा लिया था, कुछ ऐसे जैसे उनके दुःख में उन्हें मिठाई खिला कर उनकी वेदना का मखौल उड़ाने का दुस्साहस नहीं करना चाहती थीं वो। जिस दिन नीरू दी की गोद भराई की रस्म थी उसके अगले दिन धैर्य भैया ने बिना किसी पूर्व सूचना के सुधा दी का घर हमेशा के लिए छोड़कर नीरू दी से वो सब कुछ कह दिया था जो वो वहाँ रहकर कभी नहीं कह सके थे । उस दिन स्वयं नीरू दी भी तो कितनी अधीर हो उठी थी उनसे बस एक बार मिल लेने के लिये। मुझे याद है उन्होने उस दिन सुधा दी से दसियों बार कहा था कि,
“सुधा धैर्य को मिलकर तो जाना चाहिए था कम से कम, ऐसे कैसे जा सकता है कोई ?” कितनी उखड़ी - उखड़ी रहीं थीं वो उसके बाद महीनों तक । अक्सर वो राजू भैया के कमरे में जाकर धैर्य भैया की कुर्सी को धीरे – धीरे सहलाने लगतीं । फिर यथार्थवादी होने की ज़िद लेकर अपने विवाह की तैयारियां आरंभ कर दीं थीं ।ये सब खुद देखा था मैंने अपनी दस-ग्यारह बरस की नासमझ आँखों से । तब पूरी तरह समझ नहीं आता था कि धैर्य भैया नीरू दीदी को “नीडी” क्यों कहते थे, उनके सामने इतने चुप-चुप से क्यों रहते थे,या नीरू दीदी की कही-अनकही सब बातों को पूरी करने को इतने तत्पर क्यों हो जाते थे । पर कुछ तो ऐसा था उन दोनों के बीच जो मुझ नन्ही सी बच्ची को अलग सा लगता था, शायद अच्छा सा । इस कहानी का धैर्य भैया के दुबारा मिलने वाला हिस्सा मुझे नीरू दीदी ने खुद बताया था पिछले बरस।
नीरू दी को वो दिन याद हो आया था जब संजय बेहट जी, गोद भराई की रस्म कर अपना प्रेमहीन, नीरस, निर्भाव चेहरा लिए विदेश लौट गए थे। क्षण भर को भी तो उनकी तरफ देखा नहीं था उन्होने । विवाह के लगभग एक माह पूर्व उन्होने अपनी मजबूरी का खुलासा किया था कि विवाह के बाद लगभग दो बरस तक वो नीरू दी को अपने साथ नहीं ले जा सकेंगे । इस मजबूरी का अर्थ या कहें प्रयोजन सबकी समझ से बाहर था अतः उनसे नीरू दी के विवाह के औचित्य - अनौचित्य का द्वंद उनके परिजनों के मध्य देर तक चला था । इसी बीच नीरू दी को डिग्री कॉलेज की यह नौकरी मिल गई थी और संजय बेहट जी उनके जीवन में आने से पहले ही दफा हो गए थे । तब जाना और स्वीकारा था नीरू दी ने धैर्य भैया के अनकहे, अनन्य प्रेम को । किस कदर टूटकर याद किया था उन्होने तब उन्हें कि, पिता के ढूँढे सैकड़ों लड़कों में से किसी एक को भी तो स्वीकार नहीं पाईं थीं वो ।परंतु फिर अपनी यथार्थवाद की ज़िद, सामाजिक दायरों का अस्तित्व और महत्ता समझते हुए संयत कर लिया था खुद को । यही सब याद करते - करते ना जाने कब उनकी आँख लग गई, हड़बड़ा कर उठीं तो शीत में अलसाया सूरज खुद को क्षितिज से बलात ऊपर खींचने की मशक्कत कर रहा था ।
नीरू दी के वो चार दिन धैर्य भैया से बिना मिले, पिछले पंद्रह बरसों से भी लंबे होकर बीते थे। अंततः उस दिन धैर्य भैया लौट आए और कैंप के समापन समारोह में उन पर्यावरणविद को ही मुख्य अतिथि बनाया गया था ।उस दिन उन्होने निश्चय कर लिया था कि एक पल भी वो व्यर्थ नहीं गंवाएंगे और नीरू दी से संबन्धित अपने किसी भी प्रश्न को अनुत्तरित नहीं छोडेंगे । पर नीरू दी पहले ही बोल पड़ीं थीं,
“आज के बाद मैं तुम्हारे गाँव नहीं आऊँगी धैर्य, अपने परिवार से मिलवाने अपने घर नहीं ले चलोगे ?”
“क्या करेंगी घर जाकर ? परिवार के नाम पर तो सिर्फ बाबूजी ही बचे हैं वो भी आज शहर गए हैं, माँ तो पिछले बरस चल बसीं ।“ धैर्य भैया ने थोड़े उदास स्वर में कहा था ।
“पत्नी और बच्चे ?” नीरू दी ने तेज़ हुई धड़कन को नियंत्रित करते हुए उदासी, पश्चाताप, निराशा और विचित्र सी उत्सुकता के साथ पूछा था ।
“वो कहाँ से आएंगे ?” धैर्य भैया ने उनकी ओर प्रश्नवाचक दृष्टि डाली थी ।
“क्यों विवाह नहीं किया?” नीरू दी ने सीने से बाहर उछल आए दिल को जबरन काबू करके पूछा था। “विवाह ? कैसे करता ? बल्कि कहूँ कि कैसे कर पाता ?”
“क्यों सभी तो करते हैं धैर्य ।“ नीरू दी मुश्किल से इतना ही बोल पाईं थीं ।
“हाँ करते तो हैं, लेकिन जिसके शुरुआती नियम ही इतने कठोर हों कि लड़की को हर हाल में लड़के से आयु में कम ही होना पड़ता हो, वरना तो रिश्ता अमान्य । उसके आगे वाले नियमों से मैं डर गया था नीडी ।“
नीरू दी का मन अंजान सी खुशी और आशा से खिल उठा था, इतना कि उन्हें स्वयं पर नियंत्रण रख पाना कठिन हो रहा था । उन्हें लगा कि बरसों पहले, अंजाने ही उनके हाथों छूट गई जीवन की लय का छोर एक बार फिर हाथ आने वाला था ।
“आप विदेश से कब लौटीं ?” धैर्य भैया ने पूछा, बड़े तटस्थ भाव से ।
“विदेश तो मैं गई ही नहीं ।“ नीरू दी ने अपनी विचित्र सी हो गई स्थिति पर काबू करते हुए उत्तर दिया था ।
“तो संजय बेहट जी भारत आ गए ?”
“तुम्हें नाम याद है अभी तक उनका ।“ दी ने आश्चर्य प्रकट किया था ।फिर गंभीर होकर बोलीं थीं , “नहीं, संजय बेहट जी भी भारत नहीं आए।“
“इसका क्या अर्थ हुआ ?” धैर्य भैया ने उलझन भरा प्रश्न किया ।
“यही कि संजय बेहट जी से मेरा विवाह नहीं हुआ।“
“पर क्यों ? वो तो आपको बड़े पसंद थे ।“ धैर्य भैया ने नरम सा ताना मारा ।
“हाँ .... थे तो ।“ नीरू दी अतीत में डूबते हुए बोलीं थीं ।
“फिर बाधा कहाँ आई ?” इस बार धैर्य भैया का प्रश्न था ।
“बाधा हं ...... नीरू दी थोड़ा रुक कर बोलीं थीं , बाधा आई तब, जब गोद भराई करके जाने के बाद, मुझे यहाँ भारत में ही छोड़कर जाते समय संजय बेहट जी की आँखों में मेरे लिए एक भी तो वैसा आँसू नहीं था जैसे अनगिनत आँसू देखे थे मैंने अपने लिए किसी की कोरी, किशोरी आँखों में ।“ धैर्य भैया की आँखें अब भी छलक आईं थीं । नीरू दी की बातें कुछ -कुछ समझ जो आ रहीं थीं उन्हें, वो कह रही थीं ,
“जैसे वो मुझसे बिछड़ने के नाम पर एक पल भी मुझसे नज़र नहीं मिला सका था, रो पड़ने के डर से और भाग खड़ा हुआ था हमेशा के लिए मुझसे दूर, मेरी खुशी के लिए । संजय जी में ऐसा तो दूर, इससे मिलता जुलता भी तो कुछ नहीं था । शायद यही बाधा आई उनसे मेरे विवाह में ।“
“तो और कोई ?” पूछते - पूछते गला अवरुद्ध हो गया था धैर्य भैया का । इस बार उनकी अनुशासन हीन धड़कनों को अनसुना नहीं कर सकती थीं नीरू दी ।
“बहुत प्रयास किए थे माँ बाबूजी ने तो। पर किसी ने भी तो वो प्रेम संप्रेषित नहीं किया जो उसने कर दिया था बरसों पहले ही अपनी कच्ची उमर में । उसी ने यह भी कहा था कि इंतज़ार का फल मीठा होता है, मैंने सोचा अगर इंतज़ार का फल मीठा ही होता है तो क्यों न इंतजार करके देख लिया जाए उम्र भर, एक उम्र आखिर होती ही कितनी है ।“
“..............................“ धैर्य भैया ने निःशब्द रह कर , डबडबाई आँखों से क्षण भर को नीरू दी की तरफ देखा । उन्हें अपने भरे ग्रामीण समाज के आगे अपने आंसुओं को रोक पाना मुश्किल हुआ जा रहा था । नीरू दी थीं कि बोले जा रही थीं ,
“अंजाने ही मेरे ना - ना करते भी मन के ना जाने किस अंतरंग पन्ने पर उसका अस्पष्ट सा कहा सब कुछ पूर्णतः स्पष्ट होकर अंकित हो गया था । अनकहा तो और भी दृढ़ता से पसर गया था मेरे समूचे अस्तित्व पर । ना जाने मन की किस कोटर में, कब किसी निरंकुश की तरह सत्तासीन हो गया उसका वो धुला - धुला, साफ - सुथरा, संकोची सा लेकिन जिद्दी प्रेम कि किसी और के लिए सिंहासन छोड़ा ही नहीं उसने, अपने मन पर उसकी सत्ता का एहसास मुझे भी बड़ी देर से हुआ था धैर्य । खैर छोड़ो। “
“प्लीज़ कहती रहिए नीडी मैं सुनते रहना चाहता हूँ, अनंत तक ।“ किसी तरह भरी - भरी आवाज़ में इतना ही बोल पाए थे धैर्य भैया ।
“ये नीडी क्या है बताओ न धैर्य ?” नीरू दी ने पूछा था । धैर्य भैया ने स्वयं को संयत करते हुए उत्तर दिया था कि,
“इस नीडी का नीरू दीदी के संक्षेप से कुछ लेना देना नहीं है, न था कभी । जैसा कि राजू के घरवाले सोचते थे। ये तो अँग्रेजी के अक्षर एनईई “नी” यानि नीरू और अँग्रेजी का “डी” मतलब धैर्य के आरंभिक अक्षर हैं।“ रुकते, सकुचाते उन्होने अपनी हल्की सी शरारत भरी मुस्कान के साथ बताया और आदत के अनुसार गर्दन एक तरफ झुका ली । इस रहस्य को खोल कर उन्होने नीरू दी के कपोलों पर जैसे सूरज के आगमन की संदेश वाहिनी उषा की लाली को ला पसराया था । नीरू दी के शब्द पिघले - पिघले अस्पष्ट से निकले ,
“तुम भी धैर्य .....।“
“वो आज भी याद है क्या आपको ?” धैर्य भैया ने पूछा था ।
“क्या ?“
“वही जो आपने एक बार सुधा दीदी से कहा था , कि रास्ते में, बाज़ार में, मेले और मंदिरों की भीड़भाड़ में जिन्हें लड़कियां जानतीं तक नहीं, पसंद करने का तो सवाल ही कहाँ, वो उन्हें बड़ी बेशर्मी से यहाँ - वहाँ छूकर चलते बनते हैं, और कोई ऐतराज करने के लिए आगे नहीं आता । इसके उलट, अगर लड़की की पसंद के किसी लड़के को, कोई उसे ज़रा सा कोमल स्पर्श करते हुए देख ले तो लोग हँगामा खड़ा कर देते हैं । अजब औंधा समाज है।“
“तुम कहाँ छिपकर सुन रहे थे ये सब और ये अभी तक याद है तुम्हें ?” नीरू दी ने आश्चर्य प्रकट किया ।
“मैंने आपसे पहले भी कहा था कि जब आप बोलती हैं तो मुझे और कुछ सुनाई ही नहीं देता, और आपका कहा जो सुन लिया उसे कभी भूल ही नहीं पाता।“ बोले थे धैर्य भैया ।
“ये तो मैं आज भी कहती हूँ धैर्य , पर इस समय इस बात को पूछने का क्या औचित्य ?” नीरू दी बड़ी धीमी – धीमी आवाज़ बोलीं ।
“औचित्य तो जरूर है, पहले एक और प्रश्न , क्या मैं आपको पसंद हूँ ?” धैर्य भैया ने पहली बार उनकी आँखों में आँखें डालकर पूछा था । नीरू दी की पूरी काया में विचित्र सी लहरें दौड़ पड़ीं थीं । इस बार उन्हें भी स्वीकारने में कोई द्वंद नहीं था कि वो लहरें धैर्य भैया के कोरे - कोरे, अनकहे, अनछुए प्रेम की ही थीं । नीरू दी की आँखों ने उनपर प्रेम की अद्भुत रश्मियां कुछ इस तरह छोड़ीं कि उनमें छिपी नीरू दी की शब्द रहित हाँ को उन्होने हौले से लपक लिया था और जैसे उसे अपनी धमनियों में लहू के साथ तैरने के लिए छोड़ कर, सिहरा हुआ सा एक और प्रश्न पूछ लिया था ,
“क्या आज, आपकी पसंद का धैर्य, आपको एक बार स्पर्श कर सकता है ?”
“मेरी हाँ के लिए क्या इस बार भी तुम बस शब्दों के ही मोहताज रहोगे धैर्य ?” प्रेम की भावसिक्त याचना की स्वीकृति में नीरू दी ने धीमी आवाज़ में प्रश्न के उत्तर में प्रश्न ही किया था ।
धैर्य भैया ने माघ की ठंड में भी प्रेम की नरम आंच में उसीजा हुआ सा अपना दाहिना हाथ अजात नीरू दी के आपस में उलझते हाथों पर रख दिया था । प्रेम की ऊष्मा शीघ्रता से एक दूसरे में ऐसे समाहित हुई जैसे दो विशाल बांधों की बरसों से रोकी हुई अगाध जल राशि को एक दूसरे में विलीन हो जाने के लिए एक साथ छोड़ दिया गया हो । शब्दातीत अनुभूतियों से अभिभूत धैर्य भैया जैसे कल के लिए कोई अनिश्चय नहीं छोड़ना चाहते थे । संकोची स्वभाव और प्रेम के आधिक्य से धीमी हुई आवाज़ में उन्होने फिर पूछा,
“आज के अंतिम प्रश्न का उत्तर देंगी ?” प्रेम के मनों बोझ से झुकी नीरू दी की गर्दन धीरे से ही हिल पाई थी, हाँ में।
“अब उम्र के इस पड़ाव पर मेरे इन कुछ - कुछ पके बालों और बिना सँवरे व्यक्तित्व के साथ, आज भी सुंदर गुड़िया सी दिखने वाली आप को देख कर कोई भी निश्चित तौर पर बता सकता है क्या कि हम दोनों में से कौन पाँच छह बरस छोटा है और कौन कितने बरस बड़ा ?”
अभीप्सित को पा जाने की अपार खुशी , इंतज़ार के बाद सचमुच ही मीठे फल का मिल जाना , जीवन के नीरस एकांत से छुटकारा , अपने लिए प्रेम में सराबोर अनन्य प्रिय को पा जाने का हर्षातिरेक, अड़तीस - चालीस की पकी वयस में अकस्मात ही श्वेत श्याम से जीवन में प्रेम के अद्भुत, अनगिनत मनभावन रंगों का छलक पड़ना , इस सब के बाद भी क्या नीरू दी का मन उसी पल में खड़ा रह पाया होगा, धैर्य भैया के प्रश्न का उत्तर देने मात्र के लिए ? या नीरू दी की प्रेमविहल अवस्था देखकर धैर्य भैया ही उनसे अपने प्रश्न के शाब्दिक उत्तर की अपेक्षा रख पाए होगे ? दोनों अवाक, स्थिर, जड़ से चेतन या चेतन से जड़, खड़े रह गए होंगे बस । मैं निश्चय से कह सकती हूँ ।

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