Stokar - 22 in Hindi Detective stories by Ashish Kumar Trivedi books and stories PDF | स्टॉकर - 23

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स्टॉकर - 23




स्टॉकर
(23)



एसपी गुरुनूर ने यहाँ आने से पहले सूरज सिंह के बारे में बहुत कुछ पता किया था। उन बातों के आधार पर ही वह यह कह सकती थी कि सूरज सिंह वकालत के सिलसिले में नहीं बल्कि किसी और ही सिलसिले में मेघना से मिलता था।
"बताइए वकील सूरज सिंह जी सिर्फ कुछ कानूनी मसलों पर सलाह देने की यह कुछ ज़्यादा ही बड़ी रकम नहीं है। आखिर मेघना को आपमें ऐसी कौन सी खूबी दिख गई कि इतनी मंहगी फीस पर आपको रख लिया। जबकी सैयद उस्मान अली पिछले कई सालों से मिस्टर टंडन के कानूनी मसले देखते चले आ रहे थे।"
"जो सवाल आपको श्रीमती मेघना टंडन से पूँछना चाहिए वह आप मुझसे क्यों पूँछ रही हैं ? हो सकता है कि सैयद उस्मान अली की श्रीमती मेघना टंडन से पटरी ना बैठती हो ? हो सकता है कि सैयद उस्मान अली ही उनकी मदद ना करना चाहते हों। आप मुझसे वो सवाल कीजिए जिसका जवाब मैं दे सकूँ।"
"चलिए यही सही....मैं वही सवाल पूँछती हूँ जो आपसे जुड़ा है।"
एसपी गुरुनूर कौर अपनी कुर्सी से उठ कर खड़ी हो गई। वह सूरज सिंह की कुर्सी के ठीक पीछे जाकर खड़ी हो गई।
"तो बताइए....लॉ कॉलेज से निकलने के बाद जो शख्स पाँच सालों तक अपने पेशे में अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्ष करता रहा। जो वकालत से जुड़े कुछ छोटे छोटे काम करके जैसे तैसे गुज़ारा करता था। अचानक पिछले चार सालों में उसके रंग ढंग इतने कैसे बदल गए। उसके पास बहुत सा पैसा आने लगा। उसके शौक रइसों की तरह हो गए। कभी जो एक तंग गली के एक मकान में किराए के एक कमरे में रहता था। उसने जन्नत अपार्टमेंट्स में मंहगा फ्लैट खरीद लिया। बताइए सूरज सिंह जी कैसे किया ये सब। जबकी आपकी वकालत तो जहाँ की तहाँ ही रही। किस दरवाज़े पर खुल जा सिमसिम किया आपने।"
अपना सवाल पूरा कर एसपी गुरुनूर वापस आकर सूरज सिंह के सामने बैठ गई। उसने अपनी निगाहें उसके चेहरे पर टिका दीं। वह साफ देख पा रही थी कि सूरज सिंह के चेहरे का रंग उड़ गया था।
एसपी गुरुनूर ने अपनी बात दोहराई।
"बताइए सूरज सिंह जी भला इतनी चमत्कारी तरक्की आपने कैसे की ?"
सूरज सिंह कुछ नहीं बोला। उसके चेहरे को देख कर लग रहा था जैसे कि उसका कोई बहुत बड़ा राज़ पकड़ लिया गया हो। वह नज़रें झुकाए बैठा था।
"अब इसका जवाब तो तुम ही दे सकते हो। बोलो सूरज सिंह ऐसा कौन सा खज़ाना मिल गया तुम्हें ?"
एसपी गुरुनूर का लहज़ा सख्त हो गया था। उसके चेहरे पर गुस्सा झलक रहा था।
सूरज सिंह अभी भी कुछ नहीं बोला। एसपी गुरुनूर उसी तरह सख्त लहज़े में बोली।
"अपने आप अपनी तारीफ करने में संकोच हो रहा है। तो चलो मैं बता देती हूँ तुम्हारी कामयाबी का राज़ क्या है ? एक नाकाम वकील ने अपना रास्ता बदल कर कांट्रैक्ट किलिंग का धंधा अपना लिया। पैसे लेकर अपने गुर्गों से हत्या करवाना। लोगों को ब्लैकमेल करना। ये सब काम ही तुम्हारी इस चमत्कारी सफलता का राज़ है।"
सूरज सिंह का पूरा चेहरा सफेद पड़ चुका था। वह जानता था कि वह बुरी तरह फंस चुका है। एसपी गुरुनूर ने उसके बारे में सब कुछ पता कर लिया है। सूरज सिंह ने स्वीकार कर लिया कि जो कुछ एसपी गुरुनूर ने कहा है वह सब सच है।
उसने एक असफल वकील के कांट्रैक्ट किलिंग के धंधे में आने की कहानी सुनाई।

सूरज सिंह जिस माहौल में पला बढ़ा था वहाँ दबंगई ही सबसे शान की बात मानी जाती थी। उसके गांव में बचपन से ही बच्चे कट्टे और पिस्तौल की बातें करते थे।
पर सूरज सिंह का मिजाज़ उस माहौल से ठीक उलट था। उसे बात बात पर लड़ाई झगड़ा करना। हथियारों की बात करना पसंद नहीं था। वह अपना मन इन सबसे हटा कर पढ़ने लिखने में लगाता था।
उसके इस स्वभाव के कारण गांव में सभी उसे दब्बू कहते थे। सूरज सिंह का उस माहौल में जी ऊबता था। सूरज सिंह के मामा जगतपाल उसकी इस स्थिति को समझते थे। वह उसे अपने साथ ले गए।
जगतपाल अकेले थे। उनके घर पर सूरज सिंह को वह माहौल मिला जो उसे चाहिए था। उसने खुद को पढ़ लिख कर कुछ बनने के अपने सपने को पूरा करने के लिए झोंक दिया।
उसने शहर के मशहूर लॉ कॉलेज में दाखिला लिया। लॉ में पोस्टग्रैजुएशन करने के बाद वह एक नामी वकील के दफ्तर में काम करने लगा।
सूरज सिंह के मन में एक दिन देश का बड़ा वकील बनने का सपना पल रहा था। वह बहुत मन लगा कर काम कर रहा था। उसके मन में अच्छा वकील बनने का सपना तो था पर दुनियादारी की चालाकी उसमें नहीं थी।
रघुवर सहाय जिन वकील साहब के यहाँ वो काम करता था वहाँ सहाय साहब का एक भांजा मयंक भी था। अक्सर यह होता कि काम तो सूरज सिंह करता था पर तारीफ का स्वाद मयंक को चखने को मिलता था। पर सूरज सिंह यह सोंच कर चुप रहता था कि उसके भीतर जो काबिलियत है वह भला सहाय साहब से कब तक छिपी रहेगी।
दो साल हो गए पर ऐसा हुआ नहीं। सहाय साहब को लगने लगा कि सूरज सिंह किसी काम का नहीं है। सारा काम तो मेरा भांजा ही करता है। फिर इसे साथ रख कर सैलरी क्यों दें ?"
जब बात नौकरी पर आई तो सूरज सिंह ने अपना पक्ष रखने का प्रयास किया। पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। सहाय साहब की नज़र में उसकी छवि एक नाकारा की बन चुकी थी।
नौकरी चली जाने के बाद सूरज सिंह ने स्वयं की प्रैक्टिस का मन बनाया। वह रोज़ कोर्ट जाता। कोशिश करता कि उसे कोई केस मिले। पर उसे केवल छोटे मोटे काम ही मिल पाते थे। शायद लोगों को अपनी वाकपटुता से प्रभावित करने का हुनर उसमें नहीं था।
तीन साल हो गए थे सूरज सिंह को वकालत के पेशे में अपनी किस्मत आज़माते हुए पर अभी तक उसे कोई खास सफलता नहीं मिली थी। पर सूरज सिंह अभी भी आशावान था।
इधर उसके घर वाले दबाव डाल रहे थे कि वह उनकी बताई लड़की से शादी कर घर बसा ले। वह टालने की कोशिश कर रहा था। पर जब घरवालों ने दबाव बहुत बढ़ा दिया तो वह मान गया।
वैसे सूरज सिंह भी अकेले जीते हुए ऊब चुका था। उसे भी लगा कि जैसे तैसे वह इतना तो कमा ही लेता है कि दो लोगों का गुज़र हो सके।
सूरज सिंह की शादी वसुधा से हो गई। शादी के बाद कुछ दिन तो वसुधा गांव के घर में रही। पर सूरज सिंह उसे कुछ ही दिनों में शहर ले आया।
वसुधा बहुत शौकीन मिजाज़ थी। गांव में पली बढ़ी वसुधा ने सोंचा था कि उसका पति शहर में वकालत करता है। वहाँ वह दिल खोल कर अपनी उन हसरतों को पूरा करेगी जिन्हें उसने अब तक मन में दबा रखा था।
आरंभ में तो सूरज सिंह भी उसकी हर ख्वाहिश पूरी करने का प्रयास करता था। वह और वसुधा बहुत खुश थे। लेकिन जल्दी ही उसे समझ आ गया कि यह बहुत दिनों तक नहीं चल पाएगा। उसकी आमदनी छोटी थी और वसुधा की हसरतें बड़ी। सूरज सिंह ने वसुधा को समझाने का प्रयास किया कि अगर उन्हें सही तरह से जीवन बिताना है तो अपनी बढ़ती हसरतों पर काबू करना होगा।
लेकिन वसुधा पर उसका उल्टा असर हुआ। वह मतलब भर का ही पढ़ी लिखी थी। उसे लगता था कि उसका पति शहर में वकालत करता है। उसके पास भला पैसों की क्या कमी होगी। वह अगर खर्चे पर पाबंदी लगाने को कह रहा है तो उसका केवल एक ही कारण है कि वह उसे प्रेम नहीं करता है। उसकी छोटी छोटी खुशियां भी पूरी नहीं करना चाहता है।
परिणाम यह हुआ कि सूरज सिंह और वसुधा के बीच झगड़े होने लगे। एक दिन वह गुस्से में घर छोड़ कर मायके चली गई।
कुछ दिनों तक सूरज सिंह इस बात की राह देखता रहा कि शायद वसुधा का गुस्सा ठंडा हो तो वह खुद ही वापस आ जाए। पर ऐसा नहीं हुआ। करीब तीन महीने बीत गए। वसुधा वापस नहीं आई। सूरज सिंह फोन पर उससे बात करने की कोशिश करता तो वह बात भी नहीं करती थी।
सूरज सिंह के घरवाले इस सबके लिए उसे ही दोष दे रहे थे। वह बहुत परेशान हो गया था। उसने तय किया कि वह खुद जाकर वसुधा को वापस लेकर आएगा।
वसुधा ने कहा कि सूरज सिंह और उसके घरवालों ने मुझे और मेरे परिवार को धोखा दिया है। उसका कहना था कि उनसे कहा गया था कि लड़का शहर में अच्छा वकील है। अच्छा कमाता है। पर असलियत कुछ और निकली।
उसने यह कह कर सूरज सिंह के साथ आने से मना कर दिया कि वह तभी घर वापस जाएगी जब सूरज सिंह इतना कमाने लगे कि उसके खर्चे उठा सके।
वसुधा के घरवाले संपन्न थे। उन्होंने वसुधा का साथ दिया। मायूस होकर सूरज सिंह लौट गया।
उसके पिता को जब यह पता चला कि उनकी बहू ने घर वापस आने से इंकार कर दिया है तो उन्होंने भी सूरज सिंह को खूब खरी खोटी सुनाई। उनका कहना था कि अपने मामा के साथ यह कह कर घर छोड़ कर गया था कि यहाँ का माहौल ठीक नहीं है। मैं पढ़ लिख कर कुछ बन कर दिखाऊँगा। मैंने तुम पर कितना खर्च किया। पर नतीजा क्या निकला। तुम हमें कुछ दे सको वो तो दूर। तुम अपनी पत्नी का खर्च उठाने लायक भी नहीं बने। तुमसे अच्छे तो तुम्हारे दोनों भाई हैं। पढ़ने लिखने में अधिक खर्च भी नहीं किया। आज अपनी गृहस्ती संभालने के लायक हैं।
अपने पिता से मिली इस लताड़ से सूरज सिंह बहुत दुखी हुआ। वह इस कोशिश में जुट गया कि शायद उसे कोई केस मिल जाए और उसकी स्थिति सुधर जाए। पर कुछ नहीं हुआ। यह एहसास कि वह इतना नाकारा है कि पत्नी को मायके से वापस भी नहीं ला सकता है उसे भीतर से कचोट रहा था।