Aughad ka daan - 8 in Hindi Moral Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | औघड़ का दान - 8

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औघड़ का दान - 8

औघड़ का दान

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग-8

बहू की बातों से सोफी को यकीन हो गया कि उसकी पूजा में सहवास कहीं शामिल नहीं था। क्यों कि उसकी समस्या में संतान कहीं शामिल नहीं थी। घुल-मिल जाने के बाद दोनों की बातें करीब डेढ़ घंटे बाद जाम खुल जाने तक चलती रहीं। वहां से चलने के बाद बहू की बातें सोफी के मन में उथल-पुथल मचाने लगीं कि यह औरत कितने तूफानों को अपने में समेटे हुए है। कितनी बड़ी-बड़ी व्यथाएं लिए जिए जा रही है इस दृढ़ विश्वास के साथ कि एक दिन उसका भी समय आएगा। वाकई बड़ी हिम्मत वाली है यह। मगर एक बात है कि हम औरतों के सामने ही यह स्थिति क्यों आती है कि हमें इस आस में ज़िदंगी बितानी पड़ती है कि एक दिन हमारा भी समय आएगा। पूरा इतिहास इस बात से भरा पड़ा है कि औरतें हर समय इसी उम्मीद में जिए जा रहीं हैं कि एक दिन उन्हें बराबरी का दर्जा मिलेगा। वह औरत नहीं एक इंसान मानी जाएगी। केवल बच्चा पैदा करने, मर्दों की शारीरिक इच्छा पूरी करने की मशीन नहीं।

उसके मन में उठ रहे विचारों के यह झंझावात भीड़-भाड़ भरी सड़क आते ही खत्म हो गए। अब सारा ध्यान ट्रैफिक पर और उसके बाद जल्द से जल्द घर पहुँचने पर केंद्रित हो गया। क्योंकि बहुत देर हो चुकी थी। घर पहुंच कर उसने बहुत राहत महसूस की। संतोष की सांस ली कि जुल्फ़़ी के आने से पहले वह पहुंच गई और अभी इतना टाइम है कि वह बाबा की दी भभूत उनके बताए स्थान पर इतमिनान से रख देगी। फिर नहा-धोकर शरीर में कई जगह लगी भभूत और साथ ही शरीर से चिपकी बाबा की ख़ास तरह की गंध को भी धो डालेगी। मन मुताबिक यह सारे काम उसने पूरे भी कर लिए। नहाने में उसे ज़रूर आज रोज की अपेक्षा दो गुना टाइम लगा। साथ ही आज यह पहली बार था कि नहाते वक़्त ऐसी बातों के द्वंद्व में उलझी घुटन से बेचैन होती रही कि जो किया और आगे करेगी वह सही है कि नहीं। और इस बात पर आश्चर्य कि कैसे यह सब कर ले गई। कहां से इतनी हिम्मत और ताकत आ गई उसमें।

पता नहीं मुराद पूरी भी होगी कि नही, यदि न हुई तब तो वह कहीं की न रह जाएगी। और कहीं बात खुल गई तो! तब तो अंजाम बड़ा भयानक होगा। विचारों के इस द्वंद्व में उलझी उसने खूब साबुन-शैंपू का इस्तेमाल करते हुए स्नान किया और बाथरूम से बाहर आ गई। ऐसा कोई निशान तो नहीं रह गया जिससे राज खुल जाने का कोई रास्ता बने यह जानने के लिए वह बाथरूम से सीधे ड्रेसिंग टेबुल के सामने पहुंची और हर संभव तरीके से शीशे में अपने बदन के एक-एक हिस्से को देखा। हड़बड़ाहट में होने के बावजूद वह पूरी सावधानी बरत रही थी।

पूरा इतमिनान हो जाने के बाद उसने चैन की सांस ली। फिर अचानक ही उसका ध्यान अपने शरीर की स्थिति पर चला गया। तीन-तीन बच्चों, तरह-तरह की चिंताओं ने किस तरह उसके नपे तुले अच्छे खासे बदन को बदतरीन कर दिया था। उम्र से पांच-छः साल बड़ी ही लग रही थी। और यह संयोग ही था कि आज शीशे में वह स्वयं अपने निर्वस्त्र बदन को निहार रही थी। और तुलना कर रही थी अपने कई बरस पहले के बदन से जो अब कहीं दूर-दूर तक नज़र नहीं आ रहा था। उसका अंश भी नहीं।

मिलता भी कहां से? जुल्फी से जुड़ने के बाद कुछ समय छोड़ दे तो बाकी में उसे मिला क्या? सिवाय गाली, मार,डांट के। अपने मन से सांस लेने तक की आज़ादी नहीं। नौकरी करती है लेकिन अपनी मर्जी से एक रुमाल खरीदने की, किसी को कुछ देने की हिम्मत उसमें नहीं है। तनख्वाह तो सब जुल्फी के पास ही रहती है। एक-एक पैसे का हिसाब लेता है। वह ख़यालों में खोई देखती ही जा रही थी खुद को। और तब तक खोई रही जब तक कि आंखों में भर आए आंसू छलक कर उसके स्तनों पर टपक नहीं गए। आंसूओं की गर्माहट ने उसे हिला-डुला दिया। वह चैतन्य हो उठी। और हथेलियों से आंखों को पोंछती पहन लिए जल्दी से अपने सारे कपड़़े। अभी उसे बच्चों को लेने अपनी दूर की रिश्ते की उस ननद के यहां भी जाना था , जहां रिक्शा वाला रोज छुट्टी के बाद स्कूल से उन्हें लाकर वहां छोड़ जाता है।

बच्चों को लाने के बाद वह खाना-पीना, घर के बाकी कामों को पूरा करने में लगी रही। और साथ ही उसके लगा रहा बाबा के साथ बीता वक़्त, बाबा की बातें, उनका विशाल स्वरूप। बिल्कुल इस तरह जैसे कि यह सब उसके बदन की छाया हों। इस बेचैनी घबराहट से बचने के लिए उसने बाबा के पास से आने के बाद आदत के एकदम विपरीत छः-सात बार चाय पी। मगर बात जहां की तहां रही। बल्कि जैसे-जैसे जुल्फी के आने का वक़्त नजदीक आ रहा था वैसे-वैसे उसकी घबराहट और बढ़ती जा रही थी। कैसे करेगी उसका सामना, कहीं कोई बात बिगड़ गई तो? बड़ी मुश्किलों में बीतते गए एक-एक पल, और सात बजते-बजते जुल्फी आ गया।

डरी सहमी, अंदर ही अंदर थर-थराती और ऊपर ही ऊपर सामान्य दिखने की पूरी कोशिश करते हुए उसने चाय-नाश्ता दिया और बच्चों को बड़ी होशियारी से उसके साथ लगा दिया। खुद किचेन में लग गई। मगर आधे-पौन घंटे बाद उसकी बेचैनी एक दम बढ़ गई। उसने पूरे बदन में पसीना चुह-चुहाना स्पष्ट महसूस किया। जब जुल्फ़ी ने किचेन में आकर उसे जड़ी बूटियों का एक पैकेट थमा दिया और कहा इसे उबाल कर उसका पानी उसे खाना खाने के बाद पीने को दे। यह वही दवाएं थीं जिसे वह किसी हकीम से ले आता है, इस विश्वास के साथ कि इन्हें खाने के बाद संभोग करने से शर्तिया बेटा ही होगा। यह सब सोफी पहले भी न जाने कितनी बार झेल चुकी थी। लेकिन आज पसीने-पसीने इसलिए हुई क्यों कि बाबा से मिलने के बाद आज वह किसी भी सूरत में बिस्तर पर जुल्फी से नहीं मिलना चाहती थी।

वह इस कोशिश में लग गई कि किसी तरह जुल्फी सो जाए। इस जुगत में उसने जानबूझ कर लाख थके होने के बावजूद जुल्फी की पसंद की कई चीजें बना-बना कर उसे खाने को दीं जिससे वह ज़्यादा खा ले और आलस्य में जल्दी सो जाए सवेरे तक। और भी कई जतन किए। उसने जानबूझ कर बच्चों को देर तक जगाए रखा, उन्हीं के साथ लगी रही कि जुल्फी सो जाए। और वह कामयाब भी हो गई। जुल्फी सो गया। तब वह रोज की तरह उठ कर बच्चों के पास से नहीं गई जुल्फी और अपने बिस्तर पर।

वह सोई रही बच्चों के पास और सुबह भी एकदम भोर में ही उठ कर काम-धाम में लग गई जिससे अकसर एकदम भोर में जुल्फी द्वारा किए जाने वाले हमले से भी बची रहे। अंततः जुल्फी से खुद को उस रात बचा ले जाने में वह सफल रही। इसके चलते वह सुबह राहत महसूस कर रही थी। और ताज़गीपूर्ण भी। जबकि जुल्फी सोए रहने के कारण दवा के बेकार हो जाने से तिलमिला उठा था और ऑफ़िस जाने तक उसे गरियाता रहा कि उसने उसे उठाया क्यों नहीं।

सुबह ऑफ़िस के लिए निकली तो एक नई उलझन दिमाग पर तारी हो गई कि सीमा को बताए कि नहीं। वह ठहरी बड़ी तेज़-तर्रार। झूठ बड़ी जल्दी पकड़ लेती है। उलझन का भारी बोझ वह दोपहर तक लिए रही। फिर यह सोच कर लंच में बताना शुरू किया कि अभी कई बार जाना है, न जाने किन-किन परिस्थितियों से गुजरना पड़े। इसलिए किसी को तो बताना ही चाहिए। और सीमा से ज़्यादा मददगार और विश्वासपात्र कोई नहीं है। और आखिर सुत्रधार भी तो वही है। यह सोच सोफी ने विस्तार से उसे सब कुछ बता दिया। लेकिन बाबा के साथ प्रचंड मिलन की क्रिया के दौर से गुजरने की बात बड़ी सफाई से पूरी तरह छिपा ले गई। सीमा को संतोष था कि सोफी ने उस पर यकीन किया और वहां गई। उसकी मनोकामना पूरी हो जाएगी तो उसका जीवन बढ़िया हो जाएगा और वह उसे हमेशा याद रखेगी।

दूसरी तरफ सोफी को इस बात का संतोष कि सीमा से वह जो नहीं बताना चाहती थी उसे वह आसानी से छिपा ले गई। इसके बाद सोफी का एक हफ़्ता बहुत बेचैनी कसमकस में बीता। जैसे-जैसे बाबा के पास जाने का समय पास आ रहा था वैसे-वैसे उसका असमंजस बढ़ता जा रहा था। किसी काम में मन नहीं लग रहा था। रात में जुल्फी के साथ वह खास क्षण और भी ज़्यादा बेचैनी भरे होते जब दवा के जोश में वह लड़का पैदा करने के लिए पूरे प्रयास करता हांफता-हांफता लुढ़क जाता। उस समय न चाहते हुए भी सोफी को बाबा की याद आ जाती। उसने महसूस किया कि बाबा के पास से आने के बाद से उसे जुल्फी का शरीर फूल सा लगने लगा है। अब वह पहले सा बलिष्ठ और पीड़ादायी नहीं लगता। जबकि जुल्फी पहले की ही तरह पूरे जोर-शोर से शुरू हो कर अपनी सारी ताकत उसके भीतर उड़ेलने के बाद ही कहीं दम लेता है। फिर हांफता हुआ किनारे लुढ़कता और सो जाता है।

अंततः दूसरी बार बाबा के पास जाने का दिन आ गया तो सोफी ऑफ़िस पहुंची अटेंडेंस लगाई, दवा लेने के बहाने चल दी। सही बात सिर्फ़ सीमा को पता थी। स्कूटी स्टार्ट करते वक़्त उसके दिमाग में यह बात एक झटके में आ कर चली गई कि सरकारी नौकरी का यही तो बड़ा फायदा है।

इस बार जब बाबा के पास पहुंची तो सोफी ने देखा बाबा उसी आग के ढेर के पास पालथी मार कर बैठे हैं। उसने बिना आवाज़ किए उनके हाथ जोड़े और एक तरफ खड़ी हो गई। कुछ देर में ही बाबा भी उठ खड़े हुए पूर्व की तरह जय महाकाल कहते हुए। और फिर सुर्ख आंखों से देखा सोफी की ओर। उसने फिर हाथ जोड़ लिए थे।

‘आ गई तू... तेरा यह समर्पण तेरी हर चाह पूरा करेगा। यह कहते हुए बाबा चले गए झोपड़ी के भीतर। कुछ देर बाद सोफी भी चली गई अंदर। उसने देखा सब कुछ वैसा ही था। सिर्फ़ एक चीज नई थी। झोपड़ी के दरवाजे को बंद करने के लिए फूस बांस की खपच्चियों से बना फाटकनुमा एक टुकड़ा जो दरवाजे के पास ही किनारे रखा था। बाबा अपने स्थान पर बैठे कुछ खा रहे थे, उन्होंने उसे अंदर आया देख कहा,

‘आ इधर, आ ले ये खा।’

सोफी ने तेज़ी से आगे बढ़ कर केला ले लिया और बाबा के कहने पर बैठ कर उसे खा लिया। इस बीच बाबा ने उठकर उस फाटकनुमा चीज से झोपड़ी बंद कर ली। और पालथी मार कर बैठ गए अपने आसन पर। पहली बार की तरह बाबा आज भी निर्वस्त्र थे। बैठने के साथ ही उन्होंने कुछ मंत्र वगैरह बुदबुदाए और फिर सोफी को भी निर्वस्त्र कर ठीक अपने सामने पद्मासन में बैठने को कहा। लेकिन सोफी नहीं बैठ पा रही थी। मोटी जांघें बड़ी बाधा बन बैठी थीं। अंततः वह जैसे बैठ पा रही थी बाबा ने उसे उसी तरह बैठने दिया और अपनी प्रक्रिया तेजी से पूरी करने लगे।

आधे घंटे बाद बाबा उसी पुआल के बिस्तर पर उसे लेकर लेट गए। मन में तमाम उथल-पुथल लिए सोफी यंत्रवत सी उनके साथ थी। आज उसमें पहली बार जैसा डर नहीं था। लेटे-लेटे जब कई मिनट बीत गए और बाबा निश्चल ही पड़े रहे तो सोफी बेचैन हो उठी। उसके मन में जल्दी से जल्दी ऑफ़िस पहुंचने की बात भी कहीं कोने में उमड़-घुमड़ रही थी। साथ ही बाबा का सख्त बालों जटाओं से भरा शरीर उसके शरीर से चिपका हुआ था, वह भी बेचैन किए जा रहा था। जब उससे न रहा गया तो वह बाबा से अगला आदेश क्या है यह पूछने की सोचने लगी। लेकिन तभी बाबा ने हल्की हुंकार सी भरी, उसी तरह हल्के से जय महाकाल कहा और पुत्र उत्पन्न करने की प्रक्रिया में जुट गए।

सोफी पहली बार जितना इस बार आने में, बाबा से बतियाने में, प्रक्रिया को पूरा करने में नहीं डरी थी, प्रक्रिया के पूरी होने में जो भी वक़्त लगा उसके बाद सोफी ने सुकून महसूस किया कि अब जल्दी ही यहां से फुर्सत मिलेगी और वह लंच होते-होते ऑफ़िस पहुंच जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बाबा फिर पहले की तरह उसे लिए लेट गए। अब उसकी व्याकुलता बढ़ती जा रही थी। जब उससे न रहा गया तो उसने बाबा से ऑफ़िस पहुंचने और किसी के आ जाने की डर की बात कह कर चलने की इज़ाज़त चाही। तो बाबा ने साफ कहा,

‘तू मेरी शरण में है, तुझे कुछ नहीं होगा।’

बाबा पर पहले से विश्वास किए बैठी सोफी निश्चिन्त हो गई लेकिन जल्दी निकलने की इच्छा फिर भी मन में कुलबुलाती रही। और यह कुलबुलाहट तब खत्म हुई जब बाबा ने दो और बार अपनी प्रक्रिया पूरी कर उसे जाने की इज़ाजत दे दी। वापसी में उसने एक नज़र घड़ी पर डाली और बुदबुदाई चलो लंच के पहले न सही कुछ देर बाद तो पहुंच ही जाऊंगी। मगर शरीर का वह हिस्सा अब भी उसे परेशान किए जा रहा था जहां गीलापन अभी भी उसका पीछा नहीं छोड़े था। और इतना ही नहीं इस गीलेपन ने न जाने कितने बरसों से भूले बिसरे किशोरावस्था के साथियों में से एक चेहरे हिमांशु को ला खड़ा किया।

उसने झट इस चेहरे को फिर हमेशा के लिए बिसराने की कोशिश की लेकिन वह जितना कोशिश कर रही थी वह उतना ही ज़्यादा स्पष्ट और साथ ही तब की बातें समेटे और भी करीब आता जा रहा था। कुछ ही क्षणों में इतना करीब आ गया कि जिस गीलेपन ने इतने बरसों के बाद उसकी याद दिलाई थी, वह और बाबा भी विलुप्त हो गए। ऑफ़िस पहुंचने, सीमा से बातें करना शुरू करने पर भी हिमांशु से जुड़ी यादों को परे नहीं ढकेल पाई। ज़्यादा देर होने की स्वतः ही सफाई देते हुए उसने सीमा से बाबा के देर से आने की बात कही।

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