पिताजी की वर्जना और चालीस दूकान की आत्मा...
'कहेगा कौन-सा अलफ़ाज़ उस रात की दास्ताँ,
माँ, जब तुम थीं, मैं था और आँख के आंसू मेरे...!'
उस रात की वार्ता में जितना वक़्त लगा, माँ से उतनी बातें नहीं हुईं। कारण यह कि ग्लास की गति बोर्ड पर बहुत मंथर थी। मेरे एक प्रश्न के उत्तर के वाक्य बनने में खासा वक़्त लग रहा था। लेकिन इतना तय था कि बात माता से ही हो रही थी और वह बहुत महत्त्व की थी। महत्त्व की इसलिए कि माँ उस दिन मेरे प्रश्न के उत्तर में नहीं, बल्कि स्वयं ऐसे वाकये बता रही थीं, जिनका मुझे बिलकुल इल्म नहीं था। मेरे जन्म के पूर्व के वाकये। उनमें से कुछ तो बहुत निजी, नितांत पारिवारिक, जिन्हें सार्वजनिक करना मुझे उचित प्रतीत नहीं होता। उनकी कई बातों से मैं रुआँसा हो गया। जानता हूँ, माँ की आत्मा को भी कष्ट हुआ होगा; क्योंकि बोर्ड पर रखा पात्र देर तक अपनी जगह पर ठिठका रह जाता था। अपनी पीड़ा, रुदन और सिसकियों को व्यक्त करने के लिए बोर्ड पर कोई शब्द अंकित नहीं था। माँ ने सिर्फ 'सैड' (SAD) लिखा और, थोड़ी देर बाद, आगे अपनी बात जारी रखी। उन्होंने कई रोचक सन्देश भी मुझे पिताजी के लिए दिए। कहा, अपने बाबूजी को ये सन्देश दे देना। उन्होंने मेरी छोटी बहन के स्वास्थ्य के विषय में गहरी चिंता व्यक्त करते हुए आगाह किया कि हमें 'महिमा' की बहुत केयर करनी होगी, अन्यथा वह असाध्य रोग से ग्रस्त हो सकती है। उनकी चिंता अकारण नहीं थी। एक-सवा वर्ष बाद छोटी बहन सांघातिक रूप से बीमार हुई थी और जीवन-मृत्यु के बीच झूलकर, अनेक उपचारों के बाद प्रकृतिस्थ हुई थी।
यह वार्ता रात के तीन बजे तक चलती रही। अंततः माँ के आदेश पर मैंने उन्हें विदा किया और तत्पश्चात् निद्रानिमग्न हुआ।
दूसरे दिन दफ्तर से मैंने पिताजी को विस्तृत पत्र लिखा, जिसमें पिछली रात की माता से हुई सारी बातें (कथोपकथन के साथ) विस्तार से लिखीं। पिताजी को पत्र लिखते हुए मैं अति उत्साहित था। सोचा था, पिताजी आश्चर्यचकित हो जायेंगे और पत्र के मजमून से प्रभावित भी होंगे। पराजगत् में प्रवेश कर मैंने माँ से स्वयं बातें की हैं--मेरी दृष्टि में मेरा यह कृत्य बहुत मूल्यवान था, महत्त्व का था। मुझे उम्मीद थी कि पिताजी मुझे शाबाशी देंगे और माँ के दिए संदेशों को अमूल्य मानेंगे। प्रायः दस दिनों की प्रतीक्षा के बाद पिताजी का उत्तर आया। मैंने व्यग्रता से पत्र पढ़ना शुरू किया और पंक्ति-दर-पंक्ति नीचे उतरते हुए मेरी उत्कंठा का ज्वर भी कम होता गया। पिताजी ने बहुत संतुलित और पुष्ट तर्कों पर आधारित पत्र लिखा था। संक्षेप में कहूँ तो पिताजी ने लिखा था--"यह बहुत दुविधा की दुनिया है। भारत-प्रसिद्ध और विश्व-प्रसिद्ध अनेक लोगों ने इस दिशा में बहुत हाथ-पाँव मारे हैं और कोई किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सका है। मैं व्यक्तिगत रूप से ऐसे लोगों को भी जानता हूँ, जो आजीवन इसी प्रयत्न में लगे रहे हैं कि पराजगत् का कोई ओर-छोर पा सकें, लेकिन उन्हें भी निराशा ही हाथ लगी है। मेरा निश्चित मत है कि आप भी इस अनुसंधान से विरत हो जाएँ और कानपुर-प्रवास में वही काम करें, जिसके लिए आप वहाँ गए हैं।"
पिताजी के पत्र से मुझे गहरी निराशा हुई थी। लेकिन पिछले दस दिनों में पराजगत् की यात्रा में मेरी गाडी कई पड़ावों को पार कर गई थी, अब इससे विरत होना मेरे लिए कठिन था। मैंने पिताजी को प्रत्युत्तर नहीं दिया और मनमानियां करता रहा।
अब एक नियम-सा बन गया कि दफ्तर से लौटूँ तो चाय पीकर स्वदेशी क्लब में टेबल टेनिस खेलने चला जाऊं। थका-माँदा वहाँ से आऊँ तो थोड़े विश्राम के बाद स्नान करूँ, भोजन करूँ और फिर द्वार-खिड़कियाँ बंद कर उचित समय की प्रतीक्षा करूँ और फिर वेताल की डाल पर जा बैठूँ। मैंने स्मरण के आधार पर एक सूची ऐसे लोगों की बनायी, जो मेरे आत्मीय और निकट के थे, दिवंगत हो चुके थे और जिनसे सम्पर्क की मेरी उत्कट अभिलाषा थी।
जिस रात माता से बातें हुई थीं, उसके दूसरे दिन रात्रिकाल में मैंने अपने पूज्य पितामह (साहित्याचार्य पं चंद्रशेकर शास्त्री) को पुकारा था। कई बार के प्रयत्न के बाद भी बाबा प्रकट न हुए। मुझे फिक्र हुई कि पिछली रात की मेरी निष्ठा और पुकार की व्यग्रता आज कहीं मंद तो नहीं पड़ गई है…? लेकिन नहीं, ऐसा नहीं था। मैं मिथ्या-चिंतन कर ही रहा था कि एक अपरिचित आत्मा स्वयं प्रकट हुई।
मैंने पूछा--'आप कौन हैं? अपना परिचय तो दें।'
आत्मा ने उत्तर दिया--'मैं 'चालीस दुकान' से आई हूँ। मुझे बहुत जरूरी बातें करनी हैं आपसे।'
इस उत्तर से मैं चकराया। मैंने कहा--'लेकिन मैं तो आपको जानता भी नहीं।'
आत्मा हठधर्मी से बोली--'जान जाएंगे। '
मैंने कहा--'कहिये, क्या कहना है आपको?'
उस चालीस दुकानवाली आत्मा ने कहना शुरू किया--'मेरा रोम-रोम जल रहा है। इतना ताप, इतना दाह है कि मैं आपको बता नहीं सकती।'
मैंने हस्तक्षेप किया--'ऐसा आप क्यों कह रही हैं ?'
आत्मा क्षण-भर को भी नहीं रुकी, बोलती गई--धाराप्रवाह--'उसे मेरे चरित्र पर संदेह था, लेकिन मैं पाक-साफ़ थी। उसने मुझे अपनी सफाई देने का अवसर भी नहीं दिया। मुझे जलाकर मार डाला। आज भी मेरा रोम-रोम जल रहा है।'
मैंने पूछा--"उसने, किसने ?'
आत्मा ने उत्तर दिया--'अरे. उसी मरदूद ने, मेरे पति ने और किसने!'
मैं हतप्रभ था। मैंने बात आगे बढ़ाई--'क्या आपके मायकेवालों को भी संदेह नहीं हुआ कि आपकी हत्या की गई है?'
आत्मा तड़पकर बोली--'अरे, मेरी ससुरालवाले बड़े शातिर निकले। सच को झूठ की चादर में लपेटकर उन्होंने मेरे घरवालों के सामने रखा। उन्होंने यक़ीन कर लिया। मैं आग से जली हुई ऐंठकर रह गई। क्या करती, किससे कहती अपने मन की...? मैं तो तभी से भटक रही हूँ…! आज आप मिले हैं तो कह रही हूँ अपने मन की...। आप मेरी मदद करेंगे न?'
कानपुर की जूही कालोनी से डेढ़-दो किलोमीटर के फासले पर 'चालीस दूकान' नामक एक स्थान है, जहां चालीस दुकानें एक क्रम से बनी हुई हैं। यदा-कदा मैं वहाँ जाता भी था, लेकिन दूर-दूर तक मेरे खयालों में भी कहीं नहीं था कि वहाँ से कोई आत्मा मेरे संपर्क में आएगी और बलात मुझसे बातें करेगी। उसकी बातों से इतना तो स्पष्ट हो गया था कि वह एक प्रताड़ित और अपमृत्यु को प्राप्त आत्मा है। मैं कमरे में अकेला था। उसकी बातों से थोड़ा भयभीत भी हो रहा था। तभी मुझे बाबा की हिदायतें याद आयीं--'ऐसी आत्माओं से परहेज करना चाहिए।' उसे वापस भेज देने के मेरे कई प्रयत्न निष्फल हुए। वह तो नाछोड़ बंदी निकली। मुझ अकेले के स्पर्श से भी बोर्ड पर ग्लास की गति इतनी अधिक थी कि कई बार मेरी ऊँगली का स्पर्श छूट जाता और ग्लास आगे निकल जाता था। चालीस दुकान की उस आत्मा से पीछा छुड़ाने में खासा वक़्त लगा। जब मैं आश्वस्त हो गया कि वह प्रस्थान कर गयी है तो मैंने चैन की सांस ली और बिस्तर पर गया।
(क्रमशः)