Faisla - 2 in Hindi Moral Stories by Divya Shukla books and stories PDF | फैसला - 2

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फैसला - 2

फैसला

(2)

-- माँ तुनक गई और बोली " आप भी न लड़कियों और बेल को बढ़ने में वक्त कहाँ लगता है, अभी से खोजना शुरू करेंगे तो दो तीन साल में मनमुताबिक घर वर मिलेगा, तब तक हमारी बेटी भी पन्द्रह सोलह की हो जायेगी, फिर शादी में बिदाई कौन करेगा हम तो तीन बरस बाद गौना देंगे , तब तक हमारी मेघा उन्नीस बरस की सयानी हो जायेगी और घरदारी भी सीख लेगी, ठीक कह रहे है न हम " बाबा इस बात पर मान गये | उन्हें भी लगा उनकी बेटी के लायक लड़का इतनी आसानी से तो मिलने से रहा तब तक समय भी बीत जायेगा और माँ भी संतुष्ट हो जायेंगी ---
पर भाग्य का लेखा कौन मेट सकता है -- माँ अब सबसे अच्छा घर- वर बताने को कहने लगी | उन दिनों इंटरनेट तो था नहीं न ही अखबारों में विज्ञापन से विवाह खोजे जाते थे बस जान - पहचान के लोगों से ही अच्छे रिश्ते पता चलते थे | मेरी माँ मेरी अन्नी जो अनपढ़ गंवार भी नहीं थी उस ज़माने में थोड़ी बहुत अंग्रेजी भी जानती थी, हम सबकी पढ़ाई के लिये बहुत सजग रहती | न जाने क्यों इतनी छोटी उम्र में मेरी शादी की बात करने लगी, शायद अप्पा की बीमारी ने उन्हें असुरक्षित कर दिया था |

उन्होंने अपने हर जानने वालों से मेरे लिये रिश्ता नजर में रखने को बोल दिया | मौका देख कर और अप्पा का मूड देख कर उन्हें भी याद दिलाती रहती | मुझे गुस्सा आता फिर सोचती अच्छा है कर दो मेरी शादी खूब दूर | तुम्हारी डांट से छुटकारा मिलेगा | शादी मेरे लिए तब इससे ज्यादा कुछ नहीं थी | मुझ पर अपने पिता का बहुत गहरा प्रभाव था | माँ मुझसे निकट नहीं थी अक्सर लगता उन्हें बेटे बेटी से ज्यादा प्रिय थे | शायद इसी ने मुझे जिद्दी बना दिया था ---पर बहुत अनुशासित भी थी | कहानियां पढना और सुनना बहुत अच्छा लगता उम्र ही ऐसी थी | मेरे इम्तिहान भी नजदीक आ रहे थे उधर शादी की बात भी तेज़ी से चल पड़ी | आखिरकार मेरी शादी तय हो गई रिश्ता उसी तरफ से आया | ठाकुर कामेश्वर प्रताप सिंह खानदानी रईस थे | अपने इलाके के नामी गिरामी और बड़े बिजनेसमैन भी थे | कई बार से इलेक्शन भी जीतते आ रहे थे | उन दिनों सरकार में मंत्री पद पर थे | उनके ही करीबी रिश्तेदार अप्पा के पास मेरे रिश्ते की बात करने आये वह मेरे बाबा के भी करीबी थे | शुरू में बाबा ने अधिक मन नहीं बनाया बस अनमना सा जवाब दे कर टाल गये | शायद मंत्री जी की छवि के कारण | लेकिन पता नहीं कैसे समझाया उन्होंने कि बाबा आखिर मान ही गये | उन्हें भी लगा दोनों परिवारों का सामाजिक परिवेश और आर्थिक स्तर एक सा ही है | उनकी बेटी को वहां परेशानी नहीं होगी | अप्पा ने वहां जाकर सारी बातें साफ़ -साफ़ कर भी ली | उन लोगों से यह भी कहा मेरी माँ मेरी पढ़ाई पूरी करवाने के पक्ष में है | कम से कम पोस्ट ग्रेजुएट तो कर ही ले बेटी |

सबने सब बातें मानलीं | खुले विचारों के लोग थे उनके एक बेटा और दो बेटियां थी | अप्पा ने शादी में विदा न करने की बात भी की और तीन साल में गौने की बात बताई | अम्मा जी यानी मेरी सास ने इस पर अपनी सहमति की मुहर भी लगा दी | उस दिन मेरी शादी करीब करीब तय करके बहुत प्रसन्न मन से घर आये मेरे पिता, जब माँ को सब बता रहे थे तब पहली बार माँ के चेहरे पर मुझे कोई ख़ुशी नहीं दिखी | वह इस रिश्ते से खुश नहीं लगी , न जाने क्यों उनका मन आशंकित था पर बाबा ने उन्हें समझाया " अरे सुनो तो लड़का बहुत सुंदर है अरे इतनी संपत्ति है फिर राजनीतिक घर है बाप के बाद बेटा ही तो उनका राजनीतिक वारिस होगा | "

अन्नी कुछ देर चुप रही फिर अप्पा से पूछ बैठी, " और पढने में कैसा है उमर कितनी है सब पता लगाया है आपने ? या बस कोठी, हवेली और उसके बाप का जलवा ही देख कर मगन हो रहें है, जिंदगी तो लड़के के साथ ही कटनी है कहीं अपने बाप के गुण सीख लिये फिर तो राम ही मालिक

"--- अन्नी की बात सुन अप्पा झुंझला गये

" अरे मेरी बेटी है मेरे प्राण बसते है उसमें उसे भाड़ में थोड़ी झोक देंगे | रही बात ठाकुर साहब की तो तुम भी जानती हो जब पद प्रतिष्ठा आती है तो लोगों में ईर्ष्याद्वेष भी आता है | मान लो कुछ प्रतिशत बातें सही भी हों तो राजपूतों में सब चलता है पर घर तो घर होता है, अपने बेटाबहू का ख्याल तो रखेंगे ही | दोनों प्राणी बहुत ही प्रसन्न लगे कह रहे थे, अब तो आप हमारे समधी हो गये | निश्चिन्त रहिये मेघा बेटी हमारी बहू नहीं बेटी बन कर आयेगी | अब से हमारी दो नहीं तीन बेटियां है, जैसे वह दोनों पढ़लिख रही हैं यह भी अपनी पढ़ाई पूरी करेगी | आप निश्चिन्त हो कर जाइए और भाभी जी से बात कर के रिश्ते की मुहर लगा दीजिये बस ....अब तुम्ही बताओ मेघा की माँ इस पर भी शक की गुंजाइश कहाँ रह जाती है | "

आखिर मेरी शादी मंत्री कामेश्वर प्रताप सिंह के बेटे विजयेन्द्र प्रताप सिंह से तय हो गई | विवाह की तारीख भी रख दी गई | अब तो वह तारीख भी याद नहीं मुझे पर शायद सत्रह फरवरी थी जिस दिन मेरी बरात आई | बहुत भीड़ थी सेंटर से लेकर प्रदेश तक में मंत्री और अधिकारी | अप्पा के मिलने वाले बहुत से लोग |

उधर से दो हज़ार बराती और बरात में पांच हाथी आखिर मंत्री के पुत्र की बारात थी | अधिकतर लोग दोनों पक्षों के जानने वाले थे |

इसलिए घराती बराती का पता ही नहीं चल रहा था | बहुत भीड़ थी हाथी पर सवार वर के पिता मुक्त हस्त से नोट लुटा रहे थे --सुनहरी अचकन और जरी के सेहरे में उनका बेटा नवयुवतियों के आकर्षण का केन्द्र था --इतनी भीड़ की द्वारपूजा कि सब तैयारी कहाँ गई पता ही न चला | तीन किलोमीटर से ज्यादा लंबी कार पार्किंग --मेरी चचेरी भाभी मुझे बालकनी में ले गई और कान में कहा, " मै आँखों पर से हाथ हटा रही हूँ तुम देख लो " | पहली बार मैने उन्हें देखा जिसे मेरे बाबा ने मेरे लिए चुना था | उधर द्वारपूजा की रस्में हो रही थी और इधर मै सो गई थी | तब उस उम्र में मुझे बहुत नींद भी बहुत आती थी | विवाह का मुहूर्त करीब आने पर मुझे तैयार किया गया | फूलों के गहने पहनाये गये और चौड़े लाल किनारे की पीली साड़ी | कोई सोनेचांदी का जेवर नहीं सिर्फ नाक में बड़ी सी नथ जो बहुत दुःख रही थी फिर भी पहनना ही था | साड़ी के ऊपर लाल चुनरी का लंबा सा घूंघट करवा के मुझे मंडप में ले आये और शुरू हुई रस्में | लंबे घूँघट में कुछ दिख नहीं रहा था मुझे | पीछे नाउन बैठी थी मुझे पकड़ कर और कुछ देर बाद नाउन के घुटनों पर पीठ टिका कर मै फिर से सो गई | क्या रस्मे हुई पता ही चला बस एक दो बार जाग गई जब माँ बाबा ने कन्यादान किया और हाथ पर ठंडा पानी गिरा और जब फेरों के लिए उठाया गया तो मेरा पांव सो गया था |सुबह पौ फट रही थी जब फेरे हुए | बाकी क्या रस्मे हुई कौन से सात वचन भराए गये मुझे पता ही न चला | अब सोचती हूँ जब मै सो रही थी, रस्में तक नहीं जानती तो कैसी शादी थी ? वे सात वचन किसने भरे ? मैने तो नहीं भरे | मै तो नींद में बेसुध थी | यह सब तो बहुत बाद में देखा अपनी भतीजियो और ननद की शादी में दुल्हे की मुस्कराहट दुल्हन के चेहरे की लालिमा | मुझे तो किसी स्पर्श में तब कोई सिहरन भी न हुई थी | दूसरे दिन बरात विदा हो गई --शहर में महीनों तक इस शादी की चर्चा रही ..

मेरी विदा होनी नहीं थी ---

माँ ने पहले ही कह दिया था गौना होगा | अन्नी तो चाहती थी विदा पांच साल में हो तकि मेरी पढ़ाई भी हो जाए और तब तक उन्नीस साल की उम्र भी हो जाए --- जिंदगी फिर पुरानी रफ़्तार पर लौट आई | मै स्कूल जाने लगी | सहेलियां वही, टीचरें वही, सब कुछ वही पर कुछ तो बदल गया था | दो चोटियाँ की जगह एक चोटी और सिंदूर भी लगा होता | मेरी स्कर्ट की जगह चूडीदार और कुर्ते ने ले लिया पर मेरे अंतर्मन की वह लड़की वैसी ही थी | मुझे ज्यादा दिलचस्पी अपनी पढ़ाई और खेलकूद में थी पर अब अन्नी ने काफी पाबंदियां लगा दी थी | अब मैं पराई थी मेरे शौक सिमट कर रह गए या यूँ कहें समेट दिए गये |स्कूल के फंक्शन में अब मुझे शामिल होने पर अन्नी ने मनाही लगा दी | समय अपनी गति से चलता गया| शादी को छह महीने हो गये -- अब मांबाबा पर साल के अंदर विदा करने यानी मेरे गौने की बात पर दबाव पड़ने लगा | माँ बहुत नाखुश थी इस बात से पर लड़के वाले जिद पर थे लेकिन झुकना तो लड़की वालों को ही था |तीन साल पर भी नहीं माने आखिर मेरी विदा की तारीख रख दी गई फरवरी के दूसरे हफ्ते में.....

अब मुझे भी अब डर लगने लगा था | कुछ नहीं आता था न घर संभालना न साड़ी पहनना न ही ससुराल के रिश्तों का महत्व ही | मैं तो सिर्फ घर से स्कूल और स्कूल से घर, बाकी कहीं माँ के साथ | बाबा को तो वक्त ही नहीं था -- शादी के बाद माँ नीचे भी खेलने नहीं जाने देती बालकनी से खड़े देखती रहती | कभी किसी सहेली घर भी नहीं गई, पता नहीं यह माँ का अहम था या कैसी सोच कभी नहीं समझ पाती |वह खुद भी नहीं जाती थी | अगर गई तो बस जरा देर को अब मुझे कैसे पता चलती दुनियादारी | सखियाँ सहेलियां भी तो मेरी ही उम्र की थी उन्हें भी क्या पता | हममे सिर्फ फिल्म के हीरो की बातें होती हीरो की हैंडसम पर्सनेलिटी और हीरोईन के नखरे उठाना ही मन को भाता | कभीकभी आपस में बात भी करते --उत्सुकता बहुत होती कि बस हीरो ने हीरोईन के गाल या हाथ चूमे और बस उसे अगले सीन में चक्कर आया या उल्टियां हुई ....अब यह तो पक्का था उल्टियाँ और चक्कर बच्चा होने का लक्षण है --पर हाथ और गाल पर किस करने से कैसे हो जाता है बच्चा !इस पर बड़ा दिमाग लगाया था हम दो सहेलियों ने पर नहीं पता चला | उन दिनों चचेरे भाई का ट्रांसफर भी मुंबई हो गया | भाभी भी साथ चली गई, लिहाज़ा मेरे गौने के महीनो पहले से ही वह नहीं थी | अब मुझे कौन समझाता इन रिश्तों के बारे में -- वैवाहिक जीवन के गूढ़ रहस्य मेरे लिए गूढ़ ही थे बताने वाली एक मात्र सूत्र भी दूर थी -----मेरी विदा की तारीख रखी गई और फिर वह दिन भी आ गया | मुझे अन्नी अप्पा और अपना बचपन गुड़ियों और सहेलियों को छोड़ कर जाना ही पड़ा | पन्द्रह साल की उम्र में मेरी विदाई हो गई विजयेन्द्र प्रताप सिंह के साथ | मुझे ले कर कार बढ़ चली मेरे नए घर की ओर | करीब दो सौ किलोमीटर दूर था पांच -छह घंटे लगे पहुँचने में | दूर से ही कोठी की झलक दिख गई और जैसे जैसे नजदीक आते गये लोगो की गहमागहमी और सजावट भी नज़र आने लगी | घर पहुँचने पर सासु माँ यानी अम्मा जी आईं और बड़े प्यार से मुझे थाम कर उतारा | कार से लेकरकोहबर तक चावल गुड, और रुपया भरे थाल रखे थे | परछन उतार कर मुझे अंदर उन्हीं थाल में चला कर ले गये | अम्मा मेरी गलतियों मुझे बताती रही | कोहबर आदि की रस्म खत्म कर मुझे आराम करने भेज दिया |अब मेरी ही उम्र की लड़कियां और छोटी ननद भी आ गई जिनके साथ मै सहज होने लगी |... मुझे साड़ी तक बांधनी नहीं आती थी, जितने दिन रही मेरी बड़ी ननद मुझे साड़ी पहनाती और तैयार करती मुंहदिखाई के लिए | जिस दिन ससुराल पहुंची उसी शाम पापा ने मुझे मुंह दिखाई के लिए ड्राइंगरूम में बुलवाया, मुझे अटपटा भी लगा पर --दोनों ननदें मुझे ले गईं मेरा घूंघट उठा कर चेहरा दिखाया --और ससुर जी, उन्होंने मुझे भारी सा हार दिया यह कहते हुए कि दिल्ली के बाजार का सबसे भारी और कीमती हार है मेरी बहू के लिए | सभी रिश्तेदार वहां जमा थे | वह हार मेरी नज़र में एक पिता का उपहार था | अब इसके बाद रात देर तक पार्टी और डांस का प्रोग्राम था जो सिर्फ घर वालों और रिशतेदारों के लिए ही था अगले दिन रिसेप्शन था ---

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