Is Dasht me ek shahar tha - 9 in Hindi Moral Stories by Amitabh Mishra books and stories PDF | इस दश्‍त में एक शहर था - 9

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इस दश्‍त में एक शहर था - 9

इस दश्‍त में एक शहर था

अमिताभ मिश्र

(9)

फिलहाल हम उन भाइयों की बात करें जिन्होंने बेतरतीबी से जिन्दगी जी उनमें से एक यानि गणपति बाबू का ब्यौरा हम ले चुके हैं। बाद को वे घर से दूर ही हो गए या कर दिए गए और बेटों का जीवन ठीक ही रहा। बेटियों की शादियां जो कि तीन थीं की भले घरों में हो गई और वे भी सुकून से जी रहीं हैं। अब हम आते हैं गणेशीलाल यानि छप्पू यानि नंबर तीन जिनकी पत्नी घर की सबसे जानकार। रसमो रिवाज और पंचायत में माहिर। जब सब इकठ्ठा होते रहे तो इस पूरेे घर की रसोई उन्हीं के जिम्मे होती थी पर गणेशीलाल यानि छप्पू का इन सबसे कोई लेना देना नहीं था। वे ए जी आफिस में उस समय काम किए जब घर में फाकाकषाी थी पर गनीमत थी कि उनके साथ शिब्‍बू भी साथ ही नौकरी कर रहे थे तो उन्होंने पूरा हिसाब किताब रखा और छप्पू के काम को भी ठीकठाक कर देते थे वे और उसके साथ उनका हिस्सा भी ले लेते थे जो घर के काम आता था ऐसा शिब्‍बू कहते थे। छप्पू ज्यादा दिन वह नौकरी कर न पाए और वापस लौट आए थे घर शिब्‍बू के हवाले मोर्चा छोड़कर। यहां आकर छोटे मोटे काम करते रहे मसलन कुछ ट्यूशन कुछ वकालत वगैरा। हां वकालत की पढ़ाई छप्पू ने की थी सो कभी कभार वकील का भी काम कर आते थे। उनका गुजर बसर चल रहा था। वे कई तरह की गतिविधियों में शामिल रहते थे कुछ कुछ भ्रमित से। बहुत पढ़े लिखे रहे वे। लगभग सारे वेद पुराण, भक्त कवि, राजनीति में भी महात्मा गांधी से लेकर मार्क्‍स ओैर भगतसिंह विवेकानंद वगैरा पता नहीं क्या क्या। सुकरात प्लेटो और ढेरों दार्शनिक। तो इतना पढ़कर वे भ्रमित हो गए। उन्हें किताब पढ़ने का शौक था। वे कुछ भी पढ़ सकते थे। गंभीर से गंभीर और हलकी से हलकी किताब तक। पढ़ने तक तो ठीक पर वे उससे प्रभावित भी तत्काल होते थे। उसका एकमात्र सुखद पहलू यह था कि वह प्रभाव क्षणिक होता था। किताबों का असर इतना कि दो किस्से समझने को पर्याप्त होंगे। दोनों एक दूसरे से अलग पर हैं किताब पढ़ने से ही जुड़े पर जो लोग छप्पू को जानते रहे हैं उनके लिए यह कतई आश्‍चर्य की बात नहीं थी।

पहला ऐसे कि एक बार छप्पू जी को घर के बाहर किसी साइकिल वाले ने टक्कर मार दी। छप्पू कायदे के आदमी थे और रांगसाइड वे पैदल भी नहीं चलते थे। बकायदा इधर उधर देखकर सड़क पर चलना और मुड़ते वक्त बकायदा हाथ देना तो ज़ाहिर है गलती साइकल वाले की ही रही होगी। छप्पू जी साइकल की टक्कर से गिर पड़े कोहनी घुटने छिल गय। गिरा साइकल वाला भी। छप्पू ने उठकर उसे उठाया उसकी साइकल उठाई उसका हैण्डिल सीधा किया और बोले ” भाई यह लो साइकल और जरा धीमे और सही चलाया करो।“ यह अतिरिक्त विनम्रता से बोला गया वाक्य था। साइकल वाले ने हाथ पैर झाड़े और हावी होने के इरादे से उन्हें एक झापड़ रसीद कर दिया।

”अरे भाई गलती तुम्हारी है फिर भी तुम मुझे मार रहे हो यह न्यायसंगत नहीं है“

साइकल वाले ने गाली बकते हुए एक और झापड़ मारा।

” मेरे भाई यह ठीक नहीं है। अकारण तुम मुझे मारे जा रहे हो पर फिर भी मैं तुम्हें कह रहा हूं कि भाग जाओ“

साइकल वाले को मजा आने लगा था और उसने एक और झापड़ रसीद किया।

”तुम्हें संतोष हो गया होगा। यह जो सामने घर दिख रहा है न इससे पहले कि कोई घर से बाहर निकले और तुम्हारा कचूमर बना दे तुम यहां से फौरन चलते नजर आओ“

साइकल वाले ने इतनी सज्ज्नता अपने जीवन में कभी नहीं देखी थी। उसे आनंद आ रहा था। उसने अपना सिलसिला जारी रखा और छप्पू जी ने अपना प्रवचन। वे दोनों अपना काम तब तक करते रहे जब तक भीतर से ठिगने से कद का पहलवान टाइप का आदमी नहीं निकला। यह हनुमान था जो सामने की खोली में रहता था और जब उसने देखा कि ख्प्पू को कोई पीट रहा है तो घर पर हांका लगा कर दौड़ पड़े कि अरे देख कोई खप्पू चाचा को कोई पीटत है। और साइकल वाले को पीटना शुरू कर दिया। तब तक घर से हर कद काठी का हर उमर का आदमी निकला और बिना किसी हील हवाले का और सवाल जवाब के साइकल वाले पर पिल पड़ा और वाकई उसका कचूमर बना दिया शब्दषः। वह अधमरा हो गया और जब सबने उस पर अपने हाथ साफ कर लिय तब उसे छोड़ा और छप्पू की तरफ मुखातिब हुआ गया और रमेश ने पूछ ही लिया

” का हे चच्चू तुम इस मरियल से काहे पिट रहे थे। तुम से तो उन्नीसा ही रहा“

”अरे हम सुकरात पढ़ रहे हैं इन दिनों“

दूसरा किस्सा छप्पू की दूसरी रेंज का है। वही स्थल, समय भी लगभग वही दिन अलबत्ता दूसरा था। एक साइकल वाला थका मांदा काम से लौट रहा था। छप्पू भई जैसे घात लगाए थे। उस दिन किसी ने टक्कर नहीं मारी थी और न ही कोई झंझट किया पर उन्होंने लपककर उसे पकड़ लिया और कैरियर से गिरा कर उसकी छाती पर चढ़ गए। जोर से चिल्ला चिल्लाकर उसे पीटने लगे। हलचल देख जैसा कि होता था कि वहां से फिर सब निकल पड़े। उसकी अच्छी खासी मरम्मत हो गई कारण बाद में पता करने की आदत है सो बाद में पूछा गया।

जवाब था ” दरअसल मैं इन दिनों कर्नल रंजीत पड़ रहा हूं। लगा ये आदमी कहीं से खून करके भाग रहा था“

ग़नीमत यह थी कि यह असर बहुत कम समय के लिए ही होता था और छप्पू कुछ और करने या पढ़ने लगते थे तो कर्नल रंजीत का बुखार तब तक उतर चुका होता था। छप्पू पढ़ने लिखने में बेहद उदार थे, वे कर्नल रंजीत से सुकरात तक, माक्र्स से हिटलर तक, कम्युनिज्म से ठेठ आध्यात्म तक जिसमें ओषो से लेकर वेद पुराण, धार्मिक किताबों से लेकर काॅमिक्स तक, फिल्मी पत्रिकाओं से लेकर साहित्यिक लघु पत्रिकाओं तक, एकदम साहित्य से लेकर मस्तराम तो वे कुछ भी पढ़ सकते थे और दिलचस्प उनकी याददाश्‍त भी थी जो बहुत सारे प्रसंगों को याद में बनाए रखती थी। यूं वे एक भुलक्कड़ किसम के व्यक्ति भी रहे हैं। इस संबंध में भी तमाम किस्से चलते हैं। मसलन एक बार वे साइकिल पर सब्जी लेने गए और वापस पैदल आ गए और बाद को अपनी साइकल ढूंढते रहे। वो तो भला हो उनके बेटे का जिसे याद रहा कि वे साइकिल से सब्जी लेने गए थे। इस बार वे लाए तो सब्जी ही थे पर साइकिल भूल आए थे मंडी में। खैर फिर वे लाए साइकिल मंडी से। चष्मा पहन कर चष्मा ढूंढना, लुंगी पहन कर लुंगी ढूंढना बहुत ही सामान्य था। सबसे मजेदार तो ये रहा कि एक दिन नंबर तीन यानि अपनी पत्नी ही से बोल उठे ”आपको कहीं देखा है बहिन जी“

नंबर तीन खौखिया कर चिल्लाई ” बहिन जी होगी आपकी अम्मा यानि दादू कभी पूछना उनसे ऐसे तो बताएंगी वो हां नही तो हां“

छप्पू भैया एकदम अपनी औकात में थे ”अरे ये तो तुम हो। हम तो भूल ही गए थे“

”ऐसे भूला वूला न करो तो नीक रहेगा हां नही तो हां “

गणेशीलाल ने एल एल बी किया था सो कभी कभी वकालत कर लिया करते थे। गणपति और गजपति के साथ कभी कभी शाखा भी चले जाते थे। वहां कुछ लोगों से संपर्क हुआ तो वे उनके एक अनुषंग संगठन मजदूर संघ से जुड़ गए और ठेला मजदूर और हम्माल संघ का काम देखने लगे थे। इसी के पदाधिकारी होने के चलते आपातकाल के दौरान वे गिरफ्तार भी हुए और जेल रहे उन्नीस महीना मीसाबंदी के बतौर। तकलीफ भरे दिन थे वे पर कट ही गए संयुक्त परिवार में एक दूसरे के सहारे और खप्पू की पैसों की मदद के सहारे। बाद को उन्हें चुनाव वगैरा में सांसद या विधायक का टिकट मिलने की बात चलती रही पर नहीं मिला हालांकि दो बड़े फायदे उन्हें मीसाबंदी के ये हुए कि उन्हें अदालत में नोटरी का काम मिल गया और बेटे को मीसाबंदी होने के कारण मेडीकल में एडमिशन। वे इसमें ही संतुष्ट थे जबकि उनसे कमतर लोग मंत्री बन गए हाइकोर्ट जज बन गए और निगम मंडलों के अध्यक्ष बन गए।

वे एक अजीब घालमेल रहे। आचार व्यवहार, सोच विचार में भारी भ्रमित। वे माक्र्स से लेकर गुरू गोलवलकर तक हिटलर से लेकर गांधी तक के अनुयायी थे। ट्रेड यूनियनों में वामपंथी यूनियनों के साथ काम करते करते वे भारतीय मजदूर संघ तक आ गए। ठेला और हम्माल शाखा के प्रभारी रहे वे और उसी के चलते वे आपात काल में गिरफतार तक हुए पर जेल में फिर वे समाजवादियों के साथ थे। समाजवादी उनके अच्छे दोस्तों में रहे। मीसाबंदी की पेंशन भी पाई। विधायक बनते बनते रह गए ।

घर बार के मामलों में ज्यादा पड़ते नहीं थे पर रिश्‍ते जुड़वाने में अव्वल नंबर थें वे। घर के ऐसे लड़के लड़कियों जिनके रिश्‍ते जुड़ने में दिक्कतें आ रहीं थी उन्होंने उन सब के रिश्‍ते बकाएदा लड़के लड़की ढूंढ ढूंढ कर जमवाए। मसलन विनायक भैया की दो बड़ी लड़कियों के लिए लड़कों को बताया। उनके रिश्‍ते भी वहीं हुए। फिर शिब्‍बू की दोनों लड़कियों के लिए भी उन्होंने ही लड़के बताए। अब वो बात अलग है कि यदि उनकी ही लड़की का मसला होता तो वे उन लड़कों को नहीं चुनते जो उन्होंने इन दोनों के लिए चुने। हालांकि वे दोनों डाक्टर थे एक आयुर्वेद के जो ठैठ गांव में ही रहते थें और दूसरे थे मुकम्मल एम बी बी एस डाक्टर।

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