मुख़बिर
राजनारायण बोहरे
(25)
कारसदेव
मैने अनुभव किया था कि बीहड़ में हम जिस भी गांव के पास से निकलते हरेक ज्यादातर गांवों के बाहर एक चतूबतरा जरूर बना होता । कृपाराम पूरी श्रद्धा से उस चतूतरे पर सिर जमीन पर रखकर प्रणाम करता ।
मुझ लगातार यह उत्सुकता रहने लगी कि इस जैसा हिंसक आदमी कौन से देवता को इतना मानता है, किसी दिन पूछेंगे ।
एक दिन मौका देख कर मैंने पूछा तो कृपाराम ने बताया-ये हम ग्वाल बालों के देवता हीरामन कारसदेव है ।
’इनकी कथा हमने कहीं सुनी नहीं, दाऊ किसी दिन सुनाओ न !‘मेरी उत्सुकता थी ।
कृपाराम ने आष्वसन दिया कि जिस दिन कोई गोटिया मिल गये, संग में ले आयेंगे और सब लोगों को कारसदेव का किस्सा सुनायेंगे । बहुत दिनों से कारसदेव की गोट नही सुनी, हम सब भी सुन लेंगे ।
उस दिन राशन लेकर लौटे अजयराम के साथ पीले से साफे, घुटन्ना धोती और मटमैली हो चुकी कमीज वाले चरवाहे जैसे तीन-चार आदमी भी जाने कहां से चले आये थे । लल्ला धीमे से बुदबुदाया-‘ लो जे चारि पेट और वढ़ि गये । अब जाने कितने दिन तक अब इन चार संड- मुसंड आदमियों को भी रोटी बनाना पड़ेगी !‘
रात को जब खाना बनने लगा अजयराम ने लल्ला पडित को दूध की केन दिखाई-‘ सुनि ले रे पंडत ! केन मे से दूध निकारि ले, आज खीर बनेगी अपने यहां, ख्ीर को ही भोग लगतु कारसदेव को ..........और आज तनिक धो-मांजि के रोटी बनइये, जूठ-बिठारो मति कर देइये । ‘‘
जब भोजन बन गया, कृपाराम ने कहा-‘‘ अबे रोटी मति परसिये रे पंडत! जे गोटिया पधारे है अपने हिंया ! जे कारसदेव की कथा सुनावेंगे, फिर भोजन-पानी होयगो अपुन सबको ।‘‘
........और उन चारों में से एक दुबले पतले से आदमी ने अपने भारी भरकम झोले में से सामान निकलाना शुरू किया- डमरू जैसे स्वरूप का फिट-डेढ़ फिट लम्बा पीतल का एक ढोल और पूजाका सामान (यानीकि रोरी-चावल-कलावा-खोवा की मिठाई के अलावा अगरबत्ती का एक छोटा सा पैकेट भी )उसने निकाला । आखिरी में उसने एक नया कम्बल निकाला ।
एक ऊंची सी जगह को साफ करके कम्बल बिछाया गया, जिस पर गोटिया लोग बैठे । गोटियों के आसपास बागी भी बैठ गये और तिरपाल सरका के अपहृत लोग भी खिसक आये ।
गोटियों के सिर हिलने लगे। बुजुर्ग सज्जन ने कान पर हाथ धरा और लम्बा सुर साधा- ये ये.......
ये वरदानी कहिए, ये रजबोला नाम
एलादी करी तपस्या, भोला रे.........
वरदान ले आई भोला से, निरभैया रे.......
वे लोग दो घंटे तक मिल जुल कर गीत गाते रहे । बाद में सियावर रामचंद्र की जय के साथ उनने जय बोली, गाना बंद किया और पसीना पोंछने लगे ।
लल्ला पंडित ऐसे समय में ज्यादा निकटता दर्शाता है, उसने बड़े श्रद्धा भाव से उन बुजुर्ग सज्जनसे पूछा-‘‘ दाऊ, जि कथा बोलि के नहीं सुनाइ जा सकत्तु ! गायवे में तनिक समझु नही पड़ रही ।‘‘
‘‘ खूब सुना सकतु । तुम सबमें धीरज है ?‘‘ बुजुर्ग सज्जन बड़े उत्साहित थे ।
‘‘ बोलिके सुननो है तो पहले रोटी-पानी है जान देउ, फिर सुन लेइयो ।‘‘कृपाराम ने बीच में दखल दिया तो लल्ला पंडित सहम कर उठ गया और खाना परसने की मिसल लगाने लगा ।
खा-पी कर वे लोग आराम से बैठे थे कि वे बुजुर्ग सज्जन कथा सुनाने को उत्सुक हो उठे, ‘‘हां तिममे से पंडित कौनु है जो कथा सुनिवो चाह रहो हतो ?‘‘
‘‘ हम हैं दाऊ‘‘ लल्ला पंडित उछाह में भर उठे ।
........और वे बुंजुर्ग सज्जन कथा सुनाने लगे ।
गड़राजोन एक नगर था, वहां राजू नाम के एक गूजर महाराज रहते थे । गूजर भी ऐसे समृद्ध कि घर में ईश्वर का दिया सब कुछ । डांग में उनका करियल (भैंसों) का समूह चरने का छूटता तो काला समुंदंर हिलोरे लेता दीखता । सार में से गायों का समूह छूटता तो धरती सुफेद हो जाती । दूध दुहने के लिए मईदार जुूटते तो छोटा-मोटा तला भर जाता । बड़े-बड़े कडाह दूध से भर जाते, ओंटने के लिए भटटी पर रखे जाते तो कोसन दूर तक दूध के औेटने की सोधी सी खुशबू छा जाती । घर में अल्ले-पल्ले दूध-घी होता, भीतर बिण्डा में नाज का भण्डार और घरवाली की कुठरिया में हीरा-मोती की डलियें भरी धरी रहतीं ।
राजू का एक छोटा भाई गोरे था, जो अपने बड़े भाई के प्रति अपार श्रद्धा रखता और उनकी आज्ञा का अक्षरसः पालन करता था । घर में सोडा नाम की सुलक्षिणी-सर्वगुण सम्पन्न पत्नी थी, सन्तानों में एक लड़का सूरपाल और बेटी एलादी । एलादी ऐसी सुन्दर, ऐसी खपसूरत, ऐसी सलोनी कि राजा इन्दर के दरबार की अप्सरा उसके सामने पानी भरे । अंग अंग में सुंदरता दीपती, बदन से कमल की गंध छूटती, रूप की ऐसी छटा कि मनुज की बात कौन कहे, जड़-चेतन माने पशु-पक्षी, देवता-दानव, सिद्ध़-जिन्न-भूत प्रेत जो भी उसे एक बार देख ले मोहित हो जावे । गांव में निकलती तो रोशनी सी हो जाती । गांव में एक अकेला घर गूजरों का, बाकी सब जाट, जिनकी आंखों मंे सदा से राजू गूजर की तरक्की अखरती थी और हमेशा मौका की तलाश मे रहते, जब कि राजू को नीचा दिखायें ।
ऐलादी बारह बरस की हुई, जवानी आने को थी कि राजू को उसके ब्याह की चिन्ता हुई । कुंवर ढूढ़े जाने लगे । गुजर समाज में जहां -जहां कुंवर होनेकी खबर होती राजू अपनी लड़की के लिए लड़का देखने पहुंच जाते ।
उधर जाटों ने मिल बैठ कर विचार किया कि राजू अकेला है, कमजोर है, इसकी लड़की इतनी खपसूरत कि साक्षात लछमी, जहां जायेगी उजाला कर देगी । गांव का धन गांव से बाहर काहे जाये, राजू से कह दो कि गांव में लड़को की कमी नहीं है, जाट विरादरी में से किसी भी लड़के को पसंद कर लो, लड़की का ब्याह आन गांव के लड़के सेस काहे करते हो, यही ंकर डालो । और कोई न जमता हो तो राजा जनवेद के कुंवर से पक्की कर दो । राजू तक बात पहुंची तो राजू को जैसे झटका लगा, अपनी विरादरी छोड़ के काहे को आन विरादरी में बिटिया ब्याहें ! सोचा मना कर देंगे सीधे-सीधे !
फिर बुद्धि ने चेताया कि अगर सीधे मनाही कर देंगे तो जाटों की हुकूमत है, सब मिलके हाल ही चढ़ बैठेेंगे ओर मरजी-बेमरजी बेटी ब्याह ले जायेंगे ।
फिर क्या रस्ता बचा है ?
गांव मे ंरहेंगे तो राजा की ‘हांजू हांजू‘ कहना पड़ेगी । बैटी जाटो में ब्याहना पड़ेगी । इससे बचना है तो गांव से बाहर जाना पड़ेगा । बाहर कहां ? चौरासी कोस तक के फेरा में जाटों के घोड़े रोज पहरा लगाते बिचरण करते है.....कहीं भी जाओ, उनके घेरे में ही रहोगे । दो दिन तक घर द्वारे बंद रहे, पति-पत्नी बैैठे-बैठे घोकते रहे, क्या करें.....कहां जावें..? कैसे बचें जाति डूबने से !
सहसा राजू महाराज ने निर्णय लिया, जे देश छोड़ चलो । आन देश चलो, जहं इन जाटों का राज न हो ।
राजू महाराज का निर्णय पत्नी ने हां कह के माना, भाई गोरे ने पांव छू के माना, बच्चे तो निराट छोटे थे वे बेचारे कहां से तरक करते ।
रतोंरत तैयारी हुई । और कुछ तो ले नहीं जा सकते थे अकेली करियल ही गूजर की दौलत होती है सो दुधारू करियल छांटी और हांक के रात को ही गोरे को चले जाने का इशारा किया। कहा रास्ते में र्कोई मिले तो कहना हरी घास की तलाश में दुधारू भैंसें चराने ले जा रहे हैं । चरागाह की तलाश में दूर-दूर तक भटकना पशु पालको की सदा से आदत रही है, सो कोई काहे का शक करता । छोटा भाई गोरे भैंसे-पडे़रू लेकर चल पड़ा, और चलता ही रहा, रात दिन की मंजिल करके तीन दिन मे ंवह जाटों की सीमा पार कर गया और राजपूताने में पहुंच गया । इधर गोरे के राजपूताने में पहुंचने का आंदाज लगाके राजू ने तनिक सी रात होते ही पत्नी और बच्चो ंको लिया और बिना सामान के घर छोड़के चल दिया । पत्नी सोडा को दुख था कि घर छोड़ा, बाखर छोड़ी, खेत छोड़ेे खलिहान छोड़े, उड़ना-कपड़ा छोड़े, बासन भांडे़ छोड़े और गहना गुनिया छोड़े ; यहां तक कहे कि घर में हीरे रखे हीरा-मोती भी छोड़ के जाना पड़ रहा है । सोडा की आंखों में आंसू आये तो राजू ने डांटा-चलते समय रोते नही हैं भागमान, असमुन होता है ।
आंसू पोछ के सोडा तेज कदमों से चल दी । आगे राजू, बीच मे दोनों फोहा भर के बच्चे और पीछे पीछे सोडा ऊंची-नीची धरती पर, पगडण्डी-रास्ता छोड़ के दूर-दूर चले जिससे पांव के निशान तक न रहें । रात पूरी बीती, सूरज उग आया । काहे का नहाना काहे का धोना, जब विधाता की विडमना होती है तो सब बातें भूल जाना चहिये । आंत से निकले बच्चे थकान से बेहाल थे, उन्हे पुटरिया में बंधी रोटी निकाल के खवाईं और चलत चलते ही खाने को दे दीं ।
संझा होते होते वे लोग गोरे से जा मिले और सबने एक नदी किनारे रात बिताई । चोंपे भी थक चुके थे वे भी बैठे, तो आंख मूंद के गहरी नींद मे सो गये ।
विहान हुआ । नहा धोके राजू ने सगुन बिचारा और फिर से नाक की सीध में चलती धरदी । रास्ते में बगरैत भूरे जाट का राज पड़ा, और उसने इतने करियल देखे तो नीयत बिगड़ गई । उसने अपने आदमियों के साथ राजू पर हमला कर दिया । बेचारे राज और गोरे दो जने क्या करते ! अच्छी अच्छी करियल भूरे न छुड़ा लीं । बची खुची लेकर राजू और गोरे आगे बढ़े ।
किसने कोस गिने, किसने रास्ते के गांव देखे, जाने कितनी दूर पहुंच गये थे कि दूर से एक बड़ा सा नगर दिखा । एक राह चलते राहगीर से उस शहर का नाम पूछा तो पता लगा कि वह झांझ शहर है ।
दूर से दिखा कि चारों ओर खूब हरियाली है, रेत के बीच में स्वर्ग सा दिख रहा था वो शहर । राजू का मन खुश हो गया । उन सबने जल्दी से कदम बढ़ाये और बात की बात में शहर के कोट के सामने जा खड़े हूुए । बड़े दरवाजे से नगर में दाखिल हुए, दरवाजे पर बैठे पहरेदारो ंने नाम-पता पूछा तो लिखाया: नाम-राजू, निवासी-गड़रा जोन, यहां आने का कारण- गांव मे ंविपता पड़ी सो जनमभूमि छोड़के काम-धंधे की तलाष में आये हैं।
झांझ में खूब हरियााली थी, खूब पानी था, कमी थी तो दुधारू ढोरों की, सो बात की बात में राजू गूजर की भैंसों का दूध झांझ के हाट-बजार में नामी हो कर छा गया । चार-छह दिन मे लगने लगा कि सही ठौर-ठिकाने पर आ गये हैं, अब विपदा के दिन आराम से कट जायेंगे । लेकिन बुरे दिन कब आयेंगे..... विधना के ऐसे लेख किसने देखे हैं......? विपदा ने अभी पीछा नहीं छोड़ा था,
हरियल घास उपजाने वाले उपजाऊ जमीन से चली भैंसे यहां पीली जमीन में सूख् मोसम में आई तो उनकी देह मौसम का ताप न झेल सकी और सब की सब बीमार हो गई, एक को देखा तो दूसरी, और दूसरी को देखा तो तीसरी ।एक एक कर भैंसे जमीन पर पसरने लगीं, जिसे देख पहले गोरे घबराया फिर सोडा और बच्चे डरे, फिर राजू ने उन्हे देखना भालना शुरू किया । लेकिन न बीमारी समझ में आये न बेजुबान जानवरो की पीड़ा, सो बस महादेव शंकर ही एक मात्र भरोसा थे, उन्हे मन ही मन सिमरते हुए घर में जो तेल-गुड़ था वही दवा मान कर भैसों को पिलाना लगे । लेकिन बीमारी तो ऐसी आई थी कि महामारी बन गई । सांझ तक एक एक कर भैंसे लेटने लगी और जो भी लेटती आंखे टेड़ी कर लेती ।
वो रात कालरात्रि बन कर आई, सारी भैंसे एक ही रात में पसर गईं । सारा घर रो पड़ा । अब क्या होगा ?
भैंसों की मृत देह ठिकाने लगा कर लौटे राजू का मन भविष्य की चिंताओं में उलझ गया था ।
...........और काल की गति किसने देखी है ! गड़राजोन में हल्के-पतरे राजा की तरह जीवन जी रहे राजू की करम लेख से आज क्या गति हो गई थी ।
जब परिवार की गति देखी नहीं गई तो एक दिन सोते में अपना घर छोड़ कर राजू और गोरे जाने कहां को चलेे गये । सुबह मां और बच्चे उठे तो परेशान हो गये कि पिता और काका कहां गये ?
एक दो दिन इंतजार किया फिर मां ने बच्चों के खाली पेट में कुछ डालने के लिए खुद कुछ करने का फैसला किया, वे भटकती हुई झांझ के राजा के यहां पहुंची ओर पहरेदार से पूछा कि कोई काम हो तो वे मजदूरी करने तैयार है । पता लगा कि रसोई में गेहूं पीसने के लिए एक मजदूर की जरूरत है, बेचारी सोडा तैयार हो गई । सांझ तक उसने गेंहू पीसे और रात को घर जाने लगी तो घर भर के लिए भोजन की पत्तल और आटा मिल गया ।
एलादी को मां का यह मजदूरी करना उचित नहीं लगा, उसने मना किया कि मां ऐसे किसी के यहां मजदूरी करना ठीक नहीं है, कुछ और कर लो ।...लेकिन अड़साठ साल की बूढ़ी मां करती भी तो क्या ? उसने कह दिया कि तुम्हे बुरा मानना है मान लो, मुझे तो यही करना पड़ेगा, मेरी मजबूरी है ।
नाराज एलादी का मन बुझ गया । अगले दिन वह सुबह सबेरे उठी और बिना किसी को बताये चुपचाप घर छोड़ के बाहर निकल गई ।
मां सोडा बडी परेशान हुई और थक-हार के अपने काम पर चली गई । मां का रोज का यही क्रम चलने लगा, सुबह उठ कर राजा के यहां काम पर जाती, रात को मजदूरी में भोजन और आटा लेकर लौटती । मां बेटे खाते और सो जाते ।
उधर एलादी का मन बड़ा दुखी था सो वह भटकती हुई जंगलो की तरफ चली गई, और वैरागिन बनके यहां-वहां भटकने लगी । जंगलों में उसे एक मंदर का सूना खण्डहर दीखा, तो वह उस खण्डहर में जा पहुंची । बियाबान जंगल में अकेले उसी खंडहर मंदिर में रह कर एलादी गीली मिटटी से बहुत सारे शिवलिंग बनाती और बड़े भक्ति भाव से उनकी पूजा करती । इस तरह एलादी शिव भाक्ति करने लगी । उसे सुबह शाम जब भूख लगती तो वह यहां-वहां पड़े वृक्षों के पत्ते उठा कर खा लेती ।
उधर एलादी के पिता और काका भटकते हुए लुहार राजा के यहां जा पहुंचे थे, जहां राजा ने अपने यहां एलादी के पिता राजू के लिए भट्टी में कोयला झोंकने और काका गोरे को ढोर चराने के काम पर रख लिया ।
इस तरह बारह वरस बीत गये ।
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