Kaun Dilon Ki Jaane - 12 in Hindi Moral Stories by Lajpat Rai Garg books and stories PDF | कौन दिलों की जाने! - 12

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कौन दिलों की जाने! - 12

कौन दिलों की जाने!

बारह

बसन्त पंचमी से एक दिन पहले सायं पाँच बजे तक रानी की ओर से पटियाला आने, न—आने के बारे में जब कोई समाचार नहीं आया तो आलोक अन्दर—ही—अन्दर बेचैनी अनुभव करने लगा। एक बार तो उसके मन में आया कि फोन करके पता करूँ, लेकिन दूसरे ही क्षण पच्चीस जनवरी को रानी की कही बात स्मरण हो आई, जब उसने चाहे स्पष्ट रूप में तो मना नहीं किया था, किन्तु कोई पक्का आश्वासन भी नहीं दिया था। आखिर सात बजे के लगभग रानी का फोन आया। देर से फोन करने के लिये क्षमा माँगते हुए उसने बताया — ‘चार बजे के लगभग मेरी दो पड़ोसनें आकर बैठ गईं और पंजाब के चुनाव को लेकर बहस करने लगीं। एक ‘आप' पार्टी का बहुमत और सरकार बनने की बात कर रही थी तो दूसरी ‘आप' की दिल्ली में नाकामियों का बखान तथा शिअद—भाजपा सरकार द्वारा पंजाब के युवावर्ग को नशों का शिकार बनाने के लिये जिम्मेदार ठहराते हुए कांग्रेस की जीत के प्रति आश्वस्त थी। राजनैतिक बहस के बाद शुरू हो गई मोहल्ले भर के घरों की चुगली गाथा। बहुत कोशिश की कि उनसे पीछा छूटे और तुम्हें फोन लगाऊँ, किन्तु उनकी ‘रामायण' खत्म होने में ही नहीं आ रही थी। पाँच मिनट पहले ही वे गईं हैं तो चैन आया है। तुम जरूर बेताब होंगे कल के प्रोग्राम के बारे में जानने को! मैं आऊँगी एक—डेढ़ बजे तक और ठीक चार बजे वापस निकल लूँगी, इससे ज्यादा नहीं रुक पाऊँगी।'

‘ठीक है भई, जितने समय के लिये भी तुम्हारा साथ मिलेगा, उतने में ही सन्तुष्ट हो लेंगे।'

बसन्त पंचमी से तीन—चार दिन पूर्व पहाड़ों पर लगातार बर्फबारी तथा मैदानी इलाकों में दो दिन की निरन्तर वर्षा तथा बर्फीली हवाओं ने लोगों को घरों में बन्द रहने के लिये विवश कर दिया था। रजाई और रूम—हीटर ही कड़ाके की सर्दी से राहत दे रहे थे। लेकिन बसन्त पंचमी वाले दिन कड़ाके की सर्दी का नामो—निशान न था। सर्दी की मार बहुत हद तक जाती रही थी। हवा की ठंडक शरीर में कँपकँपी उत्पन्न करने की बजाय सुहानी लगने लगी थी। युवाओं ने तो गर्म कपड़ों को अगली सर्दी तक सम्भालना शुरू कर दिया था। दिन में तो सूर्य की किरणों की तपिश के चलते युवावस्था पार कर चुके लोगों को भी गर्म कपड़ा पहना मुश्किल लगने लगा था। लगता ही नहीं था कि सर्दी का मौसम है। कहावत भी है कि ‘आया बसन्त, पाला उडन्त।' बसन्त की हवाओं के चलते वृक्षों के पुराने हो चुके पत्ते झड़—झड़ कर मोहाली की चौड़ी—खुली सड़कों पर तथा पार्कों में स्वच्छन्द उड़ने लगे थे। वृक्षों की शाखाओं पर नये पत्तों की कोंपलें भी अपना अस्तित्व दिखाने लग गई थीं।

एक दिन पूर्व हुई बातचीत के अनुसार रानी समय पर पटियाला पहुँच गई। उसने बसन्ती रंग की साड़ी पहनी हुई थी। आलोक ने उसे देखते ही कहा — ‘वाह, बसन्त के रंग में रंग कर आई हो! बहुत खूबसूरत लग रही हो।'

‘बसन्त—उत्सव मनाने आना था तो मैंने सोचा, क्यों न इसी रंग की साड़ी पहनूँ। अब तुमने भी तारीफ कर दी तो अपनी पसन्द पर मान हो रहा है।'

‘खाने का टाईम है। आओ, खाना खा लेते हैं। यदि तुम्हारा चाय पीने का मूड हो तो पहले चाय पी सकते हैं।'

‘इस वक्त चाय नहीं, खाना ही खाते हैं।'

आलोक ने पतंग—डोर आदि का प्रबन्ध कर रखा था। खाना खाने के बाद दोनों ने छत पर जाकर पतंग उड़ाई। अड़ोस—पड़ोस की सारी छतों पर पतंग उड़ाने वालों का जमावड़ा था। कुछेक आलोक और रानी के हमउम्र लोग भी थे, किन्तु वे अपने बेटों—पोतों के संग बसन्त का आनन्द ले रहे थे। भिन्न—भिन्न रंगों तथा आकार के पतंगों से आसमान अटा पड़ा था। आधा—पौना घंटा पतंग उड़ाकर आलोक और रानी नीचे आ गये। चाय बनाते तथा पीते समय बचपन की पतंगबाजी की स्मृतियों को दुहराया। क्योंकि समय कम था, इसलिये जिस तरह से आलोक बसन्त का सारा दिन रानी के साथ बिताना चाहता था, सम्भव न था। यदि कहीं रानीे आधा दिन भी निकाल पाती तो आलोक उसके साथ काली माता के दर्शन करना चाहता था, उसे बारादरी घुमाना तथा यूनिवर्सिटी की लाईब्रेरी तथा गुरु गोबिन्द सह भवन दिखाना चाहता था। उसने रानी से उसकी विवशता का कारण भी नहीं पूछा। ठीक चार बजे रानी ने आलोक को ‘सी यू अगेन' कहकर मोहाली का रुख किया।

***