मेरे अब तक के जीवन का सबसे कठिन उपन्यास श्रीलाल शुक्ल जी द्वारा लिखित "रागदरबारी" रहा है जो कि व्यंग्यात्मक शैली में लिखा गया है। कठिन इसलिए नहीं कि उसकी भाषा दुरूह क्लिष्ट एवं अपठनीय थी अथवा ये बहुत ज़्यादा घालमेल वाला, लंबा, नीरस एवं उबाऊ था। इस सबके विपरीत उपन्यास बहुत ही रोचक ढंग से लिखा गया है और पढ़ते वक्त मन को इतना ज़्यादा आनंदित करता है कि आप उसे और ध्यान से पढ़ने लगते हैं कि कहीं कुछ छूट ना जाए।
इस उपन्यास को श्रीलाल शुक्ल जी ने 1964 के अंत में लिखना शुरू हुआ और 1967 में लिख कर पूरा समाप्त किया। 1968 में ये पहली बार छपा और 1969 में इसे साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी मिला। 1986 में इस पर दूरदर्शन के लिए एक धारावाहिक भी बनाया गया जो कि काफी सफल साबित हुआ। अब तक इसके दर्ज़नों संस्करण और पुनर्मुद्रण हो चुके हैं। ये समझ लीजिए कि आज से 50 साल पहले उन्होंने जिस जिस चीज़, जिस जिस बात , परिस्थिति या घटना का अपने इस उपन्यास में उल्लेख किया, वही सब कमोबेश आज भी हमारे समाज में किसी ना किसी रूप में घटित हो चुका है और अब भी हो रहा है। हमारे समाज, नेताओं,सरकारों, अफसरशाहों में अब भी तब के मुकाबले रत्ती भर भी बदलाव नहीं आया है। वही लालफीताशाही, वही भ्रष्टाचार, वही धांधली, वही चुनावी जोड़तोड़, वही दबंगई, वही हरामखोरी की लत, वही गंदगी से घिरे शहर और गांव, वही औरतों और लड़कियों को देख लार टपकते युवा..प्रौढ़ एवं अधेड़। मिड डे मील सरीखी स्कीम का गायब होता राशन, सरकारी अस्पतालों से गायब होती दवाइयाँ, चोरी छिपे बिकते नशीले पदार्थ।
उपन्यास ऐसा कि पढ़ते वक्त हर एक दो पेज में बरबस आपकी हँसी छूट जाए और खुद आप ये महसूस करें कि यार ..ये तो बहुत मज़ेदार बात कह दी श्रीलाल शुक्ल जी ने। कहीं पर गहरे कटाक्ष, कहीं तीखे व्यंग्य, कहीं धारदार नुकीली..पैनी भाषा और उस पर भी धाराप्रवाह लेखनशैली कि पढ़ने वाला बस...वाह कर उठे।
मेरी राय में अगर इस उपन्यास का पूरा मज़ा लेना हो तो इसे थोड़ा रुक रुक कर पढ़ा जाना चाहिए जिससे कि इसका देर तक इसका मज़ा बना रहे। मनोरंजन की भी एक साथ ज़्यादा लंबी डोज़ बदहज़मी का सबब बन सकती है।
ये उपन्यास एक तरह से व्यंग्य या हास्य लेखन करने वालों के लिए एक पूरा स्कूल, एक पूरा विश्वविद्यालय है। इनको पढ़ कर अगर कुछ सीख लिया तो समझो आपका जीवन धन्य हो गया और इनको अगर नहीं पढ़ा तो समझो बहुत कुछ छूट गया। एक खास बात और कि अब तक मैं जिन व्यंग्यकारों को पढ़ चुका हूँ उनमें मुझे आज के समय में ज्ञान चतुर्वेदी जी का और व्यंग्यकार सुभाष चन्दर जी का लेखन श्रीलाल शुक्ल जी की ही शैली को और आगे बढ़ाता हुआ लगा।
कॉपीराइट से मुक्त होने के कारण ये उपन्यास आपको बहुत से प्रकाशकों के पास मिल जाएगा लेकिन मैंने इसे अमेज़न से ऑनलाइन मंगवाया जो की इसका इकतालीसवां संस्करण है। 335 पृष्ठीय इस उपन्यास के प्रकाशक हैं राजकमल पेपरबैक्स और इसका मूल्य ₹299/- है।