Journalist - 2 - last part in Hindi Moral Stories by Neelam Kulshreshtha books and stories PDF | जर्नलिज़्म - 2 - अंतिम भाग

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जर्नलिज़्म - 2 - अंतिम भाग

जर्नलिज़्म

नीलम कुलश्रेष्ठ

(2)

श्री वर्मा ने एक मीटिंग में ये बात बताई थी, "बहुत वर्षो पहले ठाकुरों का पूरे उत्तर प्रदेश में दबदबा था. कारण ये था कि उनके परिवार का एक सद्स्य घर से घोड़े पर निकाल जाता था. उसका मन जहाँ आता था, वहाँ एक तलवार गाढ़ देता था. बस उसके आस् पास का इलाका उसकी जागीर बन जाता था. मजाल है कोई उसकी उसकी तलवार को हाथ भी लगा दे. यदि किसी में हिम्मत होती तो उसे हट्टे कट्टे ठाकुर से लड़ना होता था. इसी तरह उस तलवार के इर्द गिर्द गांव बसता जाता, इसी तरह ठाकुरों की जागीर बढ़ती जाती थी. "

तो वर्मा जैसे तलवार वाली मानसिकता वाले लोगो ने शिक्षा के क्शेत्र में तलवार गाढ़ कर जागीर खड़ी कर दी है. --उपजाऊ ज़मीन सी जो हर वर्ष लहलहाती फ़सल देती है. जिनके पास पुश्तैनी इमारतें होती हैं, उन्हें और भी सुविधा होती है.

वे कभी अपने अतिथी से से कहते मिलते हैं, "आई एम एन एजुकेशनिस्‍ट. मैंने [?]इसे खड़ा करने में दस वर्ष लगाए हैं. यहाँ रोज़ छ;सात घंटे काम करता हूँ. "

आने वाला उनकी इस समाज सेवा पर मुग्ध हो जाता है, "बहुत खूब 1"

"कभी कभी तो काम करते हुए शाम के सात बज़ जाते हैं. अच्छा है न !कुछ बच्चों की ज़िन्दगी बन जाए. "

कभी कभी कहते मिलते हैं, "आई एम अ पक्का बिज़नेस मैं न, बिना फ़ायदे के एक कदम भी आगे नहीं बढ़ाता हा !----हा---हा !"

यहाँ सेवा करने से इस बिज़नेस मैंन को क्या फ़ायदा हो रहा होगा ? महीने भर में समझती चली जाती है. उनके ऑफ़िस में कंप्यूटर में उनके बिजनेस के आँकड़े भी फ़ीड होते हैं. उनके सहायक उनके इंस्टीटयूट का काम कम, उनकी कंस्ट्रक्शन कंपनी का काम अधिक देखते हैं. किसी भी पुरुष फ़ेकल्टी को कभी भी एक दिन के नोटिस पर उनके व्यवसाय के काम से बाहर जाना होता है `. बाई हुक एंड क्रुक `वह् काम करवाना होता है. हर तीसरे महीने होटल मैंनेजमेन्ट वालो को एक `थीम फूड फ़ेस्टिवल `या ईस्ट एंड वेस्ट ` या `ट्राइबल कल्चर ` या `नवरात्रि फ़ेस्टिवल "जिसकी छात्रों को सौ प्रतिशत टिकिट बेचनी पड़ती हैं. दो लाख वाले इस कोर्स के छात्रों को तृतीय वर्ष किसी में की `इंडस्ट्रियल ट्रेनिंग `में गुजरना होता है. नर्सिंग कोर्स वालों को किसी नर्सिग होम में एक वर्ष मुफ़्त काम करना होता है. यह अनुमान लगाया जा सकता है. ट्रस्ट- होटल, ट्रस्ट -नर्सिंग होम के बीच किसका कितना कमीशन है ये जानना मुश्किल है.

वह घर आकर चिड़चिड़ाती है -`इतनी भारी फ़ीस लेकर वर्माजी स्टूडेंट्स को सिर्फ़ दो ढाई हज़ार रुपये की नौकरी दिलवा देते हैं"

उसके पति मुसकरा देते हैं, "हंड्रेड परसेंट प्लेसमेंट का वायदा पूरा करते हैं. होटल व नर्सिंग होम, को बारह--- चौदह ---सोलह घंटे जी तोड़ काम करने वाले युवा मिल जाते हैं इसलिए वे वर्माजी को कमीशन देते हैं. "

"ये लाखों रुपये लेकर शत प्रतिशत प्लेसमेंट है या बन्धुआ मज़दूर पद्धति ?"कहते हुए उसका मन कसैला हो जाता है.

एक दिन कॉरीडोर में सामने से आती शिल्पा दास उसे आमंत्रित करती है, "हम अगले हफ़्ते लौयंस क्लब के साथ डेंटल कैम्प लगा रहे हैं. होटल कामा स्पॉन्सर कर रहा है. "

"आपने दो महीने पहले ही तो एक डेंटल कैम्प लगाया था. "

"क्या करे वर्मा सर का ऑर्डर है. ऎसे कैम्प की जनता भी आदी हो चुकी है कुछ मुफ्त टेस्ट के नाम पर प्राइवेट डॉक्टर्स को अनेक मरीज़ मिल जाते हैं , वर्माजी को अपना कमीशन. "

उस दिन ही वह इंस्टीटयूट की हलचल देखकर चकित रह जाती है. सभी मुस्तैद हैं. जिन फ़ेकल्टीज़ की कभी सूरत नहीं दिखाई दी थी, वे अलग अलग कक्षाओं में पढ़ा रही है, वर्मा जी गंभीर चेहरा लिए एक सरकारी अधिकारी को सारा इंस्टीटयूट दिखा रहे हैं.

उन अधिकारी के जाते ही ये नई सूरतें अकाउंटेंट की मेज के इर्द गिर्द जमा हो गई हैं, कुछ घंटे का पेमेंट लेने , . एक सर उसे समझाते हैं, "ये सरकारी इंस्पेक्शन है जिसके लिए दिखाने के लिये ये फ़ेकल्टीज़ एक दिन पढ़ाने आ जाती हैं. "

वे एक दिन उससे पूछते हैं, "आपको एन जी ओ`ज़ के काम में रूचि है. हम वीमन एम्पौवरमेंट के लिए कुछ करना चाहते हैं. "

"जी ये तो बड़ी अच्छी बात है. "

"कैपीटल में समाज कल्याण मंत्रालय की इंचार्ज एक आई ए एस लेडी हैं. उनके पास महिला कल्याण के लिए कुछ प्रोजेक्टस हैं. तीन तीन दिन के शिविर लगाने होते हैं. इन्हे छ; ;महीने में पूरा करना होता है. किसी महिला संस्था की सद्स्य के साथ आप मिलकर ये काम कर सकती हैं. पेमेंट्स हम करेंगे. "

"सर !आपका इसमे फ़ायदा ?"

"इन प्रोजेक्टस का चालीस हज़ार रुपया सरकार देती है. उसमें से बीस पच्चीस हज़ार रुपया खर्च होगा बाकी का इंस्टीटयूट का हो जायेगा --हा----हा---हा. "

"वह आई ए एस इस बात को मान जायेगी "

"देखिये ये सरकारी मामला है. उसके ऑफ़िस में बिना खिलाये पिलाये ये प्रोजेक्टस पास नहीं होगा. बिइग अ जर्नलिस्ट आप उन्हें इंटरव्यू लेने का लालच दे सकती हैं. " `

"वॉट ?क्या अब भी आपको लगता है मैं ऎसा कर सकती हूँ ?"

दो तीन दिन बाद वह उदास कैंटीन में मीना से कहती है, " सर ! एक एन जी ओ के साथ मुझसे काम करवाना चाह रहे थे. "

"हां, उन्होंने आपकी बताई संस्था में कल मुझे भेजा भी था. "

"लेकिन वे तो मुझसे खिला पिलाकर काम करवाने की बात करते रहते हैं. "

वह चकित है, " लेकिन सर ने लेने देने की बात नहीं की थी. "

शिल्पा दास भी अश्चर्य करती है, "सर ! हमसे भी लेने देने की बात नहीं करते. "

मीना सोचते हुए कहती है, "आप जर्नलिस्‍ट हो ना. "

" उन्हें जर्नलिज़्म की परिभाषा भी पता है ?"उसे अब ये शब्द गाली सा लगने लगा है. जिनकी पत्नियां सुबह से घर से निकल कर सारा दिन पब्लिक डीलिंग करती हैं, शहर से बाहर दो तीन दिन टूर पर जाती है, उनको भी मीडिया की स्त्रियां तितली नजर आती हैं.

वर्माजी रिटायर्ड विशेषज्ञों या अपने कैरियर से असंतुष्ट लोगो को ढूंढ़कर यहाँ सहारा देते हैं. यहाँ हर आने वाले फ़ेकल्टी की इतनी तारीफ़ की जाती है कि वह यहाँ का हो जाता है. उसे उस जादूगर की याद आती है जो बच्चों को एक एक करके हिप्नोटाइज़ कर बेहोश कर थैले में डालता जाता है ,

मेहुल को पाँच सितारा होटल में एक चोरी के इल्जाम में फँसकर निकाल दिया गया था. उसे सहारा देने पहुँच गई थी फ़ोन पर वर्मा जी की आवाज़ जिन्होने होटल मैं नेजमेंट का कोर्स सेट किया था, वे कर्वे साहब बहुत निराश हैं, " मैं सोच रहा हूं रिज़ाइन कर दूं. "

"क्यो सर ! आपने तो इस कोर्स की नींव रक्खी है, `फूड फ़ेस्टिवल्स`आपके कारण ही सोना बरसा रहे हैं. "

"मिसिज़ चावला के जाने के बाद काम रुक गया था इसलिए वर्माजी को मेरी बहुत ज़रूरत थी. उन्होंने कहा भी था कि कुछ समय बाद मेरे पैसे बढ़ा देगे. अहमदाबाद से यहाँ आना इतना आसान नहीं होता. "

सच ही दूसरे दिन उन्होंने आना बंद कर दिया है. उसके जर्नलिज़्म विभाग में सिर्फ़ चार लोगो का बैच बनता है, उसे लगता है कि उसका विदा लेने का समय आ गया है. वे तनाव रहित हैं, "यूनिवर्सिटी में भी पहले सिर्फ़ सात लोगो का बैच बना था. आज वहाँ पचास पढ़ रहे हैं. "

वह् सच ही उत्साहित हो गई है. वह् इन छात्रों को समाचार पत्र व पत्रिकाओं के पते देती है, उनसे छोटे छोटे लेख लिखने के लिये कहती है.

वर्मा जी के पास हर उम्र की महिलाओं का तांता लगा रहता है, किसी न किसी काम के सिलसिले में सुबह दस बजे से शाम सात बजे तक काम करते रहते हैं, "क्या करे लड़कियों के साथ समय का पता ही नहीं चलता. "

इंस्टीटयूट मिसिज़ चावला जी की मेहनत से फला फूला ---शिक्षित माहिलाओं का वर्माजी के पास सैलाब उमड़ आया ---वो पीछॆ छूटती चली गई.

उधर रास्ते से गुज़रते हुए रास्ते के कोचिंग संस्थानों को देखकर उसका दिल बैठने लगता है. ये शिक्षा की कैसी प्रचंड आँधी है कि विश्वविद्ध्यालय, कॉलेज कम पड़ रहे हैं. अखबार के शीर्षक उसे डराते हैं, "छ; सौ तैयार इंजीनियर्स में से सिर्फ़ साठ को नौकरी--- या मारे मारे घूमते एम बी ए. हाथों में लंबे लंबे ग्लब्स पहने, अपने आधे चेहरे को दुप्पट्टे से ढके दोपहिये दौड़ती इन लड़कियों को देखकर लगता है. इन शिक्षा के ठेकेदारों के युग में अपने को कहाँ खड़ा कर पायेंगी ?

उसके पड़ोस की लड़की पायल दो कंप्यूटर के कोर्स करके बिना नौकरी के बैठी है. हर तीसरे दिन अखबार लेकर चली आती है मैं मेडिकल ट्रांसक्रिप्शन में ---- फ़ैशन टेक्नोलॉजी ---- फ़ैशन डिजाइनिंग ----या ---में दाखिला ले लू ?"

वह् उसकी माँ से बात करने पहुँच जाती है, "पायल नए नए कोर्स के पीछॆ क्यो पागल रह्ती है ? "तो क्या करे चौबीस की हो गई है. शादी नहीं हो पा रही तो कोई कोर्स ही कर ले. "

"इन कोर्स का भारी भरकम फ़ीस भरने से पहले इसकी सेहत तो ठीक करिये. इन कोर्स का क्या ठिकाना, नौकरी लगे या नहीं . "

" बच्चों की वेहीकल के पेट्रोल से पैसा बचे तो इन्हे कुछ खिलाये. विशाल से बड़ी उम्मीद थी कि उसके इंजीनियर बनते ही हमारे दिन फिर जायेंगे --लेकिन बिचारा सारे दिन टाई लगाए तीन हज़ार रुपये में यहाँ वहाँ सेल्स एग्जेक्यूटिव बना मारा मारा फिरता है.

अपनी सूखी टाँगें सिंदबाद के गले में अटकाये ये कैसी विकराल शिक्षा व्यवस्था है जो खाने की खोज में दिनभर भटकते पसीने से लथ पथ होते सिंदबाद का सारा श्रम अपने बूढ़े मुख में गपके जा रही है लेकन बहुत से बच्चों के लिए उस डरावने बूढ़े की तरह निरर्थक है.

इस शिक्षा को परिभाषित किया था टी. वी. चैनल की निदेशिका लीना देसाई ने. उन्होंने उसके आमंत्रण पर इंस्टीटयूट में अपने भाषण में कहा था, "आज का मॉडर्न शब्द है `एद्यूएंट ` अर्थात एजुकेशन विद एंटरटेनमेंट. मैं अपने चैनल में ऎसे ही कार्यक्रम प्रस्तुत करती हूँ जो कि मनोरंजक भी हो, उनसे शिक्षा मिलें. मैं अपने शहर में शिक्षा की क्रांति लाने में सफ़ल हो रही हूँ. "

वह् कही खो जाती है, वे बिलकुल सही कह रही है आज की शिक्षा `एद्यूएंट ` ही है जिसमे दोपहिये वाहन, मोबाइल, कंप्यूटर, इंटरनेट, मोबाइल से रोमैंटिक एसएमएस चार चाँद लगाए हुए हैं.

कुछ दिनो बाद उससे पूछा जाता है, "आप सोनल से मिली या नहीं. ?"

"सर ! मिली थी उसने आपके इंस्टीटयूट में `जायेका -ए बाहर "कार्यक्रम की शूटिंग की थी, वह चाह रही है कि आप उसके कैसेट्स अपने स्टूडेंट के लिये ख़रीद ले. "

"अगले महीने सोचेंगे. "

"सर ! आपको बुरा नहीं लगा कि आपके बिल्डिंग में चैनल काम कर रहा है और आपसे कैसेट्स के रुपये माँग रहा है. ?"

"बुरा क्यों लगेगा ?ये दुनियाँ इसी लेन देन पर टिकी हुई है. आप उनसे संपर्क बनाए रक्खे. "

उन्हीं दिनों टी. वी चैनल की मालकिन के पति के पंदह ऑफ़िसों पर छापा पड़ जाता है. ऎसे ही लोगो ने प्राइवेट शिक्षा की क्रांति का बीड़ा उठा रक्खा है.

कुछ दिनों बाद फिर उसे ऑफ़िस में बुलाया जाता है, "इन चार छात्रों की फ़ीस से कैसे वर्ष पूरा होगा ? चलिए पहले वर्ष इंस्टीटयूट दस पन्द्रह हज़ार खर्च कर देगा लेकिन अगले वर्षो की कुछ सीक्योरियटी तो चाहिये. आप अपने विभाग के लिए फंड राईज़ करिये, बिइग अ जर्नलिस्ट आपकी तो बहुत जान पहचान होगी. "

"सर !मेरी जान पहचान तो है लेकिन इतनी नहीं कि उसे एनकैश करू, न ही मैं ऎसा करूँगी. `

उस दिन उसकी क्लास नहीं है. घर पर हे वर्मा जी का फ़ोन आता है, "हलो मैं डम ! डिस्टर्ब तो नहीं किया ?"

` नॉट एट ऑल , कहिये "

" मैं सोच रहा था कि बढ़िया सी सेमिनार आयोजित करके फ़ंड रेज़ क्या जाए. "

"स्पॉन्सर्स कौन धूदेगा ?"

"आप और कौन ?"

"सर ! मैं ये काम नहीं कर सकती. "

"व्ह्यई नॉट ? पत्रकार को तो लोग रुपया जल्दी निकाल कर देते हैं. "

"सर ! मैंने और पत्रकारो जैसी दुकान नहीं खोल रखी है. लोग रुपया देंगे तो पब्लिसिटी चाहेंगे. सेमिनार का काम मैं संभाल लूँगी. किसी दूसरी फ़ेकल्टी से कहिये कि वह स्पॉन्सर ढूँढ़े. "

"हमारे यहाँ अपने विभाग का काम उसी कोऑर्डीनेटर को करना होता है. "

"आई एम हेल्पलेस. "वह गुस्से में फ़ोन काट देती हैं. "

वह जानबूझकर उनके सामने नहीं जा रही. एक दिन रिपोर्ट देने जाना पड़ता है. वह रिपोर्ट देते हुए कहती है, "सर ! अभी तक मेरी सैलेरी नहीं मिली है. "

` `अरे !ये कैसे हुआ, क्या आपको पैसे की जल्दी ही ज़रूरत है ?"

"नो सर !ऐसी जल्दी नहीं है. परसों मैं क्लास लेने आउंगी तब ले लूँगी. "

उस दिन शनिवार है. वर्मा जी इंस्टीटयूट देर से आते हैं. उसे रास्ते में देखकर कहते हैं, `सॉरी ! आपका चेक घर भूल आया हूँ. मैं जब लंच लेने घर जाऊँगा तब ले आउंगा. ऎसा करिये आफ़्टरनून में ले लीजिये. "

वह उनके चेहरे पर नजरें स्थिर करके कहती है, "सर ! मैं नहीं आ सकती. कल सुबह हम बाहर जा रहे हैं. तैयारी भी करनी है. "

वहाँ से चलते चलते अपनी बीस वर्ष की छात्रा के स्थानीय समाचार पत्र में प्रकाशित लेख की ज़ेरॉक्स कॉपी नोटिस बोर्ड पर पिनअप कर आती हैं. `वूमन एमपॉवरमेंत ईयर ` की याद में बिचारा वह अपना शीर्षक "स्टेट्स ऑफ़ वीमन "लिए ऎसे फड़फड़ा रहा है जैसे सदियों से फड़फड़ा रहा था.

दीपावली की छुट्टियों के बाद उसका चैक उनका सहायक देता है. , कैंटीन में एक नवोदित अपनी कविताएं दिखाता है जो अपना कविता संग्रह प्रकाशित करवाना चाह रहा है.

एक दिन वर्मा जी उसी कवि का बहाना लेकर बात करते हैं, "दीपंकर अपनी बुक पब्लिश करवाना चाहता है. हम उसे समझा चुके हैं कि चौदह पन्द्रह हज़ार में बुक पब्लिश करवाना हमारे लिए बड़ी बात नहीं है, फ़ॉरवर्ड भी हम करवा देंगे. पूरे इंडिया में सौ डेढ़ सौ एजुकेशन इंस्टीटयूट में बिकवा भी देंगे. फिर भी वह हमसे नहीं कहता. "

वह् समझ रही है उसे ये क्यों सुनाया जा रहा है, यहाँ दिन कब तक कटेंगे मालूम नहीं है.

तो प्रिय पाठकों ! इस कहानी का अन्त जानने की आपको उत्सुकता होगी. इसका अंत वही होता है जो अकसर नारी सशक्तता का झंडा उठाने वा वालियों का या उसूलों की सलीब उठाने वालों का होता है यानि कि इस व्यवस्था से बाहर पटका हुआ यानि` बैक तो पैवेलियन `यानि कि घर यानि कि अंगद लड़की होते तो इस व्यवस्था की सुदृढ़ता से घबराकर स्वत: ही दरबार से पैर हटा लेते.

कहानी की नायिका खुश है -एक और संस्थान को `जर्नलिज़्म `की परिभाषा समझा कर, अपनी इज़्ज़त बचाकर आ गई, वह भी महिला पत्रकार की. वह संस्थान उससे पीछा छुड़ाकर खुश है---- पत्रकारिता की ए बी सी डी आती नहीं और चली थी विभाग आरंभ करने.

अरे हां, सच ही शिक्षाविदों का ज़माना या राज आ गया है. ऐसी शिक्षा की प्रचंड आँधी इन केंद्रों पर सोना बरसा रही है. पैसों की भरमार होने पर इन्ही शिक्षा के ठेकेदारों में से कुछ लोग विधानसभा तक पहुँचेंगे, कुछ केंद्रीय सत्ता में बैठेंगे और प्यारी जनता ? सत्ता चाहे सामंतशाही हो, प्रजातंत्र में उद्द्योगपतियों की हो या शिक्षाविदों की, उसे तो किसी भी सत्ता को अपने श्रम से पोषित करना है. उसे तो पसीना बहाते हुए ऎसे ही घिसटते जीना है-----.

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नीलम कुलश्रेष्ठ, अहमदाबाद

e-mail –kneeli@rediffmail. com