इस दश्त में एक शहर था
अमिताभ मिश्र
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अब सिलसिले आगे बढ़ा कर बात करें तो बात आती है गणपति भैया यानि गन्नू भैया की। जो बचपन से ही पहलवान होना चाह रहे थे आसपास के अखाड़ों की मिट्टी से उनका परिचय था। वे सीखने के दौर में हर तरह के दांव सीख रहे थे।
उनको पहलवानी में कुछ नायाब से दांव आते थे जिन्हें उन्होंने पहलवान से सीखा था। तो बात नायाब दांवों की चली थी तो एक दांव जिसे चपरास कहा जाता था जो बेहद दर्षनीय, प्रभावी और मारक होता था। किन्तु उसको आजमाने के लिए घनघोर रियाज की जरूरत थी। इस दांव में सामने वाले को ठीक आमने सामने से दांव को लगाया जाता है दोस्तों से अनुरोध है कि उसे आजमायें नहीं यहां तो विषेशज्ञ ही अजमाते हैं वरना किसी हादसे के लिए आप ही जिम्मेदार होंगे। तो इस घोषणा के बाद खुलासा ये है कि अगले के दांयें पैर पर अपने दांयें पैर से और उसके मंुह के या कहें बांयीं कनपटी पर अपने बांयें हाथ से समन्वय बना कर जोर से वार किया जाता है। सावधानी ये कि दोनों ही हाथ से बहुत जोर से एक ही ताकत से वार करें तो होता यूं है कि सामने वाला धरती के समानानंतर अपनी ऊंचाई का आधा उठता है और धड़ाम से गिर पड़ता है। यह सब कुछ इतनी जल्दी और अकस्मात होता है कि सामने वाला एकदम चारों खाने चित्त हो जाता है। पहलवान तो इस दांव को पलक झपकते लगाते थे कि एक पल में आपके सामने खड़ा व्यक्ति अगले पल हवा में हो कर धम्म से जमीन पर लोटता नजर आता था तो हमारे गणपति भैया को ये दांव बहुत पसंद था और कई नामी गिरामी पहलवानों को इसी चपरास के दम पर धूल चटा दी थी। मोहल्ले से लेकर शहर और शहर से लेकर देश तक वे रुस्तमे हिन्द और रुस्तमे जमां होना चाह रहे थे। शाखा के वे नियमित स्वयंकसेवक भी थे जहां से वे मुसलमानों के प्रति खास रवैया या यूं कहें नफरत का भाव रखते रहे। हालांकि मूल लक्ष्य तो पहलवानी ही रहा पर समय समय पर शाखा के कार्यक्रमों में उनका जाना आना होता रहा । वे गाते बहुत अच्छा थे झांझ मजीरा और हारमोनियम और ढोलक तबला सब पर उनका हाथ यूं चलता था कि गोया वे एक सीखे सिखाए गवैये और बजैये हों। इसीके चलते उन्होंने एक भजन मंडली बना ली थी जो हर मंगल को सुन्दरकांड या हनुमान चालीसा का गा बजाकर पाठ करते थे। उस भजन मंडली में ज्यादातर नौकरीपेशा लोग थे जो अकसर मंदिरों में पुजारी थे और पंडिताई भी करते थे। एक और खासियत जो इस भजन मंडली की थी वो ये कि शुद्ध गायन और फिल्मी गानों की तर्ज का निषेध। होली पर यही मंडली फाग गाती थी। वैसे तो होली की रात को जो खानदानी फाग होती थी वो बहुत ही पुरानी और लगभग विलुप्तप्राय फागें गाईं जातीं। नमूना ये है
गोरी तोरे अंगन चंदन बिरवा गोरी तोरे अंगन चंदन बिरवा
उस बिरवा में दुई दुई पांत दुई दुई पांत
सींचें भौजी और देवरा गोरी तोरे अंगन चंदन बिरवा
उस बिरवा में पड़ी हिलोर पड़ी हिलोर
झूलें भौजी और देवरा गोरी तोरे अंगन चंदन बिरवा
उस बिरवा की टूटी डाल टूटी डाल
तरै भौजी ऊपर देवरा गोरी तोरे अंगन चंदन बिरवा
या एक और कमाल के स्वर में गजब की फाग उठाते थे गज्जू पांडे
छमा छम बाज रही पैंजनिया
छमा छम बाज रही पैंजनिया
जनिया जनिया जनिया
छमा छम बाज रही पैंजनिया
काहे की तोरी पग पैजनिया
काहे की करधनिया
काहे की तोरी मोहनमाला
काहे वह काहे
वह काहे नाक नथनिया
छमा छम बाज रही पैंजनिया
चांदी की मोरी पग पैजनिया
सोने की करधनिया
मोती की मोरी मोहनमाला
हीरा वह हीरा
वह हीरा नाक नथनिया
छमा छम बाज रही पैंजनिया
कौनो बनाए तोरी पग पैजनिया
कौनो बनाए करधनिया
कौनो बनाए तोरी मोहनमाला
कौनोे वह कौनो
वह कौनो नाक नथनिया
छमा छम बाज रही पैंजनिया
देवरा बनाय मोरी पग पैजनिया
जेठा बनाए करधनिया
सइंया बनाय मोरी मोहनमाला
यारा वह यारा
वह यारा नाक नथनिया
छमा छम बाज रही पैंजनिया
और इस तरह की तमाम फागों को झांझ मंजीरों के साथ बेहद मधुर स्वर में एक नब्बे साल के बुढ़ऊ शुरू करते थे। बाद में सब उनका दोहराव करते थे। जब वे नहीं रहे तो गणपति गाते रहे ये फागें। उन्हें भी याद थीं। उसके अलावा सुन्दरकांड अखण्ड रामायण फिल्मी गैर फिल्मी दोनों तर्ज पर। एक दिन से लेकर तीन दिनों तक की। जब सारा खानदान इकठ्ठा होता था तो घ्र के सारे लोग भी अखंछ रामायण करते थे और वो सस्वर बिना किसी इल्मी फिल्मी धुनों के होती थी।
गणपति दरअसल अपने आफिस की एक महिला से सहानुभूति दिखाते दिखाते कब उसके बेहद करीब हो गए ये उन्हें भी तब भान हुआ जब वो उनके बच्चे की मां बन गई। उन्होंने आफिस से एक क्वार्टर ले रखा था सो इन्हें वहां स्थापित कर दिया फिर बाद को जब घर में पता चली यह बात तो सब इस मुद्रा में थे कि गोया हमें तो पहले से ही पता था। इधर भी दो बेटे हो गए थे और बकायदा अब दो गिरस्तियां चल रहीं थीं। पर कालिका प्रसाद को जो दुरदुराहट उनकी पत्नी ने दिलवाई थी वो ही गणपति को भी मिली। घर के कार्यक्रमों में वे शामिल होते रहे पर वो इज्जत वो स्वीकार्यता उन्हें कभी नहीं मिली। उनकी स्थिति अपने बाप की ही तरह की हो गई थी। बल्कि उनसे भी गई गुजरी। पहले घर से वे कई बार हाथ में पानी लेकर कसम ले चुके थे कि अब इस घर में कभी कदम नहीं रखेंगे पर फिर वापस किसी न किसी बहाने से पहुंच जाते थे। वहां पर भी हर मौके पर याद की जाती रही। जब सारे लोग छुट्टियों या शादी ब्याह या मुंडन या मरे में इकठ्ठा होते तो वे याद किए जाते रहे और शाम को मंदिर में आरती के बाद भजन में झांझ बजाने वाली जगह उनकी हमेशा रही।
अब सम्मान उन्हें अपनी दूसरी पत्नी से मिल रहा था। उसके दोनो बेटों को उन्होंने भजन के ही धंधे में पारंगत कर दिया वे भी मंदिर से मोहल्ले से शहर और अब वे बकायदा जगप्रसिद्ध भजन गायक बन चुके थे। एक बार उन्हें अपने मंदिर में भी सुन्दरकांड के पाठ में ले गए थे सोचा था लोग गायकी के चलते स्वीकार लेंगे। कहने लगे ये दोनों भी तुम्हारे छोटे भाई हैं। उनके बड़े लड़के ने ही उन्हें बहुत ही हिकारत से लताड़ा
” कुछ तो शरम करो। भजन है और मंदिर में हो वरना अच्छे से बताते कि ये और तुम क्या हो। और उस नाजायज औलादों को आप कुछ भी मानते रहे इस घर में आज के बाद नहीं दिखना चाहिए। आप भी जरा आप भी जरा सोच समझ के ही आया करो और अभी तो कुछ ऊंच नीच न हो जाए इसलिए आप तो निकल ही लो मय अपने उन पिल्लों के।“
जो हिकारत तिरस्कार वहां मिला उसके चलते गणपति भी फिर कभी सहज हो कर अपने घर नहीं जा सके। हालांकि हर संस्कार में वे शामिल हुए मसलन जन्म मरण शादी ब्याह जनेऊ वगैरा। उन्होंने अपने दूसरे घर के बच्चों को अपने साथ भजन मंडली में शामिल किया। अच्छा बढ़िया गाते हैं वे भी। पर समाज में जो उनकी जगह है ये वो भी जानते हें और उनके बाप भी और मां भी। या तो जगह बदल या समय ही इस हिकारत तिरस्कार को समाप्त करेगा।
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