Raahbaaz - 13 in Hindi Moral Stories by Pritpal Kaur books and stories PDF | राहबाज - 13

Featured Books
Categories
Share

राहबाज - 13

मेरी राह्गिरी

(13)

मेरी खाना-आबादी

तेईस की उम्र में मेरी शादी हो रही थी उनीस साल की निम्मी के साथ. हम दोनों ही ज़िंदगी के खेल में पूरे पूरे अनाडी. लेकिन हमारे परिवार अब मैदान में आ गए थे. और यहीं से शुरू हो गयी थीं मेरी मुश्किलें.

जिस दिन मेरे मम्मी-पापा की मुलाक़ात निम्मी के मम्मी-पापा से हुयी उसी दिन से एक शीत युद्ध मेरे घर में शुरू हो गया था. हालाँकि उनसे मिल कर मेरा भी एक तरह से मोह-भंग हुआ तो था. लेकिन मेरे परिवार में यह परिवार एक अच्छी-खासी चिंता का विषय बन गया था.

निम्मी के मम्मी-पापा दोनों कम पढ़े लिखे निम्न मध्य वर्गीय परिवार से थे ये तो मैं जानता था लेकिन उनके यहाँ एक ख़ास किस्म का आग्रह बहुत मज़बूत बन कर बार-बार सामने आ रहा था जिससे मेरे मम्मी-पापा खासे परेशान हो गए थे. वे चाहते थे की शादी उनके घर में उनके हिसाब से की जाए. और वे इसे धूम-धाम से करना चाहते थे.

उधर मेरे परिवार को ये बात समझ आ गयी थी कि उनकी धूम धाम से होने वाली शादी में जो कुछ भी होने वाला था वह मेरे माता-पिता के परिवारों के लिए पचाना ज़रा मुश्किल काम होगा.

सो इस पहली मुलाक़ात के बाद मेरे घर में एक बैठक उसी रात हुयी जिसमें मैं, मम्मी और पापा ही थे. इस बैठक में यह तय पाया गया कि शादी में यानी बरात में सिर्फ हम चारों यानि मम्मी-पापा और मेरे दोस्त ही जायेंगे. न तो मम्मी के परिवार से और न ही पापा के परिवार से किसी को बुलाया जायेगा. उन सब को शादी के बाद की रिसेप्शन पार्टी में जो हमारी तरफ से नियोजित होगी, सिर्फ उसी का न्यौता दिया जायेगा.

इस बात पर निम्मी के माता पिता ने काफी चख-चख की. यहाँ तक कि एक दिन मैं उसके घर से गुस्से से भरा उठ कर ही आ गया. अब तक मुझे ये लगने लगा था कि शायद मैं इस परिवार से नाता जोड़ कर गलती कर रहा हूँ. मगर अपने दिल की बात किससे कहता. मेरे घर के लोग तो पहले ही इस फैसले से बहुत खुश नहीं थे. निम्मी से कहता तो वो और दुखी होती. वो भी मुझ पर पड़ते लगातार दबाव को देख रही थी और दुखी थी.

उस दिन तो मुझे लगा कि मैं इस तमाशे वाली शादी से साफ़ इनकार कर दूं और चुपचाप घर बैठ जाऊं. फिर निम्मी का ख्याल आया तो दिल पिघल गया. निम्मी से आज भी इतना प्यार करता हूँ कि उसका ख्याल आते ही दिल में जाने क्या तो होने लगता है.

उस रोज़ भी यही हुया. मुझे चुप और उदास देख कर मम्मी ने ही पूछा था. मैंने बताया कि किस तरह निम्मी के घर वाले मुझ पर दबाव बना रहे हैं कि कम से कम कुछ नज़दीकी रिश्तेदार तो आयें उनके यहाँ शादी के मौके पर. खैर! माँ ने मेरी मुश्किल समझी और अपने दोनों भाइयों को बुलाने की ज़िम्मेदारी ले ली. पापा ने अपने परिवार को बुलाने से साफ़ मना कर दिया.

शादी हुयी. एक छोटी सी तंग जगह पर जो निम्मी के घर के सामने की सड़क पर टेंट लगा कर बना ली गयी थी.

निम्मी के परिवार के लगभग दो सौ लोग मौजूद थे. मेरे परिवार के कुल ग्यारह लोग. टेंट ठसा-ठस भर गया. गनीमत ये थी की जनवरी की पन्द्रह तारिख थी और दिल्ली की कडाके की सर्दी. सो गहमा गहमी में सिर्फ गर्म कपडे ही उतरे, ज्यादा कोई परेशानी किसी को नहीं हुयी.

शादी के फेरे दो घंटा देर से हुए. हम लोग किसी तरह वहां लगी कुर्सियों पर जमे शोरोगुल के बीच बैठे वक़्त काटते रहे. खाने का वक़्त हुआ तो कुछ राहत महसूस हुयी. खाना तो अच्छा था लेकिन इंतजाम से फिर मायूसी ही हुयी. मामा और मामी लोग परिपक्व और समझदार हैं. सभी ने बेहद सलीके से सारा वक़्त काटा और हम निम्मी को अपने घर ले कर आ गए.

अगले दिन रिसेप्शन की पार्टी थी जिसमें पापा-मम्मी के दोनों परिवारों के सभी लोग आमंत्रित थे. निम्मी के रिश्तेदार भी. इनमें से तीन चार ने मुफ्त की शराब पी कर ऊट-पटांग हरकतें शुरू कर दी. उन्हें होटल के प्रबंधकों ने बाहर का रास्ता दिखा दिया.

कुल मिलकार यहाँ भी आखिरकार किसी तरह से समारोह संपन्न ही हुया. जो मज़ा या आनंद की बात एक अच्छी शादी में होनी चाहये थी वो नहीं हो पाई. मेरा मन खिन्न था.

हालाँकि इस बारे में मैंने निम्मी से कोई बात नहीं की थी लेकिन ज़ाहिर है वो भी सभी कुछ देख सुन तो रही थी.

हमारी सुहाग रात की शुरुआत निम्मी की रुलाई और माफीनामे के साथ हुयी. मैंने उसे बहुतेरा समझाने की कोशिश की लेकिन उसका दुःख ये था कि न तो वो अपने माँबाबा को इस बेकार के तमाशे से रोक पाई और न ही मेरे परिवार की बेईज्ज़ती होने से बचा पायी.

आज भी उसे अक्सर इस बात का अफ़सोस होता रहता है कि उसका परिवार मेरी बेईज्ज़ती कर देता है. अहिस्ता-अहिस्ता उसने अपने परिवार में मुझे ले जाना बंद कर दिया है. अब वो अक्सर बच्चों को भी वहां नहीं ले कर जाती. वे बड़े हो गए हैं और वे खुद भी उस ऊबड़-खाबड़ माहौल में जाने से बचते हैं.

मेरे परिवार में निम्मी बिलकुल दूध में चीनी की तरह घुल मिल गयी है. कभी-कभी मुझे लगने लगता है कि कहीं वो मेरी बहन तो नहीं? जिस तरह उसका मेरे मम्मी-पापा से एक करीबी रिश्ता बना है वह काबिले तारीफ है. हालाँकि शुरू-शुरू में कुछ मुश्किलें पेश आयीं.

हुआ यूँ की मम्मी ने मेरी शादी तय होते ही ये घोषणा कर दी थी की चूँकि मैं खुदमुख्तार हूँ और शादी-शुदा होने जा रहा हूँ तो मुझे अपनी नयी ज़िन्दगी की शुरुआत अपनी पत्नी के साथ अपने उस नए फ्लैट में करनी चाहिए.

शादी के बाद दो दिन अच्छे निकल गए. वीकेंड था. खाना-पीना मम्मी के घर हो रहा था. तीसरा दिन भी किसी तरह निकल गया. दिन में हमने फिल्म देखी और शाम को खाना खा कर ही घर लौटे.

अगले दिन से मुझे ऑफिस जाना था और मम्मी ने रात को हमारे घर पर बैठे हुए कॉफ़ी पीते-पीते यह घोषणा की कि अगले दिन से वे जब स्कूल से लौटेंगीं तो सीधे मेरे घर आया करेंगी. दिन का खाना यहाँ खायेंगी और शाम को हम दोनों उनके घर जायेंगें. खाना वहीं खा कर टहलते हुए अपने घर लौट आया करेंगे.

बहुत अच्छा प्लान था लेकिन एक मुश्किल थी. निम्मी को खाना बनाना नहीं आता था, ना ही मुझे. मैं तो वैसे भी घर में होने वाला नहीं था तो अगर मुझे बनाना आता भी तो कोई फायदा नहीं होने वाला था.

अगली सुबह मैं नाश्ते में एक कप चाय, उबला हुआ अंडा और टोस्ट खा कर निकल गया. निम्मी को अपनी जुंग खुद लड़ने के लिए छोड़ कर.

मेरा ऑफिस घर के पास ही है. दिन में जब मैं खाना खाने घर आया तो देखा माँ और निम्मी दोनों ही रसोई में लगी हुयी थी.

मम्मी को अंदाजा था निम्मी के रसोई के अनाडीपन का. ये भी समझ गयी थीं कि मेरे हिसाब से निम्मी खाना नहीं बना पायेगी. तभी मेरी स्मार्ट मम्मी ने ये तरीका सोचा था जिससे बिना किसी तरह की उलझन खड़ी किये वे निम्मी को खाना बनाना सिखा देतीं और निम्मी को मानसिक या भावनात्मक परेशानी भी न होती.

इसी दिन से मम्मी और निम्मी के बीच एक रिश्ता शुरू हुआ था. जो सास बहु का रिश्ता तो था ही मगर वक़्त के साथ माँ और बेटी के रिश्ते में तब्दील हो गया था. यहाँ तक कि कभी-कभी मेरी बहन को भी निम्मी से ईर्ष्या होने लगती. और दोनों खुल कर बच्चों की तरह मेरी माँ के प्यार के लिए लड़तीं. इस लड़ाई को देख कर मुझे निम्मी से शादी के अपने फैसले पर जो कुछ थोडा बहुत अफ़सोस शादी के वक़्त हुआ था वह पूरी तरह साफ़ हो जाता.

मेरी और निम्मी की शादी अपनी राह चल पडी थी. जल्दी ही हमारे घर में दोनों बच्चे आ गए थे. एक के बाद एक तीन साल में ही. घर गृहस्थी और कारोबार के झमेले में मैं और निम्मी इस कदर डूब गये थे कि उन सपनों का ख्याल भी अब सपना था जो मैंने निम्मी के इश्क में पड़ने पर देखे थे. कि शादी के बाद अपने-आप इश्क बढ़ जाता है. मैं देख रहा था कि शादी के बाद इश्क दाल-चावल बन जाता है. जो आप रोज़ खाते हैं. तंदरुस्त रहते हैं लेकिन उसमें स्वाद का मज़ा आना बंद हो जाता है.

मुझे भी शादी में ज़िन्दगी के मज़ा आना धीरे-धीरे बंद हो गया था. दूसरे शायद निम्मी का सीधापन जो अब गृहणी बन कर और भी ज्यादा सादा हो गया था, मुझे बोर करने लगा था.

निम्मी से प्यार कुछ यूँ मेरे वजूद में समा गया था कि उसमें मैं किसी तरह की उत्तेजना नहीं ढूंढ पाता था. ये प्यार ऐसा हो गया था जैसा प्यार मैं अपनी बहन या अपने मम्मी पापा से करता था. हम एक परिवार थे जब कि मेरा मन अब कुछ नया चाहता था. कुछ नयी उत्तेजना, कुछ नयापन जो मेरे बोरिंग हो चुके जीवन को एक नयी गति दे सके.

अब मैं शामें दोस्तों की महफ़िल में काटता. घूमता फिरता. उनके साथ बाहर जाता. नाटक,फिल्में देखता. लेकिन एक कमी खलती रहती. रोमांस की कमी. इन्हीं दिनों मेरे ज़िन्दगी में एक-एक कर के कई स्त्रियों का आना हुया. और फिर आयी रोजी.

रोजी के आने और जाने के बीच मैंने ज़िंदगी को भरपूर जिया. रोजी ने मुझे जिस तरह के प्यार से नवाज़ा उसने मुझे एक नयी ज़िंदगी दी, एक नयी तस्वीर दिखाई. मैंने एक प्रबुद्ध स्त्री से पहली बार अन्तरंगता पाई थी. ये अनुभव मेरे लिए अनोखा था. मैं उन दिनों एक अजीब खूबसूरत और ऊंचे मानसिक स्तर पर पहुँच गया था.

रोजी और मेरी वो नज़दीकी ज़्यादा दिन तो नहीं चली. मगर हमने खूब प्यार किया. सम्भोग तो हम हर बार करते जब भी मिलते, कई बार तो एक बार से भी ज्यादा. बेहद करीबी दिल और रूह की बातें भी करते. मैं उसे सीने से लगाता तो लगता जैसे उसकी रूह मेरी रूह से गले मिल रही हो.

उसका दर्द मैं जल्दी ही समझ गया था. उसका मुझ से झटके के साथ दूर जाना भी मैं समझ गया था. दिल दर्द से भरता तो था लेकिन एक बात से दिल को तसल्ली भी होती थी कि रोजी को मैं वो सुख दे पाया जिसकी उसे दरकार थी.

रोजी से बिछड़ा तो बाद में कई दिनों तक मैं बौराया सा घूमता रहा. उसके प्रेम की याद में तडपता रहा, हर शाम वो मेरे ख्यालों में उतर जाती. मैं और मेरा दिल बेतरह उलझ जाते. समझ नहीं पा रहा था कि किस तरह उसे भुलाऊँ. फिर उसकी कोख में पल रहे अपने बच्चे की याद आती तो दिल और उदास हो जाता. फिर अगले ही पल मुझे ये एहसास भी होता कि ये बच्चा मेरा नहीं है. सिर्फ रोजी का है. ये सोच कर मैं रोजी को और भी शिद्दत से याद करता और फिर एक टीस सीने में उतर जाती.

इधर उस दिन के बाद से रोहित और नताशा से मुलाकातों का सिलसिला तेज़ हो गया था. रोहित और मेरी बैठकें महीने में एक या दो बार होती थी. अब नताशा के सीन पर आ जाने से ये मुलाकातें हर हफ्ते होने लगीं. अक्सर वीकेंड पर. शुरू में निम्मी हमारे साथ जाती लेकिन जल्दी ही वो बोर होने लगी. जैसा कि मुझे शुरू से ही अंदेशा था.

इतने साल निम्मी के साथ रह कर और सारी कोशिशें कर के मैं जान गया था कि निम्मी को बदल पाना संभव नहीं था. वैसे देखा जाए तो किसी को भी बदलना संभव कहाँ होता है?

हम सभी अपने-अपने चरित्र में इस तरह घुल-मिल कर कठोर सीमेंट जैसे हो जाते हैं कि कुछ देर की मुलामियत के बाद अपनी असलियत छिपा नहीं पाते.

शुरू में कुछ बार नताशा ने भी कोशिश की कि वह निम्मी के अनुसार बातचीत को सरल और एक तंग दायरे में ही रखे लेकिन जल्दी ही वह इस खांचे से बाहर हो गयी, आखिर उसे भी तो अपने स्वभाव के अनुसार ही व्यवहार करना था.

मैं, रोहित और नताशा दुनिया जहान की बातें करते और निम्मी उन सब में शामिल नहीं हो पाती. निम्मी की दुनिया घर और परिवार के अलावा रिश्तेदारों और किटी पार्टियों में बसी थी. सो वह अलग-थलग पड़ जाती. फिर धीरे धीरे उसने बहाना बना कर हमारी बैठकों में जाना टालना शुरू कर दिया. और दो महीने होते न होते हमने निम्मी से पूछना भी छोड़ दिया.

ऐसी ही एक शनिवार की शाम थी जब क्लब में हम तीनों अपनी हमेशा वाली मेज़ पर बैठे ड्रिंक्स के साथ हल्का फुल्का नाश्ता ले रहे थे. नताशा सिर्फ पापड़ खा रही थी वो भी बहुत कम. उसके सामने रखा रेड वाइन का गिलास काफी देर से भरा ही रखा था. मैं भी रेड वाइन ही ले रहा था. रोहित हमेशा की तरह टीचर्स ले रहा था, सोडे और बर्फ के साथ. वो जम कर पीने वालों में से है. और पी कर ज्यादा भावुक हो कर और भी ज्यादा प्यार करने वालों में से है.

सो हम तीनों अपने अपने स्वभाव के मुताबिक शाम का मज़ा उठा रहे थे. आज बातचीत भारत की मौजूदा राजनीति पर आकर आ कर ठहर गयी थी.

ज़ाहिर है पत्रकार नताशा को इसमें भरपूर मज़ा आ रहा था. हालाँकि पत्रकार के लिए पहली और आखिरी प्रतिबद्धता उसके अपने पेशे के प्रति होती है और होना भी यही चाहिए. इस पेशे का तकाजा भी यही है. लेकिन अब वक़्त के साथ ये सब भी बदल गया है.

सभी कारोबारों की तरह इस पेशे में भी कई बदलाव तेज़ी से आये हैं. अब पत्रकारों से भी उम्मीद की जाने लगी है कि वे अपने विचारों और कर्मों से अपने पाले की तरफ ज़िम्मेदारी का निर्वाह करें. हालाँकि नताशा पुराने ख्यालात वाली उस पीढ़ी की पत्रकार है जिसने अभी तक किसी भी पाले में अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करवायी है. उसके यहाँ एक मिडिल पाथ का निर्वाह मैं अक्सर पाता हूँ.

वह वाम और झाम दोनों पंथों की जम कर धुलाई करती है. लेकिन जब मिडिल पंथ वालों का ज़िक्र आता है तो उसके स्वर और भंगिमा दोनों ही नर्म हो जाते हैं. निवर्तमान प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह को लेकर उसके मन में ख़ास जगह है.

बात पिछले साल हुयी नोट बंदी और उसके असर की हो रही थी. रोहित को इसमें कई फायदे नज़र आ रहे थे. मैं खुद सैधांतिक तौर पर मौजूदा सरकार के इस कदम के पक्ष में हूँ लेकिन इस कदम की वजह से आम गरीब और गाँव के लोगों को होने वाली परेशानी से दिल दुखता भी है. यही सब बातें हम कर रहे थे और नताशा चुपचाप सुन रही थी.

रोहित ने अपने पक्ष में कहा था, “यार, किसी सरकार की आज तक हिम्मत नहीं हुयी थी इतना बड़ा कदम उठाने की ब्लैक मनी को ख़त्म करने के लिए. अब गेहूं के साथ घुन तो पिसता ही है. किसी अच्छे कदम के लिए कुछ लोगों की कुर्बानी तो होती ही है.”

मैं चुप नहीं रह पाया था, “मैं भी इसके हक में हूँ. लेकिन कुछ तैयारी इन्हें भी करनी चाहिए थी. कितने लोग मारे गए इस चक्कर में. कीड़े मकोड़ों की तरह. ये ठीक नहीं है. अब आगे भी देखना इसके असर कई साल तक नज़र आयेंगे.”

रोहित मुझसे सहमत नहीं था, “ देखो भाई, बड़े कदम उठाते हैं तो कुछ कुर्बानियां होती ही हैं. इसके दूरगामी असर अच्छे ही होने वाले हैं. ये इस सरकार ने बहुत अच्छा काम किया है.”

मैं हैरान था कि नताशा अब तक चुपचाप सुन रही थी. अचानक उसने हाथ के इशारे से रोहित को रोका, और बोली,"जो कदम उठाया बिलकुल सही नहीं था. कोई तैयारी नहीं की गयी. इसके चलते स्माल स्केल इंडस्ट्री पूरी तरह तबाह हो गयी. लाखों लोग बेरोजगार हो गए. बिना किसी वजह के. इसके अलावा एक बात तुम सब भूल जाते हो. जिस पुख्ता इमारत पर चढ़ कर इस सरकार ने ये कदम उठाया कभी सोचा तुमने कि इसकी नींव किसने रखी थी और कितने बरसों और लोगों का खून पसीना इसमें लगा था?”

ज़ाहिर है मेरे पास उसके इस तर्क का कोई जवाब नहीं था. लेकिन रोहित ने मुंह खोला था,” डार्लिंग, अब ये मत कहना कि इस सरकार ने कोई बहुत बड़ा ब्लंडर कर दिया है.”

नताशा ने उसे आगे नहीं बोलने दिया था, “नहीं, मैं इस सरकार की आलोचना नहीं कर रही हूँ. मगर तुम्हें कुछ बातें याद दिलाना चाहती हूँ. तुम सब मनमोहन सिंह को उसकी चुप्पी के लिए दोष देते हो. क्या तुम्हे पता है जब 2004 में मनमोहन सिंह ने सत्ता संभाली थी तो सेंसेक्स 8000 पर था. और जब 2014 में छोडी तो सेंसेक्स 24000 पर था. जब सत्ता संभाली थी तब देश के कुछ चुनिंदा लोगों के पास ही नोकिया 310 0 फोन हुआ करते थे. लेकिन जब सत्ता छोङी तब हर एक के पास स्मार्ट फोन था. जो आदमी खुद बहुत कम बोलता था उसने लोगों को अपनी बात रखने के लिए RTI जैसा कानुन दिया. उसने चुपचाप काम करते हुए भारत को मंगल व चाँद पर पहुंचने के लिए संसाधन उपलब्ध कराये. ये काम कुछ महीनों का नहीं था कि हमारा मंगल यान मंगल पर पहुँच गया. इसकी तैयारी इसके पहले वाली सरकार ने की थी. चुपचाप काम करते हुए. उसी सरकार ने ये साबित कर दिया अंतराष्टी्य मंच पर कि पाकिस्तान आंतकवाद का जनक है. पूरी दुनिया ने ये बात इसी काल में स्वीकार की. ये उस अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह के दिमाग का ही कमाल था जिसने उस वक़्त भारत पर आर्थिक मंदी का असर नहीं पड़ने दिया जब पूरी दुनिया आर्थिक तंगी से जूझ रही थी. ये उसी मनमोहन सिंह का अथक काम था जो उसने वित्त मंत्री और RBI गवर्नर रहते हुआ भारत को उस ऊंचाई तक पहुंचाया कि ये सरकार नोट बंदी जैसा कठोर कदम उठाने जैसा फैसला कर सकी.”

नताशा बेहद जोश में भी थी और कुछ नाराज़ भी. उसे लोगों के उस रवैये से नाराजगी थी जो पूरी बात को अच्छी तरह समझे जाने बगैर सुनी सुनायी हुयी बातों के आधार पर नेताओं को गरियाते रहते हैं.

उसकइ इस तर्क के बाद मेरी और रोहित की तो बोलती ही बंद हो गयी थी. हम तीनों काफी देर तक चुपचाप बैठे अपने अपने ड्रिंक के साथ खेलते रहे थे. मैं और नताशा ये काम कर रहे थे जबकि रोहित का ये तीसरा पेग था. अब तक वो जोश में आ चूका था.

“यार, छोड़ यार, राजनीती बहुत हो गयी. आज प्ले देखने चलते हैं. “

इस बात पर मैं और नताशा भी जोश में आ गए थे.

अक्षरा थिएटर में एक बेहद सनसनी खेज़ प्ले चल रहा था. “लेट्स हैव सेक्स". सो हम देखने गए थे और खूब एन्जॉय किया था. मैं पूरे प्ले के दौरान प्ले के साथ-साथ रोहित और नताशा की हरकतें भी टेढ़ी नज़रों से देख रहा था.

उस दिन भी मैं रात जब घर पहुंचा तो निम्मी सो चुकी थी. मैं देर तक अपने फ़ोन पर लगा रहा था. सुबह उसने पूछा था तो मैंने पिछली रात की सरसरी सी जानकारी उसे दे दी थी.

अब यूँ होता कि जब मैं रोहित और नताशा से मिल कर आता तो निम्मी मुझसे शाम के बारे में तरह-तरह के सवाल पूछती और मैं अपनी तरफ से जवाब दे कर उसे तसल्ली देने की कोशिश करता कि उसने कुछ भी मिस नहीं किया है. लेकिन मैं जानता था कि निम्मी फिर अकेली पड़ती जा रही है. मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर पाता था. मैं उसकी तरह रिश्तेदारियों में नहीं जा पाता था और वह मेरी दोस्तों की महफ़िलों में अनफिट थी. ज़िन्दगी इसी तरह चल रही थी.

इस बीच मैंने महसूस किया कि मेरी और नताशा की दोस्ती कुछ ज्यादा ही गहराती जा रही थी.

और धीरे धीरे रोहित इससे असहज होने लगा लगा था. जबकि नताशा की तरफ से मुझे किसी भी तरह का कोई भी संकेत या असहजता नहीं लग रही थी.

उस शाम के बाद से रोहित की तरफ से शाम को क्लब में बैठने के आमंत्रण आने कम होने लगे थे. जब आते तो नताशा नहीं होती थी. याने जब रोहित अकेला बोर हो रहा होता तो उसे मेरी याद आती. मैं कुछ-कुछ समझने लगा था.

और फिर एक दिन नताशा का फ़ोन आया था. उस शाम को रोहित ने मुझे डिनर पर अपने घर बुलाया था. जहाँ और भी कई लोग होने वाले थे. नताशा ने छूटते ही मुझे फ़ोन पर कहा था, "अनुराग, प्लीज डोंट कम फॉर डिनर टुनाइट."

मैं हैरान और हक्का-बक्का.

मैं कोई सवाल करता उससे पहले ही नताशा ने कहा था, "इट्स नॉट अबाउट यू. इट्स अबाउट रोहित. उसे लगता है मैं तुम्हें बहुत पसंद करने लगी हूँ. और इससे उसे मुश्किल होने लगी है. एंड आय कांट अफ्फोर्ड टू लूज़ हिम. नॉट एट दिस स्टेज. प्लीज."

इसके बाद मैं क्या कहता? मैंने कहा था, "डन नताशा. मैं अब तुमसे कभी नहीं मिलूंगा. "

एक के बाद एक दो खूबसूरत और ज़हीन औरतें मेरी ज़िंदगी में आयी थी और एक ही झटके में चली भी गयी थीं. मैं क्या कहता और क्या सोचता? अपनी किस्मत पर एक ठहाका लगा कर रह गया था.

उस शाम मै अकेला फिल्म देखने गया था. कई महीनों के बाद. फिल्म कौनसी थी, कैसी थी, कुछ पता नहीं. बस बैठा परदे पर हलचल देखता रहा. एक भी लफ्ज़ कानों में नहीं पडा. बस एक ही बात याद थी कि मैं फिर दुनिया की भीड़ में अकेला हो गया हूँ.

अब फिर से मुझे अकेले ही फ़िल्में और प्ले देखने जाना होगा. ये बात मैं अच्छी तरह से समझ गया था. मेरी तरह की फ़िल्में निम्मी झेल नहीं पाती थी. उसकी तरह की फिल्में मैं नहीं झेल पाता था. प्ले को वह वक़्त और पैसे की बर्बादी समझती थी. बात सिर्फ फिल्म या प्ले देखने की नहीं थी. बात तो पूरी ज़िन्दगी की थी जो अपना चौड़ा सा मुंह खोले मेरे सामने खड़ी थी.

मुझे अकेलेपन की चाह नहीं थी लेकिन मेरा मामला सेट था. मैं एक अकेला इस शहर में था. जिसके लिए घर भी था. घर का खाना भी था. कपडे सँभालने के लिए बीवी भी थी. चटपटा खाने के लिए गंगाराम का स्ट्रीट फ़ूड भी था. मेरी हेल्थ का गिरना भी जारी थी. उसका कोई उपाय नहीं था. और मेरे अकेलेपन का भी कोई उपाय कत्तई किसी के पास नहीं था.

मैं एक ऐसी गली के मोड़ पर आ खडा हुआ था जहाँ सब साफ़-साफ़ दिखाई दे रहा था. मुझे चलते जाना था. परिवार का, पत्नी का, बच्चों का ख्याल रखना था. अपनी ज़िम्मेदारियाँ निभानी थीं. उनके लिए कमाना था. उन्हें खुश रखना था. शादी बस यहीं तक सिमट कर रह गयी थी. जिस ख्वाब या फिर यूँ कहूँ कि जिस उम्मीद के साथ ज़िन्दगी की शुरुआत की थी. वो मुझे एक बार फिर धूल में लथपथ पड़ी साफ़ नज़र आ रही थी.

निम्मी से इश्क किया था. शादी भी कर ली थी. ये सोच कर कि अब शादी के बाद ये इश्क मुक्कमिल हो जाएगा प्यार और बढ़ेगा. लेकिन हुआ जाने क्या था? ये प्यार जाने होता क्या चीज़ है? शादी जाने किस ढर्रे पर चल निकली थी. मैं तो बस पैसा कमाने वाली मशीन बन कर रह गया था. मुझे सब की ज़रूरतों और मूड का ख्याल रखना होता है. और इसी में ज़िन्दगी खर्च हो रही है. मैं क्या चाहता था ज़िन्दगी से इसकी तो कोई याद भी नहीं बची है अब.

लगने लगा है ज़िन्दगी कुछ समझ नहीं आयी. नए सिरे से समझनी पड़ेगी. फिर लगता है कि नहीं, ज़िन्दगी तो अब समझ में आ रही है. शादी ही कुछ ऐसा मामला है जो ज़िन्दगी के साथ फिट नहीं होता. इस पर फिर से सोच भी नहीं सकता. गर्दन भर पानी में डूबा हुआ हूँ.

निम्मी और बच्चों की ज़िम्मेदारी है मुझ पर. कहीं भाग कर नहीं जा सकता इन सब को छोड़ कर. और मान लो जा भी सकूं तो कहाँ जाऊंगा?

ये ख्याल बेमानी है. ये शादी ही मेरा मुस्तकबिल है और ये शादी ही मेरी खानाखराबी भी है. बस मैं ही अटक के रह गया हूँ, इस सारे झमेले में. रोजी, नताशा या फिर बिंदिया. क्या फर्क पड़ता है? नाम का ही तो फर्क है. मेरे लिए सब बेमानी है.

छूट चुके सपने या फिर ऐसे सपने जो नींद में गाफिल होते वक़्त देखे हों, जिनका कोई सिर पैर नहीं होता. नींद खुले न खुले ये मिट जाते हैं, पीछे एक अफसोसनाक झूठा दिलासा छोड़ कर.

अलबत्ता एक सपना है जो हकीकत बना रोजी के घर में चहक रहा है. उसके आमद की बात सूनी थी. कार्ड में महकती हुयी जो कार्ल और रोजी ने उसकी पैदाईश की खुशी में हुयी पार्टी की सूचना देते हुए मुझे भेजा था. पूरा परिवार आमंत्रित था. लेकिन मैंने इस निमंत्रण की भनक खुद को भी नहीं लगने दी थी.

कार्ड आते ही सबसे नीचे की दराज़ में सहेज कर रख दिया था. इस दराज़ पर हमेशा ताला रहता है. और सोच लिया था कि इसे कभी नहीं देखूगा. लेकिन अक्सर निकाल कर पढ़ता हूँ. अब तो ये भी याद हो गया है कि कार्ड पर मेरे नाम के आगे एक बिंदी लग गयी है शायद गलती से. कार्ड में कार्ल के नाम से पहले एक हल्का सा काला निशान है. नीचे जो फ़ोन नंबर दिए हैं उनमें रोजी का नंबर नहीं है. दिल करता है किसी दिन रोजी के इस सपने को देखने जाऊं. उसके लिए रोजी की इजाज़त लेनी होगी. रोजी. एक नाम चहका और मैं मुस्कुरा कर फिर उसी उदास खामोशी में डूब गया.

***