औघड़ का दान
प्रदीप श्रीवास्तव
भाग-5
‘माफ करना सोफी मगर तुम्हारे आदमी और जल्लाद में कोई बड़ा फ़र्क मुझे दिखता नहीं। तुम्हारी हालत देख कर समझ में नहीं आता कि क्या करूं। बाबा के यहां जाने के लिए तुम पति से कुछ कह नहीं सकती। और सबसे यह बात शेय़र नहीं की जा सकती।’
‘क्या वहां अकेले जाने वाला नहीं है। या तुम अगर थोड़ा वक़्त निकाल सको।’
‘इन्होंने जैसा बताया उस हिसाब से ऐसा कुछ नहीं है। टेम्पो भी आते-जाते हैं। जहां तक मेरे चलने का प्रश्न है तो... देखो सोफी बुरा नहीं मानना मैं भी अपने आदमी को अच्छी तरह जानती हूं। और अपनी लिमिट भी, फिर भी कहती हूं जब कोई रास्ता न बचे तो बताना। कोई न कोई रास्ता निकाल लूंगी। नहीं होगा तो अपने हसबैंड को ही किसी तरह तैयार कर लूंगी।’
‘वे मान जाएंगे ?’
‘मैंने कहा न मैं मना लूंगी। पहले तुम यह तय करो कि जाओगी कि नहीं। और टाइम कैसे निकालोगी। आदमी को बताओगी कि नहीं।’
‘देखो मैंने यह तो तय कर लिया है कि जाऊंगी। और यह भी तय है कि आदमी को इसकी भनक भी नहीं लगने दूंगी। रही बात टाइम की तो एक ही रास्ता है पहले ऑफ़िस आऊंगी फिर यहां कुछ देर बाद आधे दिन की छुट्टी लेकर चली जाऊंगी।’
‘लेकिन इस बीच मान लो तुम्हारा हसबैंड आ गया या फ़ोन आ गया तो कैसे मैनेज करोगी।’
‘देखा जाएगा। कहां तक क्या-क्या मैनेज करूं।’
‘अच्छा आओ अब चलते हैं लंच टाइम खत्म हुए आधा घंटा से ज़्यादा हो रहा है। एक मिनट तुम्हें बाथरूम जाना हो तो बताओ ? इसमें संकोच की ज़रूरत नहीं है। मैं नाड़ा बांध दूंगी। इसलिए ऑफ़िस में जितना पानी पीना हो पियो यहां मैं हूं तुम्हारे साथ। फिर कुछ दिन में तो इससे फुरसत मिल ही जाएगी न।’
‘देखो ... डॉक्टर जिस तरह गोल-मोल बात करता है उससे तो लगता है कम से कम दो महीने और लगेंगे।’
बाथरूम में जब सीमा सोफी की सलवार बांध रही थी तभी उसे अपने हाथ पर गर्म-गर्म दो बूंदें टपकने का अहसास हुआ। उसने एक झटके से सोफी के चेहरे की ओर देखा और बोली,
‘ये क्या सोफी इतना इमोशनल होने से ज़िंदगी नहीं चलती। तुम तो बहादुर हो सामना करो हर चीज का। ऐसे कमजोर होने से काम नहीं चलता। आओ चलो। लेकिन पहले मुंह धो लो नहीं पंचायती लोग मुंह देख कर जान लेंगे आंसुओं के बारे में और आ जाएंगे घड़ियाली सांत्वना देने और बाद में खिल्ली उड़ाएंगे।’
लंच से वापस आने के बाद भी दोनों ने कुछ ही काम किया। बाकी समय बतियाती ही रहीं। सोफी अपने पति से जुड़ी बातों को बता-बता कर बार-बार भावुक होती रही और सीमा धैर्य रखने को बोलती रही। जुल्फी से मुलाकात के दिन को वह अपने लिए सबसे मनहूस दिन बताती रही। और सीमा से यह भी कहा कि ‘तलाक की जैसी तलवार हर क्षण हम लोगों पर लटकती रहती है, तीन सेकेंड में तलाक हो जाता है, वैसी तलवार तुम लोगों पर होती ही नहीं। तुम्हारे यहां तो तलाक देना शादी करने से भी ज़्यादा बड़ा और मुश्किल काम है। इस लिए तुम लोग पतियों से बराबर बहस कर सकती हो, हम लोग नहीं। यही वजह है कि हमें तुम जैसी आज़ादी नसीब ही नहीं हो सकती।’
दोनों की अंतहीन बातें शाम तक चलती रहीं। छुट्टी होने पर बिदा ली घर के लिए। घर पहुंचने तक सोफी के दिमाग में तमाम बातें उमड़ती-घुमड़ती रहीं। उसे अपनी ज़िंदगी अपनी किस्मत पर रोना आता रहा। और अर्से बाद अचानक आज उसे बड़ी शिद्दत से अम्मी-अब्बू, भाई-बहनों की याद आ रही थी। और आखिरी बार का वह मिलना-बिछड़ना भी। जब पुलिस कस्टडी में वह जुल्फ़ी के साथ थी, अब्बू ने उसे नाबालिग कहते हुए जुल्फ़़ी पर उसके अपहरण का आरोप लगाया था। पुलिस ने इस पर उसे गिरफ़्तार कर लिया था। लेकिन अब्बू उसके नाबालिग होने का कोई प्रमाण नहीं दे सके। जुल्फ़़ी के कहने पर वह अपना हाई स्कूल का प्रमाण पत्र घर छोड़ने से पहले ही उठा लाई थी। जिसे दिखा कर जुल्फ़़ी ने साबित कर दिया था कि वह बालिग है। और उस पर दर्ज कराया गया केस फर्जी है अतः उसे छोड़ा जाए। क्योंकि लड़की उससे निकाह कर चुकी है।
जुल्फ़़ी की तैयारियों के आगे पुलिस विवश थी। अंततः उन दोनों को छोड़ दिया गया। तब उसे जुल्फ़ी के साथ जाते उसके अब्बू-अम्मी, भाई-बहन, रिश्तेदार देखते रह गए थे। अम्मी रोते-रोते बोली थी ‘अब भी लौट आ कुछ नहीं बिगड़ा है।’ मगर बाद में हार कर चिल्ला पड़ी थी। ‘तू जन्मते ही मर क्यों नहीं गई थी करमजली। जा तू जीवन भर पछताएगी। जैसे हम सब को तड़पा रही है जीवन भर तड़पेगी। अल्लाह त-आला तुझे एक पल को भी चैन न बख्सेगा।’ फिर वह दुपट्टे से अपना मुंह ढक के वहीं सड़क पर बैठ कर रोने लगी थीं। और अब्बू! वह तो गुस्से से कांप रहे थे।
अब कुछ न हो सकेगा यह यकीन हो जाने के बाद उन्होंने ज़ुल्फ़ी और उसको जीभर गाली दी थी। और बात तब मार पीट तक पहुंच गई थी जब उन्होंने यह कहा कि जीवन में दुबारा दिखाई मत देना नहीं तो बोटी-बोटी काट डालूंगा। इस पर जुल्फ़ी और उसके साथी भड़क उठे थे। लेकिन थानेदार ने आमतौर पर नज़र आने वाले सख्त पुलिसिया रवैए से अलग दोनों पक्षों को घर जाने को कहा। जुल्फ़ी का वकील तो अड़ा हुआ था कि अब्बू के खिलाफ हत्या की धमकी देने, फर्जी केस दर्ज कराने का मामला दर्ज हो।
इसके बाद वह अपने परिवार से कभी न मिल सकी। निकाह के करीब साल भर बाद उसने एक दिन जुल्फ़ी से छिपा कर तीन बार फ़ोन किया था। पहली बार भाई ने फ़ोन उठाया था। और आवाज़ सुनते ही डांट कर फ़ोन का रिसीवर पटक दिया था। कुछ देर बाद फिर किया तो मां ने उठाया, फिर वह एक सांस में जितनी लानत मलामत भेज सकती थीं भेज कर यह कहते हुए रिसीवर पटका कि दुबारा किया तो पुलिस में कंप्लेंट कर दूंगी।
यह भूली बिसरी बातें सोचते-सोचते उसके आंसू निकलते रहे। और एक बार वह बुदबुदा उठी ‘अम्मी उस दिन तुम कह रही थी कि अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है लौट आ। मगर वहां तुमको कैसे बताती कि तब यह मुमकिन ही न रह गया था। क्योंकि तब तक जैनब मेरे पेट में दो महीने की हो चुकी थी। और हमारे सामने कोई रास्ता बचा न था। क्योंकि यह किसी भी सूरत में एबॉर्शन को तैयार ही न थे।’
ऐसे ही ख़्यालों में डूबती उतराती वह घर पहुंच गई, लेकिन दिमाग में यह बातें चलती रहीं। तब भी जब बच्चियां अपनी दिन भर की बातें बतातीं और सुनाती रहीं। और मियां जुल्फ़ी अपनी आदत के अनुसार मन का काम न होने पर अंड-बंड बकते रहे। आज यह बात उसके दिमाग में कुछ इस कदर शुरू हो चुकी थी कि तब भी चलती रहीं जब बच्चियां खा पी कर सो गईं। और मियां जी भी अपना वहशियाना खेल खेल कर खर्राटे ले रहे थे। और वह दर्द से आहत हो छत को निहारती निश्चल पड़ी थी। तब उसका एक हाथ सलवार का नाड़ा पकड़े हुए था। क्योंकि बाथरूम से आने के बाद वह उसे बांध नहीं पा रही थी। और तभी से वह कमरे की लाइट ऑन किए विचारों में पहले की तरह डूबती उतराती जा रही थी।
हाथ को लेकर सोफी की आशंका सही निकली। पूरी तरह ठीक होने में करीब दो महीने लग गए। यह दो महीने उसके बहुत ही कष्टपूर्ण दर्द भरे रहे। पति का जाहिलों भरा व्यवहार कहीं से कम न हुआ। और नाड़ा बांधना! यह उसके लिए किसी भयानक सजा को भोगने का अहसास देने वाला साबित हुआ। इन सारी बातों के साथ जो एक बात सबसे अलग रही और बराबर उसके दिमाग में चलती रही वह थी औघड़ बाबा की। वक़्त के साथ-साथ न जाने क्यों उसे यह यकीन होता जा रहा था कि यह औघड़ बाबा उस पर हर क्षण लटकती तलाक की तलवार को हटा देगा। उसकी कृपा से उसे पुत्र ज़रूर पैदा होगा।
उसने तय कर लिया कि स्कूटी ठीक से चलाने लायक होते ही वह औघड़ बाबा के पास ज़रूर जाएगी। और साथ ही यह भी तय कर लिया कि इस बात को सीमा से भी नहीं बताएगी, किसी को भी कुछ पता नहीं चलने देगी। नहीं तो लोग तरह-तरह की बातें बनाएंगे। एक से बढ़ कर एक सलाह देने लगेंगे। सीमा है तो बहुत मददगार, बहुत अच्छी लेकिन कभी बात करते-करते किसी से कह दिया तो बात फैलते और जुल्फ़ी तक पहुंचते देर नहीं लगेगी। यूं तो अपनी समस्याओं से मुक्ति के लिए सभी जाते हैं ऐसी जगहों पर लेकिन पंचायती लोग यह बात ज़्यादा उछालेंगे कि एक मुसलमान हो कर अकेली ही चली गई औघड़ के पास।
व्यग्रता बेसब्री के चलते वह अपने को ज़्यादा समय तक न रोक पाई। एक दिन ऑफ़िस पहुंची और घंटे भर बाद ही छुट्टी लेकर चल दी कि अस्पताल जाना है। सीमा को भी सच नहीं बताया। साफ झूठ बोलते हुए बताया कि पेट में कई दिन से बहुत दर्द है। एक तरफ ही होता है। डर लग रहा है कि कहीं कुछ बड़ी समस्या न हो। आज कल तो ट्यूमर-स्यूमर जैसी न जाने कितनी बीमारियां होती रहती हैं। सीमा ने साथ चलने को कहा तो यह कह कर मना कर दिया कि अभी रहने दो ज़रूरत हुई तो फ़ोन करूंगी।
बाबा के पास जाने के लिए सोफी जब चली तो एक तरफ जल्दी से जल्दी पहुंचने की व्यग्रता थी तो साथ ही मन में यह डर भी कि कहीं बात खुल न जाए। जुल्फी जानते ही आफ़त खड़ी कर देगा। मगर सोफ़ी का यह डर बाबा तक पहुंचने की इच्छा के आगे धीरे-धीरे कमजोर होता गया। आधे घंटे की ड्राइविंग के बाद वह मोहान रोड पहुंची। मगर समस्या यह थी कि बाबा के बारे में पूछे किससे। यूं तो तमाम दुकानें, आते-जाते लोगों की संख्या कम न थी।
सोफ़ी ने अंततः यही निश्चित किया कि वह ऐसी किसी औरत से ही पता पूछेगी जो यहीं की होगी और साथ ही निचले तबके की होगी। इससे यह भी पता चल जाएगा कि बाबा को लोग कितना जानते हैं। लोगों की नजर में बाबा कितने पहुंचे हुए हैं। यह सोच वह फुटपाथ पर बैठी सब्जी बेच रही एक ग्रामीण महिला के पास स्कूटी रोक कर उतरी। नजदीक जाकर पूछा तो उस ग्रामीण महिला ने उसे जो कुछ बताया उससे उसको बड़ी राहत मिली, खुशी भी कि वह सही जगह पहुँच रही है।
वह महिला बाबा की महिमा का बखान करते नहीं थक रही थी। मगर इस बात ने उसे थोड़ा डरा दिया था कि एक तो बाबा जल्दी मिलते नहीं दूसरे जल्दी उनकी कृपा नहीं मिलती। लेकिन जिस पर कृपा हो जाती है वह उनके पास से कभी खाली हाथ नहीं लौटता, उसकी मनोकामना पूरी होकर ही रहती है। उसकी बातों से उत्साहित सोफ़ी ने ऐसी ही कई अन्य महिलाओं से भी बात की। सभी ने बाबा का गुणगान ही किया। फ़र्क बस इतना था किसी ने कम किसी ने ज़्यादा किया। मगर सबसे बड़ी समस्या थी उनका ठिकाना जो मेन रोड से करीब एक किलोमीटर अंदर सूनसान जगह पर था। जहां जाने के लिए कच्चा रास्ता था। वह जगह वास्तव में आगे स्थित जंगल का बाहरी हिस्सा था। उबड़-खाबड़ ऊंची-नीची जमीन, झाड़-झंखाड़ और इधर-उधर नज़र आते पेड़।
लोगों के बताए ठिकाने पर डरती-सहमती सोफ़़ी किसी तरह आगे बढ़ती रही। ऐसे कच्चे रास्ते पर वह पहली बार स्कूटी चला रही थी। उसे ड्राइविंग में बड़ी मुश्किल आ रही थी। कई बार गिरते-गिरते बची लेकिन वह रुकी नहीं। इधर-उधर कई जगह उसे गाय-भैंसों के झुंड चरते नज़र आए। मात्र छः-सात मिनट का रास्ता अंततः उसने पंद्रह मिनट में पूरा किया। और एक पेड़ के सहारे पुआल की बनी एक बेहद जर्जर सी झोपड़ी के पास पहुंची। उसके सामने ही थोड़ी ऊंची जगह थी जिसे मिट्टी डाल कर ऊंचा किया गया था। उस पर पतली मोटी कई लकड़ियां सुलग रही थीं।
राख का ढेर, कोयले यह संकेत दे रहे थे कि आग यहां लंबे समय से जलाई जा रही है और राख वगैरह कभी हटाई नहीं जाती। जिससे ढेर ऊंचा होता जा रहा है। इस ढेर के साथ ही कुछ और जमीन भी ऊंची थी जो चबूतरे सी लग रही थी। जिस पर एक तरफ एक चिथड़ा सा कंबल पड़ा हुआ था। यह सब देख कर सोफ़ी को पक्का यकीन हो गया कि यही है बाबा का ठिकाना। क्योंकि सीमा सहित आते समय सब ने बाबा के ठिकाने के बारे में ऐसा ही सब कुछ बताया था। उस सास-बहू ने भी जो अभी दस मिनट पहले ही इस कच्चे रास्ते पर आते समय मिली थीं। उन्होंने भी बड़ा गुणगान किया था बाबा का। वह बाबा का आशीर्वाद लेकर लौट रही थीं।
बहू अपने पति के एक अन्य महिला से संबंध के कारण बहुत परेशान थी। और वह भी बाबा की महिमा सुन कर अपनी सास के साथ आई थी। उसकी सूजी हुई आंखें बता रही थीं कि वह बाबा के सामने बहुत रो-धो कर आई थी। लेकिन बाबा के पास से लौटते वक़्त दोनों के चेहरों पर सब कुछ ठीक हो जाने के विश्वास की चमक दिखाई दे रही थी। उन दोनों ने यह भी बताया कि बाबा कुछ लेते-देते नहीं हैं। बहुत जल्दी क्रोधित हो जाते हैं। किसी बात को जानने सुनने के लिए जल्द बाजी नहीं करना। शांत भाव से हाथ जोड़े खड़ी रहना। बाबा जब एक बार शुरू होंगे तो खुदी सब कुछ बता देंगे।
सोफ़ी ने वहीं पास में एक पेड़ की आड़ में कुछ इस ढंग से स्कूटी खड़ी की कि जल्दी उस पर किसी की नज़र न पड़े। स्कूटी खड़ी कर कुछ देर इधर-उधर उसने नज़र दौड़ाई। काफी दूर जानवरों के साथ तीन-चार लड़के-लड़कियां ही नज़र आए, बाबा कहीं दूर-दूर तक नहीं दिख रहे थे। सोफ़ी ने दुपट्टे से अपने सिर को ढंका और कुछ सहमती सिकुड़ती सी, मन में अनजाने डर से थरथराती हुई झोपड़ी की तरफ क़दम बढ़ाए। मगर कुछ क़दम ही चल कर ठिठक गई और अपनी चप्पल उतारी फिर आगे बढ़ी।
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