Nishchhal aatma ki prem-pipasa - 7 in Hindi Fiction Stories by Anandvardhan Ojha books and stories PDF | निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 7

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 7

बड़े भाग पाया गुर-भेद...

'रात गयी और बात गयी'-जैसा मेरे साथ कुछ भी नहीं हुआ। रात तो बेशक गयी, बात ठहरी रही--अपनी अपनी पूरी हठधर्मिता के साथ। हमारी संकल्पना पूरी तरह साकार न हो, तस्वीर वैसी न बने जैसी हम चाहते हों, तो बेचैनी होती है। यही बेचैनी मुझे भी विचलित कर रही थी। जितने प्रश्न पहले मन में उठ रहे थे, वे द्विगुणित हो गए। मैंने सोचा था, औघड़ बाबा अब कुछ ऐसा अद्भुत-अलौकिक करेंगे, जिससे मेरी माता, धुंधली छाया बनकर, झीने आवरण में ही सही, स्वयं उपस्थित होंगी अथवा मुझे उनका मंद स्वर सुनने को मिलेगा, लेकिन वैसा कुछ नहीं हुआ और जो कुछ हुआ, वह अविश्वसनीय चाहे न रहा हो, मेरी कल्पना के रंगों से मेल नहीं खाता था। मेरे मन का यह विचलन मुझे बार-बार बाबा की धूनी पर ले जाने लगा।

बाबा से जब कभी उनके बारे में जानना चाहा, वह बड़ी सहजता से मेरे प्रश्नों को टाल जाते। मैंने कई बार उनका नाम जानने की चेष्टा की। वह मुस्कुराते हुए कहते--'अरे, नाम में क्या धरा है? सभी मुझे 'बाबा' कहते हैं, तू भी कहा कर।'

भैरों घाट पर कई दुकानें थीं, उनमें एक दुकान पान-सिगरेट वाले की भी थी। जब से मैं घाट पर जाने लगा था, उस दुकान पर प्रायः जाता था। उस ज़माने में मैं ताम्बूल-भक्षक तो था नहीं, हाँ, कालेज के दिनों से पीछे लगी धूमपान की लत मुझे उस दुकान पर बार-बार ले जाती थी।

एक दिन मैंने पानवाले से औघड़ बाबा के बारे में पूछा, तो वह कहने लगा--'भइया, ई मलंगों का कोई नाम-पता थोड़े ही होत है! रमता जोगी, बहता पानी। कब किस घाट पर जा लगें, कौन जानत है? वैसे, तीन-एक साल से यहीं धूनी रमाये हैं। ज्यादातर लोग उनका बाबा ही कहत हैं, लेकिन कुछ लोग लालबाबा भी पुकारत हैं, असली नाम त कोऊ नहिं जानत। हाँ, एक बात है, पढ़े-लिखे मालूम पड़त हैं। एक दिन दू अँगरेजन से अंगरेजी में बतियावत हमरी दुकान पर आये रहें। बंगला भी जानत हैं। ख़ोपड़िया सनकी रहे, त कछु बोलिहें, नाहीं त चुप्पेचाप भइया...!'

बाबा का बस यही इतना परिचय था। मैंने सात से दस दिनों तक उनका पीछा किया। कभी वह मिलकर बातें कर लेते, कभी मुँह फेरकर दूसरी दिशा में चल पड़ते और कभी नदारद होते। उन्हें शीशे में उतारना आसान नहीं था। जिस रात माँ से उन्होंने मेरी बात करवाई थी, उसके दूसरे दिन ही मैंने बाबा से बड़े दीन भाव से पूछा था--"बाबा, मेरी माँ ने अपनी मौत के बारे में ऐसा क्यों कहा कि प्यास के कारण दम घुटने से उनकी मृत्यु हुई, जबकि डॉक्टरों का मत था कि वह 'सडन कार्डिएक अरेस्ट' था।" बाबा ने मुझे समझाया था--'देख, आत्मा जब शरीर छोड़ती है, तब वह जो महसूस करती है, वही बताती है। वह डॉक्टरों की भाषा में नहीं बोलती, उसकी भाषा अनुभूति की भाषा होती है। तू नाहक ही इस बात को दिल से लगाये बैठा है। किसी दुर्घटना में हुई मौत वाली आत्मा दुर्घटना का पूरा विवरण देगी, लेकिन मौत का कारण वह भी अपनी अनुभूति से ही बताएगी। ऐसी आत्माओं का विचलन तू देखेगा, तो हैरत में पड़ जाएगा। तेरी माँ तो एक शांत आत्मा हैं, उनके लिए शोक मत किया कर…?'

अगली एक बैठकी में बाबा ने मुझे समझाया था--"मृत्यु के बाद जीव जगत् से चला जाता है, लेकिन उसका सूक्ष्मजीवी शरीर नष्ट नहीं होता। उसका जुड़ाव और उसकी अवस्थिति इस जगत् से बनी रहती है। हमारे पुकारने-बुलाने पर वही सूक्ष्म-शरीर संपर्क में आता है। वही हमारी शंकाओं का समाधान करता है और प्रश्नों के उत्तर दे जाता है। यह संपर्क-साधन आसान नहीं है। यह क्रिया गहरे मनोयोग की मांग करती है, गहन ध्यान से मन की बिखरी हुई वृत्ति को समेटकर एक विन्दु पर केंद्रित करना होता है और यह सब बहुत सहजता से नहीं होता।"

हर मुलाक़ात में बाबा ऐसी छोटी-बड़ी टिप्पणियाँ तो दे देते, लेकिन जैसे ही मेरी जिज्ञासा किसी गूढ़ रहस्य की परतें खोलने की कोशिश करती, वह बात का रुख पलट देते अथवा उठकर चल देते। मैं कश-म-कश में पड़ा रहता कि उनके सामने अपनी हसरत कैसे रखूँ ! और वह ख्वाहिश जो मैंने बचपन से ही पाल रखी थी, मन में ही दबी रह जाती। मुझे ऐसा भी लगता कि मैं लक्ष्य के बहुत निकट हूँ, लेकिन लक्ष्य का संधान नहीं कर पा रहा।...

एक दिन हिम्मत जुटाकर मैंने उनसे कह ही दिया--"बाबा, आत्माओं से सम्पर्क का गुर मुझे दे दीजिये न! मैं भी जब चाहूँ, उनसे संपर्क करूँ।" बाबा ने मुझे घुड़क दिया था--"हद्द बेवकूफ़ी की बात है, शोले को हथेलियों में रखना चाहता है? आफतों को न्योता नहीं देते।" फिर, मैं उन्हें मनाने की फ़िक्र में लग जाता।

दिन गुज़रते जा रहे थे और बाबा कंधे पर हाथ नहीं रखने दे रहे थे। संभवतः नौवें-दसवें दिन की बात है। शाम के वक़्त मैं निश्चय करके स्वदेशी कालोनी से निकला कि आज बाबा से पराजगत से संपर्क का गुर लेकर ही लौटूँगा। उनके पास पहुँचते ही मैंने रामधड़ाका अपनी बात उनके सामने रख दी। वह तो एकदम उखड़ गए। मुझे दुत्कारते हुए बोले--'भाग जा यहां से। नादानी की हद हो गई। जान जहन्नुम में डालने को आमादा है तो मैं तेरी मदद नहीं करनेवाला। ... "

मैं उनके पास से लौटा तो बहुत क्षुब्ध था। रात का खाना खाकर जब बिस्तर पर गया तो देर रात तक नींद नहीं आई। सोचता ही रहा कि अब क्या करूँ ? अंततः नींद आने के पहले मैं इस निश्चय पर पहुँच गया था कि आत्माओं से सम्पर्क का यह कार्य-व्यापार स्वयंसिद्ध करूँगा अपनी निष्ठा, मनोयोग और अटूट ध्यान से।

दूसरे दिन ही मैंने बाज़ार जाकर सारा इंतज़ाम किया--प्लाई का एक बोर्ड, जिसका एक तल बहुत चिकना था, बहुत पतले शीशे की एक छोटी-सी गिलसिया और खादी सिल्क की एक धोती खरीदी। अगरबत्ती, मोमबत्ती और धूपबत्तियाँ भी लेकर लौटा। बोर्ड पर वही सब पेंट से लिखा, जैसा बाबा के यहां मैंने देखा था। रात होने पर स्नान करके मैंने सिल्क की धोती बाँधी, कमरे के दोनों दरवाज़े बंद किये, मोमबत्तियां-अगरबत्तियां जलाईं और बोर्ड बिछाकर हाथ में शीशे का गिलास लेकर ध्यान-मुद्रा में देर तक बैठा। ध्यानावस्था में मुझे बार-बार लगता जैसे शरीर में कम्पन हुआ हो, जैसे कोई आत्मा मेरी पुकार सुनकर आ गई हो। मैं गिलास को बोर्ड के मध्य में उलटकर रख देता और पूछता--'अगर आप यहां हैं तो हामी भरिये ('If u are here, say yes!')। लम्बी प्रतीक्षा के बाद भी गिलास की स्थिति में कोई फर्क न पड़ता। निराश होकर मैं फिर ग्लास उठा लेता और पुनः ध्यान में लीन होने की चेष्टा करता। पहली रात गहरी निराशा के साथ ही मुझे सोना पड़ा।

लेकिन मैंने अपना हठ न छोड़ा। तीन दिनों तक यही क्रम चलता रहा और निराशा मेरी संगिनी बनी रही। किसी भी दिन २-३ बजे के पहले नहीं सोया। अंततः यही समझ में आया कि अनेक गुर ऐसे होते हैं जो हठधर्मी से आयत्त नहीं किये जा सकते। वे गुरु-कृपा से ही सिद्ध होते हैं।

चौथे दिन मैं शाम के वक़्त फिर घाट पर जा पहुंचा। सीधे बाबा के पास जाने की हिम्मत नहीं हुई। मायूसी में गंगा-तट पर टहलता रहा और बाबा के सामने जाने की हिम्मत जुटाता रहा।लेकिन मुझे उनकी धूनी पर जाना न पड़ा, अचानक वही ही मेरे सामने आ खड़े हुए। मुझे देखते ही बोले--'तू वेताल की डाल नहीं छोड़ेगा न…?' मैंने झुककर उनके चरण छुए। उन्होंने हठात् प्रश्न किया--'मनमानी कर आया तू, क्यों नहीं समझता कि ये रास्ता काँटों से भरा है…?' उनकी इस बात से मैं अचरज में पड़ा चुपचाप उन्हें निहारता रहा, बोला कुछ नहीं। थोड़ी देर मौन रहकर बाबा ने आदेश के स्वर में कहा--'जान गया, तू मानेगा नहीं। चल, आ जा, समझाता हूँ तुझे परा-जगत् में प्रवेश का रहस्य।'...

मैं कृतज्ञता से भरा उनके पीछे चल पड़ा। ...

(क्रमशः)