Mukhbir - 23 in Hindi Moral Stories by राज बोहरे books and stories PDF | मुख़बिर - 23

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मुख़बिर - 23

मुख़बिर

राजनारायण बोहरे

(23)

रामकरण की जान

गलतफहमी से मुझे याद आया, कि कैसे जरा सी गहतफहमी पैदा होने से श्यामबाबू ने रामकरण की जान ले ली थी । उस रात मैंने उन सबको रोज की तरह अपना किस्सा सुनाना आरंभ कर दिया-

.........उस दिन गिरोह में से कृपाराम और अजयराम कहीं चले गये थे और अपनी जगह हमेशा की तरह उन दो निहत्थे बदमाशों को पहरेदार बना के छोड़ गये थे, जिन्हे लल्ला पंडित लगुन के बुलौआ में आये मेहमान कहा करते थे, क्योंकि जब भी वे दोनों आते थे, दिन भर चुप बैठेे रहते थे और टुकुर-टुकुर इधर-उधर देखते रहते थे ।

तो रोज की तरह उस सांझ भी श्यामबाबू ने अगरबत्ती जलाकर ‘‘ ओम जय जगदीश हरे ‘‘ एवं ‘‘ जय अम्बे गौरी, मैया जय अम्बे गौरी ‘‘ की आरतियां गाई थीं फिर सब लोग शांति से बैठे तो श्यामबाबू को कुछ याद आया और अचानक ही उसने रामकरन को विरहा सुनाने का निर्देश दिया था ।

अपहृत लोगों में सब ही कुछ न कुछ सुना ही लेते थे । दोनों ठाकुर आल्हखंड गाते थे, तो मै फिल्मी गाने गा लेता था । लल्ला पंडित भजन-रामायन सुना लेते थे और शिवकरण ब्याह-बुलौआ में गाये जाने वाले महिला गीत अच्छी तरह से गा लेता था, लेकिन रामकरन सबसे उम्दा गाता था । वह इस उम्दा तरीके से विरहा गाता, कि लगता था, वह बैंक का चपरासी नहीं, कोई ढोर चराने वाला चरवाहा है जो अपनी भैस की पीठ पर बैठ कर सुर साध कर विरहा गा रहा है ।

उस दिन रामकरन के कपार में भारी दर्द था, सो विरहा गाने का हुकुम सुनकर पहले तो एक मिनट तक वह सोचता रहा, फिर हाथ-जोड़ के क्षमा सी मांगता बोला-‘‘ दाऊ आज मेयो मूड़ दूख रहो है, आजि छुट्टी दे देउ । कलि सुनाइ देंगे ।‘‘

श्यामबाबू अनुशासन और आतंक के लिए तो पूरा जल्लाद था, उसे गलतफहमी हो गई कि रामकरन का यह इन्कार किसी मजबूरी की वजह से नही बल्कि गायकों का सहज सा नखरा है, सो वह गरज उठा-‘‘ सारे बनिया वारे, तेये दिमाग भौत बढ़ि गये । मूड़ न दूख रहो, तू जूता मांगि रहो है ! चलि.........गा सारे !‘‘

रामकरन ने जी कड़ा किया, अपने तेज दुखते कपार में दो तीन मुक्का मारे और आँख मूंद के मन-ही-मन वह उपयुक्त विरहा याद करने लगा, जिसे इस वक्त विरहा सुनाया जावे ! और इतनी देर में तो गुस्से से लाल-पीला होता कालीचरण अपने हाथ में जूता लिए उसके सिर पर जा पहुंचा था ।

‘धड़ाक‘ एक जूता रामकरन के सिर पर ठोकता वह चिल्लाया

-‘‘ मादरचो..........तुम सबके नखरे मुखिया ने बहुत बढ़ा दये है। लातन के माजने हैं तुम सब के, बातन से काम न चलिवे बारो ।‘‘

रामकरन कातर हो उठा और आंखों में याचना के भाव लाते हुए उसने कालीचरन का जूता पकड़ लिया, तो बागी का गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुंचा था । उसने रामकरन को एक धक्का मारके नीचे गिराया और उसकी छाती पर चढ़ बैठा था, फिर दे पे दे रामकरन के मुंह में जूता मारता चला गया था । रामकरन के माथे, आँखं और होंठों पर खून छलछला उठा था ।

श्यामबाबू ने रोका तो कालीचरण ठहर गया । मैंने देखा कि कराहता रामकरन कुछ पल तो लेटा रहा, फिर दर्द सहने की कोषिष करता जैसे-तैसे उठा तो उसका चेहरा बड़ा विकराल हो चुका था । खून से रंग के लाल होगये चेहरे पर खून की लकीरों के बीच उसकी लाल-लाल खौफनाक आँखें चमक रही थीं, जिन्हे देख के मन में हहरन सी हो आई थी मुझे भी।

मैंने लम्बू ठाकुर को इशारा किया तो भूल-चूक की क्षमा मांगते हुए ठाकुर ने श्यामबाबू से आल्हखण्ड सुनाने की अनुमति मांगी और उसका जवाब सुने बिना ही शुरू हो गया-

सुमिरन करके नारायन को, ले बजरंग वली को नाम ।

कहूं कथा कीरतसागर की, यारो सुनियो कान लगाय ।।

नगर महोबा है दुनिया में, जहं पर बसें रजा परमाल ।

करके चुगली माहुलमामा, आल्हा-ऊदल दये निकाल ।।

ठाकुर की आवाज में उस दिन रोज जैसी हुंकार नहीं थी, इस कारण आल्ह ख्ंाड में रोज जैसा मजा नही आ रहा था । श्यामबाबू ने इशारे से गाने से मना किया तो ठाकुर चुप हो गया ।

गिरोह का माहौल भारी हो गया था और इस कारण रात को सब लोग चुप-चुप ही रहे थे । खाने के बाद अपहृतों की टांगे एक जंजीर से बांध के बागी पक्का बंदोबस्त करके सो गये ।

तब सुबह के चार बजे थे, जब अचानक कई लोगों के चिल्लाहट सुनकर हम सबकी आँख खुली । सामने बड़ा अजीब दृश्य था । कालीचरण और रामकरन आपस मे गुत्थमगुत्था होते हुए जमीन पर गुलांटे खा रहे थे । श्यामबाबू हाथ में बन्दूक लिये दम साधे निशाना लगाये तैयार खड़ा था । रामकरन ने कालीचरण को इस कदर चपेट रखा था कि लाख जतन करने पर भी वो अलग नहीं हो पा रहा था ।

लुढ़कते हुए यकायक कालीचरण जब रामकरन के ऊपर आया तो उसने रामकरन के दोनों हाथ जकड़े और पूरी ताकत लगा के उनसे मुक्त हो गया और एक छलांग लगाके दूर जा गिरा था । बस इतना ही काफी था । श्याम बाबू ने मौका देखा और ‘‘ धांय‘‘ से एक फायर कर डाला । गोली सीधे ही रामकरन के सीने में जा घुसी थी और वहां से खून का फौबारा छूट निकला था । उठने का प्रयास करते आहत रामकरन को दूसरा मौका ही नहीं मिला, कालीचरण ने अपनी बन्दूक उठाकर खुद भी एक गोली रामकरन के तड़प रहे बदन में सीधे माथेे पर दाग दी थी । खून का फौबारा छोड़ता रामकरन का शरीर लगभग उछलते हुए नीचे गिरा और थोड़ी देर तड़प् कर एक झटके से ठण्डा पड़ गया । अपहृतों ने घबरा के अपना मुंह फेर लिया ।

जब रामकरन का बदन शांत हो गया तो कालीचरण की खौफनाक आवाज गूंजी-‘‘ चलो सबि लोग जा हरामी के मोंह में पेशाब करो !‘‘

अपहृतों को काटो तो खून नहीं ! आदमी ऐसा पिशाच भी हो सकता है, इसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी ।

श्यामबाबू, कालीचरण और बाकी दोनों बदमाश ‘ तुल्ल तुल्ल ‘ करके रामकरन के मुंह में पेशाब करने लगे थे तो लल्ला पंडित का उबकाई सी आने लगी थी ।

श्यामबाबू के पूछने पर कालीचरण सुना रहा था -‘‘ पता नहीं काली भमानी की का किरपा भई कै तनिक सी आवाज से मेरी नींद टूट गई और मै तो डरप ही गयो । सारो जि रामकरन हाथ जै बड़ो पत्थर उठाके मेरो मूड़ कुचलिवों चाह रहो थो । मैं फुर्ती से करवट बदलके झट से उठके खड़ा हो गयो और वा दुश्मन को काबू में करि पायो । तब तक तो तुम सब जगि गये थे ।‘‘

श्यामबाबू ताज्ज्ुब में था-‘‘ रामकरन के पांव की जंजीर कैसे खुल गई? लग रहो है कै सारे ने रात की बात को बुरो मान लियो । सारे के मूड़ में मौत मड़रा रही थी कल से । हम तो कल ही मा ड़ारते सारे खों !‘‘

कालीचरण के इशारे पर अब तक सुस्त रहे उनके वे दोनों साथी बदमाश हरकत में आ गये थे और हम अपहृतों की जंजीर की पड़ताल करने लगे थे ।

उस दिन अपहृत को दिशा मैदान की भी अनुमति नहीं मिली थी, हमे बंधे हुये ही रामकरन की लाश के पास बैठाये रखा गया ।

दस बजते-बजते कृपाराम और अजय राम लौट आये थे - उन्हे देख कर हम लोग अज्ञात भय से भर उठे थे-इस घटना के प्रतिकार में हम लोग न पिट जावें । रामकरन का वृत्तांत सुनकर अजयराम के चेहरे पर घृणा तैर आयी थी, वह बोला ‘‘ अच्छो रहो, अभागो मरि गयो ! नपूते के घर बारे भी जा के मरिवे को इंतजार करि रहे थे, तब हीं तो तुम सबि के घर ते रूपया-धेेला आइवे की खबर-वतर आगई, और जा सारे के घरि से अब तक कछ्छू संदेसो न आयो। सारो अपने आप छूटि गयो पकड़ से ।‘‘

एकाएक कालीचरण ने अपहृतों को हड़काया-‘‘ तुममें से कौन जलिदी छूटिबो चाहि रहो ?‘‘

हम सब स्तब्ध थे। पांचों लोगों ने तुरन्त ही इन्कार में सिर हिला दिया ।

श्यामबाबू ने नया हुकुम दागा-‘‘ तुम लोग रोटी-पानी को इंतजाम करो इतई !‘‘

लल्ला चौंका-‘‘ दाऊ इते ? हिंया तो लासि डरी है !‘‘

‘‘ हां ! लासि के ढिंग खानों बनेगो आज ।‘‘ कहते श्यामबाबू का चेहरा किसी हिंस्र पशु सा कठोर दिखने लगा था ।

रोज की तरह खाना तो बना, पर जाने कैसे कृपाराम को समझ आ गई सो बना-बनाया खाना लेकर उसने सबको वहां से दूर चले जाने की मुहलत दे दी ।

अगले दिन शाम सात बजे के समाचारों में रेडियो पर रामकरन की लाश मिलने का जिक्र सुनते चारों बागी गर्व से गर्दन फुलाये बैठे थे, और इशारे से अपहृतों पर अपना रौब गालिब कर रहे थे ।

रघुवंशी ने उत्सुकता से पूछा-‘‘जिस दिन गिरोह को पता लगा कि दरोगा तोमर की तरक्की उससे छिन गई, उस दिन भी तो रेडियो पर यह खबर सुनी होगी उन लोगों ने ।‘‘

‘‘ हां, खबरें तो रोज सुनत हते वे सब । उस दिन तो मिठाई बंटी थी वहां ।...........लेकिन तोमर साहब को एक निरपराध आदमी को ऐसे मार देवो .............! टाप तो जानते होंगे तोमर को !.‘‘

‘‘ जानता क्या था, हम लोग साथ-साथ थे ।‘‘ रघुवंशी ने मेरी बात काटी, फिर मुझे डांटने लगा-‘‘ तुम सारे क्या जानो कि हम लोग कैसे काम करते है। अब तुम अपनी कथा-कहानी बंद करो आज, और सो जाओ !‘‘

मै सकते में आ गया अचानक उनकी यह बात सुनकर और फिर चुपचाप सोने में ही भलाई समझी मैंने अपनी । लेकिन ऐसे में भला नींद कहां आनी थी, सो पूरी रात जागता रहा मैं उस दिन ।

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