उन दिनों बहुत कम घरों में फोन होते थे। सुविधानुसार लैंडलाईन पर बात करने के लिए मोहल्ले वाले अपनी रिश्तेदारियों में पड़ौसियों का नम्बर दे देते थे। ताकि अड़ी–भीड़ में रिश्तेदारियों की खोज–ख़बर मिलती रहे । वैसे तो पड़ौसियों के फोन आने से फोन मालिकों को बड़ी परेशानी होती थी । लेकिन जिस घर में छोटे बच्चे होते थे, उस घर में फोन की घंटी बजना घर के छोटे बच्चों के लिए एक खेल के माफ़िक था। जब भी फोन की घंटी बजती तो बच्चे एक–दूसरे से आगे भागते कि सबसे पहले कौन फोन उठाएगा। फिर यदि किसी पड़ौसी के लिए फोन हो तो उनको सूचना देकर टॉफी, चुइंगम या बिस्कुट के रूप में इनाम पाएगा।
सुबह–सुबह का समय था। घर के सभी लोग अपने–अपने काम में व्यस्त थे।
“ट्रिन–ट्रिन, ट्रिन–ट्रिन,.....।” फोन की घंटी बजते ही चुन्नी दौड़ती हुई फोन तक पहुँचकर रिसीवर उठाती है, उधर से आवाज आयी, “हैलो! आपके पड़ोस में गंभीर सिंह जी रहते है, कृपया उन्हें तुरंत बुला देंय बहुत जरूरी काम है।” सामने वाले ने अपना कोई परिचय नहीं दिया। बस अपना फरमान सुना दिया।
अबोध बालिका उससे उसका परिचय जाना भी भूल गयी, “आप दस मिनिट बाद फिर से फोन करना।” कहते हुए फोन रखकर दौड़ती हुई पड़ोसी गंभीर सिंह के घर पहुँची।
–0– –0– –0–
“दादा जी, दादा जी! आपके लिए फोन आया है।”
गंभीर सिंह, “किसका फोन है?.....”
चुन्नी, “अरे बाबा अब मुझे कैसे मालूम पड़ेगा किसका फोन था, उन्होंने आपको तुरन्त बुलाने को कहा तो मैं भी तुरन्त ही दौड़ी–दौड़ी आ गयी।..... फिर आपने भी तो कह रखा है, जब कभी–भी मेरे लिए कोई फोन आए तो तुरन्त मुझे बताना।..... उफ आपके चक्कर में तो मैं अपनी मम्मी के बताए हुए काम भी भूल आयी।..... अब देखो! फोन सुनने के बाद जल्दी से मुझे चॉकलेट दिलवा देना, वो क्या है न कि मम्मी की डाँट खाने के लिए शरीर में थोड़ी–सी एनर्जी भी तो चाहिए, समझ रहे हैं न आप..... हैं?”
चुन्नी के गाल पर थपकी लगाते हुए “ठीक है दादी अम्मा!..... अरे गौत्तम!..... जरा देखना आना किसका फोन आया है?” गंभीर सिंह ने अपने बड़े बेटे को आदेश दिया।
चुन्नी, “क्या दादा जी! आप भी ना भुलक्कड़ हो गए हो । मैंने अभी–अभी तो बताया था, आपके लिए फोन था। कह रहे थे गंभीर सिंह जी से बात करवा दो, बहुत जरूरी काम है। उनको आप से ही काम होगा तो गौत्तम चाचा उनका फोन सुनकर क्या करेंगे? फिर से आपको ही जाना पड़ेगा न।..... उफ से बड़े लोग किसी बात को ठीक से समझते ही नहीं । नादानियाँ खुद करते हैं और हम बच्चों को नादान कहते हैं ।”
“ओ हो ये चिरमठी–सी भी ना..... सबकी दादी है..... अपनी बात मनवाए बिना मानेगी नहीं।” बड़बड़ाते हुए गंभीर सिंह फोन सुनने चुन्नी के पीछे–पीछे हो लिए।
–0– –0– –0–
अभी वह चुन्नी के घर की दहलीज पर ही थे कि फोन की घंटी एक बार फिर से घनघना उठी। इस बार भी चुन्नी ने दौड़कर फोन उठाया तो उ/ार से आवाज आयी, “हैलो! गंभी.....”
चुन्नी, “हाँ बाबा, हाँ.....आ गए हैं आपके गंभीर सिंह जी।..... लो जी भरकर बतिया लो.....” और रिसीवर गंभीर सिंह को पकड़ा दिया।
गंभीर सिंह, “हैलो!.....”
“हैलो, दादा जी! मैं अवतार बोल रहा हूँ।.....” (उधर से लड़खड़ाती–सी आवाज आयी ।) “.....आप जल्दी से आकर अपनी लड़की को यहाँ से ले जाएँ । यदि कुछ उल्टा–सीधा हो गया तो बाद में मुझे दोष मत देना।”
गंभीर सिंह, “अवतार बेटा! क्या बात हो गयी? कुछ समझाओगे भी।”
अवतार, “आज सुबह–सुबह मेरे माँ–बाप के साथ आपकी बेटी का झगड़ा हो गया.....”
“देखो बेटा! जिस दिन हमनें अपनी बेटी को तुम्हारे साथ ब्याहा था, उसी दिन से हमारा उसके साथ नाता सिर्फ बार–त्यौहार, शादी–ब्याह, खुशी–गमी तक का रह गया था । इसलिए तुम्हारे घर–परिवार में किसी तरह का छोटा–मोटा झगड़ा होता है तो उसके लिए हमारे पास फोन मत करना।” गंभीर सिंह ने सख्त लहजे में अवतार को समझाया।
अवतार, “ठीक है तो, कल को उसने फाँसी–वासी खा ली तो मुझे दोष मत देना की हमें पहले क्यूँ नहीं बताया।”
गंभीर सिंह, “देखो अवतार! तुम हमारे घर के दामाद हो, सिर–माथे । बस एक बात गाँठ बां/ा लो, सारा जीवन तुम्हें अपनी समझबूझ से चलना है। तुम्हारी शादी का अस्तित्व तुम्हारे परिवार और तुम दोनों से है न कि किसी दूसरे के दखल से।..... कान खोलकर सुन लो, खुशी–खुशी फोन करो तुम्हारा स्वागत है। लेकिन यदि अपने पारिवारिक झगड़े का मसला सुनना हो तो आइंदा हमें फोन मत करना।..... हाँ! जिस दिन हमारी लड़की की तेरहवीं हो उसी दिन फोन कर देना हम रस्म निभाने आ जाएंगे।” कहकर गंभीर सिंह ने फोन रख दिया।
फोन पर पत्नी के दादाजी का टका–सा जवाब सुनकर अवतार को कुछ सूझ नहीं रहा था । वह सोचने लगा ‘कोई अपना अपने बच्चों के प्रति इतना निर्दयी कैसे हो सकता है ? क्या यह वही दादा था, जिसने पहली ही नज़र में उसे पसंद कर लिया था ओर न तो शिक्षा के बारे में कुछ पूछा न ही नौकरी के बारे में । न जाने ऐसा क्या देख लिया था उसने मेरे अन्दर।’
तभी बूथ में लगी घड़ी की तरफ उसकी नज़र गयी, ‘ओह! टेªन का भी टाइम हो गया है।’
उसने एस.टी.डी. बूथ वाले से कॉल का खर्चा पूछा तो बूथ वाला बोला, “साढे बारह रूपए हो गए।”
‘इतनी–सी देर के साढे बारह रूपए?’ वह सोच में पड़ गया, लेकिन बात की है तो की है । कॉल का खर्चा तो देना ही पड़ेगा। जेब में हाथ मारा तो बीस–बीस के दो नोट मिले। अवतार ने एक बीस का नोट बूथ संचालक की तरफ बढ़ाया। बूथ संचालक ने गल्ला टटोला, “अरे भाई! खुल्ले नहीं हैं क्या आपके पास.....”
“नहीं.....”
“.....सुबह–सुबह का समय है मेरे पास भी खुल्ले पैसे नहीं हैं। ऐसा करो कुछ देर इंतजार कर लो। हो सकता है कोई दूसरा ग्राहक खुल्ले पैसे ले आए।”
टेªन का टाइम हो चुका था। अवतार ने बूथ संचालक से कहा, “कोई बात नहीं फिर हिसाब कर लेंगे।”
साढे़ सात रूपए बूथ संचालक में छोड़कर वह बेजान से कदमों से स्टेशन की तरफ चल पड़ा। प्राईवेट नौकर के लिए काम पर समय से पहुँचना भी एक बड़ी मजबूरी होती है। नौकरी के आगे घर–परिवार की मजबूरियाँ कोई मायने नहीं रखती, एक घंटा भी देरी हो जाए तो आधे दिन की तनख्वाह हाथ से चली जाती है। ट्रेन की सीटी दूर से ही सुनाई पड़ी तो अवतार बिजली की गति से स्टेशन पहुँचा और किसी तरह ट्रेन पकड़ी।
–0– –0– –0–
दैनिक यात्रियों से भरी ट्रेन में साँस लेना भी बड़ा मुश्किल हो रहा था। ट्रेन में खड़े रहने की जद्दोजहद में वह सुबह वाली घटना के बारे में सबकुछ भूल–सा गया था । रास्ते में ट्रेन पन्द्रह–बीस मिनट लेट हो गयी थी । स्टेशन पर उतर कर अवतार अपने दफ़्तर की तरह हो लिया। खुला रास्ता मिलने पर सुबह की घटना ने उसके दिमाग पर बोझ डालना शुरू कर दिया। कुछ खास मालूम भी तो नहीं था सुबह की घटना के बारे में उसे। वह तो सो कर उठा तब माँ और पिताजी उसकी पत्नी को बहुत बुरी तरह जलील कर रहे थे। वह भी बेचारी चुपचाप उनके तानों को सुने जा रही थी। अवतार की भी हिम्मत नहीं हुई कि वह माता–पिता से उनकी नाराज़गी को पूछ सके। क्योंकि वह तो आज तक अपने माता–पिता के सामने नज़रें उठाकर भी खड़ा नहीं हुआ था। वह सोच रहा था ऐसी स्थिति में करे भी तो क्या करे, तभी दिमाग ने काम चुप रहने में ही भलाई हैय यदि वह बीच में पड़ता तो शायद पत्नी को ओर भी ज्यादा जलील होना पड़े । उसको खुद को कुछ कहा जाता तो कोई खास बात नहीं होती लेकिन उसकी वजह से पत्नी को ओर अधिक सुनना पड़ा तो.....। वह नि:सहाय–सा अपने ही दिमाग के घोड़े दौड़ा रहा था, कि सुबह–सुबह ऐसा क्या हो गया जो माँ–पिताजी उसकी पत्नी को इतना बुरा–भला कह रहे थे। इसी उधेड़–बुन में दफ्तर पहुँचते–पहुँचते उसको लगभग एक घंटे की देरी हो ही गयी। यह तो शुक्र था कि अभी तक मालिक नहीं आए थे। दफ्तर में घुसते ही वह अपनी कुर्सी पर धंस गया था। कम्प्यूटर खोला लेकिन काम में मन नहीं लग रहा था। फिर भी जो काम बचा हुआ था वह तो करना ही था । अनमने मन से वह काम निपटा तो रहा था, लेकिन आज बार–बार सुबह वाली घटना उसके दिमाग में घर कर जाती थी।
अरे याद आया, मेरी शादी से कुछ महीने पहले ही तो पड़ौस में पिंटु की शादी हुई थी, तब तो वह कुछ कमाता–धमाता भी नहीं थाय फिर भी उसकी ससुराल वालों ने अपनी आर्थिक स्थिति ठीक न होने के बादजूद उसको दहेज में स्कूटर दी थी । माँ को कई बार पिंटु की ससुराल वालों की तारीफ करते सुना था । पिंटु की शादी के कुछ महीने बाद ही जब मेरी शादी तय हुई थी।
जब रिश्ता तय हुआ तो, माँ–पिता जी इस शादी के लिए बड़े उतावले नज़र आ रहे थे। उन्हें आर्थिक रूप से सुदृढ़ रिश्तेदारी जो मिली थी। मेरी ससुराल वालों की आर्थिक स्थिति का बखान करते भी नहीं थकती थीं माँ । पास–पड़ौस में किसी के रिश्तेदार इतने साधन–सम्पन्न नहीं थे। बातों–बातों में दहेज में स्कूट/मोटरसाईकिल मिलने की उम्मीद को वह ज़ाहिर कर ही देती थीं ।
बड़ी धूमधाम से शादी की। बड़ी दूर–दूर तक की रिश्तेदारियों को भी विशेष रूप से शादी में न्यौता दिया गया था।
लेकिन शादी के दिन विदा होकर घर आए तो पिताजी के चेहरे पर कुछ.....। लड़की वालों ने तो दान–दहेज भी ठीक–ठाक ही दिया था। लेकिन स्कूटर/मोटरसाईकिल जैसा कुछ नहीं था उसमें।
अभी तीन–चार महीने ही बीते हैं हमारी शादी को। लड़की भी एकदम गऊ–सी है किसी को पलट कर जवाब भी नहीं देती। फिर अचानक ऐसा क्या हुआ जो अपनी पसंद की लड़की ही उन्हें आज इतनी अखरने लगी।.....
देखा जाए तो, जब किसी पशु या पेड़–पौधे को उसके पुराने स्थान से हटा कर नए स्थान पर लाया/रोपा जाता है तो वह कुम्बलाह से जाते हैं, बहुत जल्दी से उस जगह रच–बस नहीं पाते। उन्हें भी उस माहौल, वातावरण में रचने–बसने में समय लगता है। उनको भी मालिक या माली बड़े प्यार ओर जतन से संभालकर, देखभाल कर अपने वातावरण में ढालने की कोशिश करता है। तो यह तो मनुष्य है। अपने भरे–पूरे परिवार, सखी–सहेलीयों को छोड़कर सदैव के लिए इस घर की सदस्य बनकर आई है । इसे इस घर के घर के तौर–तरीकों के बारे में क्या खाक मालूम होगा । वह तो उसे घर के लोग ही समझाएँगें ना।.....
और फिर मैं..... मेरी तो प्राईवेट नौकरी है, जिसके कारण सुबह–सवेरे घर से निकलना और देर रात को घर में घुसना होता है। दिन भर तो माता–पिता ही घर में रहते हैं, उनका ही कर्तव्य बनता है घर में आए हुए नए सदस्य को घर के तौर तरीके समझाने का।
प्राईवेट नौकरी से याद आया ‘कहीं..... ऐसा तो नहीं कि.....। नहीं–नहीं ऐसा नहीं हो सकता। लेकिन यह भी तो सच्चाई है कि मैं ठहरा प्राईवेट नौकरी वाला। बामुश्किल पाँच हज़ार रपुल्ली ही तो मिलती हैं। यही तनख्वाह उसे शादी से पहले भी मिलती थी। कहीं माँ–बाप को ऐसा तो नहीं लग रहा है कि एक सदस्य का खर्चा ओर बढ़ गया। लेकिन, लेकिन उसने तो इस शादी के मना कर दिया था। क्योंकि उसे मालूम था इतनी तनख्वाह में खुद का गुजर–बसर ही मुश्किल है, दूसरे का बोझ कैसे उठाया जा सकता है।
.........क्रमश