माँ तुम मेरी आदर्श नहीं हो... मेरी प्रेणना हो.....
बात जरा सी आप लोगों को खल रही होंगी की कोई बेटी अपनी ही माँ को ऐसा कैसे और क्यूँ बोल सकती हैं. हर बात में गंभीरता और गहराई छुपी होती हैं. मेरी बातो को भी जानने के लिए पहले मेरे जीवन के उन तथ्यों को जाना भी जरूरी हैं जिसके आधार में मैंने अपना विचार रखा। बात जब मेरे विचारों की हैं तो मेरे बारे में जानना आवश्यक हो जाता हैं और मेरे बारे में शुरुआत मेरी माँ से ही तो होती हैं।
माँ दुनियां दुनियां का सबसे प्यारा और अनमोल शब्द हैं जिसके नाम से ही वातसल्य और प्रेम झलकता है। हर माँ की तरह मेरी भी माँ भी प्रेम से परिपूर्ण हैं. वह एक आदर्श नारी हैं. अब आप ये कहेँगे की अभी मैंने कहाँ की वह मेरी आदर्श नहीं हैं. हां वह एक आदर्श नारी मैं पर मेरी आदर्श नहीं. इसमे अन्तर को बताते हैं.
मेरी माँ जीवन के बारे में, पाँचवी कक्षा पूरी की तो उनके पिता ( मेरे नाना जी ) जी ने उनके आगे पढ़ने की इच्छा को दबा कर बोला, "लड़की हो चिट्ठी पत्री पढ़ने आ गया ना अब आगे और कर क्या करोगी. " माँ में भी पिता बात देववाणी समझ कर अपने पढ़ने के सपने को वही दबा दिया. ये रूप उनकी आदर्श बेटी का हैं यह सिलसिला जारी रहा जब मेरी माँ मात्र 15 वर्ष की थी तभी उनका विवाह मेरे पिता जी से सुनिश्चि कर दिया गया और रिश्तेदारों की तरह उनसे भी बता दिया गया माँ ने तो रिश्तेदारों के जीतना भी प्रश्न नहीं किया. उनसे ज्यादा प्रश्न तो पास पड़ोस, रिश्तेदार कर लेते थे. चुप चाप माँ ने पिता जी से शादी कर लिया. मेरी माँ के अब आदर्श बेटी के आगे का सफर सुरु हुआँ. माँ के आने के कुछ सालो बाद ही पिता जी बाहरदेश नौकरी के लिए गए उनका पास पोर्ट किसी कारण फश गया. कई वर्षो तक पिता जी नहीं आ पाये, माँ अपने आँसू छिपा कर दादा जी दादी जी की सेवा दिन रात करती . माँ दुखी होते हुए भी अपने दुःख, आँसूवो को कभी परिवार के सामने दिखाया नहीं ताकि दादा जी दादी जी को तकलीफ़ ना हो. माँ के आदर्श बहु का रूप था. माँ पिता जी से पत्र में अपना दर्द कभी नहीं जताई यहीं कहाँ की सब कुशल मंगल हैं. भला एक पुरुष को क्या चाहिए, उसके परिवार का ख्याल रखे, उसका सम्मान एक आदर्श पत्नी का ही तो रूप था ये मेरी माँ का. वक़्त के साथ हम भाई बहनो के ख्याल रखने में माँ ने अपना ख्याल ही रखना भूल गयी, हमारी ख्वाइशो के आगे अपनी जरूरतों को भी भूल गयी. मैंने माँ को सदैव एक नारी के आदर्श रूप में पाया. बचपन से ले कर आज तक माँ को त्याग मामंता वातसल्य की मूर्ति के रूम में पाया.अपने बच्चो को तो सभी अपने हिस्से का खिला देते हैं मैंने अपनी माँ को अपने आगे का निवाला किसी और के मुँख में देते हुये देखा हैं. मेरी माँ ने सम्पूर्ण जीवन त्याग और बलिदान में बिताया वह एक आदर्श नारी हैं इसमें रत्ती मात्र भी संदेह नहीं हैं.
अब आप कहेँगे की इतना सब कुछ होते हुये अपनी माँ को आदर्श नहीं मानती मैं. शायद मैं भी अपनी माँ को आदर्श मानती थी अपनी. पर माँ और आदर्श के बीच अन्तर होता हैं वो अन्तर कोई और हमें खुद मेरी माँ ने ही बताया था. सबकी जिन्दगी की तरह मेरी जिन्दगी भी दिखने में बहुत आसान हैं पर पर्दे के पीछे नाटककार की जिन्दगी वैसी नहीं होती जैसी पर्दे के आगे होती हैं कुछ ऐसा मेरे साथ भी हुआँ. जब मैं ग्रजुएशन की लास्ट इयर में थी तो पापा से मैंने MBA के एंट्रेंस एग्जाम के बारे में बोली की "पापा मैं MBA करना चाहती हुआ एंट्रेंस एग्जाम की फॉर्म आयी हैं" मैंने पापा का इतना निष्ठुर रूप कभी नहीं देखा था सायद वो मैंने कभी उनसे ऊपर कोई कार्य ही नहीं किया था की मैं उनका ये रूप देख पाती. मैं सुन्न थी पापा की बात सुन कर.
पापा बोले, "क्या होगा आगे पढ़ कर ??? कौन सी तुमको जॉब करनी हैं, हो गया ना ग्रेजुएशन, आ गयी ना काम भर की जानकारी बस करो आगे कुछ नहीं पढ़ना हैं.. "
मेरी आँखों में आँसू भर गए थे खुद तो ठगा हुआँ महसूस कर रहा थी मुझे नहीं पता था मेरे पापा मुझे व्याहता पढ़ाई पढ़ा रहे थे. क्यूँ की बिना पढ़ी लिखी से कौन शादी करेगा. मैं चुप चाप कुछ देर वही खड़ी रही. मैं कुछ बोलू उससे पहले माँ आ गयी उसने मुझे अन्दर जाने को इसारा किया. मैं चुप चाप रूम में चली आयी, अपने रूम में आकर रोये जा रही थी और सोचे जा रही थी क्या सच में पापा मुझे आगे नहीं पढ़ना चाहते, मेरे रिजल्ट आने पर जो ख़ुशी जाहिर करते थे सब नकली थे. मेरे मन में ढेर सारे प्रश्न उफ़ान लगा रहे थे. क्या पढ़ना लिखना गुनाह हैं सपने देखना गुनाह हैं ? मैंने क्या कोई अपराध कर दिया? माँ ने भी पापा से कुछ नहीं बोला और मेरे कमरे में आयी बड़े प्यार से मेरे चेहरे से बाल को हटाते हुये मेरे आँसूवो कोई पोछती हुई बोली, " तुमने कुछ क्यूँ नहीं बोला? "
मैं थोड़ा रुकते हुये उदास स्वर में बोली, " आप ने भी तो कुछ नहीं बोला. "
"तो क्या पढना छोड़ दोगी? " माँ ने मेरा चेहरा अपनी तरफ करते हुये प्रश्न किया. मैं माँ के प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सकीं, और माँ के सीने से लिपट कर रोने लगी.
माँ जानती थी ये मेरे लिये तोड़ देने वाला फैशला था. मैं अगर ना पढ़ी थी पढ़ाई ही नहीं मेरे हौसले भी बंद हो जायेंगे और ये मेरी ही नहीं माँ की भी हार होगी. माँ अपनी बेटी कोई यूँ बिखरते हुये नहीं देख सकती थी. वो अलमारी से पैसे निकाल कर मेरे हाथों में रखते हुये बोली, "निश्चिन्त रहो जाओ एंट्रेंस के एग्जाम की तैयारी करो."
"पर पापा.....?" मैं माँ की तरफ देखते हुये बोली.
"तुम उनकी फ़िक्र मत करो पढ़ाई पर फोकस करो. " माँ निश्चिन्त स्वर में बोली. पर मुझे पता था पापा जिस काम के लिये मना कर दे उस बात को मनवाना टेड़ी खीर थी पर माँ की बातें मेरे मन में उम्मीद भर दी. मैंने मन लगा के पढ़ाई की UPTU और अपने जिले के टेक्निकल यूनिवर्सिटी में एंट्रेंस में अच्छे रैंक लायी. अब बात एडमिन पर जा अटकी मैं पापा के खिलाफ एडमिशन कैसे लुंगी पर माँ ने कहाँ मैं कर लुंगी. माँ पापा के पास गयी, जहाँ तक मुझे याद हैं माँ ने कभी भी पापा से किसी कार्य पर प्रश्न तक नहीं किया था वह पापा से मेरे लिये तर्क कर रही थी माँ ने अपने गले की चैन पापा के हाथ पर रखते हुये बोली, " इसे लीजिये नहीं हैं ना पैसे, बेच दीजिये इसे और एडमिशन के पैसे दे दीजिये. " बाहर माँ पापा का तर्क-वितर्क जारी था. अंदर रूम में मेरा रोना. कुछ ही देर में माँ मेरे पास आयी पता नहीं आज वो इतनी शान्त थी जो पापा के नाराज़ होने से दुखी हो जाया करती थी वो मुझे भी शान्त कराये जा रही थी. शायद ये शांति एस सूकून कोई दिखा रही थी की आज उन्होंने अपनी बेटी के सपने टूटने से बचा ली एक जीती माँ थी. माँ ने हमेशा की तरह मेरे सर पर हाथ फेरते हुये बड़े प्यार से कहाँ, " कोई यूँ रोता हैं पागल, अभी तो जीवन के संघर्षो की सुरुआत हैं, अभी तो तुम्हरे जितने पिंजरों कोई तोड़ कर आसमान चुना हैं तुम यूँही नहीं घबड़ा सकती, जीतना हैं ना तुम्हें.
" माँ तुम भी तो.... " मै माँ की गोदी में सर रखे ही बोला.
" मेरी पगली.. चलो तुम्हें एक सच्ची बात बताती हूँ तुम्हें पापा के विरोध में जाने का दुःख इस लिये ज्यादा हो रहा हैं की तुम आज तक मुझे अपना आदर्श मानती आयी हो, मेरे पदचिन्हों पर चलना चाहा, मेरा अनुकरण किया, मुझ जैसा बनाना चाहा. पर इतनी बात जिन्दगी भर याद रखना माँ माँ होती हैं आदर्श नहीं, माँ की मंमता पर ये आदर्श होने का बोझ मत डालो इसके तले हम दोनों दब जाये. तुम्हें अपनी आदर्श खुद को बनाना हैं अपने पदनिशा खुद बनाओ और कुछ इस तरह की लोग उसपर चलना चाहें. माँ के रूप कोई अपनी ताकत बनाओ अपनी आदर्श बनाने के तूल में कमजोरी नहीं, माँ माँ होती हैं बिटिया आदर्शता के कटघरे में मत उतरो उसे. "
माँ की ये बातें मेरे लिये बेश किमती सीख थी. हा पापा हमें हम पापा को कुछ अजनबियों की तरह देख रहे थे शायद मैं उस इंसान कोई ढूंढ रही थी जो मेरे हर ख्वाइस कोई बिन मांगे पूरा कर देता था, और पापा उस बिटिया कोई जो उनकी मर्ज़ी के बिना पत्ता भी ना हिलाये. कुछ दिनों तक ये अजनबियों का सिलसिला चलता रहा. फिर सब सही हो गया. बस एक पर्दा हट गया था मेरे और पापा दोने के आँखों से.
जब मैं अपने मास्टर के लास्ट ईयर में थी हमारी यूनिवर्सिटी की रेट ( रिसर्च एबिलिटी टेस्ट ) की अपियरिंग मान्य फार्म आयी मैं Ph. D करना चाहती थी पर डर था इस चककर में कही पापा नाराज़ ना हो जाये अभी मेरी मास्टर की भी लास्ट सेमेस्टर की एग्जाम बाकी थी कहीं छूट ना जाये. पापा कहीं नाराज़ ना हो जाये. पापा से ये बात कहने में असमर्थ महसूस कर रही थी मैं, ये बात मैं माँ में बोली. माँ चाहती तो धीरे से वो खुद ये बात पापा से बोल सकती थी, मगर उन्होंने मुझे समझाया मेरी हौसला बनी और खुद पापा से बात करने का हिम्मत दी. आप लोगों को ऐसा लग रहा होगा की इतनी सी बात का क्या टेंशन ली हैं, पर ये बात पापा से कहना इतना आसान नहीं था Ph.D के लिए फिर लगभग 4 साल अपने लिए मांगना किसी क़ैदी को वक्त से पहले रिहाई देने जैसा था. उनके लिए भी ये आसान बात नहीं थी जो पिता 12th या ग्रेजुएशन के बाद ही अपनी बेटी की शादी कर देना चाहता हो फिर मास्टर के बाद 4 सालों के लगभग का समय देना आसान हो पर माँ की बात मान कर मैं खुद ही पापा से बात की. पापा थोड़े से ना नुकूर की बाद अपनी हार मानते हुये हा बोल दीये. उन्होंने मेरे चेहरे की मुश्कान और विश्वास को देखा था. मगर मैं जानती हूँ यह फैसला उनके लिए कितना मुश्किल था. जिसे वह अपनी हार मान रहे थे वह उनकी जीत थी कहाँ किसी से हो पाता हैं की अपनी पौरुषवादी सत्ता को नीचे करें, रूढ़िवादिता की जंजीरे तोड़े, अपनी हार माने. अपने सपने को छोड़ा था मेरा सपना पूरा करने के लिए. बाद सपनों की उड़ानों की हो तो पंख फैलाना बहुत आसान नहीं होता उस रास्ते में बहुत सारी कठिनाइयां आते हैं. मेरे एंट्रेंस एग्जाम तो अच्छे से हो गए थे. पर एग्जाम के कुछ दिन पहले ही मैं स्लिप हो गई और मेरी रीढ़ में दिक्कत हो गई. एग्जाम को छोड़ा नहीं जा सकता था बशर्ते उसी कंडीशन में एग्जाम देना पड़ा. दिक्क़त तो और बढ़ गयी जब मैं लास्ट एग्जाम दें कर आ रही थी तो गीर गयी चोट पर ही चोट लगने की वजह से मेरी दिक्क़त बढ़ गयी. या यूँ कहुँ तो मेरे जिन्दगी कोई हिला देने वाला मोड़। मेरा कमर के नीचे का हिस्सा काम नहीं कर रहा था पैरालाइज ना हो कर भी बिल्कुल वही। मैं बिल्कुल टूट गई, मैंअपनी पूरी हिम्मत हार गई शायद जिंदगी से ही हार गई थी मैं। अब क्या करूं कैसे करूं कुछ समझ में नहीं आ रहा था मेरी जिंदगी के सारे रंगीन पन्नों पर जैसे पानी पड़ गया हो जो जो फिर से आप बनाया नहीं जा सकता, बात कुछ महीनों की नहीं लग रही थी शायद मुझे लग रहा था कि मैं जिंदगी में फिर कभी नहीं अपने पैरों पर खड़ी हो पाऊंगी हताशा ने मुझपर वायु की तरह चारों ओर से घेर लिया था। पर उस मुश्किलों में भी मेरी माँ ने हार नहीं मानी। वह जल्दी जल्दी काम समाप्त कर के मेरे पास बैठ जाती, मुझे समझती की सब फिर पहले जैसा हो जायेगा। माँ को इंग्लिश की बुक पढ़ने आती नहीं पर वो बुक ले कर मेरे सामने बैठी रहती। और जब कोई काम करने जाती तो यूट्यूब पर इंटरनेट से ऑडियो वीडियो लगाकर जाती थी, मेरे लिए उसने क्या क्या सिखा, प्रोजेक्ट मैं बनाती लैपटॉप वो संभालती उसे काफ़ी चलना सीख गयी सच कहु तो मेरी इंटरव्यू में मुझसे ज्यादा तैयारी माँ ने कर रखी थी । मैं पहले से काफ़ी अच्छा महशूर सर रही थी पर अभी पूरी तरह पहले जैसा नहीं हुआँ था।
कुछ दिन बाद मेरा इंटरव्यू आया ये था तो इंटरव्यू पर परीक्षा मेरे लिए बहुत बड़ी थी मेरा इंटरव्यू थर्ड फ्लोर पर था बिलचियर पर बैठ कर मैं इतनी ऊपर कैसे जाती बिना उसके मैं 2 कदम से ज्यादा नहीं चल सकती थी। पर माँ उन सीढ़यों पर कैसे मुझे उस बिलचेयर कैसे ले गयी ये बात बड़ी तज्जुब की थी शायद ये सीढ़िया उसके लिए चढ़ना मुश्किल था आज तक कभी वो स्कूल या कॉलेज में कभी भी नयी आयी थी। हम वेटिंग रूम में बैठे काफ़ी देर बाद मेरा नंबर आया मुझे इस कंडीशन में देख कर सभी सरप्राइज थे वह बोले की पहले बताती तो हम पैनल नीचे ग्राउंडफ्लोर पर बैठा देते वहाँ ही तुम्हारा इंटरव्यू हो सकता था।
शायद मैं भी यहीं चाहती थी पर मेरी माँ ने मुझे हौसला दिया मैं और चढ़ सकती हूँ अगर पाँचवी मंज़िल पर होती तक भी मैं पहुंच जाती, वो मुझमें कॉन्फिडेंस लाना चाहती थी, वो ये बताना चाहती थी की मैं सामान्य की तरह ही हूँ और वैसा ही इंटरव्यू दें सकती हूँ।
"पीपीटी, फ़ाइल सब बनाया हैं?" मैम ने संशय की दृष्टि से मेरी तरफ देखा।
"जी मैम... " मैं फ़ाइल की दो प्रति उनकी एक अपनी तरफ रखते हुये बोली।
पर्दे पर शब्द नहीं मेरे अरमान मेरी माँ की मेनहत उभर रही थी। तब मुझे बिकुल सामान्य महशुस हो रहा था जो नीचे मैं कभी महशुस नहीं कर पाती।
चालीस मिनट का इंटरव्यू हुआँ सभी ने मेरे हौंसले की तारीफ की। इस तारीफ की हक्क्दार वास्तव में मेरी माँ थी मैं नहीं। पर पर्दे के पीछे की मेनहत को कौन देखता हैं।
मैं एक अच्छी Ph.d थेडीस जमा की। अब मैं एक असिस्टेंट प्रोफेसर हूँ पर मेरे सपनों की उड़ान अभी जारी हैं। पर इन हालातों से मैं माँ के इस बात से तो अब पूरी तरह सहमत हो गयी थी माँ, माँ होती हैं आदर्श नहीं क्योकि माँ ही इतना त्याग बलिदान दें सकती हैं आदर्श रास्ता तो दिखा सकता हैं पर कभी वो मुश्किलों में आप के साथ दो कदम चल नहीं सकता। माँ कहती हैं हमें अपना आदर्श खुद बनना चाहिए। आज भी मैं जब भी डगमगाती थक हार जाती हूँ माँ की गोद और उनका सहारा मिल जाती वो मुझे आज भी बच्चों की तरह ही संभाल लेती।
बस मैं उन बच्चों से कहना चाहती थी जो कहते हैं कहते हमारा ख्याल रखना माँ पिता का कर्त्तव्य हैं। बस उनलोगो से पूछना चाहती हूँ की क्या संविधान के सारे कर्त्तव्य उनके लिए ही हैं क्या अधिकारों के पन्ने उनके लिए नहो होते ये केवल हम बच्चों के लिए होते हैं हमारे लिए कोई कर्त्तव्य नहीं। हमें एक दूसरे की भावनावों की सम्मान करना चाहिए क्युकि माँ माँ होती हैं।