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कहानी - दादू की माशूका
दीक्षांत समारोह समाप्त हुआ तो अंशु सक्सेना और नूर अहमद दोनों दोस्त डिग्री लेने के बाद पटना यूनिवर्सिटी की कैंटीन की ओर बढ़े . दोनों चाय पीते हुए बातें भी कर रहे थे .अंशु बोला " यार तू भी मेरे साथ अमेरिका चलता तो कितना अच्छा होता .तुझे तो दोनों ऑफर हैं स्कॉलरशिप के साथ आगे पढ़ाई करता या फिर अच्छे जॉब का ऑफर भी तुम्हें मिल रहा है , चॉइस इज योर्स ."
नूर बोला " यार तू तो जानता ही है ,मैं दादू और फूफी को छोड़ कर नहीं जा सकता हूँ .अमेरिका क्या , मैं तो किसी दूसरे शहर में भी नहीं जा सकता हूँ . मेरी दादी , अम्मी , अब्बू और फूफा जान सभी की मौत एक नाव डूबने से हो गयी थी , उस के बाद दादू और फूफी ने काफी मुसीबतें झेल कर मुझे पाल पोस कर बड़ा किया है . दादू करीब 84 साल के हो चुके हैं , इस बुढ़ापे में उन्हें मैं छोड़ कर नहीं जा सकता हूँ , तू जा मेरे यार .¨
. नूर और अंशु घनिष्ट मित्र थे . दोनों का एक दूसरे के घर पर्व त्यौहार और पारिवारिक आयोजनों पर आना जाना था .नूर के माता पिता नहीं थे .वह अपने बूढ़े दादाजी और विधवा बुआ के साथ रहता था .उसके दादा का अपना घर पटना शहर के पुराने इलाके पटना सिटी में था .अंशु के पिता राज्य सरकार की नौकरी में थे . दोनों के घर आस पास थे . दादू अंशु को भी नूर जितना ही प्यार करते थे .
अंशु अमेरिका चला गया और नूर अपने ही कॉलेज में लेक्चरर बन गया . दोनों में हमेशा फोन और पत्र से संपर्क बना रहा .अंशु जब भी इंडिया आता नूर के साथ काफी समय बिताता था . दादाजी को गाने बजाने का शौक था . इस उम्र में भी वे अच्छा सितार बजा लेते थे .
नूर जब भी दादू को कहता कि अब हम इस पुराने , गंदे मुहल्ले को छोड़ कर किसी नए फ्लैट में चलते हैं तो वे बोलते ¨ नहीं मेरा जनाजा यहीं से निकलेगा , मैं जीतेजी यहाँ से नहीं जा सकता हूँ .¨
जब नूर नहीं जाने का कारण पूछता तो वे बोलते समय आने पर बता दूंगा .
नूर एक प्रोजेक्ट पर भी काम कर रहा था .इसी सिलसिले में उसे अपने पेपर्स प्रेजेंट करने अमेरिका जाना पड़ा .उसकी प्रोजेक्ट रिपोर्ट की काफी प्रशंसा की गयी और उसे अंतर्राष्ट्रीय जर्नल्स में भी प्रकाशित किया गया .दोनों दोस्त दो सप्ताह तक साथ रहे , घूमे फिरे .नूर अमेरिका से काफी प्रभावित हुआ था .
नूर जब लौट रहा था तो अंशु ने कहा " तुम अमेरिका आने की कोशिश करो .यहाँ तरक्की की काफी संभावना है ."
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नूर बोला " दादू अब काफी बूढ़े हो गए हैं, 85 साल के हो चुके हैं . दमा के चलते .तबीयत पहले जैसी ठीक नहीं रहती है . बोलते हैं मेरा जनाजा यहीं से निकलेगा .अभी तो आना संभव नहीं है . अगर भविष्य में आना हुआ तो फूफी को बाद में मना लूंगा ."
नूर भारत लौट आया .वह दादा को बोलता कि अब हमलोग किसी अच्छी जगह घर लेकर रहेंगे .यह मोहल्ला काफी गंदा है और इन तंग गलियों में मुश्किल से स्कूटर चला पाता हूँ .आपको मोटर में कैसे घुमाऊंगा. पर दादू मानने वाले नहीं थे . वे बोलते ¨ मेरी मौत के बाद तुमलोगों को जहाँ जी चाहे चले जाना . ¨
नूर पूछता कि ऐसी क्या वजह है कि आप इंतकाल तक इसी गंदगी में रहना चाहते हैं . तो वे बोलते ¨ तुम्हें मरने के पहले वजह भी बता दूंगा .¨
वैसे तो दादाजी की उम्र काफी हो चली थी , फिर भी उन्हें दमा के अलावा और कोई तकलीफ नहीं थी .हाँ ,आँखों पर चश्मा लग गया था , कुछ दांत नकली थे और हाथ में छड़ी लेते थे . फिर भी वे हफ्ता या दस दिन में एक बार गंगा के किनारे घूम आते थे , घर से थोड़ी ही दूर पर गंगा बहती थी .
कुछ माह बाद अंशु इंडिया आया , उसकी बहन की शादी थी .नूर ने भी शादी में काफी सहयोग दिया . एक बार शाम को अंशु नूर से मिलने पटना सिटी गया . दादाजी गंगा किनारे घूमने जाना चाहते थे .अंशु की कार गली में नहीं जा सकती थी .कार रोड पर ही छोड़ कर अंशु नूर के घर पहुंचा .
दादाजी को लेकर दोनों दोस्त गंगा तट पहुंचे .तब तक चाँद निकल आया था .बसंत की पूर्णिमा थी.बसंती हवा बह रही थी .चांदनी ने मानो पानी में घड़ों दूध उड़ेल दिया हो और चाँद भी गंगा की लहरों पर हिचकोले खा रहा था .वे तीनों एक नाव पर जा बैठे . दादाजी एक टक से लहरों पर उछलते चाँद को देखे जा रहे थे .
अंशु ने कहा " दादाजी , आप क्यों नहीं किसी अच्छी जगह घर लेकर शिफ्ट कर जाते ? वो जगह आपलोगों के रहने लायक नहीं है .नूर भी बहुत दिन से यही चाह रहा है ."
नूर बोला " दादू , अंशु ने बिलकुल सही कहा है . आप तो यहाँ से नहीं जाने की वजह मेरे लाख पूछने पर भी नहीं बताते हैं ."
कुछ देर तक तीनों खामोश रहे .दादाजी बहुत भावुक हो उठे थे .उन्होंने ख़ामोशी तोड़ते हुए कहा " जिसे तुम गंदी जगह बताते हो वहां की हर शाम कभी काफी रंगीन और चहल पहल से लबरेज हुआ करती थी . यहाँ के इतिहास के बारे में तुमलोग कुछ नहीं जानते हो . हमारी पुरानी गंदी बस्ती के इर्द गिर्द ऐतिहासिक इमारते हैं - .जहांगीर के बेटे परवेज़ शाह का बनाया पत्थर का मस्जिद , सिक्खों का हरमंदिर साहिब , थोड़ी दूर पर कुम्हरार जहाँ मौर्य साम्राज्य के अवशेष हैं .यहाँ का मारूफगंज कभी पूर्वी राज्यों के थोक व्यापार का केंद्र था .यहाँ सभी समुदाय के लोग मिलजुल कर रहते आये है . हम होली , दिवाली मनाते और वे ईद और मुहर्रम में शिरकत करते . "
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अंशु बोला " इतना तो हम इतिहास में पढ़ चुके हैं . इनसे आपके उस घर में रहने या न रहने का क्या वास्ता है . आपको नूर एक पॉश एरिया के फ्लैट में ले जाना चाहता है . इस नॉस्टेल्जिया से क्या लाभ ? "
दादाजी बोले " इसके अलावा इस जगह से मेरी ढेर सारी निजी यादें जुड़ीं हैं ."
" हाँ ,अब आप मुद्दे पर आये हैं .बोलिये ऐसी कौन सी यादें हैं जिनके चलते आप यहाँ से जाना नहीं चाहते हैं ? " अंशु ने कहा
¨ हाँ , बोलिये दादू . ¨ नूर बोला
¨ तुम्हारे अब्बा , अम्मी और फूफा की मौत के बाद हम लोग बेसहारा हो गए थे . एक बार हम पैसे पैसे के लिए मोहताज थे . ऐसे में हमारी गली से थोड़ी दूर पर रहने वाली एक औरत ने हमलोगों को सहारा दिया था . ¨
¨ कौन थी वह औरत ? ¨
¨ वो , मशहूर गायिका अमीना बाई थी . क्या गुलजार होती थी यहाँ की हर शाम और रात . यह जगह कभी अमीना बाई के नाम से ही मशहूर था . ¨
नूर और अंशु दोनों उन्हें देखने लगे . तो दादाजी ने आगे कहा " यहाँ की गलियां कभी देश भर में मशहूर थीं .यहाँ की हर शाम बेमिशाल हुआ करती थी . शाम से देर रात तक नवाबों की मोटरों का आना जाना लगा रहता था . यहाँ की फ़नकारा कभी अपने हुनर के लिए पूरे मुल्क में मशहूर थीं .पटना सिटी नवाबों और उनके ठाट बाट के लिए पूरे बिहार , यू पी , नेपाल और अन्य जगहों में जाना जाता था . जहाँ कहीं भी यहाँ की फ़नकारा जातीं , महफ़िल को रंगीन बना देती थीं ."
नूर बीच में बोला " दादू , यह तो मैंने भी सुना था कि हमारे घर से कुछ ही दूर पर तवायफों की कोठियां हुआ करती थीं .
दादाजी बोले " वह तो तुमने ठीक सुना था .पर मैं उन कोठेवालियों की बात नहीं कर रहा हूँ .मैं सिर्फ उस गायिका की बात कर रहा हूँ जिसकी ठुमरी , दादरे और शेरो गज़ल ने पटना सिटी को बड़े बड़े रईसों और नवाबों का
पसंदीदा शहर बना दिया था .उन्हीं में एक लाजबाब फ़नकारा अमीना बाई थी .उसकी बराबरी करनेवाला शायद उस वक़्त कोई नहीं था ."
अंशु बोल उठा " तो क्या वह तवायफ नहीं थी ? "
दादाजी बोले " नहीं ,हरगिज नहीं . .उसकी महफ़िल में गिने चुने रईस , नवाब या राजा ही हुआ करते थे . वह सिर्फ गाती थी .और वे लोग उसके फन के कद्रदान थे .किसी को इतनी हिमाकत नहीं थी कि वह अमीना से बदसलूकी करे .वह तो अपनी आन , बान और शान के लिए मशहूर थी ."
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नूर बोला " वह सिर्फ खास मेहमानों के लिए ही गाती थी तब आपका उससे क्या वास्ता है ?"
" तुम तो जानते हो कि हमलोग उत्तर बिहार से आकर यहाँ बसे थे .अमीना बाई कभी वहां के महाराज के दरबार में थी . मेरे अब्बा उस दरबार में सितार बजाते थे , उनके साथ मैं भी सितार बजाने लगा था . बाद में वह भी पटना सिटी आ गयी . नए महाराज की ताजपोशी के अवसर पर उसे बाइज्जत बुलाया गया था .उस समय दरबार से हमारे भी कुछ ताल्लुकात थे .उस ताजपोशी में मैं भी गया था . काफी नामी फनकार आये थे .पर अमीना की ठुमरी का मुक़ाबला कोई न कर सका .वह तन और फन दोनों में लाजबाब थी ."
अंशु और नूर दोनों ने कहा कि अब चलना चाहिए .तब दादाजी बोले " थोड़ी देर और रुकते हैं . एक बार ऐसी ही चांदनी रात में यहीं गंगा में बाजरे पर उसकी महफ़िल सजी थी .मैं थोड़ी दूर से ही यह सब देख रहा था , रह रह कर उसकी आवाज मेरे कानों में आती थी .क्या कशिश थी उसकी आवाज में ? जो भी एक बार सुन लेता उसका दीवाना हो जाता ."
" मतलब आप भी उसके दीवानों में थे , दादू ? नूर बोला
" बेशक़ .पर मेरी हैसियत नहीं थी उसकी महफ़िल तक पहुँचने की . वह मुझसे उम्र में कुछ बड़ी होगी . "
अंशु बोला " फिर आपने अमीना बाई को कब सुना ? "
" एक बार मैं एक दोस्त के साथ दिन में ही उसके घर जा पहुंचा .उसने आने का मकसद पूछा तो मैंने भी साफ़ लब्ज़ों में बोल दिया कि आपको सुनने आये हैं ."
वह बोली “ तुम्हें पता है मैं सब के लिए नहीं गाती हूँ ? “
¨ जी , पता तो है , पर एक बार आपको नए महाराज के दरबार में देखा था , तभी से दिल कर रहा था एक बार आपसे रूबरू होने का . ¨
¨ तुम वहां मौजूद थे ? ¨
¨ जी , उस दिन सितार मैं ही बजा रहा था . ¨
¨ वाह , कितना अच्छा सितार बजाते हो ? . ठीक है तुम्हें मायूस नहीं करुँगी , पर तुम करते क्या हो ? ¨
¨ अभी तो इंटर में हूँ . मैंने कहा था “
" उसने सुनाया आपलोगों को ? " नूर ने बीच में पूछा
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" पहले तो मैं डरा हुआ था कि इतनी नामी हस्ती के आगे मेरी क्या औकात ? पर उसने बड़े इज्जत से हमें बैठाया और शरबत पिलाई . दस मिनट बैठने को बोल कर गयी .जब लौटी तो हाथ में तानपुरा था . उसने गाना शुरू किया -- छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाय के .. ¨
आगे की पंक्तियां भी दादाजी खुद गाये जा रहे थे . अंशु और नूर दोनों एक दूसरे की ओर देख कर मुस्कुरा रहे थे , तभी दादाजी बोले ¨ बेवक़ूफ़ों , यह कोई आशिकाना गीत नहीं है , अमीर खुसरो का एक सूफियाना कलाम है . ¨
फिर रुक कर उन्होंने कहा " सुभानअल्लाह , अमीना ने शुरू किया तो लगभग आधे घंटे तक ग़ज़ल और सूफियाना गीत जारी रखा .हम ख़ामोशी से उसे सुन रहे थे .कोयल जैसी मीठी आवाज थी उसकी . हमने अपनी पॉकेट से कुछ सिक्के निकालने चाहे तो उसने डांट कर मना कर दिया और कहा कि बेहतर होगा हम आगे से उसके यहाँ आकर अपना वक़्त जाया न करें और अपनी पढ़ाई पूरी करें .वह सिर्फ गायिका ही नहीं थी , एक मानिनी भी थी .उस दिन से मेरे दिल में उसकी इज्ज़त और बढ़ गयी ."
तब तक रात के नौ बज चुके थे .नूर और अंशु ने कहा कि अब हमें लौटना चाहिए तो दादाजी बोले " हाँ ,अब घर चलते हैं .जब बात चली ही है तो घर चल कर कुछ और बतानी है . जब मैंने उसे बताया कि मुझे भी गाने बजाने में रूचि है तो उसने मुझे छुट्टी के दिन कभी कभी आने की इजाजत दी . मैं अपना सितार ले कर जाता और वह कभी अपने गीत सुनाती . धीरे धीरे मेरा आना जाना बढ़ा और हम दोनों कुछ नजदीक हुए , मगर.. . ¨
¨ मगर क्या ? ¨ नूर ने पूछा
¨ हम दोनों एक दूसरे की इज्जत करते थे . कभी किसी के मन में कोई बुरी भावना नहीं थी न ही कभी मैंने उसके शरीर का स्पर्श किया था सिवाय . . . . ¨ इतना बोलने के बाद उनकी आँखों में आंसू छलक उठे थे .
¨ क्या हुआ दादू ? ¨ अंशु ने पूछा
¨ कुछ नहीं बेटे , हमने कभी एक दूसरे का शरीर स्पर्श भी नहीं किया सिवाय उसके अंतिम दिनों में . ¨
¨ क्या दादी को सब पता था ? ¨ नूर ने बीच में टोका
¨ हाँ . पर उसे यकीन था कि हमारे रिश्ते पाक थे , मुझे सिर्फ संगीत में दिलचस्पी थी . तुम्हारी दादी गुजर गयी थीं . समय के साथ राज पाठ , नवाबी , ज़मींदारी सब छिन गयी थी उम्र के साथ अमीना का गाना और उसे सुनने वाले सब गायब हो गए . सिर्फ हम दोनों एक दूसरे का मन बहलाते थे . कुछ दिनों बाद उसकी तबीयत काफी ख़राब रहने लगी थी .उन दिनों में मैं उसे सहारा दे कर बैठाता और अपने हाथों से उसे खाना खिलाता था . उसने मेरी बाहों में ही दम तोड़ा और मरते समय एक रेशमी रूमाल मुझे दिया . अमीना ने कहा कि उसे दफनाने के बाद ही रुमाल को खोलूं . ¨
तब तक दादू , अंशु और नूर तीनों घर पहुंचे . दादाजी ने अपने पुराने बक्से से एक रेशमी रूमाल निकाला . रूमाल खोलते ही एक लिफाफा फर्श पर गिरा .
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दादाजी ने कहा " यह अमीना का दिया रूमाल और लिफाफा है . शायद तुम्हें पता न हो कि अपनी गली से थोड़ी दूर पर एक टूटी फूटी ईमारत है वह उसी की कोठी थी और उसके पीछे वाले मैदान में उसका मज़ार है . उसने चिट्ठी में लिखा है कि जीते जी तो हम साथ न रह सके , मेरी आखिरी ख्वाइश है कि तुम्हारी कब्र भी मेरी कब्र के पास में बने . " इतना बोलने के बाद दादू की आँखों से आंसू बहने लगे थे .
नूर बोला ¨ अच्छा , इसीलिए मैंने आप को कभी कभी वहां अगरबत्ती और फूल चढ़ाते देखा है . ¨
¨ हाँ , साल में एक बार उसके इंतकाल के दिन उस पाक रूह को याद कर लेता हूँ . अब अमीना की इच्छा तुम्हें पूरी करनी है ¨
अंशु और नूर दोनों ने उन्हें तस्सली दी . अगले दिन सुबह सुबह नूर ने बताया कि दादाजी का इंतकाल हो गया है .अंशु ने भी कब्रगाह जाकर दादू को सुपुर्दे ख़ाक किया .दादाजी की मर्जी के मुताबिक़ उनकी कब्र अमीना बाई की कब्र के बगल में बनायी गयी .
अगले सप्ताह अंशु को अमेरिका लौटना था .उसने नूर से कहा " सॉरी , यार मैं तो चालीसवें तक नहीं रुक सकूँगा . अब तुम बुआ को समझा बुझा कर अमेरिका ले आओ , मैं इंतजार करूँगा "
अंशु अमेरिका लौट गया .कुछ महीने बाद नूर भी अमेरिका चला गया .बाद में उसने अपनी बुआ को भी वहीँ बुला लिया .
- शकुंतला सिन्हा -
यह कहानी पूर्णतः काल्पनिक है और किसी पात्र या घटना या स्थान का भूत या वर्तमान से कोई सम्बन्ध नहीं है
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