Rishte - Jarurat ya ishwariya den - 2 in Hindi Fiction Stories by A A rajput books and stories PDF | रिश्ते - ज़रूरत या ईश्वरीय देन (भाग-२)

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रिश्ते - ज़रूरत या ईश्वरीय देन (भाग-२)

हमने भाग-१ में देखा कि रिश्तों का जन्म कैसे हुआ और किन परिस्थितियों में हुआ?अब हम रिश्तों के अलग आयाम को देखने का प्रयास करेंगे।


आज कल के रिश्ते बस नाममात्र के ही प्रतीक रहे है ।हर वो रिश्ता चाहे फिर ख़ून से जुड़ा हो या फिर विश्वास से या फिर प्रेम से बस दिखावा मात्र रह गये है ।


हमने समझने की कोशिश की कि रिश्ता कैसे जन्मा होगा? अब इसका धार्मिक पक्ष समझने की कोशिश करते है -

जब ईश्वर ने इस धरती का सृजन किया तो इसकी सबसे अदभुत सर्जन मानव था ।ईश्वर ने मानव को समझ जिसे हम बुद्धि कहते है दिया है।जिससे मानव तर्क कर सकता है। और इसी समझ का परिणाम रिश्ता है।हमारे पौराणिक कथाओं में भी रिश्तों की अहमियत बताई गई है।रामायण में राम और लक्ष्मण का वृतांत सबसे उत्तम है।इसमें यह प्रतीत होता है कि अगर रिश्तों को सही अहमियत दी जाए तो वो रावण जैसे महान शक्तिशाली को भी हरा सकता है और यदि विभीषण के समान रिश्तों को छोड़ दिया जाए तो उसका नाश भी हो सकता है।महाभारत भी कही न कही उन्ही रिश्तों की महिमा या महत्व बताता है ।धर्म की असली परिभाषा ही विश्वास,ईमानदारी,कर्मण्यता जैसे ग़ुणो का योग है।धर्म वही है जो निष्ठापूर्वक अपने दायित्वों को निभाये।और एक दायित्व -‘रिश्ता’ भी है।और जो व्यक्ति इस दायित्व को निभाने में चूक कर जाए तो फिर उसका यू कहना कि वो धार्मिक है और धर्म में पूर्ण आस्था रखता है -मेरे ख़्याल से व्यर्थ है।


आज के संदर्भ में भी रिश्ते वही मायने रखते है जो महाभारत या रामायण युग में रखते थे ।और न रखने पर परिणाम भी एकसमान ही है -पतन।


जब रिश्ते इतने ही मायने रखते है तो फिर अचानक रिश्तों की ये दुर्दशा कैसे हुई?ये प्रश्न का उठना भी उतना ही उचित है जितना रिश्ता का होना।क्या लोग धार्मिक नहीं रहे ? या फिर धर्म के अपने ही अर्थ निकाल लिए गए है जिससे उन्हें सिर्फ़ लाभ हो ?या फिर ग्रंथो की माने तो कलियुग का आरम्भ ?अगर ऐसा है तो हमारे ग्रंथो में आज की परिस्थिति का इतना सही वर्णन कैसे ?और अगर उन्हें पता था तो फिर उसी समय से कुछ किया क्यो नहीं जिससे इस पतन को रोक सके ?और अगर किया तो फिर आज ये स्थिति क्यों ? ऐसे कई सवालों का मन में आना उचित है और इसका उत्तर ढूँढना भी।

तो क्या हमें इसका उत्तर तार्किक रूप से ढूँढना चाहिए या फिर धार्मिक रूप से ।


रिश्तों की बात कर रहे है तो पहले समझते है की आख़िर किसे हम रिश्ता कहते है ।रिश्ता को एक शब्द में कहु तो ‘विश्वास’।रिश्ता का अर्थ है कि वो बंधन जो प्रेम और विश्वास पर क़ायम हो ।जिसमें त्याग भी हो और समर्पण भी ।जिसमें आस्था भी हो और सहानुभूति भी ।जिसमें अपने हित से बढ़कर सामने वाले का हित अधिक महत्व रखे।जिसमें ख़ुशी भी हो और दुःख के समय उससे लड़ने की शक्ति।जिसमें धैर्य भी हो और सहजता भी हो ।जिसमें अपेक्षाओ का स्थान न हो और एक नदी के समान सतत बहने का गुण हो।और आपको ये सब अतिशयोक्ति लगती हो तो इसका सबसे उत्तम उदाहरण है-‘माँ’। आपको ये सारे गुण माँ के अंदर मिल जाएँगे जो अपने संतान के लिए यही निःस्वार्थपन रखती है।


अब हम अपने प्रश्नो के उत्तर ढूँढने की कोशिश करेंगे।

हम पहले तर्क से इसका उत्तर ढूँढने का प्रयास करते है -

रिश्ते का अर्थ तो समझने की कोशिश की लेकिन क्या रिश्ते एक छोटे से अर्थ में समा सकते है ?क्या रिश्तों की महज़ एक परिभाषा होती है ?जी नहीं।हाँ आपने बिल्कुल सही सुना ,नहीं ।रिश्ते भी प्यार की तरह है जिसे जितना समझे कम लगता है ।जिसे जितना निभाये उतना ही गहराई में जाता है।रिश्तों को निभाने के लिए तर्क अर्थात् विवेक का उतना ही अहमियत है जितना उसे निभाने के लिए एहसास का होना ।इंसान एक सामाजिक प्राणी है -ये वाक्य हम बचपन से सुनते आ रहे है ।इसमें जो सामाजिक शब्द है उसका अर्थ ही ‘रिश्ते’है ।


कोई भी इंसान ये नहीं कह सकता के वो रिश्तों के बग़ैर जीवन जी सकता है।वो किसी न किसी के साथ तो रिश्ता क़ायम करता ही है।जैसे-कोई सन्यासी ये कहता है कि उसने सभी से रिश्ता समाप्त कर दिया है लेकिन उसी समय उसने ईश्वर से अपना रिश्ता क़ायम कर लिया है।मीरा ने समाज को छोड़ कृष्ण को अपने आपको समर्पित कर दिया था ,तो यहाँ ये ‘समर्पण’का भाव रिश्ता ही तो है लेकिन समाज के बनाये रिश्ते से इतर ईश्वर से रिश्ता।

कोई व्यक्ति अकेले रहता है और उसने एक जानवर को पालतू बना कर अपने साथ रखता है मान लिया जाए कुत्ता।फिर उसे एक नाम देता है और उसके साथ रहने लगता है तो ये भी तो एक रिश्ता ही है।लेकिन अगर कोई पूछे की आपने उसे क्यों रखा है तो कहेगा की सुरक्षा के लिए।तो क्या किसी साथ होने से आप अपने को सुरक्षित समझे तो वो रिश्ता नहीं हुआ।

रिश्ता हर जगह है बस हमने उसे अपनी परिभाषा दे रखी है अपनी सहूलियत के हिसाब से ।तो क्या यह सही है?

और क्या यही सहूलियत ही तो कारण नहीं रिश्तों की दुर्दशा में ।या यूँ कहूँ कि ज़रूरत का बदलना या उसका होना ही तो कारण नहीं।अगर हम ज़रूरत या सहूलियत का हटा कर सोचे तो !अगर हम सुख के पीछे ना भागे और मन की ख़ुशी के लिए जिए या आनंद की तलाश करे तो क्या ये सही नहीं है ।आज का इंसान सुख अर्थात् भौतिक चीज़ों के पीछे भागने लगा है और यही कारण है कि वो सुख और ख़ुशी में फ़र्क़ नहीं कर पाता।ख़ुशी वो है जो अपनो से मिलती है जो आप में एक संतोष की भावना को जन्म दे।तो अगर हम सुख के बदले ख़ुशी को महत्व दे तो ये रिश्ते फिरसे जीवित हो सकते है।और रिश्तों के फिर से जीवित होने से मानव जीवन आसान हो जाएगा और अगर आज के परिप्रेक्ष्य में कहूँ तो अपराध भी कम हो जायेंगे।ये बढ़ते जा रहे अपराध जैसे बलात्कार,मानव व्यापार आदि रिश्तों में आई गिरावट का ही परिणाम है ।

यहाँ तक की पर्यावरण की समस्या का समाधान भी रिश्तों के सुधरने से कुछ हद तक हल हो सकता है ।हाँ आपने सही समझा पर्यावरण भी।जब इंसान सुख के बजाय ख़ुशी को तलाशेगा तो वो क्या ढूँढेगा -एक शांत जगह जहाँ आसपास हरियाली हो ,सुबह पक्षियों की आवाज़ से उठे न कि अलार्म घड़ी से ।पीने के लिए साफ़नदी का पानी हो,हम बैठ कर साथ में बात करे न कि फ़ोन से ।तो अगर ये सब होगा तो पर्यावरण को भी बचायेगा और जब वो स्वयं की इच्छाशक्ति से पर्यावरण को बचायेगा तो क्या समस्या का हल नहीं होगा।

तो अगर तर्क से भी हम रिश्तों को समझे तो मानवकल्याण ही होगा।इसलिए रिश्तों में सुधार होना आज के समय की सबसे बड़ी माँग और ज़रूरत दोनोहै।


सोचिये,क्या रिश्ते ईश्वरीय देन नहीं हुए ?