उत्तर प्रदेश के एक छोटे से कस्बे की कहानी है ये. कस्बा छोटा, लेकिन रुतबे वाला था. और उससे भी अधिक रुतबे वाले थे वहां के तहसीलदार साब - केदारनाथ पांडे. लम्बी-चौड़ी कद काठी के पांडे जी देखने में तहसीलदार कम, थानेदार ज़्यादा लगते थे. बेहद ईमानदार और शास्त्रों के ज्ञाता पांडे जी बेटों से ज़्यादा अपनी बेटियों को प्यार करते थे. उनकी शिक्षा-दीक्षा, कपड़े, मनोरंजन हर चीज़ का ख़याल था उन्हें. अंग्रेज़ों के ज़माने के तहसीलदार पांडे जी, वैसे तो काफ़ी ज़मीन-जायदाद के मालिक थे, उनके अपने पुश्तैनी गांव में उनकी अस्सी एकड़ उपजाऊ ज़मीन थी, हवेलीनुमा मकान था, लेकिन सरकारी नौकर, वो भी तहसीलदार होने के कारण उनका अलग ही रसूख़ था. सुमित्रा, कुंती और सत्यभामा उनकी तीन बेटियां थीं. यही वे सुमित्रा जी हैं, जिनका ज़िक्र हमने ऊपर किया. बड़ी ख़ूबसूरत थीं सुमित्रा जी. अभी भी हैं, लेकिन अपनी युवावस्था में तो कहना ही क्या. लगता था जैसे भगवान ने बड़ी फ़ुरसत से बनाया है उन्हें. तीखे नाक-नक़्श, दूधिया सफ़ेद रंग, खूब घने और लम्बे बाल. अच्छी लम्बाई और उतने ही अच्छे स्वास्थ्य के कारण पिता हमेशा उन्हें ’भदूकड़ा’ (पहलवान) कह के पुकारते. मंझली बेटी कुंती को गढ़ते समय भगवान थोड़ी हड़बड़ी में थे शायद. अति साधारण चेहरे वाली कुंती, न केवल मर्दाना चेहरा लिये थी, बल्कि मर्दों जैसे अक्खड़ गुण भी थे उनके. जैसे भगवान ने ग़लती से लड़की बना दिया उन्हें. लड़कियों वाली कोमलता, उनके स्वभाव में कहीं भी नहीं थी. बड़ी-बड़ी शैतानियां करना, और फिर उसमें सुमित्रा जी का नाम लगा देना कुंती का प्रिय शगल था. वो तो माता-पिता, और बड़े भाई लोग सुमित्रा का स्वभाव जानते थे, सो कुंती का झूठ पकड़ा जाता वरना सुमित्रा तो उठते-बैठते कटघरे में ही खड़ी रहतीं.
पांडे जी ने समय से बेटियों का दाख़िला स्कूल में करवा दिया था. स्कूल जाने वाली लड़कियां तब कम ही होती थीं, उस पर कस्बा-प्रमुख की बेटी, सो स्कूल से एक बाई सुमित्रा और कुंती को लेने आती. अगल-बगल के घरों की और लड़कियों को भी लाभ मिलता बाई के साथ का, सुमित्रा-कुंती के कारण. स्कूल में भी बगल वाले बच्चे की टाटफ़ट्टी ग़ायब कर देना, उसकी साफ़-सूखती ’पट्टी’ (स्लेट) पर खड़िया से ढेर सारी आड़ी-तिरछी लकीरें खींच देना, जैसी तमाम बदमाशियां करती कुंती थीं, और नाम सुमित्रा का लगा देतीं. दोनों बहनों में बहुत अन्तर न होने के कारण, दोनों एक ही कक्षा में पढ़ती थीं. सुमित्रा सुनतीं तो अवाक रह जातीं. टीचर से अपनी सफ़ाई में कुछ कहने को मुंह खोलने ही वाली होतीं कि बगल में खड़ी कुंती उनका हाथ दबा देती. उनकी ओर अनुनय भरी नज़र से देखती और सुमित्रा चुपचाप कुंती के किये अपराध अपने सिर पर ले लेतीं. टीचर बेरहमी से उनकी दोनों हथेलियों पर बेंत जड़ती. बेंत की चोट सुमित्रा की गुलाबी कोमल हथेलियों को लाल कर देती. सुमित्रा की हथेली पर पड़ने वाला हर बेंत का लाल निशान, कुंती की आंखों में अजब
चमक पैदा करता. छुट्टी के बाद जब दोनों लड़कियां घर पहुंचतीं, तो कुंती घर के दरवाज़े पर पहुंचते ही सुबकना शुरु कर देती, जो भीतर
पहुंचते-पहुंचते रुदन में तब्दील हो जाता.
(क्रमशः)