Anokhi wafa in Hindi Love Stories by Rajesh Bhatnagar books and stories PDF | अनोखी वफ़ा

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अनोखी वफ़ा

अनोखी वफ़ा

राजेश कुमार भटनागर

जब सांझ गहराकर काली पड़ने लगती और रात का अंधेरा अपनी बाहें फैलाने लगता तो उस अंधेरे से कहीं अधिक घोर अंधेरा छाने लगता उसके मन में । उसका मन विषाक्त हो उठता और फिर वह खेतों के बीच से दौड़ता हुआ अपनी दर्द भरी आवाज़ों से शांत अंधेरे को झकझोरता चला आता गांव की लम्बी सूनी सड़क पर जहां से ठीक नौ बजे स्यौहारा को बस जाया करती । वह बस के आने से पहले ही आकर सड़क के बीचों-बीच लेट जाता । बस ड्राइवर ही क्या उस इलाके के सभी लोग इस बात से परिचित थे सो बस रूकती, ड्राइवर व कन्डेक्टर बस से उतर कर उसे अलग हटा देते । वह चिल्लाता, छटपटाता रह जाता । फिर सड़क के बीचों-बीच खड़ा बस को दूर....बहुत दूर. तक जाते हुये ठगा-सा देखा करता और आसमान की ओर चेहरा उठाकर चांद को देखकर रो पड़ता । उसे लगता जैसे उसकी लाजो चांद में बैठी मुस्करा रही हो । उसकी ओर बाहें फैलाकर उसे बुला रही हो...।

राज एक ज़मीदार का बेटा होने के बावजूद अपने ज़मीदार पिता के विचारों से बिल्कुल अलग था । जैसा सुदर उसका व्यक्तित्व था वैसे ही सुदर उसके विचार और हृदय भी । अक्सर किताबों में खोये रहना, कैनवास पर आड़े-तिरछे मगर खूबसूरत चित्र खींचना और कविता उसकी प्रिय रूचि थी । उसका दिल जितना निर्मल था, उतनी ही कोमल उसकी भावनाएं भी । कई बार उसके ज़मीदार पिता उसकी मां से पूछ बैठते, “ठकुराइन विश्वास नहीं होता कि ये मेरी ही औलाद है । ज़मीदार का बेटा और कवि....! ना ज़मीदारी की परवाह, ना कोई ठसक.....!”

“ठाकुर साहब ! सोचने से पहले आप सोच तो लिया करें कि क्या कह रहे हैं...।” ठकुराइन नाराज़ हो जाती ।

लेकिन उस दिन पिता के कई बार कहने पर वह फसल का जायज़ा लेने को तैयार हुआ था । अनमने भाव से उसने जीप निकाली थी और पिता के लाख मना करने पर भी अकेला चल दिया था खेतों की ओर । कुछ देर उदास रहने के बाद उसका मन जैसे खिल उठाा था प्रकृति का अनूठा सौंदर्य देखकर । दोनों ओर हरे-भरे खेत और सामने दूर क्षितिज में डूबता लाल सलोना सूरज । उसका कवि मन जैसे कल्पनाओं की उड़ान भरने लगा था । वह धीर-धीरे कुछ गुनगुनाने भी लगा था, लेकिन कुछ ही देर में उसके खेत आ जाने से उसने अनायास ही ब्रेक लगा दिये थे जीप के । जीप को एक किनारे खड़ी कर उसने नलकूप से निकलती मोटी जलधारा से पानी लेकर मुंह धोया था फिर गन्ने के ऊंचे-ऊंचे खेतों से एक गन्ना तोड़कर अनायास ही छीलने लगा था । गन्ने को छीलता जाता और ऊंची मुंडेर पर खड़े होकर डूबते सूरज को अपलक देख रहा था तभी अचानक उसके हाथ से किसी ने गन्ना छीन लिया था । वह चौंक पड़ा था, लेकिन जब देखा था तो बस देखता ही रह गया था । सामने एक सुंदर सलोनी स्त्री कमर पर हाथ रखे नाराज़गी भरे स्वर में उससे कह रही थी, “ऐ बाबू ! गन्ना किससे पूछके तोड़े हो ?”

मगर वह तो ना जाने कहां खो गया था उसे देखकर । जैसे उसकी कल्पना साकार होकर सामने खड़ी थी । बड़ी-बड़ी सीप-सी आंखें, मोटी-मोटी, बड़ी-बड़ी पलकें, बादाम के रंग-सा बदन....और गुलाबी पतले पंखुड़ी जैसे होंठ.........। पंजे मिट्टी में सने हुए, मगर पिंडलियां मानों संगमरमर से तराशी हुई...। वह एक बार पुनः चौंक पड़ा था । आखिर उसके हाथ से छीना गन्ना उसने राज की कमर में जड़ दिया था, “ऐ बाबू ! हमें घूर-घूरके का देखत हो ? जरा बताओ तो गन्ना किससे पूछकर तोड़े हो ?”

वह कुछ कह पाता इतने में ही दूर से आती ऊंची आवाज़ से वह चौंक पड़ी थी, “छोटे मालिक...! ओहो छोटे मालिक, हमार बड़े भाग जो आप पधारे । अरे लाजो मुंह का देखत है ? छोटे मालिक को परनाम कर......।”

लाजो जैसे लाज से गढ़ गई थी ज़मीन में । उसके गुलाबी गाल और सुर्ख हो गये थे शर्म और भय से । घबराकर असमंजस में संगमरमर की प्रतिमा-सी जड़वत रह गई थी और राज मुूस्करा उठा था उसकी उस भोली अदा पर । फिर बहुत कोशिशों के बाद उसके मुंह से निकल पाया था, “छोटे मालिक ! हमसे भूल हो गई, हमका माफॅी दे देओ । हमका सच् में पता नाहीं था कि आप.........। आप पहली बार आये हैं न, इसीलिए....आपको पहली बार देखा इसी कारण तो....।” कहते-कहते वह राज के पैरों में नज़रे गढ़ाये सुबक पड़ी थी और पत्थर-सा बना मौन खड़ा निहारता रह गया था राज लाजो को । कितनी भोली.....कितनी चंचल.....कितनी सुंदर लाजो...।

अचानक ही उसे धक्का दिया था लाजो ने । वह खेत की मुंडेर से लड़खड़ाकर दूर जाकर गिर पड़ा था और तिलमिलाकर उठा था तो लाजो को डसकर जाते काले नाग को देखकर कांप गया था अन्दर तक । यदि लाजो ने उसे धक्का न दिया होता तो सांप उसी को डस लेता । मगर यह एक इत्तफ़ाक ही था या पूर्व जन्म का संस्कार जो लाजो अपनी जान यूं जोखिम में डाल बैठी थी । राज ने जब लाजो को छटपटाते देखा तो तड़पकर रह गया था । उसकी एक-एक सांस मंे लाजो की दर्द भरी कराहट समा गई थी । लाजो अपने अधख्ुाले मोटे-मोटे नयनों में दर्द लिये कराहती हुई डूबती निगाहों से उससे कह रही थी, “देखा छोटे मालिक ! हम छोटी जात ने आपसे गुस्ताख़ी की तो भगवान ने तुरत हमें सज़ा दे दी । मगर अब ...अब हमार दिल से आपको गन्ने से मारबे का बोझ उतरगवा..... । हमरे होते हुए नाग देवता आपको कभऊं डस सकत थे....?” कहते-कहते वह अपने होश खोने लगी थी । कभी-कभी उसके होंठ सूखे पत्ते के समान फड़फड़ाते और खामोश हो जाते । लाजो का फूल-सा गुलाबी चेहरा ज़हर के प्रभाव से नीला पड़ने लगा था । राज से यह सब न देखा गया था । वह दौड़ पड़ा था हकीमों और फकीरों को दिखाने । एक हाथ से जीप का स्टेयरिंग सम्भाले और दूसरे हाथ से लाजो का चेहरा थपथपाता रहा था वह । लाजो का पिता गुमसुम-सा हो गया था । यंत्रवत जैसा राज उसे कहता वह करता जा रहा था । बस मन ही मन वह भी अपनी इकलौती बेटी के जीवन के लिए भगवान से प्रार्थना करने लगा था । और राज..... राज तो जैसे लाजो की एक-एक सांस से बंध गया था । लाजो की स्वामीभक्ति, चंचलता, सुंदरता ने राज के दिल में एक अनजाना प्यार उत्पन्न कर दिया था । उसे लगा था जैसे लाजो उसके जन्म-जन्मान्तर की साथी है । जैसे अब उसके बिना वह नहीं जी सकेगा । एक ही नज़र में लाजो उसके दिल में गहराई तक जो बस गई थी ।

लाजो को हकीमों, फकीरों को दिखाने के बाद उसने छोड़ दिया था उसके घर मगर बार-बार उसकी आंखों में लाजो की भोली सूरत नाचती रही थी । वह रात भर लाजो की याद और चिंता में सो भी ना सका था और आंखें मूंदकर प्रार्थना करता रहा था भगवान से । उसकी प्रार्थना ईश्वर ने स्वीकार कर ली थी । लाजो मृत्यु से संघर्ष कर जीवित बच गई थी ।

फिर ना जाने कब ज़माने से बेखबर होकर एक-दूसरे के प्यार में बंध गये थे दोनों । एक-दूसरे से समुद्र से भी गहरा प्यार हो गया था उन्हें । जैसे एक-दूसरे की आत्माएं एक ही आत्मा में लीन होकर रह गई थीं । लाजो की ज़िन्दगी में तो जैसे बहार आ गई थी । सोते-जागते उसे अजीब-सा अहसास होने लगा था । उसे जैसे जीवन का अर्थ मिल गया था । अपने दिल को टटोलने पर उसे लगा था जैसे राज उसके रोम-रोम मेें बस गया हो ।

लेकिन प्यार और फूल की खुश्बू कब छुपी है । एक दिन ज़मीदार ने लाजो के पिता को हवेली बुलाकर फटकार लगाई थी, “क्यों बे मनसुखवा ? अपनी औकात भूल गवा का ? काहे अपनी छुकरिया को हमार मोड़ा के पीछे लगाई दिये है ? का मालकिन बनाना चाहबे है...... ?”

“नहीं मालिक ! हमें तो कछु पता भी......।” वह थरथर कांपते हुए गिड़गिड़ाया था ।

“अबे चुपकर । तेरी लौंडिया हमार मोड़ा से इश्क फरमा रही है और तुझे पता नहीं ? सुनबे मनसुख ! काश्तकार है, काश्तकार की तरह ही रहिबे । वरना....।”

मनसुख पैरों में गिर पड़ा था ज़मीदार के, “मालिक.....। अब लाजो की छांव भी न पड़न देहि छोटे मालिक पर ...।”

तब लाजो के पिता ने लाजो को बहुत पीटा था, “हरामज़ादी काश्तकार की बेटी होकर छोटे मालिक से इश्क लड़ावत है...? अपनी औकात भूल गई....? खबरदार जो आगे से छोटे मालिक से मिली भी....।” फिर फ़फ़क पड़ा था स्वयं भी, “बिटिया तू जानत नहीं है, हमार किस्मत में कोई प्यार-व्यार न होईबे करि । हम तो उनके गु़लाम हैं...। उनहीं की किरपा से ज़िन्दा हैं....।” और फिर पड़ गया था चारपाई पर बिना कुछ खाये-पिये ही । बस रात भर असहाय-सा सिसकता रहा था । आखिर वह भी क्या करता । उसे ज़िन्दा जो रहना था । और लाजो....। वह भी रात भर सिसकती अपनी किस्मत पर आंसू बहाती रही थी । रह-रहकर उसकी आंखों में राज का चेहरा घूम जाता । वह बेबस-सी झोंपड़ी के अंधेरे कमरे में बंद छटपटाती रही थी कई दिनों तक ।

लेकिन समुद्र से नदी का रिश्ता क्या कभी टूटा है ....फूलों से उनकी खुश्बू क्या ज़ुदा की जा सकी है आज तक....। उसी प्रकार दोनों प्रेमियेां को भी कोई जु़दा नहीं कर पाया था । जु़दाई से दोनों दिलों मेें मिलन की आग और तेज़ भड़क उठी थी । फिर से मिलना शुरू हो गया थ चोरी-चोरी...। उन्हें जांॅत-पॉत, समाज किसी की कोई परवाह न थी । उनको अपने प्यार पर विश्वास था सो बेधड़क मिलने लगे थे पुनः ।

और एक रात जब तेज़ हवा के झौंकों की सांय-सांय से लाजो का छप्पर चरमरा रहा था और गली के कुत्तों ने ज़ोर-ज़ोर से रोना शुरू कर दिया था तब लाजो अकेली निश्चल खाट पर पड़ी राज के ही मधुर सपनों मं खोई थी । लेकिन तभी ज़मीदार के गुण्डों ने चुपचाप आकर उसके पिता के सिर में लाठी दे मारी थी और लाख चिल्लाने, मिन्नतें करने के बाद भी वे लाजो की लाज पर कालिख पोत गये थे । मानो लाजो जीते-जी मर गई थी तब । उसका सपना टूट गया था, उसकी आत्मा बिलख पड़ी थी । ज़मीदार के गुण्डों ने समाज और जाति के नाम पर उसका कौमार्य जो नोंच डाला था भूखे कुत्तों की तरह से । फिर दिल के किसी कोने में भी जीने की कोई उमंग नहीं रह गई थी लाजो के ।

घुटनों में सिर दिये फूट-फूटकर रोती रही थी । एक बार बाप को देखा था उसने जो सिर में लगी लाठी की चोट से बेहोश पड़ा था, फिर आवेश में आकर दौड़ पड़ी थी खेतों से सड़क की ओर । उसे मालूम था कि स्यौहारा जाने वाली बस उस समय तक गई नहीं होगी, सो आवेश में आकर स्योहारा जाती बस के आगे अचानक ही कूद पड़ी थी । लेकिन जब राज वहां पहुंचा था तो.... तो लाजो आखिरी सांसें गिन रही थी । लाजो ने अपना सिर उसकी गोद में रख दिया था और डूबती निगाहों से उसे निहारती बोली थी, “राज ! लोगों ने हमें जीते-जी तो नहीं मिलने दिया, लेकिन हमारे मरने के बाद हमें कोई एक-दूसरे से जु़दा नहीं कर सकेगा । तुम....तुम आओगे न मेरे पास...? देखो यहीं हमारे प्यार की पहली सीढ़ी है । यहीं से मैं चढ़कर जा रही हूं वहां, जहां कोई हमें ज़मीदार या काश्तकार की नज़र से नहीं देखेगा । वहां हम सिर्फ दो इन्सान होंगे....सिर्फ दो प्रेमी....।” कहते-कहते उसका सिर एक ओर लुढ़क गया था । राज उसका सिर अपनी गोद में रखे अपनी आंखों में आंसुओं का सैलाब लिये उसके मुर्झाये चेहरे को निहारता रह गया था । उसे वह दिन याद हो आया था जब लाजो ने उसे अपनी जान पर खेल कर मरने से बचा लिया था, मगर आज वह उसे नहीं बचा सका था....और लाजो उसे छोड़कर दूर....बहुत दूर... चली गई थी ।

वह पागल हो उठा था । लाजो.....लाजो......कहकर चिल्लाता हुआ ज़ोर-ज़ोर से हंसा था । उसने अपने सारे कपड़े फाड़ डाले थे और लाल-लाल नेत्र किये गांव जा पहुंचा था । उसने लाजो के हत्यारों को बहुत मारा था । अपने बाप का भी गुरेबान नोंच आया था वह....। रात देर तक लाजो की चिता के पास बैठा रोता रहा था । सब कुछ छोड़ दिया था उसने । फटे चीथड़ों में नंगे पैर वहीं जाकर बैठा करता जहां लाजो ने उसे सांप के काटने से बचाया था । अक्सर बसों को आती-जाती देखकर उसके कानों में लाजो की आवाज़ गूंजने लगती, “यह प्यार की पहली सीढ़ी है..तुम आओगे न मेरे पास......वहां ना कोई ज़मीदार होगा ना काश्तकार......ना पण्डित ना चमार.....।” तब वह लाजो...लाजो करता दौड़ पड़ता बस की ओर और स्वयं भी मरने के लिए सड़क के बीचों-बीच लेट जाता ।

आज भी यही हुआ था । बीस साल बाद आज भी वह पागलों की तरह आकर सड़क के बीचों-बीच लेट गया था और लोगों ने पागल....पागल कहकर उसे धकेल कर अलग कर दिया था । बस दूर ......बहुत दूर.......चली गई थी फिर भी वह बस को घूरता रहा था । फिर उसने लम्बे-लम्बे मैले, चिकटे बालों को नोंच डाला था और बड़बड़ाया था, “देखा लाजो ! कमीने ना मरने देते हैं ना जीने......।” फिर ठहाका मारकर हंसा वह और फिर एक पल ही में रोने लगा, “लेकिन इन्हें क्या मालूम कि मेरे मरने या ना मरने से क्या होगा । नहीं मरने देते ना मरने दें । अरे मैं तो उसी दिन मर चुका हूं जिस दिन मेरी लाजो......।” फिर फ़फ़क पड़ा वह । वास्तव में ही जिस दिन उसने लाजो की चिता जलाई थी उसी दिन स्वयं भी मर गया था । वह सिर्फ चलती-फिरती लाश को ढो रहा था मगर उसकी आत्मा मरकर लाजो की आत्मा में कभी की लीन हो चुकी थी ।

कुछ देर यूं ही बड़बड़ाने के बाद उसे लगा जैसे उसकी झौंपड़ी में बैठी लाजो उसे पुकार रही हो । वह नंगे पैर रेतीली ज़मीन पर सड़क से खेतों की ओर दौड़ पड़ा । उसके कानों में जैसे लाजो की आवाज़ गूंजने लगी, “राज तुम आओगे न मेरे पास.....? वहां ना कोई ज़मीदार होगा, ना कोई काश्तकार........ना पण्डित, ना चमार.......।

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( राजेश कुमार भटनागर )

सहायक सचिव

राजस्थान लोक सेवा आयोग,

अजमेर