Is Dasht me ek shahar tha - 7 in Hindi Moral Stories by Amitabh Mishra books and stories PDF | इस दश्‍त में एक शहर था - 7

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इस दश्‍त में एक शहर था - 7

इस दश्‍त में एक शहर था

अमिताभ मिश्र

(7)

प्रजाखंड

हुआ यूं था कि जब ब्रम्हचारी बाबा कन्नौज से इन्दौर एक बार जगह फाइनल कर के वापस लौटे तो जब वे आए फिर से वापस तो विश्‍वंभर दयाल यानि अपने छोटे भाई के लिए मय पूरे इंतजाम के साथ। सामान वगैरा तो था ही साथ में कुछ लोग भी थे जो काम करने वाले थे और एकाध साथी भी मसलन पांडे जी और वाजपेयी जी को ग्वालियर से बुलवा लिए। इन लोगों में पहलवान यानि बाडीगार्ड और खाना बनाने वाला तिवारी से लेकर नाई और एक ठो पंडित भी साथ किया। और आकर उन सबको पहुंच कर ठिकाना भी दिया। तो जरा इन लोगों को भी जान लिया जाए।

पहलवान और बच्चा

पहलवान यानि झिरिया के पास सीढ़ियों के नीचे खोली में रहने वाले। बच्चा के बाप। जिन्हें कन्नौज से यहां लाया गया था। दोनों ही पीलियाखाल में मिसिर खानदान के साथ शुरू से रहे पहलवान तो बकायदा पहलवान थे दादा विश्‍वंभर दयाल के। उनकी परछाईं की तरह साथ चलते जब वे घर के बाहर होते। मालिक ज्यों ही व्यापार या सौदा सुलुफ के लिये या किसी से मिलने या किसी कार्यक्रम में जाते, एक लठ्ठ लिये पहलवान उनके साथ होते और आसपास ही होते थे। वे और मालिक यानि विश्‍वंभर दयाल मिश्र लगभग एक ही उमर के रहे होंगे बल्कि बचपन में दोनों कन्नौज में साथ गिल्ली डंडा, कबड्डी वगैरा साथ खेले थे और पतंग भी साथ उड़ाई थी पर पहलवान के बाप विश्‍वंभर बाबू के बाप के रक्षक थे ढाल थे पहलवान यही उनका पुश्‍तैनी काम था सो आगे पहलवान तक चला ये ही। सिलसिला बच्चा पर आकर रुक गया या कहें कि बंद हो गया।

तो पहलवान यानि माधोसिंह जो विश्‍वंभर दयाल के प्रमुख पहलवान थे और एक पूरा अखाड़ा पहलवान की देखरेख में चलता था, पंडित जी की कृपा से चलता था ये अखाड़ा। माधोसिंह का काम आसपास के इलाकों में दंगल लड़ना, लौंडो को पहलवानी सिखाना, वर्जिश करवाना और पंडित जी की सेवा। वे पंडित जी के बाडीगार्ड थे। ”पहलवान“ आवाज आई नहीं कि माधो एक हाथ में लठ्ठ लिए तैयार। पंडित जी आगे आगे और पहलवान पीछे पीछे। पंडित जी को पंडिताई करते करते बहुत सारी जमीन मिल गई थी या कहें हथिया ली थी। तो पंडित जी ने माधो और उसके परिवार को रहने के लिए घाट के ऊपर की जमीन का एक टुकड़ा दे दिया था जहां माधो ने एक कोठरी बना ली थी। घाट जिस नाले पर है वह अब तो सारे शहर की गंदगी का निकास है वरना उस जमाने में तो वह एक साफ सुथरा नाला हुआ करता था बल्कि छोटी मोटी नदी था वह जिसमें मोहल्ले के तमाम लड़के लड़कियों ने तैरना सीखा। पहलवान मस्त थे । उनकी दुलहिन खुश नहीं थी। वह चाहती थी कि पहलवान पहलवानी छोड़कर कुछ और करें पर दबती थी क्योंकि अब तक पांच लड़कियां हो चुकी थीं। पर इस बार आसार अच्छे नजर आ रहे थे। इस बार पूजा पाठ, मान मनौती, साधु संतों की सेवा अच्छे से हो रही थी। पंडित जी तक ने कहा था ” माधो अब की तुझे लड़का होगा“ और इसे संयोग ही कहें कि पूजा पाठ का प्रताप कि लडका ही हुआ, जिसे हम बच्चा नाम से जानते हैं।

बच्चा पांच लड़कियों की पीठ पर हुआ था तो यह तो तय ही था कि बहुत लाड़ प्यार से पाले गए। माधो उन्हें पहलवान बनाना चाहते थे और मां उन्हें पढ़ाना चाहती थीं। नतीजा यह निकला कि बच्चा न तो पढ़ ही पाए और न ही पहलवानी कर पाए। पर दिमाग था तेज बहुत तेज। जितने भी दिन स्कूल गए मास्टरों से लोहा मनवा लिया था और सवाल पूछ पूछ कर परेशान कर दिया था। मसलन एक दिन पूछ रहा था

” ये जो रावण था न वो करवट कइसे लेत होगा।“

अब इसका भला क्या जवाब हो सकता है।

” दस दस मूड ले के भला किसे करवट की जरूरत पड़ेगी भला“ चौबे जी मास्साब टालने की मुद्रा में जवाब देते। यह सवाल उन महाकवियों वाल्मिकी और तुलसी के दिमाग में भी न आया होगा।

एक बारी पूछने लगा

” ई जो खूटा गाड़ते हैं न तो उसकी मिट्टी कहां जाती है।“

” अबे तोहरे पिछवाड़े में“ पांडे जी मास्साब खिसियाते हुए जवाब देते।

बच्चा की पढ़ाई आठवीं से आगे नहीं हुई, लाड़ प्यार के कारण वे आराम के आदी और जबान के चटोरे हो चले थे। जब तक पंडित जी का कारोबार चला तब तक माधोसिंह का परिवार ठीक चला पर जैसे ही छोटे पंडित ने पंडिताई और कारोबार संभाला तब उन्हें पहलवान की कोई जरूरत नहीं थी। पहलवान लठ्ठ लेकर उनके साथ घूमने की कोशिश करते रहे पर जल्द ही उनकी मोटी बुद्धि में आ गया कि अब उनकी जरूरत नहीं रही।

अब तनख्वाह बंद हो चुकी थी। आसपास के दंगल भी कम हो चले थे और इनाम इकराम भी कम से कमतर होता जा रहा था। बचा खुचा खाना मिल रहा था उसमें भी नागा हो जाता था। पहलवान अब इधर उधर भटक रहे थे। अखाड़े में फीस लगाने की सोची तो लोगों ने मना तो किया ही षिकायत अलग कर दी छोटे पंडित से।

छोटे पंडित अखाड़े की जमीन पर प्लाट काट कर बेचने की तैयारी में थे। उनका माथा ठनका पहलवान बुलवाए गए।

” अखाड़ा का तुम्हरे बाप का है“

” नहीं महराज पर पेट के लिए कुछ तो..........“

” अरे तो हमने ठेका ले रख है क्या तुम्हारे खानदान को पालने पोसने का। रहने को ठीया दो और मुह में निवाला भी दो और अब कह रहें कि धोओ भी“

” महराज हम तो आपै की पिरजा हैं आपै के चाकर हैं अब आप बतावो कि हम कहां जाएं और क्या करें“

” अरे हम का जानैं। अच्छे अच्छे चूतियों को पाला था हमरे बाप ने“

पहलवान चुप रहे। यह नौकरी से निकाले जाने की अंतिम सूचना थी और अमल भी हो चुका था।

पर कुछ तो करना ही होगा। पांच पांच लड़कियां जो सिर पर हैं। पहलवान ने हाथ पैर मारना शंकरलाल, जिसने उनसे अचपन में पहलवानी सीखी थी, ने उन्हें अपनी बरफ फैक्ट्री में हम्माली और चौकीदारी के काम पर रख लिया। काम पूरे टैम का था। खाना लड़कियों में से कोई पहुचा देता था। वे भीतर से कमजोर हो चले थे टूट गए थे। उनके पांच लड़कियां और एक निकम्मा सपूत। ये दिन बच्चा की दुर्गत के दिन थे। न मां न बाप न बहनें कोई भी उस पर ध्यान दे रहा था बस झिड़की और मारपीट। पहले के लाड़ प्यार ने उसे निकम्मा और अब के तिरस्कार ने उसे बेशर्म बना दिया था। अब वो ज्यादातर घर से बाहर रहता। दूकान पर से जूठा मांगना या किसी से भी मांगकर खाना उसकी आदत में आ गया था। पहलवान ने घिसटते घिसटते अपनी पांचों लड़कियों के ब्याह कर दिय। वे तो बस उन पांचों के ब्याह निपटाने के लिए ही रुके थे जैसे। उनका तन मन धन सभी कुछ तो जवाब दे चला था। एक दिन बरफ की सिल्ली उठाते में उन्हें चक्कर आ गए और वह सिल्ली उन्हीं के ऊपर गिर पड़ी। वे वहीं उसी सिल्ली के नीचे दब कर मर गए। बच्चा की मां का भी शरीर घिस चुका था। वो तो आत्मा थी जो अपने परमात्मा के जाते ही ज्यादा नहीं रुक पाई सो दो महीने में दवा और खुराक के अभाव में वे भी गुजर ही गईं।

अब बचे थे बच्चा। निकम्मे और बेशर्म। उनके एक दूर के रिश्‍तेदार उनसे काम करवाने के लालच में अपने साथ ले गए पर उनकी खुराक और निकम्मेपन के अद्भुत तालमेल ने ज्यादा यंत्रणा सहने से बचा लिया। उन दूर के रिश्‍तेदार ने बहुत जल्दी तौबा कर ली और बच्चा को मुक्त कर दिया या बच्चा से मुक्त हो गए। अब अच्चा फिर से अपनी खोली पर थे शान से। आसपास के कूड़ों के ढेर से खाने की चीजें खा लेना और कहीं भी सो जाना। हफते में एकाध बार अपनी कोठरी पर आ जाना। बेतरतीब बढ़े हुए बाल, दाढ़ी मूछ बेहिसाब बढ़ गईं। उनकी असली शकल जानने वाले कम ही होंगे। बच्चा को उनसे कोई मतलब भी नहीं था। बारिश के पानी से नहा लिए तो नहा लिए वरना यूं ही। वे तो बस कचडे के ढेर को खंगालते। सारे जमाने की जूठन खाते। कभी कोई चाय पिलाता तो पी लेते। हाथ में पैसा रख देता तो कचौरी समोसा खा लेते वरना उन्हीं के शब्दों में कहें तो छप्पन भोग तो वो रोज ही खाते हैं। बच्चा उस मोहल्ले का अभिन्न हिस्सा थे, हैं और रहेंगे।

सिद्धू झुरई

ब्रम्हचारी बाबा जब आए थे तो वे अपने साथ कुछ काम करने वाले भी लाए थे जिनमें सिद्धू झुरई नाई, पहलवान, शम्भू जैसे कुछ लोग थे जो कन्नौज में भी सेवक थे और यहां भी सेवक बने रहे एक पूरी पीढ़ी ने तो सेवा ही की फिर हुआ यूं कि न सेवा की जरूरत रही मिसिर लोगों को और न ही ये लोग सेवा करने के इच्छुक रहे। पर सिद्धू झुरई ये दो नाम भर नहीं हैं। ये दोनो मिसिर खानदान के परिवार का बकायदा हिस्सा रहे। ये दोनों मिसिर खानदान की अभी हाल तक की सारी रसमों के न सिर्फ गवाह बल्कि उन रसमों के हिस्सा रहे। वो जनम हो कि मुंडन हो कि अन्नप्राशन हो कि जनेऊ हो कि ब्याह हो कि न्यौता देना हो कि रिश्‍ते तय करना हो कि स्वर्ग सिधारना हो। सिद्धू झुरई हर मौके पर मौजूद तत्पर और परिवार के सदस्य की तरह रिश्‍तेदारों में शामिल। दरअसल सिद्धू झुरई इस मिसिर खानदान के घोषित नाई रहे। बच्च्चों से लेकर बड़े बूढ़ों के बाल बनाना, मालिश करना कुछ महत्पूर्ण लोगों की। और बाल कटाई का वो आलम था कि जब तक कान के आसपास से खून वून ना निकले तब तक हमारे सिद्धू झुरई की हजामत पूरी नहीं होती थी। एक बार किसी लड़के ने बाहर बाल बनवा लिए थे। घर में पिटाई हुई वो तो अलग और सिद्धू ने मशीन से जो बालों का सत्यानाश किया वो सबक रहा काफी दिनों के लिए घर के बच्चों के लिए। उन्होंने आठवें नंबर के चाचा से लेकर उनके भी बेटे तक सारे लोगों का मुंडन किया है। किसी के मरने पर सारे घर का दसवें पर मुंडन वे ही करते रहे। सिद्धू उस्तरा चलाने के उस्ताद थे और झुरई कैंची के। नाखून काटने की नहन्नी जिसके आगे नुकीला तिरछा सा होता है और उसके पीछे कान साफ करने वाला। ये नहन्नी भी आतंक थी बच्चों के लिए। सिद्धू नहन्नी के उस्ताद थे और झुरई मालिश के उस्ताद थे। एक दिलचस्प तरीका और था बाल काटले का जिसे वे फौजी तरीका कहते थे। बच्चों को कटोरा पहना कर या सिर पर कान के ऊपर धागा बांधकर बाहर निकलने वाले सारे बाल काट देना। इसके अलावा उनके पास आसपास की तमाम खबरों का पुलिंदा रहता था जिनके जरिये वे हर उमर के मरदों के काम के थे। इसके अलावा घर की औरतों के लिए भी उनके पास बहुत सी मसालेदार चटख और ताजी खबरें होतीं थीं। घर की शादियां करवाने में उस जमाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। कनौजियों में कौन से घर के लड़के की क्या पढ़ाई चल रही है से लेकर कौन से आदमियों औरतों के लड़के लड़कियों के कहां कहां चक्कर चल रहे हैं ये जानकारी उनके पास रहती थी। किस जानकारी को कब किसे और कैसे देना है इसमें दोनों को महारत हासिल थी। उनके पिता को कन्नौज से लाए थे बाबा जी और एक खोली में रख दिया था जिसे बाद को अच्छे बढ़िया घर में बदल दिया था उसने। अपनी पत्नी को भी ले आया तो गिरस्ती चल पड़ी। पंडित जी की पिरजा के दूसरे सदस्य थें शम्भू नाई पहले थे पहलवान। शम्भू नाई की दो औलादें हुई सिद्धू झुरई। जिन्होंने पूरे मिसिर खानदान की हजामत से लेकर शादी ब्याह बच्चे जनम और जनेउ का और किरिया करम के सारे काम एक लंबे समय तक इन्हीं दोनों ने करवाए।

तनिक गम खाओ कहते हुए वो दोनों भाई बेरहमी से नाखूनों को काटते थे और उसी बेरहमी से बच्चों की गरदन घुमा घुमा कर कच कच कर के बिना धार की कैंची से कुछ काटते हुए कुछ खिचते हुए बालों का उद्धार करते रहे दो पुष्तों तक सिद्धू झुरई।

सिद्धू के बाप ने बुद्धिनाथ तक सबके मुंडन किए, जनेऊ यानि यज्ञोपवीत संस्कार तक करवाए। ब्रम्हचारी बाबा का अंतिम संस्कार तक करवाए । बाद में त्रिलोकी से लेकर इंजीनियर साहब के बड़े बेटे तक मुंडन किया अब जनेऊ में लोग बाल नहीं मुड़वाते बल्कि अब तो जनेऊ भी रस्म के लिए शदी के ही साथ होने लगे हैं। दसवें के मौके पर दोनों बताते हैं सत्तर लोगों को घोटमोट किया था उन्होने। ये मौका था विनायक चाचा के क्रियाक्रम का। यह भी अजब रहा कि जितने किसम के सूतक हो सकते थे वे लगे। मौका था टिप्पू यानि शिब्‍बू के छोटे बेटे के ब्याह का। टिप्पू की बारात जा रही थी कानपुर और सो भी बस से। ठंड के शुरूआत के दिन थे वे। एक पूरी बस में खानदान के ही सारे लोग समा जाते थे। और रास्ते भर मस्ती चलती रहती थी। बोले की भाई बम से शुरू होती हुई ये बारात चल पड़ी। बड़े बूढ़े आगे बाच मे बच्चे और पीछे सारे जवान लड़के। जिनमें से कुछ इंतजाम अली अपने साथ दारू वगैरा और चबैना भी रखा करते थे। सबसे बुजुर्ग थे विनायक भैया यानि बिन्नू चाचा यानि बड़े भैया जो सबसे आगे थे। विस्मृति में तो वे थे ही पर हो हल्ले से प्रसन्न थे। उनके बगल में बैठे थे गन्नू और खप्पू और ठीक पीछे की सीट पर शिब्‍बू थे। शिब्‍बू बीच बीच में विनायक भाई साहब के हालचाल पूछ लेते थे। कानपुर का रास्ता काफी लंबा था। रास्ते भर गाना बजाना धूम धड़़ाका रहा। पीछे की सीटों पर तिक्कू चाचा समेत सारे लड़के गिलासों में दारू पी रहे थे। बस यू पी बार्डर क्रास कर ही रहे थे कि विनायक भैया की तबियत खराब हुई उन्हें दिल का दौरा पड़ा था बहुत ही गंभीर मतलब जब तक संभालने की नौबत आती तब तक विनायक बाबू यानि बड़े भैया स्वर्ग सिधर चंके थे। दो डाक्टरों ने यह बस में ही डिक्लेयर कर दिया था। बस रोकी गई । निकटस्थ थाना और अस्पताल ढूंढा गया। रिपोर्ट दर्ज करवाई गई और अब उन्हें वापस घर ले जाना। शिब्‍बू बहुत परेशान वे बार बार कह रहे थे कि चलो वापस चलो अब। बड़ी भाभी को क्या मुंह दिखाएंगे। पर उधर लड़की को हल्दी लग चुकी थी मतलब कि शादी तो करना जरूरी है। वहीं से एक मेटाडोर किया गया जिसमें विनायक चाचा के तीनों बेटे और गणपति, गजपति के बेटे वापस हो गए। वे रवाना हो रहे थे तो खबर थी कि कप्तान के बेटा हुआ है। शादी, जनम, मरण सब एक साथ उस दौर मे संयुक्त परिवारों के ही साथ संभव थी। अब क्या करें इस उलझन में पड़ने का समय भी नहीं था अब तो। ऐसे में काम बहुत से हो जाते हैं तो गणेशीलाल यानि नंबर तीन यानि छप्पू और शंकरलाल यानि नंबर सात यानि खप्पू ने संभाला सब कुछ। सबसे पहले एक एंबुलेंस में रवाना किया बड़े भैया को और वहां के लिए कुछ निर्देश भी दे दिए। नंबर तीन को सारा बताकर समझाकर और उनसे समझ कर सारे काम करना है यह बता दिया गया और बाकी लोग शादी के लिय रवाना हुए। बोले की भाई बम के नारे के साथ।

असली समस्या घर पहुंचने वाले दल की थी। वहां बड़ी चाची, दानों लड़कियों का ये बताना और फिर उनका अंतिम संस्कार करना। दो सूतक लग चुके थे। एक जनम का और दूसरा मृत्यु का। घर पहुचते पहुचते अंधेरा हो चला था। रात बहुत ही डरावनी थी। ज्यादा अंधेरा था उस दिन और बहुत ही लंबी हो गई थी। बारह घंटे के बजाए लगभग अड़तालिस घंटे से भी ज्यादा लग रही थी। कभी न खतम होने वाली ये काली और डरावनी रात में आंसू थे, दुख था डर था। उस रात के आगे अंतिम संस्कार था फिर नय बच्चे का भी संस्कार और उधर शादी भी होनी थी। उस विरल घटना पर सिद्धू थे शादी में और झुरई थे अंतिम संस्कार में। तो सुबह होते ही रिश्‍तेदारों का आना शुरू हो गया। जूज्जू मामा वापस आ गए थे बारात से उन्होंने हमेशा की तरह अंतिम संस्कार का जिम्मा ले लिया। जूज्जू मामा के होते हुए किसी को अपने अंतिम संस्कार के बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं होती थी। तो यहां चूंकि वे वहीं पर थे तो सारे इंतजाम उन्होंने करवा ही दिये थे। ”चलो अच्छा ही हुआ बड़के भैया का जाना। एक तो शारीरिक तौर पर दिक्कत हो ही गए थे फिर सब भूल ही गए तो जीने का क्या मतलब। दुखों से मुक्ति पाए और बाकी लोगों को भी मुक्त किया।“

और कोई मौका होता तो घर के लोग लड़ पड़ते उनसे पर फिलहाल उनसे काम भी था और इस घड़ी में काहे लड़ें। यह जगत मामा को भी पता था। वे गजब के आदमी हुआ करते थे। बहरहाल फिलहाल बाकी बचे रिश्‍तेदारों को खबर की गई जिनमें नदी पार की मामी, महादेव चच्ची, घर की सब औरतें तो थी हीं जो पिछली रात रतजगा करीं थीं और सुबह ये। गणपति के पोता भी हुआ रात में तो सुख और दुख दोनों एक साथ। बधाई और शोक एक साथ। उधर शादी हो ही रही थी। इधर अंतिम संस्कार की तैयारी।हम यहां प्रजा में शामिल लोगों का ध्यान करें तो उन्होंने सारी तैयारी कर ली। सिद्धू झुरई ने अंतिम संस्कार जिस मुस्तैदी से करवाया उसी मुस्तैदी से बच्चे के पैदा होने के संस्कार भी। उसी ताह मन्नू पंडित की अनुपस्थिति में गज्‍जू मामा ने सारे करम करवा दिय। यह सब उस समय संभव था जब सब एक थे।

गज्‍जू मामा भी थे पक्के कनौजिया उन्हें भी ब्रम्हचारी बाबा लेकर आए थे और वे पढ़े लिखे थे तो उन्हें पास के कुछ कमरे दे दिए गए थे।

शम्भू

उसके अलावा सामने की खोली में आकर बसे थे शम्भू जो एक घंटा बांधकर सुबह से फेरी पर निकलते थे और अलख निरंजन के साथ रास्ते भर की दुकानों से या घरों से सामान पैसे वगैसा लेते और फिर आकर खोली में उसका सेवन भी करते। वे गांजे के शौकीन थे सो घर के भी कुछ लोगों के काम थे मसलन तिक्कू चाचा, सोमेश भैया, कप्तान और भी बहुत से लोगों के काम का आदमी था वो। उसके अलावा मजारों से चादरें उठा कर उनकी लंगोट और अपने लिए गमछा और शनि महाराज पर चढ़ा हुआ तेल ले आते थे जिसमें वे पूड़ी तल कर मजे में सेवन करते थे। घर की चौकीदारी के अलावा बच्चों को घुमाने का काम और मंदिर की साफ सफाई का काम भी उनके जिम्मे था जिसे वे ईमानदारी से निभाते थे। बड़ी बड़ी लाल आंखें, काला स्याह चमकता चेहरा, मूंछे खिचड़ी बड़ी बड़ी मुंह को ढंकती हुई, नंगा बदन तेल पुता, नीचे गमछा लाल, कभी कभार ऊपर पीला ओढ़ने को। बदन का रह रह कर कांपना। मूछों से ढंके मुह से रह रह कर चिल्लाना। या तो भगवान के नाम या गाली। यही सब मिलकर जो आदमी बनता है वह है शंभू। शंभू जो सड़क किनारे एक खोली में रहता। दिन भर गांजे चरस में गुम। जुगाड़ हो तो दारू भी भांग भी। उसे औघड़ ही कहा जाएगा। लोगों ने उसके बारे में ढेरों किस्से गढ़ रखे थे। वह श्‍मशान से मुर्दों के साथ बात करता है। और भी पता नहीं क्या क्या। कब उसे कौन सी देवी आ जाएं कौन से देव उस पर सवारी कर दें यह किसी को पता नहीं देवी उतरवाने भूत उतरवाने गुमे आदमी का पता लगाने सट्टे का नंबर पूछने पता नहीं कहां कहां से आदमी उसके पास आता था। भूत पिशाच उतारने में वह इलाके में सबसे बड़ा औघड़ माना जाता है प रवह करता क्या यह किसी को पता नहीं है।

शम्भू को ये दौरे आना बचपन की बीमारी थी। उसके मां बाप उससे घबरा गए। झाड़ फूंक करवाया। वैद को दिखाया, डाक्टर को दिखाया तो भी कोइ। फायदा नहीं हुआ। पर जब जब उसे दौरा आता आस पड़ौस के लोग इकठ्ठा हो कर उसकी पूजा करने लगते, पैसे चढ़ाते, खाना देते, अनाज चढ़ाते। क्योंकि वे शम्भू को उस समय शम्भू नहीं बल्कि देवी देवता के रूप में पूजते थे। अब शम्भू कमाई का जरिया बन चुका था। शम्भू की कीर्ति चहुं ओर फैली। भीड़भाड़ होने लगी। मतलब धंधा अच्छा चल निकला। शंभू के मां बाप उसे देवी देवता के दौरे में देखना चाहते थे। पर उसके मां बाप एक दिन जहरीली दारू पीकर मर गए। अब शम्भू बचे अपने देवी देवताओं समेत।

वार त्योहार पर उसकी सवारी निकलती। शम्भू की बीमारी बड़े होने पर खतम हो गई थी पर अपने जीवन यापन के लिए वह ये करता था। वह रतिा मिसरों की बाहर की खोली में है उसे तिक्कू चाचा ने दी थी खोली तो वो उनका सेवक भी था।

खड़ग सिंह राजस्थानी

एक और दिलचस्प किराएदार था जिसे तिक्कू ने रखा था खड़ग सिंह राजस्थानी था बड़ी मूंछें थीं उसकी। उसकी दरकार थी पैक वाले पुठ्ठे के डिब्बे की फैक्ट्री के सामान की चौकीदारी और ट्रक से कच्चा माल यहां लाने और दुकानों तक बना हुआ माल पहुचवाने में। वो बीच वाली खोली में रहता था उसे दरबार नाम से सब लोग बुलाते थे। तिक्कू चाचा का वो अनन्य था। उनका बाडीगार्ड भी था। सफेद धोती और सफेद कमीज उसकी तय वेशभूषा थी। चाकू छुरियां चलाने मे माहिर और बंदूकें वगैरा भी थी उसके पास। उसकी बीवी धापू बाई घरों के काम कर देती थीं चाचियों की मालिश। नए बच्चे की मालिश उसे नहलाने धुलाने का काम। उसके भी एक लड़का एक लड़की थे । जो दिन भर कप्तान की टीम में पानी पिलवाने से लेकर लोगों के पान गुटके लाने का काम मुस्तैदी से करता था। खड्गसिंह एक काम करता था रोज सुबह दाने फैलाता तो मोर आने लगे और उसके हाथ से दाने खा लेले थे वो मोर और कई बार नाचते थे तो बाहर सड़क पर जाता आदमी रूककर उसे देखता जरूर था।

गजानन पांडे

इस सब के अलावा दो और विशिष्‍ट लोग थे जो अंदर की बेहतर खोली में रहते थे एक थे पांडे जी जो गज्जू मामा के नाम से विख्यात थे। वे ब्रम्हचारी बाबा के साथ आ गए थे जब वे पढ़ रहे थे तभी। पूरा नाम था गजानन पांडे। रोडवेज के मुलाजिम हो गए थे बाद को वे। रोज सुबह साइकल पर आगे टिफिन, पेंट के पांयचों के में पिन खोसे गंजे सिर पर हैट लगाए वे अलग से पहचाने जा सकते थे। वे बम बम से दुआ सलाम करते थे। दो बेटे और दो बेटियों के भरे पूरे परिवार को पांडे जी चला रहे थे। वे एक सरल और जिन्दादिल इंसान थें आफिस से लौटते वक्त मोरसली गली से भांग की एक गोली का नियमित सेवन करते हुए मजे से साइकल चलाते हुए घर लौटते। उनका मुताबिक भांग खाकर साइकल चलाने का आनंद ही कुछ और है उसे कोई बखान नहीं कर सकता।

पांडे जी के दो बेटों में बड़े सोमेश और छोटे राजेश। उन्हीं दिनों नामों को उनके अक्षरों के साथ उलट पुलट कर मजे लिए जाते थे। सो यह प्रयोग उन दोनों भइयों के साथ भी किया गया। कप्तान के नेतृत्व में घर के सारे लड़के दोनों के घेर कर बोले ” देखो तुम हुए सुरेश पांडे से पुरेश सांडे और ये छोटा हुआ पाजेश रांडे और तुम्हारे बाप हुए“ पहली बार में तो सुरेश ही बोल पड़े ”पजानन गांडे।“

इस पर जो ठहाके पड़े कि बस। जब जक सुरेश और राजेश के समझ में आया तब तक तो यह नामकरण पूरे शहर में फैल चुका था।

सुरेश घर का बड़ा बेटा था। आम भारतीय घरों के बड़े लड़कों की तरह वह भी उसी माडल का था। हर बात में झिझकने वाला, दब्बू, एकदम नर्वस हो जाने वाला, बाप से डरने वाला और बड़ों का अतिरिक्त लिहाज रखने वाला। पर उससे छोटे उसका कोई लिहाज नहीं करते। छोटा राजेश चलता पुर्जा था बातें बड़ी बड़ी कर लें, किसी की भी टोपी भरी महफिल में उतारने में महारत हासिल थी उसे।

बड़े होने पर यानि जिसे कहा जाता है पैरों पर खड़े होने पर सुरेश की शादी जल्दी निपटाई गई और उसीके दहेज से छोटी बहन जो निपटाना था सो भाई बहन की शादियां साथ ही हुईं थीं। पांछे जी को लग रहा था कि सुरेश उनका हाथ बंटाएगा गृहस्थी की गाड़ी आगे बढ़ाने में पर जैसा होता है आम भारतीय परिवारों में, कि बस दब्बू नर्वस

और बाप से डरने वाले बड़े बेटे को उसकी पत्नी ने अपने खोल से बाहर निकालकर उसे मर्दानगी उसके बड़प्पन उसकी उपेक्षा का अहसास दिलवा कर बाप से भिडवा कर अलग करवा दिया। सुरेश जिन्हें पढ़ा लिखा कर जैसे तैसे पांडे जी ने कुछ जान पहचान कुछ पैसे ले देकर पी डब्ल्यू में बाबू बनवा दिया था अलग हो गए। फिर कुछ समय बाद तबादला ही करवा लिया शहर से बाहर। संयुक्त परिवार का टूटना तब तक एक समाचार था पर उनके साथ भी घटित होगा यह अंदेशा उन्हें नहीं था। वे सकते में थे हक्का बक्का थे जब उनका लायक आज्ञाकारी बेटा शादी के तीन महीने बाद उनसे अलग हो गया। पांडे जी ने शेष दो लड़कियों की शादियां भी निपटा दीं। राजेश पांडे ने नेतागिरी शुरू कर दी कालेज के ही जमाने से। पार्षद रह चुका था। विधयक मंत्री वाले सारे गुण दुर्गुण उसमें थे इसलिए पांडे जी उसकी तरफ से निश्चिंत रहे। अंत तक वह उन्हीं के साथ रहा भी।

इस पूरी आपाधपी में भी पांडे जी ने एक जिम्मा ले रखा था संकल्प सरीखा मान के चल रहे थे अंतिम संस्कारों में जाने का वह जारी रहा और निष्ठा से जारी रहा। इस कार्य के शुरू में वो जात धरम का ध्यान रखते थे। जान पहचान का हो इसका ध्यान रखते थे पर श्‍मशान घाटों की लगातार यात्राओं ने उन्हें जाति धरम से ऊपर उठा दिया और शहर के किसी के भी मरने पर वे वहां पहुच जाते और उसके अंतिम संस्कार का जिम्मा इस तरह उठाते कि गोया वह उनका अपना हो। घर और बाकी जान पहचान वालों की प्रतिकिया का उन पर कोई असर नहीं था। ्र

पांडे जी के कुछ और शौक थे जिन्हें जान लें तो उनका व्यक्तित्व और भी निखर जाता है। एक शौक या कहें आदत थी अपनी साइकिल साफ और फिट रखने की। पच्चीस साल होने पर भी उनकी साइकल नई की तरह चमकती थी।बारिश में कीचड़ के ऊपर से वे पैदल साइकल उठा कर निकल जाते थे उस पर चढ़ते नहीं थे। वे किसी को भी अपनी साइकल छूने तक नहीं देते थे। एक बार उनके छोटे बेटे राजेश ने उसे चला दिया था तो उसकी वह पिटाई हुई कि फिर उसने आज तक उस साइकल को देखा तक नहीं। एक बार जब गुड्डू को जरूरत पड़ी तो वह उनसे साइकल मांगने चला गया दिप्पू के कहने पर। उन्होंने उसे वहीं ठहरने को कहा और भीतर गए उसे लगा कि चाबी लेने अंदर गए होंगे। गुड्डू साइकल की मन ही मन सराहना कर रहे थे कि उनहोंने बाहर आकर उसके हाथ में दस पैसे का का एक सिक्का रखकर बोले ” अगले मोड़ पर मुन्ना की दुकान से किराए पर ले लेना । दस पैसा लेता है एक घंटे के।“

एक समय में पांडे जी अपने इलाके के सबसे विद्वान बुद्धिमान होशियार और व्यावहारिक आदमी गिने जाते थे पर समय की रफतार ने उन्हें निढाल कर दिया। इतिहास भूगोल साहित्य विज्ञान पढ़े थे। व्यावहारिक भी थे। तीन लड़कियों की शादियां दो लड़कों को जीवन यापन के काबिल बनाना उन्हें दुनियादार के इलाके में स्थापित करता है। उनकी व्यावहारिकता और दूरंदेशी को लोग एक हलके फुलके किस्से के रूप में यूं जानते हैं कि एक बार रात को उनका दरवाजा खटखटाया। पाया कि एक अजनबी था। कहने लगा ” पडित जी आगे के गांव जा रहा था कि जोर की टट्टी लग आई अब तनिक लालटेन और लोटा दे दो तो फारिग होकर आगे बढ़ जाउं।“

पांडे जी ने उसे देखा और बोले ” अरे का सोना चांदी हगोगे कि लालटेन चाहिए और गांव के हो तो सुनो उधर जंगल की तरफ नाला है वहीं निपट लो।“ और दरवाजा बंद।

सुबह पता चला पड़ौस के बच्चू भैया के यहां से कोई आदमी लोटा और लालटेन लेकर चंपत हो गया। पांडे ने सुना तो वे ठठाकर हंस पड़े।

अलावा इसके उन्हें डाक टिकिट इकठ्ठा करने का भी शौक था। दुनिया भर के दुर्लभ टिकिट उनके पास थे। सुनते हैं एक बार राष्ट्रीय संग्रहालय में एक पुराने अनुपलब्ध टिकिट की जरूरत पड़ने पर पांडे जी ने उसे उपलब्ध कराया था और कोई पैसा नहीं लिया बस उसके नीचे इतना लिखवाया ” श्री गजानन पांडे के सौजन्य से“। यह पूरी भी हुई इच्छा।

अंतिम संस्कार एक ऐसा कार्य था जो पांडे जी मृतक के घर वाले से ज्यादा निष्ठा और ईमानदारी से केरते थे। बस उन्हें भनक लगनी चाहिए कि फलां आदमी औरत या बच्चा मर गया। वे किसी भी अवस्था में हों वहां जाने को तत्पर। बाकी लोग रो रहे हों सिर पीट रहे हों ढाढस बंधा रहे हों उन्हें इस सबसे कोई मतलब नहीं रहता था। वे अंतिम संस्कार की तैयारियों में जुट जाते। सामान कहां मिलेगा और सस्ता मिलेगा वे बता देते। अकसर लोग उन्हीं से सामान मंगवाते। किस तरह मृतक को बांध जाएगा यह सब वे घोर निरपेक्ष भाव से करते। उनका मुंह और हाथ दोनों ही लगभग एक गति से काम करते और वह गति बहुत तेज होती थी। इतना सब वे इतने सहज तरीके से करते कि पता ही नहीं चलता था कि कब सामान आ गया कब अर्थी तैयार हो गई और कब शवयात्रा प्रारंभ हो गई। श्‍मशानघाट के सबसे पास का रास्ता उन्हें पता होता था। शव को कंधा देकर गंतव्य पर पहुंच कर सबसे पहले लकड़ियों का मोल भाव वे करते। फिर लकड़ी छंटवाते। पहले मोटी फिर कम मोटी। सीधी लकड़ी। किस साइज की लकड़ी कितनी लगेगी इसका अपार अनुभाव था उनके पास। फिर चिता तैयार करने के तो वे विषेशज्ञ थे। कम से कम लकड़ी में वे यह काम वे करवाते। कौन सी लकड़ी कहां जमेगी, कब जमेगी। मृतककी देह कब रखी जादगी और फिर उसके ऊपर किस तरह और कितनी लकड़ी रखी जाएगी, यह सब वे ध्यान से करवाते फिर विधि विधान से दाहसंस्कार करवाते। यह क्रिया कर्म करवा कर वे शोकसभा करवाते फिर वे शोकसभा करवाते फिर घर लौट कर शुद्धि प्रसंग चलता। पत्नी उन्हें गालियों से भी शुद्ध करतीं। पर पांडे जी आदत से मजबूर। पिछले दिनों तो कहीं मौत के बाद कोई तैयारी नहीं होती थी पांडेजी का इंतजार होता था और पांडे जी आते, घर के सारे लोगों को रोने धोने और घर के और काम निपटाने की सुविधा दे कर अपने काम में लग जाते थे।

यह सब करते करते एक बार उनका वास्ता लावारिस लाया से पड़ा तब उन्होंने अड़ोस पड़ौस से लोग इकठ्ठा किए और उसका भी काम निपटा दिया। फिर वे लावारिस लाशों के भी उद्धारकर्ता हो चले थें उस काम में उन्हें शारीरिक और आर्थिक दोनों नुकसान उठाने पड़ते थे पर मानसिक तौर पर वे इस काम से कभी नहीं थके। जलाने के अलावा एकाध बार दफनाने का काम भी करना पड़ा। फिर तो वे सर्वव्यापी हो चले चले। बेटे बेटियों की जिम्मेदारियों से मुक्त होकर उन्होने एक सूत्रीय कार्यक्रम अंतिम संस्कार चला रखा था। रिटायर होने के बाद तो वे दिन भर यही करते। वे पूजा पाठ नहीं करते। पत्नी कहती कुछ भजन पूजन कर अपना परलोक सुधार लो तो पांडे जी कहते यहां लोगों की गति सुधार लूं फिर देखूंगा। बहुत पुराने समय के तो नहीं थे पांडे जी। फिर भी वे उस समय के जरूर थे जब लोग ये मानते थे कि समाज से सिर्फ लेना ही नहीं उसे कुछ देना भी चाहिय। सये ये कार्य संभवतः इसी भावना के चलते करते थे।

बूढ़ा शरीर जवाब देने लगा पर वे अपने कर्तव्य बोध के चलते मजबूर थे। घर के लोग उनसे किनारा कर रहे थे उन्हें गरियाते अड़ौसी पड़ौसी उन्हें चांडाल कहते पर उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। एक बार जब बात बहुत बिगड़ी लोग उन्हें शर्म के हवाले देने लगे तो उन्होंने अपना जनेऊ तोड़ा और बोले मैं क्रिस्तान हो जाऊंगा। चर्च पहुंच कर उन्होंने धर्म परिवर्तन की इच्छा जाहिर की। पूरी तैयारी हो गई थी और वे क्रिष्चियन होने की पूरी तैयारी में थे पर जैसे ही उनसे बोला गया कि बोलो यीशु सबसे बड़ा खुदा है। पांडेजी का दिमाग ठनका। उन्होंने पूछा ” आपने कितने खुदा देखे“ पादरी निरूत्तर।

” एक भी नहीं न फिर आप कैसे कह सकते हैं कि यीशु सबसे बड़ा खुदा। मुझे नहीं बनना क्रिस्तानी। “ घर लौटकर जनेऊ में गांठ बांधी और फिर चढ़ा लिया उसे। पर वे धर्म से परे हो चले थे। अंतिम दिनों में धर्म उन्हें वह ताकत नहीं देता था जो पहले देता था। वे धार्मिक आध्यात्मिक प्रसंग जो पहले उन्हें प्रभावित करते थे या रूला देते थे अब वे हास्यास्पद जान पड़ते थे। यह उलटी प्रक्रिया थी जो पांडे जी के साथ घट रही थी। उनकी आस्‍था डगमगा गई थी परंतु अंतिम संस्कार वे उसी निष्ठा से करवाते रहे। छोटा लड़का उनके साथ रहता था। खीझता था पर चूंकि राजनीति में था अतः उनका इस्तेमाल करता था। बल्कि अपना राजनैतिक कैरियर की शुरूआत पिता के जरिये जाग्रत सूत्रों से ही की थी। अब तो वह खुद ही जाना पहचाना नेता हो गया है फिर भी वह उन्हें ज्यादा कोसता नहीं है। हालांकि ध्यान भी नहीं रखता। पर आखिर कब तक चलता ये सब। उनका शरीर जवाब देने लगा था वे चिढ़चिढ़े हो चले थे। चिल्लाने लगे थे घर में। एक दिन जब वे बहुत जोर से चिल्लाए तो उनके शरीर के दांये हिस्से में पक्षाघात हो गया और उनकी वाणी जाती रही। पांडे जी असहाय थे। उन्हें सारे शहर के मुर्दों की दुर्गति का रह रह कर ध्यान आता। उन्हें लगता सारे शहर की लाषेों को चील कव्वे गिद्ध चींथ रहे हो। वे अंतिम संस्कार की प्रक्रिया म नही मन दोहराते। बहुत बुरी तरह कटे उनके अंतिम दिन। अंततः जब वे एक दिन नहीं रहे तो इस आशा में तो उनके प्राण निकलें ही होंगे कि उनका अंतिम संस्कार तो ठीक से होगा पर न तो सुरेश और न ही राजेश और न ही उन ढेर ढेर रिश्‍तेदारें आत्मीयों परिचितों अपरिचितों कां इतनी फुर्सत थी कि वे पांडेजी का क्रियाकर्म कर सके। अब पांडे जी तो भला रहे ही नहीं अपना अंतिम संस्कार करने को। सुरेश तो दूसरे शहर में थे आने में अड़तालीस घंटे लगने थे अतः राजेश ने यानि नेताजी ने यह जिम्मा उठाया और नगर निगम से अंतिम संस्कार वाला वाहन बुलवा कर श्‍मशान घाट पहुंचवा दिया। वहां विद्युत शवदाहगृह में उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया। न कोई अर्थी सजी थी न शवयात्रा न फूल न बताषे न भीड़ भडत्र न शोक सभा कुछ भी नहीं हुआ। यह था श्री गजानन पांडे का अंतिम संस्कार जिनके लिए अंतिम संस्कार की महत्ता जग जाहिर थी। पर उनका छोटा बेटा मजबूर था। उसे अगली फ्लइट से दिल्ली निकलना था दिल्ली पहुचना था टिकिट की जुगाड़ में। चुनाव घोषित हो चुके थे। फिर टिकिट ज्यादा महत्वपूर्ण था। और पिता तो वापस आ नहीं सकते थे।

वाजपेयी जी उर्फ मामा जी

वाजपेयी को इन्दौर में टिकना था। एक अखबार प्रारंभ करना निर्देशित हुआ था नागपुर से। वे पुराने संघी थे। इन मिश्रों के दूर के रिश्‍तेदार थे। सो जब उन्हें पता चला कि ब्रम्हचारी बाबा इन्दौर जा रहे हैं बसाने विश्‍वंभर को तो वे भी पहुंच गए इन्दौर। वहां उन्हें मुकम्मल रहने की व्यवस्था मिल गई। मामी भी साथ थीं। कोई संतान नहीं थी उनकी। सज्जन पुरूश थे वे। चुपचाप अपना काम करते थे। मंदिर में सबसे मुलाकात होती थी। गुरू गंभीर व्यक्ति रहे वे सो वहां भी उनकी बातचीत ज्‍यादातर गणेशीलाल से ही होती थी जो भारतीय मजदूर संघ के शहर इकाई के अध्यक्ष थे। मामी जी घर की सदस्य की तरह रसोई में जुड़ गईं।

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