इस दश्त में एक शहर था
अमिताभ मिश्र
(6)
हम वापस अपने कथा सूत्र को पकड़ते हैं। और विनायक भैया के कुछ पहलू जानने की कोशिश करते हैं।
विनायक ने दिल्ली में भी अपनी एक खास जगह बना ली थी। वे विदेश जाने वाले हर महत्वपूर्ण व्यक्ति के दौरे का हिस्सा हुआ करते थे और उसे समाचारों में सही तरीके से भेजने की जिम्मेदारी उनकी हुआ करती थी। प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री या रक्षा मंत्री के दौरे का न सिर्फ वे अहम हिस्सा हुआ करते थे बल्कि मंत्रालयों में यह भी तय करवाने में भूमिका अदा करते थे कि किसे विदेश जाना है और किसे नहीं। राजनीतिक, राजनयिक और सामाजिक तौर पर वे एक महत्वपूर्ण व्यक्ति हो चले थे। उनकी दोनों छोटी बेटियां और छोटे बेटे शहर के सबसे महत्वपूर्ण स्कूल में पढ़ रहे थे और उनके साथ ही थे अपनी मां यानि विनायक बाबू की दूसरी पत्नी के साथ। पहली पत्नी के दोनें बड़े बेटे पुश्तैनी शहर में थे जिसका जिकर हम ऊपर कर चुके हैं। तीन बड़ी बेटियों में से दो की शादी वे कर चुके थे और जो तीसरी थीं वे पढ़ रहीं थीं हिन्दी में एम ए पी एच डी कर के वे सरकारी कालेज में प्रोफेसर हो गईं थीं। वे उस जमाने में अपने पैरों पर खड़ी अकेली महिला रहीं जब इस बारे में सोच भी नहीं विकसित हुआ था। यानि यह माना जाए कि सब कुछ ठीकठाक ही हो गया था विनायक जी का। विनायक भाई साहब की पकड़ प्रेस पर अच्छी खासी थी वे यहां किस अखबार को तवज्जो दी जाए किसे नहीं और इसके अलावा रेडियो पर कौन सी खबर आए कौन सी न आए यह भी वे तय करने की स्थिति में थे, पर अकसर हम लोग जैसा चाहते हैं वैसा होता नहीं है। सब कुछ सही चलते चलते कब गाड़ी पटरी से उतर कर नीचे उतर जाती है वैसा ही हुआ विनायक के साथ जिसने उनके सारे गणित को गड़बड़ा दिया। हुआ दरअसल यूं कि वे किसी दिन सुबह रोज के मानिन्द घूमने गए थे तो एक गाड़ी तेजी से आई और उनको टक्कर मारते हुए ये जा और वो जा। पर विनायक बाबू मिश्रा का न सिर्फ जुगराफिया बिगड़ गया बल्कि उनका आगा पीछा सब उनका पूरा अतीत, वर्तमान और भविष्य ही बदल दिया। उनके सिर में बहुत जोरदार चोट आई जिसने उनके शरीर में गहरी चोट पहुंचाई और याददाश्त का भी लोप हो गया। तकरीबन चार महीने दिल्ली में शारीरिक इलाज हुआ पर जो दिमागी चोट लगी वो नहीं ठीक हुई। नौकरी उनकी जो भी थी जितना भी उनके बेटे कोशिश कर सकते थी पैसे पाए। दिल्ली जैसी जगह में रहना भी मुश्किल था है और रहेगा सो आखिर वापस वे पुश्तैनी घर आए जो पहले भी उनके लिए अनजान जगह थी और अब तो और भी पहचान से परे थी वो जगह जहां मंदिर के बगल के कमरे में उनका नया ठिकाना बना जिसमें एक रसोई भी थी जिसमें बड़े भैया का खास खाना बड़ी भाभी बनाती रहीं। ये उनके गहन संघर्ष के दिन थे। पर कुछ तो विनायक के भाइयों का सहारा और सबसे ज्यादा खप्पू की आर्थिक मदद ने उन सबको रहने खाने और बाकी भी कपड़े लत्ते खाना पीना विनायक भैया की दवाइयों के खर्चा मुहैया करवाया। जब जैसी जिससे मदद बनी की उसने उस मुश्किल दौर में तो ये संयुक्त परिवार का सबसे बड़ा फायदा रहा जिसने सबको मुश्किलों के समय रहने को छत और रोटी कपड़ा भी मुहैया करवाया। तो विनायक भाई साहब की बेध्यानी में ये सब मदद होती रही और वे अपना समय काट रहे थे जिसका उन्हें होश ही नहीं था। इस दरम्यान उनके साथ जो होता रहा उससे वो अनभिज्ञ रहे बस उन्हें कभी कभी लहर आती थी तो वे कभी बंदोबस्त अधिकारी होते तो कभी थानेदार तो कभी समाचार भारती के निदेशक की भूमिका में होते तो कभी ठेठ बिन्नू भैया जब वो गज्जू को आवाज दे रहे होते कभी अपने दोनों बेटों को उसी अंदाज में गालियां बक रहे होते। इसी दरम्यान एक दिन छोटे वालों ने तैश में आकर दो तमाचे जड़ दिए। वे चिल्लाकर रो पड़े। यह बेहद हृदयविदारक रुदन था जिसे सुनकर लगा कि पूरा एक युग रो रहा हो। यह रुदन वो रुदन था जो एक पूरे युग के समापन का रुदन था। जिसने मिसिर खानदान के संयुक्तता पर बड़ा सवाल लगा दिया और अब वो रिश्तेदारियों की समाप्ति का युग था जिसके आधार पर सब एक दूसरे की मुश्किलों में साथ होते थे।
उसी साल नाले में भी बाढ़ आई थी बिना ज्यादा बारिश के और सेा भी शहर भर की गंदगी से भरपूर। यह शहर के गंदगी में तबदील होने की शुरुआत थी जो अनंत काल तक चलने वाली थी जिसने भ्रष्ट व्यवस्था के लिए एक नया दरवाजा खोल दिया। हर साल नगर निगम नए सिरे से नाले की सफाई का एस्टीमेट बना कर स्वीकृत करती है और खरचा भी कर देते हैं नाले में कुछ नहीं होता।
विनायक के घर का खर्चा तो अब दोनों बहनों ने उठा ही लिया था। वे दोनों बहने जिनमें से एक कालेज की प्रोफेसर हैं और दूसरी वित्तीय सेवा की अधिकारी। यह संयुक्त परिवार की अलग धारा है जो पोते पोतियों तक चलती रही।
***