मेरी राह्गिरी
(10)
नयी दोस्ती
मेरा घर अब काफी संभल गया था. निम्मी और मेरे बीच जो दूरी धीरे-धीरे आ गई थी वो काफी हद तक दूर हो गयी थी. अब सुबह मैं हर रोज़ भाग कर रोशन लाल के छोले भठूरे और समोसे खाने नहीं पहुँच जाता था. घर पर ही वेट करता था कि निम्मी बच्चों के काम से फ्री हो कर कुछ बनाये और हम साथ बैठ कर नाश्ता करें.
ज़ाहिर है नियमित तौर पर फलों के जूस और हलके पौष्टिक नाश्ते ने मेरा स्वाथ्य बेहतर कर दिया था. मेरा डॉक्टर मुझ से खुश था. मेरी पत्नी मुझ से खुश थी. मेरा काम और अच्छा हो गया था. मेरे बच्चे अपनी ज़िन्दगी और पढ़ाई में बिजी थे. मैं अपनी ज़िन्दगी से मुतमईन था.
चाहता था ऐसे ही ज़िन्दगी चलती रहे. कभी भूले- भटके रोज़ी का ख्याल आ जाता था. हालाँकि रोज़ी मेरा इश्क नहीं थी और न ही निम्मी के बाद मेरी ज़िंदगी की अकेली औरत, लेकिन उसके पेट में मेरे बच्चे की मौजूदगी मुझे हलकान किये हुए थी. चार महीने बीत जाने के बाद भी मैं उस एहसास से बाहर नहीं निकल पाया था. और अब जैसे-जैसे उसकी डिलीवरी का वक़्त पास आ रहा था मैं और बेचैन होने लगा था.
मेरा मन अजीब स्थिति में था. एक तरफ तो मन कहता था कि मेरा उस बच्चे से क्या लेना देना?मैंने तो नहीं चाहा था उसका इस दुनिया में आना. लेकिन दूसरी तरफ मेरा मन ये बात मानने को तैयार नहीं था कि मैं इस बच्चे के अस्तित्व को इस तरह आसानी से अपने मन से निकाल दूं.
हर सुबह मैं इस उम्मीद से उठता कि शायद आज रोज़ी फ़ोन करे और मुझे कुछ बताये और हर रात इसी उम्मीद की नाकामी के साथ सो जाता. इस बीच निम्मी के प्रति मेरा प्यार दिनोंदिन बढ़ रहा था. इसकी वजह निम्मी खुद थी.
निम्मी को आखिरकार भरोसा हो गया था कि मैं पूरी तरह से उसका था. मेरा वक़्त उसका था और मेरा साथ उसी के लिए था. मैं अपना सारा खाली वक्त निम्मी के साथ बिताने लगा था. इसके अलावा अब मैं लैपटॉप और फ़ोन में भी हर वक़्त उलझा नहीं रहता था. एक बात मैंने अच्छी तरह से अब समझ ली थी कि निम्मी हर बात लिए मुझ पर आश्रित थी.
उसकी परवरिश एक ऐसे माहौल में हुयी थी जहाँ लड़कियों को यही कहा जाता है कि वे या तो अपने पिता की ज़िम्मेदारी हैं या फिर अपने पति की. उन्हें खुद अपने लिए सिर्फ सुंदर दिखना होता है और परिवार की रोज़मर्रा की ज़रूरतों का ख्याल रखना होता है.
जबकि मैं जिस माहौल में बड़ा हुआ था वहां हर इंसान को खुद अपनी जिम्मदारी उठाने की सीख घुट्टी में पिलाई जाती है. ज़ाहिर है दो अलग-अलग विचार-धाराओं के टकराव में निम्मी बुरी तरह उलझ गयी थी और डिप्रेशन का शिकार हो गयी थी.
सबसे अच्छी बात ये रही कि रोज़ी वाले सिलसिले के बाद से मुझ में जो बदलाव आये तो निम्मी की डिप्रेशन की दवा भी जल्दी ही छूट गयी. यानी हर लिहाज से मैं एक खुशहाल परिवार का खुश और संतुष्ट मर्द नुमा मुखिया था.
कई बार ये ख्याल मेरा दिमाग में आता था कि मेरे बच्चे, बेटा और बेटी दोनों ही कहीं निम्मी वाली विचार धारा के साथ तो नहीं बड़े हो रहे? लेकिन फिर मैं उन्हें गौर से देखता और उनके साथ अपनी बातचीत को एनालाइज करता तो लगता कि नहीं ये पीढ़ी सही दिशा में जा रही है. थोड़ी बदतमीज़ तो है लेकिन अपनी ज़िम्मेदारी उठाना जानती है और उठा सकने की कुव्वत भी अपने में पैदा करने की राह पर चल पड़ी है.
इस बात से मुझे उन दिनों बड़ी तसल्ली रहने लगी थी. अब उस बच्चे का ख्याल कम ही आता था लेकिन आता ज़रूर था और शिद्दत के साथ आता था.
इन्हीं दिनों मेरी ज़िन्दगी में एक नए दोस्त की आमद हुयी थी. नाम था नताशा सिंह. दरअसल नताशा का बॉयफ्रेंड मेरा दोस्त था. हम दोनों कॉलेज के ज़माने के दोस्त थे. और अक्सर मिलते रहते थे. कारण कि हम एक ही कॉलोनी में रहते थे और हमारे कारोबार भी एक दुसरे से जुड़े हुए थे. मैं आर्ट और क्राफ्ट के एक्सपोर्ट से जुड़ा था और रोहित सलूजा गारमेंट एक्सपोर्ट से.
हालाँकि आप कहेंगे इनमें क्या समानता है सिवाय एक्सपोर्ट के. तो जनाब आप को बता दूँ हम कारोबारी लोग दोस्ती के लिए किसी भी वजह को जिम्मदार मान लेते हैं. मुझे रोहित का मिडिल ऐज तक अन-मैरिड रहना बड़ा रोमांचक और ग्लैमरस लगता था और रोहित को मेरा मैरिड और बड़े-बड़े बच्चों का बाप होना. इसके अलावा कॉलेज के ज़माने की दोस्ती तो थी ही.
रोहित से मेरी दोस्ती में उस वक़्त कुछ और गर्माहट आ गयी जब उसकी ज़िन्दगी में नताशा आयी. इससे पहले रोहित कई छोटी-बड़ी सीरियस नॉन-सीरियस रिलेशनशिप्स में रह चूका था. उनके बारे में मुझ से कोई ख़ास चर्चा नहीं होती थी. बस यूँ होता था कि कभी हमारा क्लब में या उसकी नॉएडा की गारमेंट फैक्ट्री में शाम को बैठक करने का कार्यक्रम होता और एन वक़्त पर वह या मैं कैंसिल कर देता तो हम दोनों ही बिना कुछ कहे समझ जाते कि मामला कुछ निजी वक़्त वाला है. मेरे साथ तो परिवार का कोई मसला होता उसके साथ किसी निजी महिला दोस्त के साथ वक़्त बिताने का.
ये संयोग की ही बात रही कि जब मेरा रोज़ी वाला किस्सा हुआ तो उन्हीं दिनों रोहित भी कुछ ज्यादा ही बिजी रहा. उसकी फैक्ट्री में कुछ मसले चल रहे थे. पास की एक फैक्ट्री के एक कर्मचारी का मर्डर हो गया था और पुलिस को रोहित की फैक्ट्री के मेनेजर पर शक था जिसका अफेयर उस कर्मचारी की पत्नी के साथ चल रहा था. मामला संगीन था. रोहित उसी में उलझा हुआ था. बैठकें बंद थीं. वैसे भी उन दिनों मैं रोज़ी के हर तीसरे दिन आने वाले आमंत्रणों के झूले में झूल रहा था.
रोहित का मेनेजर बेकसूर पाया गया. रोहित भी उस दलदल से निकला तो एक शाम हम लोग मिले. उस दिन निम्मी भी मेरे साथ थी. हम क्लब में थे. निम्मी इस तरह की शाम में असहज हो जाती है. वह खुले दिमाग वाले बेतकल्लुफ लोगों के बीच बहुत अनजानापन महसूस करती है. उसे सधे- सधाए सीधे सादे सवालों और जवाबों वाली महफिलें ही अपनी लगती हैं. ऐसी आज़ाद-आज़ाद सी महफिलों में वह अनगढ़ जैसी हो जाती है. बात-बात पर चौंक उठती है. बच्चों जैसे सवाल पूछ लेती है, बेवकूफी भरे जवाब दे उठती है और फिर खुद ही शार्मिन्दा हो जाती है.
मैं अभी तक इस कोशिश में हूँ कि उसे इस तरह की महफ़िलों में ले जा कर सहज कर सकूं. लेकिन रोहित जैसे ख़ास दोस्तों के साथ ही इस तरह के प्रयोग करता हूँ. और निम्मी को साथ ले कर जाता हूँ. उम्मीद में हूँ धीरे धीरे जैसे और चीज़ें हुयी हैं निम्मी में ये बदलाव भी आ ही जाएगा. वैसे ये भी मेरा एक अड़ियल सा रवैया ही है जो मैं निम्मी को आमूल-चूल बदल देना चाहता हूँ, चाहे धीरे-धीरे ही सही.
खैर! मैं बता रहा था नताशा के साथ मेरी दोस्ती कैसे हुयी. तो उस शाम रोहित ने ख़ास तौर पर हम दोनों को बुलाया था क्लब में. मुझे और निम्मी को. कहा था अपनी एक ख़ास दोस्त से मिलवाना है. मुझे लगा कोई नया बिज़नस एसोसिएट है कई दिनों से रोहित कह भी रहा था कि व एक और नयी फैक्ट्री लगाने जा रहा है. लेकिन निम्मी को भी बुलाने की वजह से मैं असमंजस में भी था.
वहां हम पहुंचे तो नताशा और रोहित ने हमारा स्वागत कोने के एक फॅमिली केबिन में किया. लम्बे ऊंचे कद की, भरे पूरे बदन वाली नताशा हरे रंग की साड़ी पहने रोहित के साथ खडी बड़ी भली सी लग रही थी. रोहित खासा खूबसूरत मज़बूत कद काठी का रेगुलर जिम जाने वाला मर्द है. उसकी पसंद देख कर मेरी और निम्मी दोनों की आँखें चौंधिया गयी थीं.
नताशा ने बड़ी गर्मजोशी से हम दोनों से गले मिल कर यह जता दिया था कि रोहित ने हमारे बारे में उसे अच्छी और गर्म संबंधों की बातें कहीं हैं. और ये भी कि रोहित और नताशा दोनों ही एक सीरियस रिश्ते की तरफ बढ़ रहे हैं. मुझे बहुत अच्छा लगा था. अपना दोस्त आखिरकार एक नए रिश्ते में शामिल हो कर ज़िंदगी के एक नए दौर को शुरू करने जा रहा है.
हलके फुल्के अंदाज़ में बातचीत और खाना पीना होता रहा. निम्मी उस दिन सहज रही और इसका सारा का सारा श्रेय नताशा को जाता था. उसने कुछ ही मिनटों में समझ लिया था निम्मी का मिजाज़ और उसी तरह की बातचीत में उसे लगाये रखा था. मीडिया से जुडी नताशा स्वतंत्र पत्रकार थी और एक जाने-माने मीडिया इंस्टिट्यूट में एसोसिएट प्रोफेसर भी.
एक बेहद खूबसूरत शाम बिता कर जब हम घर आये थे तो खुश थे. उस रात मेरे और निम्मी के बीच इन दोनों को लेकर काफी बातचीत हुयी थी. निम्मी का कहना था कि रोहित इस उम्र में शादी करेगा तो उसके लिए ठीक नहीं होगा, बच्चे देर से होंगें, बच्चे होने में परेशानी होगी और उनको पालने में ही ये दोनों बूढ़े हो जायेंगे इसलिए ठीक से पाल नहीं पाएंगे.
मैं चुपचाप सुनता रहा था. लेकिन निम्मी के विचारों से काफी आहत भी हुया था. निम्मी को समझाने की कोशिश की थी कि शादी एक बेहद निजी फैसला होता है इस पर उसे किसी और के बारे में कोई टिप्पणी, चाहे अपने घर में ही सही, नहीं करनी चाहिए. इससे बच्चों तक गलत विचार जाते हैं. निम्मी मुझ से अड़ गयी थी कि मैं इसी तरह की वाहियात बातों से बच्चों का भविष्य बिगाड़ रहा हूँ. हार कर मैं चुप हो कर बैठ गया था.
उस रात मैं सो नहीं पाया था. पता नहीं क्या बात थी. लगता था कि जिस लडकी से इश्क हुआ था और उनीस साल की उम्र में तय कर लिया था कि इसी से शादी करूँगा और शादी के बाद इश्क और बढ़ेगा, गहरा होगा, वो सपना तो जाने रास्ते में कहाँ खो गया.
निम्मी और मैं इतने अलग-अलग घर परिवारों से आये थे कि अक्सर ही टकरा बैठते थे. और इस टकराहट में मैं तो पिसता ही था, निम्मी भी कम नहीं घुटती थी. बच्चे जब छोटे थे तब घबरा जाते थे. लेकिन अब उन दोनों ने इस झमेले से अलग रहना सीख लिया है. वे किशोर है और उनकी अपनी एक अलग दुनिया बन गयी थी. जिस में वे मशगूल रहते हैं. हमें कम से कम वक़्त देते हैं.
मैं रात भर करवटें बदलता लेता रहा था, हलकी नींद और उजड़ी नींद के बीच भटकता हुआ. करीब तीन बजे मेरी नींद पूरी तरह से हवा हो गयी तो मैं और लेटा नहीं रह सका और उठ कर लिविंग रूम में आ गया अपने लैपटॉप के समेत. काम करने की कोशिश की पर मन नहीं लगा. सो हार कर गेम खेलने लगा, उसमें भी मन नहीं लगा. तो लैपटॉप को रख कर सोफे पर अधलेटा हो कर बैठ गया.
नताशा और रोहित का ख्याल आ गया तो मैं सोचने लगा कि इन दोनों की शादीशुदा ज़िन्दगी मेरी शादीशुदा ज़िन्दगी से कितनी अलग होगी. और शायद मेरी ज़िन्दगी से बेहतर हो. ऐसा नहीं कि मैं अपनी ज़िन्दगी से पूरी तरह से निराश हूँ लेकिन कई बार मायूसियाँ इतनी आती हैं कि मन उचाट हो जाता है. लेकिन फिर अपने शौक और घूमने फिरने की लत में मशगूल हो कर खुद को बहला लेता हूँ.
निम्मी का भी क्या कसूर? वो तो जैसी आज है तब भी वैसी ही थी. छोटे शहर से आयी एक लजीली सी साधारण सी लडकी जिसका पूरा परिवार किसी तरह महानगर में अपने पैर जमाने की कोशिश में लगा हुया था. हर आदमी कुछ न कुछ काम करता ताकि घर में पैसा आ सके और खर्चे चल सकें.
ऐसे ही एक घरेलू से फंक्शन में मेरे पड़ोस में रहने वाले इस परिवार की इस लडकी ने मुझे देखा और मैं उसे भा गया. मेरी जैसी कि आदत थी मैं हंस खेल कर कुछ रोमाचक बातें कर के सब
भूल-भाल गया. कुछ दिन बाद मेरे कुछ दोस्तों के ज़रिये मुझे तक उसका सन्देश पहुंचा कि वो मुझे पसंद करती है और मिलना चाहती है. मैं खुश हो गया और अपने दोस्तों एक साथ नियत दिन पर नियत जगह पर मिलने गया.
वहां पहुँची तो थी निम्मी लेकिन उसके होश फाख्ता थे. उसके हाथ काँप रहे थे और चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थी. जो आलू टिक्की चाट मैंने बनवाई उसका एक चमचा खाने में ही उसके पसीने छूट गए और उसने अपना कुरता भी खराब कर लिया.
सारी चाट उसके सफ़ेद कढ़ाई वाले कुरते पर फैल गयी. मैंने कोशिश की कि उसकी मंदद करूँ लेकिन घबराई हुयी निम्मी ने किसी तरह मुझे बताया कि इस तरह मुझ से मिल कर एक बड़ा पाप कर रही है. क्यूंकि उसके घर में इस तरह का माहौल नहीं है. लड़कियां कोई भी फैसला खुद नहीं लेतीं. यहाँ तक कि क्या पहनेंगी यह भी नहीं.
मैंने उसे दिलासा दिया कि मैं उसके घर वालों तक इस बात को नहीं पहुँचने दूंगा. सारे दोस्तों को ताकीद कर दूंगा. उसकी जान में जान आयी.
इसके बाद वह बोली कि अगर मुझ में वाकई हिम्मत है तो मुझे अपने घर में उसके बारे में बताना होगा. मैं राजी हो गया. मुझे पहली बार किसी लडकी ने जताया था कि उसे मुझसे मोहब्बत है. और मुझे उनीस की उम्र में लगा कि बस अपना काम हो गया. यही इश्क है. इश्क शुरू हो गया है ऐसे ही होता है. अब आगे चल कर शादी कर लेंगे. इश्क और गहरा हो जाएगा. इसके आलावा और कुछ देखने समझने की न तो उम्र थी ना ही अक्ल.
सो मैंने घर आ कर ऐलान कर दिया. मेरे मम्मी पापा हैरान, परेशान. बहुतेरा समझाया कि ये उमर नहीं इस तरह के गंभीर फैसले लेने की. लेकिन हमें तो इश्क था. सो डांट भी खाई और अड़े रहे. हार कर उन्होंने कहा कि भाई तुम्हारी ज़िन्दगी है, जो जी आये करो. लेकिन पहले अपने पैरों पर खड़े हो जाओ. सो जनाब मैं जुट गया अपने पैरों पर खड़े होने की कवायद में.
वो ज़माना था जब कंप्यूटर ने भारत में क़दम फैलाने शुरू किये ही थे. मैं और मेरे जैसे कई कंप्यूटर के शौक़ीन और पॉलिटेक्निक के पढ़े हुए जॉब मार्किट में हाथों-हाथ लिए जाते थे. मैंने उसी शाम तय कर लिया कि जितनी जल्दी हो सके कोई नौकरी तलाश करनी है और अपने पैरों पर खड़े हो कर दिखा देना है कि मैं कोई इश्क का मारा हुआ शोहदा टाइप लड़का नहीं हूँ बल्कि एक ज़िम्मेदार मर्द हूँ जो अपनी जिम्मेदारियां समझता है और अपना हक भी लेना बखूबी जानता है.
कॉलेज में मेरा आखिरी साल था. फाइनल एग्जाम को सिर्फ चार महीने बचे थे. इस बीच निम्मी से मेरी मुश्किल से छ या सात बार मुलाकात हुयी थी और वह भी दोस्तों की महफ़िल में. सो अलग से कोई रोमांटिक बात या हरकत की गुंजाईश ही नहीं थी. निम्मी वैसे भी खासी शर्मीली लडकी थी. मुझे खुद के लिए बिलकुल परफेक्ट लगी थी. चूँकि मैं बडबोला बोल्ड किस्म का लड़का था. था क्या अब भी हूँ. जब बोलता हूँ तो बस बोलता ही हूँ. खूब बोलता हूँ. फ़्लर्ट भी खूब करता हूँ. यहाँ तक कि अक्सर महिलाओं को मुझे ले कर गलतफहमी भी हो जाती है.
लेकिन नताशा जैसी बेहद समझदार, इंटेलीजेंट, प्रबुद्ध और आज़ाद व्यक्तित्व वाली महिलाओं को नहीं होती. ऐसी महिलाओं से बातचीत करना कितना समृद्ध बना देता है ये मेरे जैसे मर्द बखूबी जानते हैं. अचानक नताशा का ख्याल आया तो रोहित का भी आ गया. सोचने लगा कि दोनों ही खासे लकी हैं एक दूसरे के साथ हो कर.
यही सब सोच रहा था कि अचानक मेरा ध्यान खिड़की से आने वाली आवाजों पर गया. हालाँकि बहुत देर से खिडकी के कांच पर पानी की बूंदे दस्तक दे रही थीं लेकिन मैं अपने आप में इतना गुम था कि ध्यान नहीं दिया. अब मेरी सोच को एक ब्रेक लगा तो मैंने उठ कर खिड़की का पर्दा सरकाया.
बाहर मूसलाधार बारिश हो रही थी. अप्रैल का महीना था. हवा में अभी थोड़ी खुनकी बची हुयी थी. जून और जुलाई वाली गर्मी ने अभी दस्तक देनी शुरू ही की थी. मैंने पर्दा हटा कर दोनों खिडकिया पूरी की पूरी खोल दीं.
एक झटके के साथ बाहर की गीली-सीली हवा पानी की फुहारों को लिए-दिए मेरे चेहरे और खुली छाती से आ टकराई. मैं रात में सिर्फ एक निक्कर पहन कर सोता हूँ. पूरा साल. सर्दी के तीन महीने बिस्तर से निकल कर अपना ऊनी गाउन पहन लेता हूँ, जो मैं ख़ास इसी काम के लिए शिमला से खरीदता हूँ. हर दुसरे तीसरे साल अपने बढ़ते वज़न के साथ ताल-मेल मिलाते हुए.
मैंने झुरझुरा कर आँखें बंद की और फ़ौरन खोल भी दीं. एकबारगी मेरा पूरा बदन झुरझुरा गया. और दुसरे ही पल जैसे एकाएक मैं अपने खोल से बाहर निकल आया. ऐसे जैसे अंडे से चूजा निकलता है. मेरे पंख भीगे थे. उन पर बीते वक़्त की चिपकन तारी थी.
मेरी सारी ज़िन्दगी किसी एक बोरिंग सी फिल्म की तरह हर वक़्त मेरे अवचेतन में चलती रहती है. मैं अपने बिज़नस के और दूसरे सारे ताम-झाम में लगा रहता हूँ, बातें करता, दुनिया के कारोबार निभाता और ये फिल्म, यानी मेरी ज़िन्दगी की फिल्म मेरे दिमाग के पीछे की तरफ फिट एक स्क्रीन पर लगातार चलती रहती है.
आज पानी की मीठी फुहारों ने एकाएक जैसे इस फिल्म का स्विच ऑफ कर दिया. चलती हुयी फिल्म जैसे एक झटके में रुक जाए तो वक़्त चलना भूल कर चक्करघिन्नी खा जाता है. वैसा ही कुछ मेरे साथ भी हुया. मैं भी सब कुछ भूल गया. कुछ पलों को मैं खुद को भूल गया.
अनजान घनघोर सन्नाटा मेरी रूह तक को ऐसा सुखा कर झिंझोड़ गया कि मैं ठगा से खडा रह गया. मुझे लगा मैं मर गया हूँ. मेरे शरीर में कुछ नहीं बचा. लेकिन मैं खड़ा था. ये मर जाने का एहसास इतना गहरा था और कितना वक़्त इसमें रहते मुझ पर गुज़र गया मैं नहीं जान पाया. मेरे जिस्म की कोई हरकत मुझ तक नहीं पहुँच रही थी. मैं खुद को भी भूल गया था जैसे. दिमाग एकदम शून्य हो गया था.
एक पल पहले जो ख्याल और विचार दिल पर तारी थे वे इस वक़्त गायब थे. मैं खाली था. चाय के कप की तरह. या यूँ कहूँ कि मेरे शराबी दोस्त निहाल सिंह की व्हिस्की की बोतल की तरह. इस बात का एहसास मुझे कितनी देर बाद हुआ ये मैं नहीं जानता. लकिन जब हुआ तो मैंने खुद को संभाला और सबसे पहले खुद से पूछा, 'यार, तेरा नाम क्या है?"
तुरंत जवाब आया, "अनुराग "
याने मैं ठीक-ठाक था. जिंदा था. मेरी रूह मेरे जिस्म में ही थी. मेरे बच्चे अभी यतीम नहीं हुए थे और मेरी निम्मी विधवा होने से बच गयी थी. वैसे इन सब के लिए कई सारे इंतजाम कर रखे हैं. अगर मैं अचानक गुज़र जाऊं तो इनको कोई फ़ायनेंशल दिक्कत नहीं आएगी. ये मैं ने ठीक कर रखा है.
लेकिन इस वक़्त मैं इन सब झमेलों से दूर था. फिल्म और फिल्म का शोर बंद था. घोर सन्नाटा था और मैं जिंदा था.
मैंने खिड़की में अपना मुंह दे डाला. बाहर बड़ी झामकेदार बारिश हो रही थी. ऐसी बारिश जो बहुत कम होती हैं. एक-एक बूँद मानो खुद को तौल कर गिर रही थी. मैं अपनी आँखों से देख पा रहा था. खासी मोटी-मोटी बूँदें जो नीचे किसी के सर पर गिरें तो उसे अच्छा-ख़ासा एहसास करा दें. यहाँ तक कि कमज़ोर कपडे की बनी छतरी में छेद ही कर डालें. ऐसी बूंदों वाली बारिश बहुत कम देखी है मैंने. उस दिन वाले दिन में ही कोई जादू था जो रात तक मेरे साथ बहता मुझे जगा कर यहाँ खिड़की में ले आया था और अब बारिश में मुझे भिगो कर ज़िंदगी और मौत के रहस्य समझा रहा था.
मैं बाहर देखता बारिश में डूबा खडा रहा. कुछ बूँदें खिड़की की सिल पर गिर कर छितरी हुयी मुझ पर बिखर जातीं और मैं सिहर सिहर उठता. खासा शोर भर गया था बूंदों का, बारिश का और मेरी सिहरन का मेरे लिविंग रूम में. लेकिन घर में सब घोड़े बेच कर सो रहे थे.
मैंने कुछ और झुक कर खिड़की से बाहर अपना मुंह निकाल लिया और अपने आस-पास का जायजा लिया. मेरा घर तीसरे माले पर है और मेरी खिड़की के ठीक सामने है कॉलोनी की मेन सड़क और उसके पार है कॉलोनी का मेन बाज़ार. जो सिर्फ दो मंजिला है यानी मेरी नज़र दूर दूर तक का सफ़र कर सकती है. और इस दूर दूर तक के सफ़र में दिन के दौरान होती है धूप और मटमैला आसमान. रात में गंभीर सियाही और कुछ चमचमाती बत्तियां.
लेकिन मैं इस वक़्त बारिश की फुहार में भीगे अप्रैल के महीने और इस महीने की खुनक साफ़ देख पा रहा था. दिल किया यहीं इस खिड़की से छलांग लगा कर उस खुनक को अपनी मुठ्ठी में भर कर अपनी ज़िंदगी के जो पल अधूरे हैं उनमें उढ़ेल दूं. खुद को इसी तरह ही सही भरपूर कर लूं.
बारिश लगातार जारी थी. आसमान से समंदर का गिरना जारी था. मगर अब कुछ धीमी पडी थी तो मैंने नीचे की तरफ देखा. वहां सड़क पर एक नदी बन गयी थी जो अपने साथ ज़माने भर का कूड़ा बहाए लिए जा रही थी. नीच खडी गाडियों के पहिये आधे से ज्यादा इस नदी में डूबे हुए थे. मेरी गाडी एक ऊंचे प्लेटफार्म पर थी. उसके करीब से बहता हुआ नदी का पानी चमक रहा था. मटमैला बहता हुआ पानी काली सड़क पर और उसमें चमकती हुयी बत्तियों की झिलमिलाती रोशनियाँ. मैं धप्प से इस तिलिस्म में डूब गया.
पता नहीं कितनी देर इसी तरह इसमें डूबा मैं खडा रहा. आज मेरा दिन तो जादू भरा था ही रात ने जिस तरह तिलिस्म के दरवाजे एक के बाद एक मुझ पर खोले थे मैं, मैं होने से परे अनुराग बन गया था. वो अनुराग जो निम्मी का पति था. निम्मी के दोनों बच्चों का पिता था. एक अनजाने बच्चे का पिता भी. उन सभी स्त्रियों के प्रेम मुझ पर हावी हो गए थे जिनके साथ मेरे सम्बन्ध रहे थे. निम्मी के मेरी ज़िन्दगी में आने से पहले भी और बाद में भी. मैं अकेला नहीं था. इन सब का साया एक-एक कर मेरे साए की छाँव में आ कर बैठ गया था.
बाहर बारिश धीमी पड़ गयी थी. नदी का वेग बढ़ गया था. बत्तियां धुंधली पड़ने लगी थीं. सूरज ने आने से पहले अपनी आमद की दरख्वास्त मेरी खिड़की के ज़रिये मुझ तक पहुंचा दी थी. मैंने उसे मंजूरी दे दी थी कि आ जाओ दोस्त! तुम्हें तो आना ही है.
मैं टनों भारी मन और जिस्म लिए खिड़की की चौखट में जम गया था. इस कदर कि एक अंगुली तक नहीं हिला पा रहा था. मैं जैसे मैं था जमा हुआ खिड़की में, बारिश में भीगा, सड़क पर की गंदली नदी में डूबता, सूरज के इंतज़ार में पलके बिछाए. नींद किसे कहते हैं उस रात मैं भूल गया था. या शायद नींद में ही जाग रहा था. उन सपनों को देखता हुआ जिन्हें ज़िन्दगी में जी चुका था.
लोग अक्सर आने वाले दिनों के सपने देखते हैं. लेकिन उस रात मैं खुद से बिछड़ कर आगे बहुत दूर वक़्त की दहलीज़ से छूट कर वक़्त के परे पहुँच कर खुद को लौटा लाने के लिए सूरज की पहली असल किरण का इंतज़ार करता हुआ मरने और जीने के बीच कहीं ठिठक गया था. ज्यादा अंश मेरा मौत की तरफ ही था.
कब रोशनी पूरे घर में भर गयी, कब बारिश बंद हो गयी, कब सड़क की मटमैली नदी सूख कर सिमट गयी मुझे पता नहीं चला. मुझे ये भी पता नहीं चला कि कब निम्मी मेरे पास आ कर खडी हुयी और मेरी नज़र का पीछा करते हुए उसने भी नीचे देखा खिड़की से बाहर. उसे कुछ भी नज़र नहीं आया तो मुझे डांटने लगी.
"क्या करते हो अनुराग? सुबह-सुबह खिड़की खोल दी. कमरा कितना नमी से भर गया है. रात भर बारिश हुयी है तुम्हें पता भी है?"
मैं क्या कहता? मुझे कहाँ पता था कि निम्मी के मन पर रात भर में क्या-क्या बरसा. मुझे तो सिर्फ अपनी खबर थी और मैं रात भर बारिश में भीगा था. मन से आत्मा तक. इस भीगने से जो नमी मेरे भीतर उतर आयी थी उसमें मुझे निम्मी बहुत अपनी लग रही थी. मेरे ही जिस्म और जान का एक टुकड़ा.
मैं खुद को समेट कर खिड़की से उतार लाया, मेरा जिस्म मेरी रूह से भर गया. मैंने बढ़ कर निम्मी को गले से लगा लिया. और उसे बेतहाशा चूमने लगा. निम्मी सुबह-सुबह मेरे इस प्रेम प्रदर्शन के लिए ज़ाहिर है तैयार नहीं थी. उसे घर के काम-काज देखने थे. उसके चेहरे पर असमंजस भी था और प्यार भी. उसने कसमसा कर खुद को मेरी गिरफ्त से आज़ाद किया और रसोई में चली गई.
मैं हताश निराश बेडरूम में आ कर बिस्तर पर लेट गया. मेरी रात अब हो ही गयी थी आखिरकार. मुझे याद आया कैसे मैंने घर पर अपने और निम्मी के शादी करने के इरादे के बारे में बताने के बाद अपने पैरों पर खड़े होने की कवायद शुरू कर दी थी. फाइनल इम्तिहान देते ही मुझे इंटर्नशिप मिल गयी एक आई. टी. फर्म में और साथ ही मिलने लगे सात सौ रूपये हर महीने. वो ज़माना भला था. घर में रहता था. सात सौ रुपये बड़ी रकम थी मेरे लिए.
मुझ में आत्मविश्वास और आ गया. मैंने ये पैसा बैंक में डालना शुरू किया. थोडा बहुत खर्च करता. छः महीने में मेरे पास अच्छी खासी रकम जमा हो गयी तो मैंने भागीरथ पैलेस से इलेक्ट्रॉनिक पुर्जे खरीद कर रेडियो बना कर बेचने शुरू कर दिए. इस तरह कुछ और रकम एक साल में मेरे पास जमा हो गयी.
जल्दी ही मैं इस स्थिति में आ गया था कि दो लोगों को नौकरी पर रखे हुए था. मेरा बैंक बैलेंस अच्छा खासा हो गया था. दो साल के अंदर मैंने अपनी एक छोटी सी फैक्ट्री लगा ली थी, करोल बाग़ की एक तंग गली के एक छोटे से मकान में. लेकिन जल्दी ही मुझे पता लगा कि यह फैक्ट्री उस कानून का उल्लंघन कर रही थी जिसके तहत रिहायशी इलाके में व्यवसायिक काम नहीं किया जा सकता, ख़ास कर इस तरह की फैक्ट्री लगा लेने का.
मेरे एक दोस्त ने मुझे बताया कि इलाके का थानेदार मुझ पर नजर रखे हुए था. मैं इन सब झंझटों में नहीं पड़ना चाहता था. मैंने समय रहते अपनी इस फैक्ट्री को किसी को बेचा और अलग हो गया.
अब मेरा यह धंधा तो बंद हो चूका था. लेकिन मेरे पास अच्छी खासी रकम आ गयी थी. जिससे मैंने एक छोटा सा दो कमरे का फ्लैट अपने घर के पास ही तीसरी मंजिल पर खरीदा और उसमें ज़रुरत का सामान इकठ्ठा कर लिया. यानी मैं अब पूरी तरह से अपने पैरों पर खड़ा हो गया था. उस वक़्त मेरी उम्र थी तेईस साल.
एक रविवार को मैंने सुबह नाश्ते की मेज़ पर ये घोषण कर दी कि मैं अब निम्मी से शादी करने के लिए तैयार था. मेरे मम्मी पापा का भी अब तक यह वहम दूर हो चुका था कि मेरा यह इश्क वक्ती बुखार था. मेरी लगन और मेरी आर्थिक स्थिति की मजबूती के मद्दे-नज़र उन्होंने भी मेरे फैसले का मान रखा और अगले महीने की पांच तारिख को मेरी और निम्मी की शादी होना तय हो गया.
होना तो यूँ चाहिए था की ये शादी बिना किसी हंगामे के मज़े मज़े में होती. लेकिन इस शादी में बड़े हंगामे हुए और कई लोगों के मोह भंग हुए लेकिन वो कहानी फिर कभी. इस वक्त तो रात भर का जागा हुआ हूँ. अब आँखें ही नहीं खोली जा रहीं.
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