दिल की ज़मीन पर ठुकी कीलें
(लघु कथा-संग्रह )
14-बेहिसाब
महिमा ने अपनी बहू से इतनी मुहब्बत कर ली कि अपनी बेटी को भी एक तरफ़ कर दिया | उसका विवाह हो चुका था, महिमा सोचती कि बेटी अपने घर गई और अब बेटी के रूप में वाणी को भगवान ने भेज दिया है |
बेटे को पहले ही घर से कोई लेना-देना नहीं था, जो कोई भी बात होती सब वाणी से पूछ लीजिए, उससे पूछकर ही हर बात की जाती | इसका हश्र यह हुआ कि वाणी पूरे घर पर अपनी हुकूमत चलाने लगी | महिमा के पति नवल इस बात से बहुत असहज रहते किंतु जब सास-बहू की जोड़ी की खिलखिलाहट सुनते तब अपनी चिंता से मुक्त होने की चेष्टा करते |
महिमा शुरू से ही स्त्रियों की पक्षधर थी, इसका परिणाम यह हुआ कि वाणी की तूती दिनों-दिन घर भर में बजने लगी |
"तुम्हारी माँ को क्या अपने घर के कुछ रीति-रिवाज़ नहीं सिखाने चाहिएँ ?आज़ादी की कोई सीमा होती है --न जाने इसका क्या होगा मेरे बाद ? और हमारे बाद भी ये दोनों साथ रह जाएँ तो गनीमत
है !" जब नवल बेटी से मिलते उसके सामने अपने मन की झुँझलाहट भरी चिंता ज़रूर व्यक्त करते |बेटी ने माँ से दो-एक बार बात करने की कोशिश की पर महिमा पर न जाने वाणी का कौनसा जादू चढ़ा हुआ था'उसे सदा लगता कि किसी की बेटी को वह जितना स्नेह, प्यार दे सके, अच्छा है, माहौल में खुशी व अपनापन बना रहेगा, अपने बच्चों को तो सब लाड़ लड़ाते हैं, दूसरे घर से आए बच्चों को प्यार दो, तब बात है न ! वो भी बेटियों को ! सबने उसे खूब समझने की कोशिश की पर उसे कुछ समझ न आना था, नहीं आया |
नवल छोटी सी बीमारी में ही चल बसे | अब वाणी की वास्तविक परीक्षा थी | महिमा को पूर्ण विश्वास था कि उसने जितना अपनी पुत्र वधू को स्नेह दिया है, उसका व्यवहार उससे कभी नहीं बदलेगा | किन्तु नवल के जाते ही नवल के पैसों की खोज बीन शुरू हो गई | नवल के पास अधिक पैसा था भी नहीं | हाँ, इतना अवश्य था कि उनके बाद महिमा को किसीके आगे हाथ पसारने की ज़रुरत न पड़े |
वाणी का सुर ऐसा बदला कि महिमा की महिमा खंडित हो गई | अब वह बेचारगी की सी स्थिति में रहने लगी थी | उसके मुख की मुस्कान नवल अपने साथ ले गए थे | बच्चियाँ भी उससे अधिक बात न करतीं |उसकी आँखों में, साँसों में, मन में अकेलापन पसरा रहता |
बेटी सुहासिनी भी उसी शहर में थी | एक-दो बार जब माँ का बेचारगी से भरा चेहरा देखा, वह बहुत असहज हो उठी |एक दिन रविवार को शाम होते ही बिटिया अपने पति के साथ उसके घर पहुँच गई और माँ से बिना कुछ पूछे ही सामान बाँधने लगी |
"ये क्या कर रही हो ?" महिमा ने पूछा | सुहासिनी ने कोई उत्तर नहीं दिया, वह सामान बाँधने में लगी रही |
"कहाँ जा रही हैं मम्मी ?"वाणी ने अचानक अपने कमरे से आकर सवाल परोस दिया |
"घर ----"मयंक ने उत्तर दिया और महिमा का सामान उठाकर गाड़ी में रखने लगे |
"कौनसे घर ? ये ही तो है घर ----बेटी के घर पड़ी रहेंगी क्या ?" वाणी की आँखें चौड़ी हो गईं |
उसके हाथ से बिना पैसे दिए काम करने वाला नौकर निकला जा रहा था |
"सराय है ये, माँ को इस उम्र में घर चाहिए -----"मयंक ने उसे बिना देखे ही उत्तर दिया |
महिमा की आँखें आँसुओं से डबडबाने लगीं | उसके पास कुछ नहीं था कहने के लिए, जिन बच्चों के लिए उसने अपने जीवन का सर्वस्व समर्पित कर डाला था और जिन बच्चों को उसने अपने जीवन के छोटे से कोने में दुबका दिया था, उनमें से उम्र की इस कगार पर आकर कौन उसको जिला रहा था, कौन सही में उसका था ?
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