ठिकाने ज़ायके पोशाक
जब हम घर से कहीं बाहर जाने के लिए निकलते हैं तो एक उलझन मन ही मन हमें बेचैन करती रहती है। हम सोचते हैं कि दुनिया इतनी बड़ी, फैली बिखरी है, और फ़िर हमारा ये घर, हम किस किस बात का ख़्याल रखें!
लेकिन जब हम बाहर दूर कहीं निकल आते हैं तो हमारी ये अकुलाहट धीरे धीरे स्वतः कहीं तिरोहित होती जाती है। अब हमारा ध्यान केंद्र धरती का वही कोण बन जाता है, जहां हम हैं!
कोल्हापुर शहर एक शांत, सुसंस्कृत मध्यम आकार का शहर था। शुरू की दो - तीन रातें एक होटल में काटने के बाद मुझे शहर के बीचों बीच एक अच्छी संभ्रांत कॉलोनी में घर मिल गया।
मैंने अपने ऑफिस में ज्वॉइन भी कर लिया।
जहां मैं रहता था, उसके पास ही एक प्राइवेट मैस भी थी। उसी में सुबह शाम खाने का प्रबंध भी हो गया। जो परिवार मैस चलाता था, उसने अपने घर के बाहरी कक्ष में कुछ मेजें और कुर्सियां लगा कर भोजन कराने की व्यवस्था करवा रखी थी। पति दौड़ दौड़ कर भोजन परोसता था और पत्नी भीतर एक बड़ी रसोई में एक दो नौकरों की मदद से खाना तैयार करती थी।
वहां से शिवाजी विश्वविद्यालय और कुछ एक कॉलेज आसपास ही थे, इस कारण मैस में पढ़ने वाले छात्र अधिक आते थे। वे आसपास के इलाक़े में दो - दो,चार - चार लोग फ्लैट या कमरे लेकर रहते भी थे।
नज़दीक ही एक प्राइवेट हॉस्टल भी था जिसमें कुछ नौकरी पेशा लोग और अधिकांश विद्यार्थी रहा करते थे।
घर से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर ही मेरा ऑफिस था। मैं सुबह नौ बजे घर से नहा धोकर निकलता और मैस में खाना खाकर सीधे पैदल ही कार्यालय भी चला जाता।
कार्यालय शहर के पॉश इलाक़े में एक सुंदर सी बिल्डिंग में ऊपरी तल पर बना हुआ था।
दफ़्तर में अधिकांश लोग स्थानीय मराठी भाषी ही थे किन्तु कुछ मेरी तरह दूर दराज के बाहरी लोग भी थे।
दिन निकलने लगे।
घर से अब पत्राचार से ही संपर्क था। दूरी इतनी थी कि एक - दो दिन की छुट्टी या त्यौहार पर वहां जाने के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था।
स्थानीय लोग सब अपने परिवार के साथ व्यस्त रहते थे। बाहरी लोग आसपास के शहरों के होने से तीज - त्यौहार पर अपने - अपने घरों का रुख करते थे।
ऐसे में मुझे अपना ख़ाली वक़्त बिताने के लिए यही उपयुक्त लगता था कि अपनी कलम फ़िर उठा लूं।
कुछ दिनों में अखबारों और पत्रिकाओं में मेरे लेख, कहानियां आदि फिर से छपने लगे।
कार्यालय से निरीक्षण के लिए मेरे बाहरी दौरे भी शुरू हो गए। ये हमारा दक्षिण महाराष्ट्र अंचल था। इसके अन्तर्गत ही गोवा भी आता था। इसके अलावा कर्नाटक के बेलगांव में हमारा स्टाफ ट्रेनिंग सेंटर था। इन सब जगहों पर मेरा आना- जाना शुरू हो गया।
मैं महाराष्ट्र के दक्षिणी ज़िलों के ढेर सारे छोटे बड़े शहरों में तो गया ही,कई गांव भी देख डाले।
राजस्थान से आने के कारण यहां पानी की बहुतायत वाले हरे भरे गांव और रास्ते मुझे आकर्षित करते थे।
समुद्र तट के किनारे बसे बहुत से कस्बे और गांव भी मैंने देखे।
सागर तट के नजदीक रत्नागिरी जिले के एक छोटे से शहर में एक रात एक साफ़ सुथरे शांत होटल में अपने कमरे में अकेले लेटे लेटे मुझे राजस्थान के एक गांव के वो वैद्य जी याद आए जो कहा करते थे कि जब तक लड़के अविवाहित रहते हैं,तब तक तो चाहे बीस, पच्चीस,तीस साल तक उन्हें अकेले रहना पड़े, तो भी वो किसी तरह अकेले रह लेते हैं, किन्तु एक बार शादी शुदा जिंदगी बिता लेने के बाद अठारह - बीस साल के लड़के के लिए भी अकेले रहना बहुत मुश्किल होता है।
एक बार जम्मू कश्मीर के वैष्णों देवी मंदिर में रात को दो बजे दर्शन के लिए जाते समय मेरी वहां एक पुजारी से अकेले में बहुत देर बात हुई। मैंने उस युवा पंडित से पूछा कि मैंने मन ही मन इस मंदिर में दस बार आने का संकल्प ले लिया है। अभी मैं दिल्ली में रहता हूं, पर हो सकता है कि कभी मुझे मुंबई या सुदूर दक्षिण भारत में कहीं जाकर रहना पड़े तो मेरा बार- बार आना सहज नहीं होगा। ऐसे में अब मेरे लिए क्या उपाय है?
तब उस नौजवान पुजारी ने कहा, ऐसे लगभग दस मंदिर देशभर में हैं, जहां हाज़िरी लगा देने से देवी दर्शन का आपका संकल्प खंडित नहीं होगा। मुंबई और कोल्हापुर के महालक्ष्मी मंदिर भी उनमें सम्मिलित हैं।
मैं मन ही मन संतुष्ट होकर धर्म के प्रति नतमस्तक हो गया था कि इसकी छत्रछाया में हर दुविधा का विकल्प मौजूद है! विकल्पों की मौजूदगी में धर्मपालन कितना सहज हो जाता है !
एक बार एक बेहद हरे - भरे छोटे से गांव में बस से निरीक्षण के लिए पहुंचा और उतर कर एक छोटी सी नदी के किनारे - किनारे चला जा रहा था कि एक बड़े से पेड़ पर पड़े झूले पर एक आदमी को झूलते देखा। चारों तरफ़ सन्नाटा पसरा हुआ था।
मैंने आगे बढ़ कर उससे पूछा- जी,यहां आसपास में बैंक ऑफ महाराष्ट्र की शाखा है, क्या आप मुझे उसका पता बता सकते हैं?
उस व्यक्ति ने तुरंत झूले से उतर कर कहा- आइए आइए, वो सामने जो पास - पास दो छोटी बिल्डिंग दिख रही हैं, उन्हीं में एक बैंक है। मैं ही मैनेजर हूं, दूसरा मेरा घर है...उनके ऐसा बोलते ही मैं उनके साथ हाथ मिला कर उनके साथ साथ चल दिया।
बैंक की महाराष्ट्र राज्य में ढेर सारी शाखाएं थीं। कहा जाता था कि महाराष्ट्र में गांव में पोस्ट ऑफिस से भी पहले बैंक ऑफ महाराष्ट्र की शाखा खुलती थी।
मुझे याद आया - एक बार पुणे में प्रशिक्षण के दौरान एक प्रशिक्षक ने हमें बताया था कि अगर महाराष्ट्र में कोई किसी भी गांव- शहर में कहीं भी उठा कर एक पत्थर ज़ोर से उछाल कर फ़ेंक दे, तो दूसरे दिन अख़बार में ये खबर छपेगी कि महाराष्ट्र बैंक के शीशे फूटे!
उनकी बात में दम था, क्योंकि उस समय बैंक के कुल अंचलों में से आधे से भी अधिक अकेले महाराष्ट्र में ही थे।
असल में देश भर में ग्रामीण बैंकिंग का विस्तार करने के लिए भारतीय रिज़र्व बैंक ने एक नीति बनाई थी कि राष्ट्रीयकृत बैंकों को कम से कम तीन ग्रामीण शाखाएं खोलने पर एक शहरी शाखा खोलने का लाइसेंस दिया जाएगा।
उससे पहले सभी बैंक केवल शहरों में ही ब्रांच खोलने में रुचि लेते थे। क्योंकि एक तो शहरी शाखाएं लाभ जल्दी कमाती थीं, दूसरे स्टाफ भी गांव की तुलना में शहर में रहना ज़्यादा पसंद करता था।
इस नीति के चलते सारे में ग्रामीण क्षेत्रों की बैंक शाखाओं में वृद्धि हुई।
मैं जब ऐसी शाखाओं के निरीक्षण के लिए जाता तो नज़दीक के किसी शहर या कस्बे में एक सप्ताह के लिए किसी होटल में ठहर जाता था, और वहीं से रोज़ बारी - बारी से आसपास की सभी शाखाओं में दौरा करके लौट आता था। यदि किसी छोटे से कस्बे में भी किसी छोटे होटल, सराय, धर्मशाला आदि की उपलब्धता होती तो मैं उसी में रुक कर अपना काम करता।
मुझे इस तरह के दौरों में तरह - तरह के अनुभव होते। कई तरह का पहनावा,कई तरह का भोजन, कई तरह के लोग, और कई तरह की भाषाएं!
दौरे के बीच में ही कभी रविवार या छुट्टी का कोई दिन आ जाता तो मुझे आसपास के क्षेत्र को देखने का अवसर मिलता। कुछ तो मेरा घुमक्कड़ी का स्वभाव, और कुछ परिवार से दूर अकेले होने पर समय बिताने, नए नए अनुभव लेने के लिए मैं खूब घूमता।
एक बार मैं एक होटल में ठहरा हुआ था जहां दूर दूर तक वीरानी छाई हुई थी। होटल में भी कोई इक्का - दुक्का आदमी ही ठहरा हुआ था। ऊपरी मंजिल पर सबसे अलग - थलग मेरा कमरा था।
रविवार का दिन था। तभी एक लड़का कमरे में आया और बोला - आज छुट्टी है, यहां कोई नहीं है। पानी की टंकी भी सफ़ाई के लिए बंद है। आपको जब नहाना हो तो बता देना मैं पानी लेकर आ जाऊंगा।
मैंने सुबह चाय पीने के बाद उसे पानी लाने के लिए कहा। वो कुछ ही देर में एक बड़ी सी बाल्टी में पानी लेकर आ गया। पानी रख कर बोला- साहब नहला दूं क्या आपको?
मैं चौंका। मैंने कहा- मैं नहा लूंगा अपने आप। पानी बाथरूम में रख दो।
लड़का बोला- सर, कुछ पैसा नहीं लूंगा, गर्मी है, आराम से नहला दूंगा आपको।
मैं लड़के को देखने लगा। मुश्किल से सत्रह- अठारह साल का होगा।
मैंने कह दिया, अच्छा चल नहला दे।
वह खुश हो गया। अपनी कमीज़ और पैंट उतार कर दीवार की कील पर टांग दी, और साबुन, तेल की शीशी को नीचे रख झटपट एक पट्टा बिछाते हुए उत्साह से बोला- आओ सर!
मैं कमरे में ही बिस्तर पर अपना कुर्ता और पायजामा रख कर चड्डी पहने हुए भीतर आ गया।
उसने सचमुच अच्छी तरह मल - मल कर, पीठ पर साबुन लगा कर मुझे नहलाया।
बाद में बोला, लाओ साहब चड्डी दे दो, धो दूं!
इससे पहले कि मैं दीवार पर टंगी खूंटी से तौलिया उतार कर लपेटूं,उसने हाथ बढ़ाकर मेरी गीली चड्डी का नाड़ा खुद ही खोला और उतार दी। कहने लगा, यहां कौन है साहब,जो इतना शरमा रहे हो।
मैंने कहा- तू तो है!
उसने झटपट साबुन लगा कर मेरी चड्डी धोकर बालकनी में सूखने के लिए डाल दी। तब तक मैं कपड़े पहन कर बाल इत्यादि बनाने लगा था।
वो कपड़े पहनने लगा,तब मैंने उससे ही पूछा- क्या यहां पर आसपास कोई घूमने - देखने की जगह है?
वो बोला- आप खाना खालो, फ़िर ले चलूंगा, थोड़ी दूर पर एक नदी है, उसके किनारे एक अच्छा मंदिर है। लोग देखने आते हैं।
वह खाने का समय पूछ कर चला गया। मैं भी लेटकर कुछ पढ़ने में तल्लीन हो गया।
उसी ने मुझे दोपहर को साथ में ले जाकर नदी और मंदिर का मनोरम दृश्य दिखाया।
कोल्हापुर में जिस मैस में मैं खाना खाया करता था, उसका मालिक भी मुझे जयपुर से आया हुआ जानकर विशेष ख्याल रखने की कोशिश करता था।
कई बार मैं देखता कि जहां विद्यार्थियों को वह सब्ज़ी, दाल आदि परोसने में कंजूसी और कभी - कभी चालाकी से भी काम लेता था, वहीं मुझे मनुहार कर- कर के खाना खिलाता।
मैं उससे कहता था कि ये पढ़ने वाले बच्चे होते हैं, घर से दूर रहते हैं, इन्हें भरपेट भोजन कराया करो, तो वो कहता कि साहब, ये लोग पैसे देने में बहुत लफड़ा करते हैं।
उन्हीं दिनों एक दिन केंद्र सरकार के वित्त मंत्रालय से मेरी पुस्तक "ग्रामीण अर्थशास्त्र" को साल की सर्वश्रेष्ठ मौलिक हिंदी पुस्तक का पुरस्कार घोषित हुआ। वित्त मंत्रालय की वह विज्ञप्ति सभी स्थानीय अख़बारों "सकाल" "पुढारी" आदि में भी छपी।
मैं शाम को खाना खाने के लिए मैस पर गया तो मैंने देखा कि हमारे मैस मालिक ने अख़बार की कटिंग मैस के दरवाज़े पर चिपकाई हुई है। उसमें मेरा फोटो भी छपा था।
मुझे बहुत अच्छा लगा। खाना खाने वाले सभी छात्र और अन्य लोग मुझे देखते ही उठकर मुझसे हाथ मिलाकर मुझे बधाई देने के लिए आए। मैं अभिभूत हो गया।
मैंने मैस मालिक से कहा कि आज मेरी तरफ से सभी को कुछ मिठाई खिलाओ।
उसने तत्काल सायकिल लेकर एक लड़के को बाज़ार भेजा और गरम जलेबी मंगाकर सभी को परोसी।
उसके बाद से वहां आने वाले सभी लड़के मेरा और भी सम्मान करने लगे। वो मुझे मैस के बाहर भी कभी कहीं मिलते तो नमस्ते कर के कुछ रुक कर मेरे हालचाल पूछते। कुछ अपने बारे में बताते।
वहीं खाना खाने आने वाला एक छात्र विवेकानंद मुझसे बहुत प्रभावित हुआ। वह मेरे साथ मेरे घर भी आया, और बाद में रोज़ मेरे साथ ही खाना खाने आने लगा। वह पास के हॉस्टल में रहता था और किसी कॉलेज का सेकंड ईयर का छात्र था। वह आने जाने में रुक कर मेरा इंतजार भी करता, और हम साथ ही रहते।
वह मेरा अच्छा दोस्त बन गया। अब हम रोज़ ही केवल खाना ही साथ में नहीं खाते थे, बल्कि वह बाद में मेरे साथ मेरे घर भी आता।कई बार वह अब रात को भी मेरे साथ ही मेरे पास रुकने लगा। वह किसी अच्छे संभ्रांत शिक्षित घर का प्यारा सा लड़का था।
कभी - कभी हम लोग साथ में फ़िल्म देखने भी जाते। बारह बजे रात को लौट कर हम घर आते और वहीं रुकते। उसके एक दो मित्र और भी मुझसे परिचित हो जाने पर मेरे पास आने लगे।
कोल्हापुर शांत इलाका था जहां देर रात तक लोग परिवार के साथ भी आराम से घूमते। महिलाएं भी वहां देर तक घूमने में कोई खतरा या असुविधा महसूस नहीं करती थीं।
कोल्हापुर शहर के बीचों बीच एक बड़ी झील थी जिसे रंकाला तालाब कहा जाता था। इसकी सुन्दर पाल पर्यटकों के भ्रमण के लिए बहुत सुंदर और आराम देह बनाई गई थी।
हम तीन चार मित्र अक्सर शाम को वहां घूमने जाया करते थे।
बैंक के कुछ कार्यक्रमों से भी मुझे वहां काफ़ी लोकप्रियता मिली। मेरी किताब पर मिले सम्मान की खबर अख़बार में छपने पर वहां के एक पूर्व सांसद रत्नाप्पा कुम्भार ने भी मुझे बधाई पत्र लिखा जो उनके द्वारा लिखे हुए केवल इस पते से मेरे पास डाक से पहुंचा- प्रबोध कुमार गोविल, वित्त मंत्रालय, भारत सरकार से पुरस्कृत साहित्यकार, कोल्हापुर।
मेरे आश्चर्य और खुशी का ठिकाना न रहा।
कुछ दिन बाद मैं लंबी छुट्टियां लेकर घर आया। ये वो समय था जब मेरी पत्नी को संतान होने वाली थी।
घर पर आकर मुझे भगवान का ये आशीर्वाद मिला कि घर में पुत्र जन्म हुआ। घर का माहौल कई दिनों बाद मैंने इस तरह झिलमिलाता देखा।
नई जगह से लौटने पर मेरे पास अपने मित्रों और परिचितों को बताने को भी खूब था और उनसे पूछने को भी। दिन हंसी खुशी बीतने लगे।
कोल्हापुर को लोग कोल्हापुरी चप्पलों के कारण जानते थे या फ़िर उन दिनों उभर कर छा रही अभिनेत्री पद्मिनी कोल्हापुरे के कारण।
मैं ढेर सारी चप्पलें खरीद कर अपने साथ ले गया था। वो चप्पलें जयपुर की तुलना में लोगों को इतनी सस्ती लगीं कि कुछ मित्र तो चप्पलों का बिज़नेस करने के बारे में गंभीरता से सोचने भी लगे।
इन्हीं दिनों मेरी धर्मयुग और एक - दो पत्रिकाओं में कुछ कहानियां भी छपी।
इससे मुझे उन लोगों और शुभचिंतकों को जवाब देना आसान हो गया जो मुझसे पूछते रहते थे कि मैं घर से दूर रह कर अपना ख़ाली समय कैसे बिताता हूं।
मैंने मित्रों को बताया कि लता मंगेशकर भी कोल्हापुर की ही हैं और वहां उनका एक स्टूडियो भी है।
मेरे गोवा के ट्रिप के बारे में भी मित्रों ने खोद खोद कर खूब पूछा। गोवा में हमारी छः सात शाखाएं होने के कारण मेरा जाना दो बार हो चुका था।
कुछ दिन घर पर रह कर मैं वापस कोल्हापुर लौट आया।
विवेक मुझे लेने स्टेशन पर आया। जब ऑटो से घर आकर मैं अपने घर का ताला खोल रहा था तो दरवाज़े को धक्का देने में बहुत ज़ोर आया। ऐसा लगा जैसे या तो कोई जानवर बिल्ली आदि भीतर दरवाज़े के पास गिर कर मर गया है, या फिर दरवाज़े में भीतर से कुछ फंस रहा है।
विवेकानंद ने थोड़ा ज़ोर लगा कर दरवाज़े को धकेला तो किवाड़ खुला। सामने देख कर मैं दंग रह गया।
भीतर इतने पत्र, अख़बार, पत्रिकाएं, लिफ़ाफे आदि डाक से आए पड़े थे कि उन्हीं की वजह से दरवाज़ा जाम हो रहा था।
जितनी देर में मैंने चाय बनाई, इतनी देर में मेरे मित्र विवेकानंद ने पत्रों को गिन डाला। कुल दो सौ अड़तालिस पत्र- पत्रिकाएं और चिट्ठियां थीं डाक में।
रात को सोते समय उसने मुझे पीछे से यहां के सब हाल सुनाए।
मैंने उसे पुत्र जन्म की बात भी बताई और कहा कि शनिवार को अपनी कुछ मित्रों की पार्टी भी करेंगे।
बैंक के सारे साथी भी पुत्र जन्म की खबर पर मिठाई मांगने लगे। मैंने उन्हें बैंक में ही मिठाई खिलाई।
शनिवार को हम चार - पांच मित्र बाहर एक रेस्तरां में खाना खाने गए। मैंने देखा कि वे आपस में कुछ खुसुर- फुसुर कर रहे हैं,शायद मुझसे कुछ कहना चाहते थे पर कहने में संकोच भी कर रहे थे।
मेरे ज़ोर देकर पूछने पर बोले- अगर आप बुरा न मानें तो कुछ पैसे हम सब मिला देंगे,पर अब हमारी कॉलेज की लंबी छुट्टियां हो रही हैं, फ़िर हम अपने घर चले जाएंगे इसलिए आज हम थोड़ी- थोड़ी पीना चाहते हैं।
बस, इतनी सी बात,और लड़कियों जैसे शरमा रहे हो? पैसे तुम क्यों दोगे, पार्टी मेरी तरफ से है। मैंने मुस्कराते हुए कहा।
हम जिस रेस्तरां में खाने के लिए गए थे वहां का कोल्हापुरी चिकन बहुत अच्छा होता था, उसमें थोड़ा समय भी ज़्यादा लगता था।
खाने से पहले हमने थोड़ी सी शराब पी।
न जाने विवेकानंद को क्या सूझी, वो बिना पानी मिलाए गटक गया।
खाने के बाद सब अपने - अपने रूम पर चले गए। मैं और विवेकानंद मेरे घर आए। रात के साढ़े ग्यारह बज रहे थे। ऑटो रिक्शा से घर आते ही मैंने देखा कि विवेक की आंखें लाल हो रही हैं और उससे चला भी नहीं जा रहा है।
ऑटो वाला भी देखने लगा कि क्या बात है।
उतरकर मैंने जल्दी से घर का ताला खोला। विवेकानंद बिना कुछ बोले बिस्तर पर लेट गया। देखते- देखते उसने आंखें बंद की और गहरी नींद में चला गया।
यहां तक कि उसके पैरों से जूते भी मैंने उतार कर रखे। उसे एक दो आवाज़ें भी दी,पर वो उनींदा सा ही रहा। कमरे में एक ही बिस्तर था जिस पर हमेशा हम दोनों साथ में ही सोते थे।
किन्तु आज उसने सीधे लेट कर दोनों हाथ और पैर फैला रखे थे।
मैंने ही उसके कपड़े भी उतारे और उसे पायजामा पहनाया। और एक ओर उसे खिसका कर लाइट बुझा कर उसके साथ में सो गया।
मुझे काफी देर तक नींद नहीं आई।
मैं सोचता रहा - मेरे पास बैंक के या अन्य नौकरी पेशा मित्रों की तुलना में ये विद्यार्थी ही क्यों मित्र के रूप में ज़्यादा आते हैं?
फ़िर जवाब भी मैंने जैसे अपने आप को खुद ही दिया।
नौकरी वाले जब मिलने आते हैं तो उनके सवाल या जिज्ञासाएं इस तरह की होती हैं- आपके यहां डी ए कितना है, आपका फ्लैट कितने स्क्वायर फीट का है, इस एरिया में लैंड का रेट क्या है, आपको हाउस रेंट कितना मिलता है,आपका पी एफ में कितना जाता है...आदि, और ऐसे सवालों से मुझे उबकाई आती है!
ये छात्र पूछते हैं कि हम क्या पढ़ें? नौकरी के लिए क्या करें? अपनी गर्ल फ्रेंड से कैसे बात करें? फादर इंटर कास्ट के लिए कैसे मानेंगे?
...ये अपनी निजी समस्याएं भी मुझसे बांट लेते हैं। गोपनीय भी।
इनमें मुझे मेरी कहानियों के पात्र मिलते हैं! रॉ मैटेरियल!
सोचता हुआ मैं न जाने कब सो गया।