['यह रूहों की सैरगाह है...!']
दो वर्षों के कानपुर प्रवास के वे दिन मौज-मस्ती से भरे दिन थे। दिन-भर दफ्तर और शाम की मटरगश्तियां, यारबाशियाँ। कुछ दिनों बाद मैंने भी एक साइकिल का प्रबंध कर लिया था। ध्रुवेंद्र के साथ मैं शहर-भर के चक्कर लगा आता। आर्य नगर हमारा मुख्य अड्डा बन गया था, जहां शाही के कई पुराने मित्र भी थे। उनसे मेरे भी मैत्री-सम्बन्ध बन गए थे। कभी-कभी गंगा-किनारे भैरों (भैरव)) घाट तक मैं अकेला चला जाता, जो तिलक नगर के आगे पड़ता था। जाने क्यों, उन दिनों श्मशान में जलती चिताएं मुझे आकर्षित करती थीं और गंगा के तट पर घूमना अच्छा लगता था। कविताओं के लिए वह बहुत उर्वर भूमि थी, ऐसा मुझे प्रतीत होता था। भैरों घाट पर जो मंदिर था, वहाँ नियमतः मत्था टेकता मैं लौट आता था। ध्रुव भाई की कथा-कहानी और साहित्य में कोई दिलचस्पी नहीं थी। वह इसे समय का अपव्यय समझते थे और स्वयं अपने शरीर-सौष्ठव तथा खान-पान पर अधिक ध्यान देते थे। हमारी रुचियाँ भिन्न थीं, किन्तु बहुत थोड़े समय में हम दोनों मित्रता के प्रगाढ़ सूत्र में बंध गए थे।
ध्रुवेंद्र स्वदेशी कॉलोनी में शिफ्ट हों, उसके पहले की बात है। एक शाम मैं यूँ ही गंगा-किनारे टहल रहा था। अचानक मेरे कान में एक अभद्र पुकार पड़ी। पहले तो मैंने समझा कि कोई मुझे नहीं, किसी और को आवाज़ लगा रहा है, लेकिन पलटकर देखा तो लाल लम्बे चोंगे में एक औघड़ साधु मुझे ही बुला रहा था--'अबे, कहाँ जा रहा है, इधर आ।' उसकी दोनों आँखें टुह लाल थीं, काला वर्ण था। पैंतालीस-पचास का वह औघड़ आँखें फाड़कर मुझे देख रहा था। मैं सम्भ्रम में पड़ा, खिन्न-मन, कुछ समझ पाता, इसके पहले ही लम्बे डग भरता वह तो ठीक मेरे सामने आ खड़ा हुआ और बोला--'अरे, क्या खोजता है यहां ? यह तफ़रीह की जगह नहीं है। भाग जा यहां से।'
मैंने थोड़ी खिन्नता से पूछा--'क्यों ? मेरे यहां टहलने से आपको क्या दिक्कत है...?'
वह भी थोड़ी आजिजी के स्वर में बोला--'अरे भाई, तू समझता क्यों नहीं...! यहां कितनी आफतें-लानतें तुझे ही ढूँढ़ रही हैं और तू है कि यहीं आ जाता है रोज़...!'
जाने कैसे, किस साहस से मेरे मुंह से सहसा निकल गया--'मैं भी तो उन्हें ही ढूँढ़ रहा हूँ।'
कुछ क्षण तो वह औघड़ मुझे विस्मय से घूरता रहा, फिर बोला--'अच्छा, तो इतनी हिम्मत भी रखता है तू..?' दो क्षण कुछ बुदबुदाने के बाद उसने कहा--'तो फिर ऐसे नहीं, वहाँ (दूर, एक दिशा में अपनी उंगली से संकेत करते हुए) मेरी धूनी है, वहीं चल, मैं तुझे बताता हूँ कि इन आफतों को कैसे संभालेगा तू।'
मैं कुछ कहता, इसके पहले ही औघड़ बाबा तो अपनी ही मस्ती में चल पड़े। मैं न जाने किस सम्मोहन से बंधा, थोड़ा भीत और थोड़े संशय के साथ उनके पीछे चल पड़ा। उनकी मड़ैया दूर नहीं थी। बस, एक छोटा-सा छाजन, जिसके बाहर बुझा हुआ-सा अलाव था और उससे उठ रही थी मंद-मंद धूम। धूनी के पास ही उन्होंने मुझसे बैठने को कहा और अंदर चले गए। मैं उत्सुकता से भरा बैठा रहा। थोड़ी देर बाद वह बाहर आये और बोले--'बोल, क्या चाहता है तू?'
मैंने कहा--'मैं तो कुछ नहीं चाहता। आपने ही तो कहा कि कई आफतें मुझे ढूँढ़ रही हैं। मैं सिर्फ यही जानना चाहता हूँ कि वे कौन-सी आफतें हैं, जो मेरी तलाश में हैं।'
वह मेरे पास थोड़ा खिसक आये और बड़ी राज़दारी से बोले--' तू जानता नहीं, यह रूहों की सैरगाह है। यहां तेरा रोज़-रोज़ आना ठीक नहीं। इन आत्माओं में बड़ी बेचैनी रहती है, उन्हें बहुत कुछ कहना-बकना होता है और वे तेरे जैसों की ही तलाश में रहती हैं। मेरा तो ख़याल है कि तू यहां आना छोड़ दे। इसी में तेरा भला है। हाँ, अगर तुझे कोई परेशानी है, तेरे मन में कोई सवाल है, तू किसी से कुछ पूछना, बातें करना चाहता है, तो बता।'
उनकी बात सुनकर मुझे थोड़ी हैरानी हुई और दिमाग में सो रहे पुराने कीड़े कुलबुलाने लगे। भला उन्हें कैसे मालूम हुआ कि मैं किसी से कुछ कहना, पूछना या बातें करना चाहता हूँ! मेरे मुंह से अचिंतित रूप से निकला--'मैं अपनी माँ से बात करना चाहता हूँ।'
उनकी आँखें मेरे चहरे के भाव पढ़ रही थीं। उन्होंने दृढ़ता से कहा--'ठीक है, हो जायेगी तेरी बात। कल तू मेरे पास रात नौ बजे आ। आज इस काम के लिए पाक-साफ़ नहीं हूँ मैं।'
उन्हें प्रणाम कर मैं चलने को हुआ तो उन्होंने धूनी के पास से चुटकी भर राख उठाई और मेरे सिर पर तिलक लगाकर कहा--'तो कल तेरा आना पक्का रहा, मैं तेरा इंतज़ार करूंगा...!'
जब में उनके पास से लौट रहा था, रात गहराने लगी थी और भावनाओं का ज्वार मेरे दिमाग में ठाठें मार रहा था।...
(क्रमशः)