'आवारा नहीं बेसहारा'
"उमाशंकर जी! आप सैर करने जाते समय हाथ में छड़ी लेकर नहीं जाते आपका शरीर भारी है, उम्र भी अस्सी के पार हो चली है। शरीर का संतुलन बनाए रखने के लिए छड़ी का सहारा लेकर चलना जरूरी है। कुत्तों व पशुओं से बचाव के लिए भी छड़ी लेकर चलना अच्छा रहता है, पर आप तो छड़ी के स्थान पर कपड़े का बड़ा थैला लेकर सैर करने के लिए जाते हैं । ऐसा क्यों ? सुबह-सुबह आप क्या कुछ खरीद कर लाते हैं।"
"नहीं , नारायण बेटे! तुम तो मेरे पड़ोस में ही रहते हो? तुमसे क्या छुपा है? मेरा शरीर भारी अवश्य है, पर स्वस्थ एवं फुर्तीला है। मुझे पशु और कुत्तों का भय तनिक भी नहीं लगता , पर लोगों की एक बात जरूर खटकती है।"
"वह क्या ? उमाशंकर जी !"
"कुछ लोग अवशिष्ट खाद्य पदार्थ, सब्जी व फलों आदि के छिलके पॉलीथिन की थैली में डालकर सड़कों पर फेंक देते हैं, जिन्हें बेसहारा भूखे पशु थैली सहित खा जाते हैं और असमय ही मृत्यु के शिकार हो जाते हैं। मैं ऐसे कई परिवारों को समझा भी चुका हूँ,पर वे अपनी आदत से लाचार हैं,ज्यादा कहने पर वे लड़ने को उतारू हो जाते हैं।"
" कौन हैं वे उमा शंकर जी? जरा हम भी कौशिश करके देखें।"
"कोई फ़ायदा नहीं,नारायण बेटे,उन तिलों में तेल नहीं।
मैंने तो अपना तरीका बदल लिया है ,उन्हें समझाना छोड़ कर
उनके द्वारा फैंकी हुई पॉलिथीन की थैलियों से खाद्य पदार्थों को निकाल कर अपने साथ ले जाए गए कपड़े के थैले में इखट्टा कर लेता हूँ और फिर उन्हें पशुओं को डाल देता हूँ तथा पॉलिथीन की थैलियों को डस्टबिन में।"
यह तरीका तो अच्छा है।
"हाँ बेटे, इससे मुझे बहुत सुकून मिलता है ।लोग जिन्हें आवारा पशु कहते हैं वे वास्तव में आवारा पशु नहीं बेसहारा पशु हैं, जिन्हें उनके मालिकों ने अनुपयोगी समझ कर सड़कों पर भगवान के भरोसे छोड़ दिया है।
ज्ञानप्रकाश 'पीयूष'
सिरसा-
2.
लघुकथा
'घर की रोशनी'
"ए ,जी! राखी के ससुराल जाने पर घर सूना-सूना सा लगता है। काटने को दौड़ता है ,मेरा तो मन बिल्कुल भी नहीं लगता।" "क्यों, मैं भी तो घर में ही रहता हूँ, तुम्हारा कितना ख्याल रखता हूँ, पर तुम्हारी दृष्टि में तो मेरी कोई कीमत ही नहीं है। "
परेश बाबू ने पत्नी को तनिक छेड़ते हुए कहा।
"नहीं जी , ऐसी कोई बात नहीं है , आप अपनी जगह पर हैं, राखी का स्थान तो आप नहीं ले सकते। उससे पूरा घर रोशन रहता था। उसकी प्यारी- प्यारी बातें मेरे कानों में रस घोलती
थी।"
"सो तो ठीक है, पर लड़कियों के हाथ तो एक दिन पीले
करने पड़ते हैं। तुम भी तो एक दिन अपने माता-पिता का घर सूना करके मेरा घरआबाद करने चली आई थी । तुम्हारे आने से मेरा जीवन कितना रसमय, आनंदमय हो गया था । यह तो
संसार की परंपरा है ,लड़कियों को दो घर आबाद करने होते
हैं ।"
"जी आपकी बात तो बिल्कुल ठीक है , मैं इससे पूर्णतया सहमत हूँ , पर मेरे मन में एक बात आई है, क्यों न हम
देवर जी की दो परियों जैसी प्यारी-प्यारी बेटियों में से एक
छोटी वाली बेटी को अपने घर की रोशनी बना लेते हैं ?"
"नेकी और पूछ-पूछ । आपका प्रस्ताव बहुत ही सुंदर है ,
पर क्या वे इससे सहमत हो जाएंगे ।"
" वह सब मुझ पर छोड़ दीजिए । "
छोटी परी अपने घर की रौनक बनेगी, उसकी उछल-कूद और किलकारियों से सूना घर पुनः गूँजने लगेगा ,इसकी कल्पना मात्र से ही पति पत्नी का मानसिक अवसाद दूर हो गया।
उनके मन के सूने कोने में संगीत की स्वर लहरियाँ
बजने लगीं।
ज्ञानप्रकाश 'पीयूष' आर.ई.एस.
पूर्व प्रिंसिपल,
1/258 मस्जिदवाली गली
तेलियान मोहल्ला,
सदर बाजार के समीप,सिरसा (हरि.)
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