Kamvali banam Gharvali in Hindi Comedy stories by Shobhana Shyam books and stories PDF | कामवाली बनाम घरवाली - (व्यंग्य)

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कामवाली बनाम घरवाली - (व्यंग्य)

एक होती है घरवाली ,एक होती है बाहर वाली लेकिन इनके बीच एक होती है काम वाली | ऐसा कहने का मतलब यह कदापि नहीं है कि घरवाली काम नहीं करती या बाहर वाली काम की नहीं होती |एक आर्किटेक्ट केवल मकान बनाता है ,उसे घर तो घरवाली ही बनाती है लेकिन इस घर को घर बनाये रखने के लिए कामवाली बाई यानि घरेलु सहायिका की दरकार होती है | आजकल अधिक से अधिक महिलाओं के जॉबग्रस्त होने के कारन जहाँ कामवाली बाई की की डिमांड बी टेक और एम् बी ए से अधिक तेजी से बढ़ रही है वही पढ़ाई लिखाई की महामारी तेजी से बढ़ने के कारण इनकी संख्या लोगो के ईमान की तरह सिकुड़ रही है | मांग और आपूर्ति के इस समीकरण के बेमेल होते जाने का यह असर है कि घरवाली परेशान है और बाहर वाली सशंकित कि जाने कब उसको मिलने वाला समय घरवाली की मदद में खर्च हो जाये क्योंकि इस समय में कामवाली मिलना और वो भी अच्छी मिलना किसी लॉटरी लगने से कम नहीं है (अच्छी शब्द से आप ज्यादा अपेक्षा न लगाएं , महीने में बस 7-8 छुट्टियां करने वाली और बर्तन घिसते समय दोनों हाथों का प्रयोग करने वाली बाई इसी श्रेणी में आती है |
काम वाली के काम छोड़कर जाने का दर्द वही स्त्री समझ सकती है जिसके हाथ बर्तन घिस घिस कर तुरई के झाँवे जैसे और कमर झाड़ू कटका करते घोड़े की नाल सी दुहरी हो गयी हो | वह ज़ार ज़ार गा(रोना जैसा समझिये) उठती है | "बेदर्दी बाई तुझको मेरा घर याद करता है " तो कभी कह उठती है "तेरा करूँ दिन गिन गिन के इंतज़ार ,बर्तनों का लगा पहाड़...| l" लेकिन जो चला गया उसका शोक मनाने से अच्छा है कि भगवद्गीता में भगवान् कृष्ण द्वारा कहे गए "तस्मात् उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृत निश्चय " की तर्ज़ पर दूसरी बाई की तलाश की जाए|
इसके लिए कोठीवाली माफ़ करना हर कामवाली अपनी मालकिन को कोठी वाली ही कहती है बेशक वह तीसरी मंजिल पर वन बी एच के यानी एक शयनकक्ष वाले नन्हे से घर में रहती हो |हाँ तो कोठी वाली को अलस्सवेरे रणक्षेत्र यानी बालकॉनी या वेढ़े में खड़े होकर सड़क से गुज़रती कामवालियों को आवाज़ लगानी होती है | अब यदि किस्मत का सितारा बिजली के बिल सा बुलंद हो तो एकाध रुक कर आपसे रूबरू होती है वर्ना एक उड़ती सी नज़र डालकर निरपेक्ष भाव से आगे बढ़ जाती है | वैसे जो रूककर बात कर रही है, उसकी कृपा कितनी देर तक बनी रहेगी ,इसकी कोई गारंटी नहीं है | कुछ तो "कित्ते बजे लेगी ", "कित्ते मानुस है घर में? "..." कित्ते (रुपए) देगी ?" जैसे सवाल पूछ कर उम्मीद की रस्सी का एक सिर पकड़ा तो देती है लेकिन तुरंत ही "टेम नई ए "- कहकर उसे ऐसे झटके से छोड़ देती है की 'कोठीवाली' गिरते गिरते बचती है |
कई हफ़्तों के इस खोज अभियान के बाद यदि परमपिता की असीम कृपा से कामवाली बाई मंगलग्रह पर पानी की तरह मिल ही जाती है तो धड़कते दिल से उसका स्वागत किया जाता है| भगवान् को प्रसाद चढ़ा कामवाली को चाय नाश्ता अर्पण करके ही गृहलक्ष्मी उस दिन अन्नजल ग्रहण करती है |
कुछ ज्ञानी स्त्रियां इस खोज के जंजाल में पड़कर अपनी सुबह की सुहानी नींद का तिया-पांचा नहीं करती बल्कि वो एक कुशल राजनेता की भांति विपक्षी दल की सदस्य यानी पड़ोसन की कामवाली बाई को ही पटा लेती हैं |हालांकि मेहनत तो इसमें भी कम नहीं है उलटा पड़ोसन से सम्बन्ध बिगड़ने का जोखिम भी है लेकिन अपना अपना रुझान है किसी को लंबा और आसान रास्ता भाता है तो किसी दुर्गम मगर छोटा | कुछ महिलायें इसी दूसरी श्रेणी में आती है | ये समय पड़ने पर कुआं खोदने की बजाय पहले से ही कुआँ खोदकर रखती हैं , ये एक सधे हुए शिकारी की तरह अपने शिकार यानि कामवाली पर दरवाजे की ओट, खिड़की या बालकनी से नज़र जमाये उसे परखती रहती हैं | कितने बजे आती है कितनी देर बाद वापस जाती है,
कुछ ज्ञानी स्त्रियां इस खोज के जंजाल में पड़कर अपनी सुबह की सुहानी नींद का तिया-पांचा नहीं करती बल्कि वो एक कुशल राजनेता की भांति विपक्षी दल की सदस्य यानी पड़ोसन की कामवाली बाई को ही पटा लेती हैं |हालांकि मेहनत तो इसमें भी कम नहीं है उलटा पड़ोसन से सम्बन्ध बिगड़ने का जोखिम भी है लेकिन अपना अपना रुझान है किसी को लंबा और आसान रास्ता भाता है तो किसी दुर्गम मगर छोटा | कुछ महिलायें इसी दूसरी श्रेणी में आती है | ये समय पड़ने पर कुआं खोदने की बजाय पहले से ही कुआँ खोदकर रखती हैं , ये एक सधे हुए शिकारी की तरह अपने शिकार यानि कामवाली पर दरवाजे की ओट, खिड़की या बालकनी से नज़र जमाये उसे परखती रहती हैं | कितने बजे आती है कितनी देर बाद वापस जाती है, कितने दिनों के अंतराल से भरे हाथ निकलती है |पॉलिथीन के अकार प्रकार पर गौर फार्म कर यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि उस पर मेहरबानी केवल बासी खाने या मिठाई तक सीमित है या कोई कपडा लत्ता भी हस्तगत हुआ है |कई वस्तुएं तो थैली के तुच्छ कलेवर में न समा पाने के कारण स्पष्टतः दृष्टिगोचर हो जाती हैं जैसे कोई टूटा फर्नीचर ,बिजली का पुराना उपकरण, गद्दा, कम्बल या दरी इत्यादि |चटकी हुई क्रॉकरी या घिसे बर्तन तो अपने सुमधुर कलरव द्वारा ही पकडे जाते हैं |
आँखों रूपी राडार के साथ कानों के माइक्रोफोन भी पड़ोसन के उवाचे हुए हर शब्द को सतर्कता से कैच कर लेते हैं बहुत 'लो ' फ्रीकवेंसी' पर किये गए संवाद भी जब अनुभव की परखनली में डालकर कल्पना का रसायन मिला कर हिलाये जाते हैं तो स्पष्ट संवाद उभरने लगते हैं |यथा -
पड़ोसन - "कल कहाँ रह गयी थी री|"
बाई - "भाभी 'जाड़' बहुत दुखिया रही थी ,अस्पताल गयी रही |"
पड़ोसन -"वहां जाड़ दिखाने गयी थी कि पिकनिक मनाने ...कि सारा दिन लग गया ,अभी तीन दिन पहले तो छुट्टी ले के चुकी हैं ....", आदि आदि |
इन सब को आप व्यर्थ न समझे |आँखों और कानों द्वारा उपलब्ध कराये गए इन आंकड़ों के आधार पर ही तो आगे की रणनीति तय की जाती है| आखिरकार इनके क्रियान्वयन का दिन भी आ पहुंचता है जब अपनी कामवाली भाग जाती है| तब मौक़ा ताड कर पड़ोसन के घर से निकलती कामवाली को मीठी मीठी बातों से अगुवा कर अपनी चौखट की हद में लाया जाता है फिर आरम्भ होता है दांव-पेंच का सिलसिला- ' कितने रुपये देती है ये तुझे " से शुरू होकर "अरे ! इतने कम पैसों में इतना काम करती है , कितनी तो महंगाई है ....."या -" पैसे ठीक ठाक दे देती है पर काम भी खूब लेती है , चाय पानी भी नहीं पूछती ?,ऊपर से कुछ भी नहीं देती ? घर में इतनी चीजे निकलती है किसी गरीब के काम आ जाएँ तो भला क्या नुक्सान है ... भाई हम तो पहले चाय पिलाते है फिर काम ........" -जैसे संवादों के अस्त्र एक एक कर छोड़े जाते हैं , और ये न लागू हो तो ब्रह्मास्त्र -"माना खाने पिलाने में , लेन-देन में ठीक ठाक है पर झिक-झिक ,चिक-चिक कितनी करती है ...अरे दो पैसे कम सह लेता है बन्दा पर इज़्ज़त तो सबको चाहिए ? उस दिन इतने जोर-जोर से छुट्टी पर डांट रही थी अब हारी-बिमारी में कोई छुट्टी भी न ले? इंसान ही तो है , मशीन भी घिस जाती है चलते-चलते तो.." वगैरह वगैरह |
जैसे व्यक्ति घर में प्रवेश करते हुए पायदान से बाहर की धूल पौंछ देता है वैसे ही ये परम ज्ञानी 'कोठीवालियां' बाई को पटाने से पहले पड़ोसन प्रेम को भी स्वार्थ के पायदान पर पौंछ चुकी होती हैं |
अभी तक हमारे देश की विदेश नीति में इन महिलाओं के इस हुनर के दोहन की व्यवस्था नहीं है नहीं तो बड़े बड़े राष्ट्रों से पडोसी देशों से मिलने वाली सहायता को बीच में ही झटक लिया जाये और उन्हें इसका भान तक न हो |
वैसे बातों के इस लच्छों में उलझ कर पहला काम छोड़ने वाली बाई इतनी भी भोली नहीं होती जितना उक्त ज्ञानी महिला उसे समझती है | वह अपनी शर्तों की पोटली का मुह उसी तरह खोलती है जैसे क्रिकेट का कुशल खिलाड़ी पहले पिच और विकेट को अच्छी तरह समझ कर फिर रनों का मुह खोलता है | यहां दोनों योद्धा एक से बढ़कर एक दांव खेलते हैं| जो फँस रहा दीखता हैं, वह दरअसल फाँस रहा होता हैं और सो फाँसता हुआ दृष्टिगोचर होता हैं, वह स्वयं फँस रहा होता हैं | और कभी कभी तो गेंद उक्त चतुरा के पाले में थोड़ी देर घूम-घाम कर चाय का आनंद ले वापस पहले वाली के पाले में पहुँच जाती हैं |
--शोभना श्याम