आज पहली बार वह अकेले ट्रेन से जा रही थी | घर में भरे पूरे परिवार में नारी मुक्ति पर इन्सान कितना कुछ बोलता है ? क्या कुछ सोचता है ? टीवी पर होती बहस सुन कर कितनी ही बार उसने पापा से बहस की थी कि बेटी होने के कारण उन्होंने उसे गुलाम बना रखा है | हमेशा साये की तरह साथ रहते है | बोलने की, घूमने की, यहाँ तक कि घर से कॉलेज जाए तब भी आते जाते वक़्त भाई को साथ भेजते है | घर नहीं उसके लिए कैद है परन्तु पापा कभी गम्भीरता से नहीं लेते हलके में हँस कर टाल देते थे | उसे लगता था उनकी इस हँसी पर वह ज्वालामुखी की तरह फट जाएगी | बड़ी मुश्किल से किसी तरह अपने पर काबू करती |
रात के दस बजे थे | ट्रेन चलते ही सभी लोग सोने लगेंगे यह सोच उसने बैग से चद्दर व शॉल निकाल कर दोनों बैग सीट के नीचे ठूँसे | चद्दर बिछाती उससे पहले सामने वाली सीट पर पापा की उम्र के बुजुर्ग दिखे | डरी सहमी वह उनमें पापा की छवि देखने की कोशिश कर रही थी परन्तु वे उसमें कुछ और ही देखने का प्रयास कर रहे थे | चद्दर पास में रख शॉल से अपने को ढकते हुए एक कोने में सिकुड़ कर बैठ गई | दिन भर की थकान के बाद नींद तो बहुत आ रही थी पर यूँ सिकुड़ कर बैठने पर भी जिस तरह से उनकी नज़रें मुआयना कर रही थी, उसने लेटने का विचार छोड़ दिया |
उसके कम्पार्टमेंट के अन्य सभी यात्री अभी आने थे | एक दो परिवार आ जाए तो उनकी ढीठता कम होगी और वह लेट जाएगी | ऐसा विचार कर वह खिड़की से बाहर झाँकने लगी | बाहर प्लेटफ़ॉर्म पर रेलमपेल थी | बड़े, बुजुर्ग, महिलाएँ, बच्चे, युवा उसकी नज़रें महिलाओं पर जा कर अटक जाती थी | आज उसे पहली बार लगा साथ में दूसरी महिला हो तो कितने आश्वस्त हो सकते है परन्तु जब किसी चीज की सबसे अधिक जरुरत होती है तभी वह नहीं मिलती हैं | दुर्योग से उसकी आँखों ने जितनी भी महिलाओं का पीछा किया, सभी किसी और डिब्बे में चढ़ जाती | दो चार उसके यहाँ आई भी तो उसके कम्पार्टमेंट में नहीं आई | काफ़ी देर बाद एक अधेड़ महिला आई वो भी चुपचाप साइड वाली बर्थ पर जाकर सो गई |
वह बाहर की तरफ देख रही थी | उधर से चार गुण्डे से दिखने वाले युवक आकर धम्म से उसकी सीट पर बैठ गए | हैण्ड बैग नहीं होता तो उनके और उसके बीच कोई फासला नहीं रहता | मुँह से आती शराब की तेज दुर्गन्ध से उसे मिचली आने लगी | आज आँखों से नोचती इन गिद्दों की भीड़ में उसे लगा वह कितनी बकवास करती थी | उसने पापा को कितना परेशान किया | कितना व्यर्थ में बोलती रही है |
प्लीज भैया थोड़े से उधर सरक जाओ |
वह न तो उधर सरका और न कुछ बोला परन्तु उसकी आँखों ने वह सब कुछ देखने की कोशिश की जिसे वो छुपा रही थी | वह छुई मुई की तरह अपने आप में थोड़ी और सिकुड़ गई | वह जितनी अपने ही भीतर सिमटती जा रही थी उनकी कुटिल हँसी, बातें, बेहूदे मजाक उतने ही बढ़ते जा रहे थे | उस वृद्ध की तो नजरें ही चुभ रही थी, इनके हाथों के इशारे, लफ्ज़ सब कुछ जैसे उसकी देह को नाप रहे हों | पति आ नहीं पाए | बीमारी की वजह से आज पापा ने पहली बार उसे आज़ाद किया तो साये की तरह हर वक़्त साथ रहने वाले पापा उसे बहुत याद आ रहे थे |
विचारों का तूफान सा मन में लिए सोचने लगी, लोग कितना झूठ बोलते है ? कितनी सुरक्षित है नारी जो हम खुली फिजा में उड़ने देने की बात करते है ? ऐसा दम घोटू वातावरण में जहाँ एक एक पल मर मर कर जिएँ, इससे तो पापा के साये की गुलामी कितनी बेहत्तर है ? कौन सुनेगा मेरी आवाज़ यहाँ, कोई हादसा नहीं होगा इसकी गारन्टी कौन लेगा ? नहीं ले सकते है तो फिर विद्वानों और बुद्धिजीवियों द्वारा युवाओं को क्यों बरगलाया जाता है ?
सुरक्षा के लिए बिल्ली को देखकर कबूतर करता है वैसे ही वह आँखें बंद करके बैठी गई | कभी सोचती नीचे उतर जाए, पति आने का कह रहे थे आने पर उनके साथ ही जाएगी फिर लगता कल ही विवाह है और नहीं पहुँची तो सास को बुरा लगेगा | टीटी के आने पर वह सीट बदलने की गुजारिश करेगी | इस उधेड़बुन में वह निर्णय नहीं कर पा रही थी कि क्या किया जाए ?
तभी उसके कन्धे पर हाथ का स्पर्श हुआ | आँखें खोलने से पूर्व, एक क्षण भी सोचे बिना उसने तय कर लिया कुछ भी हो वह इस ट्रेन में नहीं जाएगी परन्तु अभी इस वक़्त सहायता के लिए किसे पुकारूँ ? कोई करेगा मेरी सहायता ? नीचे उतरने का अवसर भी मिलेगा ? इस एक क्षण से भी कम समय में वह पसीने से पूरी भीग गई, हृदय तो शताब्दी एक्सप्रेस की गति से भाग रहा था | ऐसा लगा जैसे अभी फट जाएगा |
आँखें बंद किए ही नीचे उतरने के लिए वह उठने का प्रयास करने लगी लेकिन जब मन उदास हो तो देह साहस कहाँ से लाती ? लगा जैसे कई मन भार लाद दिया गया हो | उसने प्रयास किया पर एक एक पैर इतना भारी हो गया था कि हिलाया नहीं जा रहा था | अब क्या करे ? किससे कहे ? वैसी ही भारी पड़ चुकी पलकों को धीरे से ऊपर उठाया | बची खुची शक्ति को हाथों में प्रवाहित करने का प्रयास करते हुए उन्हें बैग की तरफ बढ़ाया ही था कि अधखुली आँखों से उसने देखा |
अरे यह क्या ?
सामने उसके पति खड़े हैं !
उसे यकीन नहीं हो रहा था कि जीवन में यूँ पलक झपकते हुए दृश्य बदलते है | आँखों ने बरसकर समझाया कि जीवन ऐसी ही अनिश्चितताओं, अनियमितताओं से भरा है | कब दिन से रात और रात से दिवस हो जाए हम नहीं जानते | हम स्वीकार करें या न करें ऐसी घटनाएं अचानक से घट जाती हैं |
अनेक तर्क वितर्क में उलझी उसने अब बिना कुछ सोचे चीखते हुए पतिदेव को बाहों में भर लिया | उसे स्मरण हो आया ऐसी मजबूत पकड़ उसने विवाह के पश्चात जब वे पहली बार मिले थे तब भी नहीं बनाई थी | वह बच्चे की भान्ति रोने लगी | भय से कांपते हुए चीख कर रोना अब बेफ़िक्री की सिसकियों में बदल गया था | ऐसा लग रहा था जैसे दुनिया की सारी सुरक्षा सेनाएँ घेरा बनाकर उसके चारों तरफ खड़ी हो गई है | पहली बार उसने महसूस किया कि इस बेगानी दुनिया में अपनों का सुरक्षा घेरा किसी को कितना निश्चिन्त कर देता है |