Nature mam - Delhi in Hindi Philosophy by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | प्रकृति मैम - दिल्ली

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प्रकृति मैम - दिल्ली

.दिल्ली दिल हिंदुस्तान का
लोधी रोड वाला मकान काफ़ी छोटा था। लेकिन जल्दी ही हमें साकेत में बड़ा मकान मिल गया।
पत्नी का ऑफिस आर के पुरम में था और मेरा अब करोलबाग में। दोनों ही चार्टेड बस से ऑफिस जाते।
अब लिखने के लिए ज़्यादा समय तो नहीं मिलता था पर फ़िर भी मौक़ा मिलते ही कुछ न कुछ कहीं छपता रहता।
ये उन दिनों की बात है, उधर मुंबई में जब बहुत सारी बड़ी अभिनेत्रियां शादी के बाद अपने घर परिवार या फ़िर गर्भवती होने के कारण फ़िल्मों को तिलांजलि देकर बैठी थीं। कई बड़ी फ़िल्में रुक गई थीं या उनमें फेर बदल किए जा रहे थे।
जया बच्चन,शर्मिला टैगोर,बबीता, हेमा मालिनी सब नई पीढ़ी को जन्म देने की प्रक्रिया में थीं। उन दिनों मेरे लिखे गए एक लेख "हरि तुम हरो प्रसव की पीर" ने छप कर प्रशंसा बटोरी। मेरा उपन्यास "देहाश्रम का मनजोगी" छप चुका था और इसकी बहुत सारे अख़बार और पत्रिकाएं समीक्षा, प्रतिक्रिया आदि छाप चुके थे।
दिल्ली आ जाने के बावजूद कथाबिंब में मेरा नाम अभी तक छप रहा था। इसी से उत्साहित होकर मैं कोशिश करता था कि कुछ और न लिख सकूं तो कम से कम कुछ लोगों के साक्षात्कार लेकर तो पत्रिका को दूं। इसी सिलसिले में मैं विष्णु प्रभाकर,निर्मल वर्मा से मिला। अमृता प्रीतम से फोन पर बात की।
राजेन्द्र अवस्थी से बात की।
हरियाणा की एक संस्था के निमंत्रण पर मैं विष्णु प्रभाकर को अपने साथ लेकर हरियाणा गया, जहां वे मुख्य अतिथि थे।
धीरेन्द्र अस्थाना,रमेश बत्रा,बलराम,मधुदीप, मधुकांत आदि से परिचय हुए जो बाद में मैत्री में बदल गए।
हम लोग बैंक में भी हिंदी के लिए कुछ नए नए काम कर रहे थे। इस कारण बैंकों के राजभाषा अधिकारियों का भी एक अच्छा खासा समूह बन गया था। सविता चड्ढा, ओम निश्चल, हनुमान प्रसाद तिवारी आदि से अक्सर मिलना जुलना होता रहा।
दिल्ली में हम लोगों ने एक राजभाषा अधिकारी संगम का गठन किया जिसमें लगभग सभी राष्ट्रीयकृत बैंकों के हिंदी अधिकारी शामिल थे। मैं कुछ समय इसका महासचिव रहा, बाद में कुछ समय के लिए इसका अध्यक्ष भी रहा। हम सब लोग कार्यालय के बाद कनाटप्लेस में मिलते थे। दिल्ली के कॉन्स्टिट्यूशन क्लब में हमने कई कार्यक्रम भी आयोजित किए।
बैंको में हिंदी को लेकर रोज़ नए नए आदेश आ रहे थे। पहली बार ऐसा हुआ कि बैंक की परीक्षाओं में हिंदी माध्यम की छूट मिली। इससे हिंदी माध्यम से पढ़कर आए देशभर के ढेरों युवा खुश तो हुए पर समस्या ये थी कि उस समय न तो हिंदी में पुस्तकें उपलब्ध थीं और न किसी तरह का मार्गदर्शन।
छः बैंकों ने मिल कर हिंदी माध्यम से परीक्षाओं में बैठने वाले विद्यार्थियों को सहयोग देने के लिए केनरा बैंक की अगुआई में एक बैंक मैन सोसायटी बनाई,जो संसद मार्ग स्थित उनके कार्यालय में कक्षाएं,कोचिंग आदि आयोजित करती। मैं इससे भी जुड़ा।
दिल्ली में एक ऐसा दल आया जिसमें विदेशों में हिंदी पढ़ाने वाले लोग थे। हमने इनका एक सम्मान समारोह आयोजित किया और इनके लिए स्थानीय कवियों की एक संगोष्ठी भी रखी गई।
इसमें बाहर से आने वाले लोगों ने विदेशों में हिंदी पढ़ाने वाले लोगों ने अपने अनुभव भी साझा किए।
एक विद्वान ने ये शिकायत भी की, कि हमारे देश से जो भी भारत आने वाला होता है वो डिक्शनरी,कोश आदि लेकर उत्साह से हिंदी सीखने की कोशिश करता है, महीनों पहले से तैयारी करता है, लेकिन यहां आकर देखता है कि कोई उससे हिंदी बोलने वाला नहीं है,उसे देखते ही सब अंग्रेज़ी में बात करने लगते हैं।
मैंने उन विद्वान को ये कह कर संतुष्ट करने का प्रयास किया कि जैसे आप हमारा सम्मान करना चाहते हैं, वैसे ही हमारे लोग आपकी भाषा का मान रखने के लिए आपके साथ वही बोलने की कोशिश करते हैं। आप एक बार हिंदी में शुरू हो जाएंगे तो हमारे लोग तो खुशी से उसे बोलेंगे।
हिंदी के कुछ प्रकाशकों ने मुझसे कहा कि अब बैंकों की परीक्षाएं हिंदी में होने लगी हैं तो आप भी बैंकिंग की किताब हिंदी में लिखें। ये प्रस्ताव सचमुच मुझे अच्छा लगा। मैं बैंक के प्रशिक्षण केन्द्र में,और बैंक मैन सोसायटी के कार्यक्रम में तो पढ़ा ही रहा था।
मैंने दो किताबें लिखीं- ग्रामीण अर्थशास्त्र और बैंकिंग विधि व व्यवहार।
इन किताबों में मेरे साथ सहलेखक के रूप में बैंक के एक अन्य वरिष्ठ अधिकारी भी शामिल थे। इन्हें दो प्रकाशकों ने छापा।
दिल्ली में हर साल प्रगति मैदान में विश्व पुस्तक मेला लगता था। जब इस मेले से आकर मेरे मित्र और साथीगण मुझे बताते कि वहां उन्होंने मेरी किताबें देखीं या ख़रीदीं तो मन में और इच्छा होती कि लिखा जाय।
लेकिन मेरी अभिरुचि किसी विषय पर लिखने की जगह मौलिक लेखन के रूप में फिक्शन लिखने की ही अधिक रही। इसीलिए इन्हीं दिनों मेरी कहानियों की किताब " अंत्यास्त" और "मेरी प्रिय कहानियां" श्रृंखला में "बेस्वाद मांस का टुकड़ा" भी आई जिसमें एक उपन्यास और कुछ कहानियां थीं।
इसके बाद पत्र- पत्रिकाओं में छपी मेरी लघुकथाओं का एक संग्रह "मेरी सौ लघुकथाएं" शीर्षक से आया।
इस लघुकथा संग्रह में भूमिका के रूप में बलराम और रमेश बत्रा के साथ मेरी एक लम्बी बातचीत को छापा गया। ये बातचीत लघुकथा को लेकर ही थी,और ये दोनों लेखक लघुकथा विधा के अग्रणी हस्ताक्षर माने जा रहे थे।
मैं निरीक्षण के दायित्व के अन्तर्गत कई छोटे बड़े शहरों में बार बार आता जाता रहा। मुंबई के दिनों से ही लिखते रहने के कारण कई शहरों के पत्र पत्रिकाओं में मेरे अच्छे संपर्क भी थे,जिसके कारण वहां मेरे आलेख, कहानियां आदि छपते रहते थे, जिसका सकारात्मक प्रभाव बैंक की छवि पर भी पड़ता और हमारे उच्च अधिकारी गण खुश होते।
मेरे एक उच्च अधिकारी तो मुझसे कहते थे कि हम नई ब्रांच खोलते हैं,या कोई नई स्कीम लॉन्च करते हैं तो लाख कोशिश करने और बड़ा ख़र्च करने पर भी छोटी सी चार लाइन की खबर मुश्किल से छपती है, पर उन्हीं अखबारों में तुम्हारे खुद के फोटो के साथ बड़े बड़े, आधे पेज के लेख छपते रहते हैं !
मैं उनकी बात ध्यान से सुनता तो सोचता कि ये तारीफ़ कर रहे हैं या डांट रहे हैं?
पर हमारे अधिकांश अधिकारियों और कर्मचारियों के मन में हिंदी के लिए सम्मान होता था। चाहे व्यावहारिक कारणों या अहिंदी भाषी होने के कारण उन्हें लिखने बोलने में कठिनाई हो।
मेरा उपन्यास बेस्वाद मांस का टुकड़ा किशोरावस्था के ऐसे मित्रों की भावनाओं पर आधारित था जो छात्र जीवन में पिकनिक मनाते समय एक जंगल में एक पक्षी का शिकार कर लेते हैं और फ़िर वहीं उसे पका कर खाते हैं।
बाद में उपन्यास के नायक का विवाह होने पर उसे अपने पारिवारिक- शारीरिक रिश्तों में जीवन साथी का ठंडापन अनुभव होता है। और तब वह अपने किशोरावस्था के मित्रों के साथ गुज़रे समय को याद करता हुआ ये कल्पना करता है कि आयोजित- विवाह का ये तोहफ़ा उसके माता- पिता ने ठीक उसी तरह दिया है जैसे उसके मित्र ने एक परिंदे का आखेट करके, पका कर उसे परोसा था। यहां उपन्यास ये प्रतिपादित करता है कि विवाह में देखने- दिखाने की औपचारिक परंपरा के निर्वाह की तुलना में लड़के- लड़की का आपस में एक दूसरे को खोजना ज़्यादा कारगर होता है।
मेरी दो बैंकिंग विषयक किताबों के बाद प्रकाशकों ने चाहा कि मैं बैंक परीक्षा के सभी पेपर्स पर किताबें लिखूं किन्तु मेरा मन उनमें नहीं रमा।
इस बीच हमें अपने जीवन के सबसे बड़े उपहार के रूप में एक बिटिया प्राप्त हुई।
इस बार प्रसव के समय मेरी मां ने पिछली बार जैसा कोई जोखिम न लेते हुए स्वयं ही मेरी पत्नी की देखभाल की और वो पत्नी को प्रसव के लिए अपने परिचित डॉक्टरों व हस्पताल की देखरेख में जयपुर ही ले गईं।
वहीं हमारी पुत्री का जन्म हुआ,और हमारा वो खालीपन भर गया जो पिछले कई साल से हमारे जीवन की रिक्तता का सबब बना हुआ था। मेरी मां और छोटी बहन के हमारे साथ रहने पर मेरी पत्नी की देखभाल भी अच्छी तरह हो पाई और हमें किसी बाहरी मदद पर आश्रित नहीं रहना पड़ा।
मेरे लेखन में भी कुछ कमी आई और बाहरी दौरों में भी। बिटिया के आने के कुछ समय बाद ही मेरी छोटी बहन का विवाह भी निश्चित हो गया। धूमधाम से जयपुर में ही उसका विवाह संपन्न करने के बाद कम से कम मेरे दिवंगत पिता की प्राथमिक ज़िम्मेदारियों का निर्वाह पूरा हुआ,जिसके लिए मैं चिंतित रहा करता था।
अब मां भी निश्चिंत होकर हमारे साथ थीं।
देखते - देखते बिटिया ने दिल्ली में ही स्कूल जाना भी शुरू कर दिया। मां उसकी देखभाल करतीं और हम निश्चिंत होकर अपना ऑफिस कर पाते।
मेरा ऑफिस अब करोलबाग में स्थानांतरित हो चुका था तथा हमने और बड़ा व सुविधाजनक घर लेने की दृष्टि से मालवीय नगर में शिफ्ट कर लिया था।
मेरा लिखना इतना कम हो गया था कि मेरे मन में ये धारणा बलवती होने लगी थी कि लेखन किसी न किसी दबाव के चलते ही ज़्यादा सुगमता से होता है। अब मैं देखता था कि कभी जिन पत्रिकाओं में रचना भेज कर मैं उसके छपने की प्रतीक्षा व्यग्रता से किया करता था, उन्हीं के संपादकों के रचना भेजने के लिए आग्रह के पत्र आकर रखे रहते और मैं कुछ न लिख पाता।
दिल्ली में पांच साल का सुखद पारिवारिक जीवन गुज़ार लेने के बाद एक बार फ़िर हमारे जीवन रूपी आसमान पर बिजलियां चमकने लगीं। देखते- देखते काली घटा घिरने लगी और अनायास आशंकित जल - प्लावन से फ़िर सब कुछ छितरा कर बिखर जाने के आसार नजर आने लगे।
असल में मेरी पत्नी के कार्यालय से ये आभास मिला कि अब दिल्ली स्थित परमाणु खनिज विभाग से उन्हें फिर से अपने मूल संस्थान भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र, मुंबई में लौटना होगा।
दूसरे, मेरे बैंक में भी कुछ ऐसी सुगबुगाहट सुनाई दी कि जो लोग पांच साल से दिल्ली में ही अवस्थित हैं उन्हें अब दिल्ली छोड़ कर जाना होगा ताकि यहां उनके स्थान पर अन्य ऐसे अधिकारियों की तैनाती हो सके जिन्होंने वर्षों से यहां आने के लिए आवेदन दे रखें हैं या वे यहां से निर्धारित अवधि के लिए बाहर भेजे गए थे।
स्थान परिवर्तन की आशंका की ये तलवार हम पर लटक तो गई, किन्तु इसका एक सुखद पहलू ये था कि यदि हम दोनों का ही तबादला यहां से होना है तो हम फ़िर से मुंबई जा सकते हैं।
मुंबई रहने के लिहाज़ से हम दोनों की ही पसंदीदा जगह थी, केवल हम इससे अपने घर से दूरी को लेकर ही बचते थे।
पर अब स्थिति भिन्न थी। भाई - बहन का विवाह हो जाने से वो दोनों अपनी- अपनी दुनियां में व्यस्त हो गए थे और मां भी रिटायर हो जाने के कारण अब हमारे साथ कहीं भी चल पाने की स्थिति में थीं।
लेकिन इस बीच मेरे उच्च अधिकारियों की ओर से मुझे ये संकेत भी मिला कि यदि मैं हिंदी विभाग छोड़ कर अन्य किसी विभाग में आने पर सहमत हो जाऊं तो मैं दिल्ली में ही बना रह सकता हूं। इसका कारण ये था कि हिंदी विभाग में मुझे कार्य करते हुए पांच वर्ष हो चुके थे,इसलिए यहां से बदला जाना ट्रांसफर नीति के अनुसार आवश्यक था। मैं कुछ समय बैंक के स्टाफ ट्रेनिंग सेंटर में भी काम कर चुका था।
बल्कि एक बार तो ऐसे आदेश भी निकाल दिए गए और मुझे बैंक की कनाटप्लेस शाखा में भेज भी दिया गया।
किन्तु तभी बैंक के केंद्रीय कार्यालय से मुझे ये जानकारी मिली कि पांच साल हो जाने के कारण मेरा अब दिल्ली में रह पाना संभव नहीं है और मेरा तबादला मुंबई में होना भी संभव नहीं है, परिणाम स्वरूप तबादला नीति के अनुसार मुझे महाराष्ट्र के कोल्हापुर शहर में भेजा जा रहा है।
ये स्थिति एकाएक अपने छोटे से परिवार को तिनका- तिनका बिखरा देने की थी।
लेकिन कहावत है कि ईश्वर एक रास्ता रोकता है तो चार रास्ते नए भी सुझा देता है।
संयोग से मेरी पत्नी ने राजस्थान के जिस संस्थान से अपनी पढ़ाई करके पूरे राज्य की मेरिट लिस्ट को टॉप किया था उसमें ही कंप्यूटर साइंस विभाग खुलने और उसमें प्रोफ़ेसर का पद ख़ाली होने की सूचना हमें मिली। मेरी पत्नी मुंबई में रहते हुए कंप्यूटर साइंस में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त कर चुकी थी।
वास्तव में ये अवसर हमारे लिए एक स्वर्णिम मौक़ा जैसा था,क्योंकि इस संस्थान की अंतरराष्ट्रीय ख्याति को देखते हुए हम भविष्य में अपनी बेटी को भी वहां पढ़ाने की इच्छा शुरू से ही रखते थे।
यदि मेरी पत्नी का चयन वहां हो जाता तो हम बेटी को हॉस्टल में रखे बिना ही आराम से वहां पढ़ा सकते थे।
मेरी मां भी वहां रह चुकी थीं इसलिए वो भी किसी नए अजनबी शहर में रहने की तुलना में वहां रहने को ज़्यादा अनुकूल पाती थीं।
अतः हमने उस संस्थान में प्रोफ़ेसर पद के लिए पत्नी का आवेदन भेज दिया।
कुछ ही दिनों में वहां से साक्षात्कार के लिए बुलावा भी आ गया।
अब घर पर गंभीरता से इस बात पर विचार होने लगा कि यदि मेरी पत्नी का चयन राजस्थान के उस संस्थान में प्रोफ़ेसर पद पर हो जाता है तो हमारा परिवार क्या खोएगा क्या पाएगा?
सबसे पहली बात तो ये थी कि केंद्र सरकार की क्लास वन गैजेटेड ऑफिसर की नौकरी छोड़ कर उसे एक निजी संस्थान की नौकरी में आना होगा।
दूसरी बाधा ये थी कि अभी चाहे कुछ वर्ष के लिए मेरा तबादला महाराष्ट्र के कोल्हापुर शहर में होने जा रहा है परन्तु इसके बाद भी मेरा ट्रांसफर यहां, इस जगह जीवन भर नहीं होगा। ऐसे में जब तक मैं अपनी सर्विस छोड़ न दूं, हम कभी एक साथ नहीं रह पाएंगे। मेरा पद उस समय तक राजस्थान भर में कहीं नहीं था।
लेकिन दूसरी ओर यदि मेरी पत्नी प्रोफ़ेसर के रूप में यहां ज्वॉइन करती है तो इसके लाभ भी कम नहीं थे।
सबसे बड़ी बात ये थी कि मेरी पत्नी, पुत्री और मां के लिए एक स्थाई ठहरी हुई ज़िन्दगी हमें मिल जाएगी। मेरी पत्नी की शिक्षा,अनुभव और योग्यता को देखते हुए हम ये सपने में भी नहीं सोच सकते थे कि वो केवल मेरे साथ रहने के लिए नौकरी छोड़ दे, जबकि मेरी नौकरी में भी हर तीन - चार साल बाद जगह बदल जाने का अंदेशा हो।
लगभग इसी समय हमें अपने परिवार में एक नए सूर्योदय की झलक भी दिखाई दे रही थी।
मेरी पत्नी फ़िर से गर्भवती थी।
ऐसे में मेरे परिवार के साथ - साथ पत्नी के माता - पिता का भी वहीं पास में होना हमारे बढ़ते हुए परिवार के भविष्य के लिए किसी संजीवनी की तरह था।
पत्नी के नई नौकरी के लिए होने वाले साक्षात्कार में हम लोग पूरी आशा और उत्साह से राजस्थान गए।
चयन हो गया।
और इसी समय मेरे भी कोल्हापुर शहर में ज्वॉइन करने के आदेश आ गए।
हमने दिल्ली छोड़ दिया।
एक शाम हम अपना सारा सामान एक बड़े ट्रक में रखवा कर राजस्थान के उस छोटे से स्थान के लिए रवाना हो गए, जो जयपुर के पास था, और हम सब उससे बचपन से ही सुपरिचित रहे थे।
परिवार के सभी लोग कार से, और मैं सामान के साथ ट्रक से जब वहां पहुंचे तो ट्रक का ड्राइवर हैरानी से मुझसे ये पूछ रहा था कि आप मुंबई से दिल्ली आए थे,और दिल्ली से यहां?
ऐसा हो जाता है क्या?
पत्नी के प्रोफ़ेसर के रूप में वहां ज्वॉइन करते ही वो स्थान मेरी अयोध्या बन गया। जहां के पेड़ पौधे,पशु पक्षी,सड़क इमारतें, हवा पानी...सब मेरे अपने थे, बस मुझे राम बन कर वनवास के लिए निकलना था।
मेरा परिवार तो किसी सुरक्षित टापू पर परिजनों रूपी वटवृक्ष की छांव में अवस्थित हो गया था,अब धूप, छांव,आंधी, बरसात सब मेरे लिए थे।
मैं जरूरत भर का सामान लेकर महाराष्ट्र के कोल्हापुर शहर के लिए चल पड़ा। कभी जिस मुंबई को हम अपने घर से दूर मान कर वहां जाने में आना - कानी किया करते थे, उससे भी दस घंटे के सफर पर और आगे था मेरा ये नया ठिकाना।
मुझे पहले मुंबई जाना था, फ़िर वहां से पुणे होते हुए कोल्हापुर!
उस समय जयपुर से मुंबई भी सीधी ट्रेन नहीं थी। जयपुर से सवाई माधोपुर जाकर गाड़ी बदलनी होती थी।
मुंबई से दादर स्टेशन के बाहर से उन दिनों कभी दिल्ली के एशियाई खेलों के लिए खरीदी गई बसें अब पुणे के लिए चलती थीं। ऐसी ही एक एशियाड बस से मैं पुणे के लिए रवाना हुआ। वैसे तो मुंबई से पुणे कई बार जाना हुआ था, पर मैं अक्सर ट्रेन से ही गया था। पहली बार ये सुनकर कि एशियाड का सफर बहुत आरामदायक है, मैं इस बस में बैठा था। लगभग पांच घंटे का रास्ता था,फ़िर वहां से मुझे कोल्हापुर की बस लेकर कोल्हापुर के लिए निकलना था। यहां भी लगभग पांच घंटे ही सफ़र में लगने थे।
मुंबई से निकलकर जाते समय रास्ते में नई मुंबई का वाशी इलाका भी आया जिसे देख कर मैं पिछली यादों में डूब गया।
कभी ये भी मेरा घर था। दिनों दिन विकास के चलते बस्तियों की शक्ल बदल गई थी पर मैं उस बस स्टैंड को नहीं भूला था जहां से एक सुबह तड़के ही अपना पूरा सामान छोटे - छोटे सोलह अदद में लेकर मैं और मेरी पत्नी मुंबई से निकले थे। मेरे दिल्ली ज्वॉइन कर लेने के बाद पत्नी वापस आकर हॉस्टल में शिफ्ट हो गई थी।
बस इस सुहाने रास्ते को पार करती हुई खोपोली, लोनावाला, खंडाला जैसे विख्यात पर्यटक स्थलों को पार करती हुई पुणे की ओर दौड़ रही थी।
इन जगहों को पहले भी कई बार देखा था, किन्तु तब पिकनिक मनाने के अंदाज़ में देखा था। आज मैं अकेला यहां से ये सोचता हुआ गुज़र रहा था कि न जाने फ़िर कब यहां से लौटना हो।
पुणे बस स्टैंड पर खाना खाकर जब कोल्हापुर के लिए बैठा तो समझ में आया कि यहां से आगे का रास्ता मेरे लिए बिल्कुल नया है।
ये भी महसूस हो रहा था कि महाराष्ट्र रोडवेज की बसें चाहें पंजाब और हरियाणा जितनी तेज़ न हों, पर राजस्थान और उत्तर प्रदेश की तुलना में तेज़ भी थीं और अनुशासित, व्यवस्थित भी। यहां मैंने बस कंडक्टर को रास्ते में सवारियों का सामान छत पर से उतरवाते देखा, जो प्रथा हम राजस्थान और उत्तर प्रदेश में बरसों पहले भूल चुके थे।
रात होते होते दूर से उस शहर की बत्तियां दिखाई देने लगीं जो कल सुबह से अब मेरा शहर कहलाने वाला था।
सच ही तो है,बसेरे, निवाले और लिबास इंसान को चाहे जहां खींच ले जाएं!