मेरी एक छोटी सी कविता स्त्रियों पर आधारित है
ईश्वर ने उन्हें बनाया है जिस प्रकार से वह केवल उसी प्रकार से रहना ही पसंद करती हैं परंतु समाज के अव गुणों के कारण कितना कुछ सहन करती हैं।
मेरी कविता यही दर्शाती है आशा है कि आप सभी को पसंद जरूर आएगी......
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हाँ मैं एक स्त्री हूँ "मोहब्बत" तो मैं करूँगी।
हाँ मैं एक स्त्री हूँ तो क्या "जलती" ही रहूँगी।।
मौन हूं पर "डरपोक" तो बिल्कुल भी नहीं हूँ।
रोती हूं पर "टूटी" तो मैं बिल्कुल भी नहीं हूँ।।
हार और जीत मेरे लिए मायने नहीं रखते हैं।
पर फिर भी मैं "जीना" तो नहीं छोड़ रही हूँ।।
क्यूँ औरों के लिए ही बस "हंसती" रहती हूँ मैं।
क्यूँ औरों के लिए ही बस "रोती" रहती हूँ मैं।।
अपना क्या हैं बस एक खुशी "उधार" की हैं।
फिर भी मैं "बेखौफ" तो बिल्कुल भी नहीं हूँ।।
परिवार के लिए ही बस जीती "रहती" हूँ मैं तो।
और परिवार के लिए ही बस "मरती" हूँ मैं तो।।
फिर भी ना जाने क्यों "सवालों" से घिरी हूँ मैं तो।
"पीड़ा" ना सुनाई मैंने तो किसी को कभी भी।।
चुप चाप से "तन्हाई"को फिर भी मैं पी रही हूँ।
तभी तो मैं कई वर्षों से "सताई" जा रही हूँ।।
मैं माँ,बेटी,बहन,बहू हूँ हर एक रुप में किसी की।
फिर भी मैं सरे आम बेदर्दी से "जलाई" जा रही हूँ।।
पैदा हुई तो मैं कभी किसी पर ही"बोझ" बनी हूँ।
पैदा हुई तो मैं कभी किसी के लिए"खुशी" बनी हूँ।।
बेटी बनकर मैं कभी किसी का "मान" बनी हूँ।
बेटी बनकर मैं कभी किसी पर "शर्प" बनी हूँ।।
पत्नी बनकर मैं कभी किसी कि "लाज"बनी हूँ।
पत्नी बन कर मैं कभी कभी तो "सहम"रही हूँ।।
बहू बन मैं कभी किसी का "सहारा" बनी हूँ।
बहू बन मैं कभी कहीं "धिक्कारी" जा रही हूँ।।
माँ बन के मैं तो कभी कहीं "पूजी" जा रही हूँ।
माँ बन के मैं तो कभी कहीं "बोझ" बनी हूँ।।
औरत हूँ तभी तो मैं "दर्द" सहन कर रही हूँ।
फिर भी हर हाल में मैं "कमजोर" नहीं हूँ।।
औरो के घर कि दिवारो को मैं "सजा़" रही हूँ।
तो कभी उन्ही दिवारो पर ही मैं "सज़" रही हूँ।।
कभी-कभी फूलों की तरह मैं तो "चहक"रही हूँ।
तो कभी मैं अन्देखे से "काँटो" पर चल रही हूँ।।
रोज़ नीत नए संधषो से मैं तो "उल्झ" रही हूँ।
तो कहीं इन्ही संधषो में ही मैं तो "जी" रही हूँ।।
पल-पल जैसे यह "मौसम" बदलता रहता हैं।
वैसे ही मैं भी मौसम "बीन" बदलती रहती हूँ।।
"क्या" हैं क्यूँ हैं पर शायद क्यों ऐसी ही हूँ मैं।
मैं हूँ तभी तो एक "मर्द"लेता हैं जन्म दुनिया में।।
"पापी"तो बस यह अन्धा बहरा आधर्मी समाज हैं।
पहले खामोश रहता है बाद में शोर बहुत करता हैं।।
औरत से जन्में और औरत को ही यह "नौचे" हैं।
वह पुरुष नहीं हैं वह तो अच्छा खासा "नामर्द" हैं।।
जब जब मैं समाज में "सताई" जाती जा रही हूँ।
तब तब मैं समाज से ही मिटाई जाती जा रही हूँ।।
मां"की कोख में तो कभी पिता" के संग दिल में।
हर बार बेहरेहमी की मार से "मारी" जा रही हूं मैं।।
क्या क्या मैं करती हूँ "गिनती" नहीं मैं करती हूँ।
शायद इसी वज़हा से ही मैं तो "मात" खा रही हूँ।।
कितने आए कितने गए कुछ भी तो "खबर" नहीं।
सुरमाओं की माँ बनी औरत ही तो "महान"बनी।।
औरत देख देरी कितनी कड़वी-कड़वी"कहानियां हैं।
कभी दुर्गा,लक्ष्मी,सरस्वती तो कभी तू बनी काली हैं।।
चलता नहीं "संसार" स्त्री से फिर भी रुलाई जाती हैं।
अहंकारी समाज़ में उसकी "लाज़" उतारी जाती हैं।।
तन से कोमल और मन से शीतल हूँ।
क्योंकि मैं एक औरत हूँ हाँ औरत हूँ।।