Is Dasht me ek shahar tha - 5 in Hindi Moral Stories by Amitabh Mishra books and stories PDF | इस दश्‍त में एक शहर था - 5

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इस दश्‍त में एक शहर था - 5

इस दश्‍त में एक शहर था

अमिताभ मिश्र

(5)

अब जो दूसरी पत्नी की दो लड़कियां थीं वे बहुत ज़हीन, सुन्दर, पढ़ने लिखने में अव्वल और नौकरियां भी अच्छी मिली और उस दौर में जब लगभग अनिवार्य था विवाह लड़कियों के लिए तब उन दोनों ने विवाह नहीं किया और अनुराग और अभिलाष भैया के दो बेटे और दो बेटियां हैं। इन चारों को पढ़ाया। हालांकि अनुराग और अभिलाष भैया से इन लोगों का अबोला सरीखा रहा। इन दोनों बहन की स्कूल की पढ़ाई दिल्ली में हुई और कालेज की पढ़ाई इंदौर में और विनायक भैया की देखभाल में लगीं रहीं और उमर कब निकलती गई पता ही नहीं चला। कुछ बातें चलतीं भी रहीं। खप्पू और छप्पू कोशिश करते रहे पर दोनों बहनों ने साफ मना कर दिया था। तब सबको लगा कि ये भी खुद ही ब्याह करेंगी पर आखिर अनब्याही ही रही दोनों। इसे लेकर जो भुगता दोनों ने घर और बाहर दोनों ही जगह वह एक अलग पीड़ा का महाकाव्य है।

समाज में अनब्याही लड़कियों को लेकर जो धारणाएं हैं वे वाकई किसी भी लड़की का मनोबल तोड़ने मरोड़ने को पर्याप्त है। इन दोनों बहनों को लेकर भी यही सब चलता रहा। रिश्‍तेदारों के कुबोल से लेकर समाज में लोगों की ललचाई नजरों और तानों ने जीना मुहाल कर दिया था। चारित्रिक लांछन से लेकर घर छोड़कर भाग जाने तक लोग लगातार बोलते रहे और रास्ता देखते रहे पर दोनों बहनों ने इसका कोई मौका नहीं दिया। बड़ी वाली कालेज में व्याख्याता रहीं। बाद को प्रिंसीपल भी बन गईं। दोनों मिसाल रहीं इस बात की कि लड़कियां भी बिना शादी किए जीवन ठप्पे से निकाल सकतीं हैं। बड़ी वालीं अब प्रिंसिपल हो चुकीं है। छोटी वाली अपने विभाग में संचालक के पद तक पहुंची। कड़क और ईमानदार अफसर की छवि रही उनकी। विभाग के तमाम भ्रष्ट लोगों के बीच एक अलग चमक थी उस लड़की में। पर बाद को हुआ यूं कि उन्हें कैन्सर हुआ और उसीके असर से वे समय से पहले गुजर गईं। दोनों ने साथ रहने का फैसला किया था पर छोटी वाली पहले ही चलीं गईं अब बड़ी वाली अकेली हैं। दो जुड़वां पोतियों की जिम्मेदारी संभालतीं जो उनके बड़े भाई की बेटियां हैं। बहुत सुन्दर बिलकुल इन्हीं दोनो बहनों की तरह सुन्दर। पढ़ाई के साथ साथ उन्हें नाच गाना भी सिखातीं हैं उनकी मौसी दादी। बीच मंदिर में जब ये दोनों नाचतीं हैं तो एक अलग ही छटा बिखरती है और लोग मुग्ध होकर देखते से रह जाते हैं ।

ये दो बहनें मिसाल रहीं कि लड़कियां अपने दम पर जीवन चला सकती हैं। बल्कि वो दुनिया शायद बेहतर दुनिया है। बस सारे खतरे उन्हें आदमी नाम के जानवर से ही बने रहे। वे सारे खानदान के सामने सवाल की तरह रहीं। एक बड़ा सवाल संपत्ति का भी था जिसे इस तरह के बड़े परिवारों में या कहें किसी भी परिवार में लड़कियों के सिलसिले में नकार ही दिया जाता है क्योंकि वे सामान्यतः शादी में दिए गए दहेज से जोड़ा जाता रहा है। और फिर लड़कियां संपत्ति का करेंगी क्या ये एक बड़ा सवाल रहा है। सनातन काल से और सनातन धर्म में तो इस पर बात करना भी निषिद्ध रहा है ऐसा इस मिसिर खानदान की पुरखिनों का मानना और अमल में लाना रहा है। तो जब तय किया कि ये दो बहनें शादी नहीं ही करेंगी तब तो ये सवाल इस घर के बड़े बुजुर्गों के बीच घबराहट का कारण बना और इस पर कई बार बातें भी हुई। ।

ऐसा नहीं कि ये सवाल पहली बार सामने आया हो। ये सवाल बीच बीच में माननीय फूफा जी यानि इन नौ भाइयों के इकलौती बहन के पतिदेव ने उठाया था तब उन्हें उस पर फिर कभी बात करेंगे कह कर टाल दिया जाता था। हुआ एक बार यूं था कि कालिका प्रसाद ने उनके साथ बातचीत में कह दिया था कि वे उन्हें कबीट के पास झिरिया के पीछे वाली जमीन दे देंगे। दरअसल ये जो फूफा जी थे कुछ लालची किसम के आदमी थे। पुलिस की नौकरी में थे तो नजर उस जमीन पर अटक गई थी। वो जमीन है भी मौके की आज की तारीख में वो उस इलाके की सबसे महंगी जमीनों में से एक है। मिसिर लोग तो बिलकुल तैयार नहीं हुए इस प्रस्ताव पर बात जब हुइ्र्र तो बहुत गरमा गरमी हुई। दो भाइयों के पालने पोसने, पढ़ाने लिखाने का, कपड़े लत्ते इत्यादि का खरचा इत्यादि जोड़ा गया और उसका परचा थमा दिया गया वो उस जमीन की कीमत का दुगना था तों कहा ये गया कि पहले ये खरचा दे दो फिर हम जमीन के बारे में सोचेंगे। यह संयुक्त परिवार में पहली दरार थी जिसमें आपस में पैसे या संपत्ति को लेकर कोई बात की गई हो। पर इसका एक लाभ जो मिसिर लोगों को हुआ। वे आपस में और नजदीक आ गए और संपत्ति के लिय ही सही वे एक हो गए। जो बीच में कुछ विवाद हुए रहे होंगे आपस में वे खतम कर लिए गए।

जिस समय यह सब विवाद चल रहा था उस समय फूफा जी के तीनों बेटे और बेटी असमंजस में रहे कि वे किस तरफ हों। वे अपने आप को अपने मामाओं से ज्यादा नजदीक समझते थे। सालों से उनके साथ हैं। और आज यहां एकदम से पिता नमूदार होते हैं और उस जमीन का बंटवारा चाहने लगते हैं। अब क्या होगा उन रिश्‍तों का जो लगातार इन सालों में उन दोनों ने और मामाओं के साथ उनके परिवार के साथ बने हैं। इस ऊहापोह को भांप लिया था शंकरलाल यानि खप्पू ने और वे बड़े वाले यानि राजेश के नजदीक पहुंचे और बोले ” जीजा जरा इनसे तो जान लो कि ये क्या चाहते हैं।“

ये दुविधा की इंतेहा थी। उन तीनों भाइयों के लिए। जिन्होंने इस बारे में कभी सोचा भी नहीं था कि ये जमीन इसकी होगी या ये जमीन उसकी होगी। उनके लिए और उस घर के सब के लिए वो कबीट का पेड़ उतना ही अपना था जितना दूसरे कोने का जामुन का पेड़ या नाले किनारे का खजूर का पेड़ या बांडे की चाल से लगे अमरूद के पेड़। उन तीनों के मुह से लगभग एकसाथ निकला था और बोला था राजेश ने ”हमें तो अभी जमीन वमीन के चक्कर में नहीं पड़ना अभी तो पढ़ना है और अपवा कैरियर बनाना है। और ये जमीन जायदाद को लेकर हमें नहीं लड़ना। “

इस तरह अभी ये बात खतम होनी थी कुछ हद तक हो भी गई थी। पर कबीट के पास की जमीन ने अपना महत्व जता दिया था और कुछ होशियार भाइ्रयों की आंखों की चमक बढ़ गई थी। इस मसले पर जब बंटवारा हुआ था तो उस चमक के चलते उस चमक के जरिये उस चमकदार जमीन को हथियाया था हमारे एस डी एम साहब ने। और जब जमीन का बंटवारा किया गया था तो ये कारनामा हो गया था। दरअसल कालिकाप्रसाद जी की उमर और उनका अपने दूसरे परिवार के मोह के प्रकटीकरण के चलते यह काम यानि जमीन के बंटवारे का करवा लिया गया और इस सारे काम के सूत्रधार शंकरलाल यानि खप्पू रहे जिन्होंने सारे भाइयों से उनके एक एक बेटे समेत दस्तखत करवा लिए और उसी विभाग के थे उन्हों नामान्तरण इत्यादि भी करवा लिया था। और वे सारे नक्षे उनके पास थे ये भी सबको पता था। यह बंटवारा दादा की उमर के नाम पर हुआ था पर ये इस परिवार के विघटन की भूमिका बना गया था। बाद को ये दरार समय के साथ बढ़ती गई।

पहले बल्कि अभी तक एक ही चूल्हा था एक ही रसोई थी जो नंबर तीन के नाम पर थी वे ही संभालती थी ये सब। सामूहिक तौर पर सामान की खरीद की जाती थी जिसकी जिम्मेदारी बारी बारी से पहले नंबर छ की हुआ करती थी। पैसा इकठ्ठा भी वही करते थे सबसे। दिलचस्प यह था कि यह पैसा बराबरी के हिसाब से नहीं बल्कि जो जितना दे सकता था उस हिसाब से तय होता था यह भी तय नंबर छ ही किया करते थे और एक समय तक किसी को कोई आपत्ति भी नहीं होती थी। एक बार बाहर से आए में से आठ नंबर यानि मुन्नू यानि बुद्धिनाथ ने इस पर मुंह खोला था कि

” सबको बराबरी से बांट दिए जाने चाहिए पैसे। ये अलग अलग किस हिसाब से तय होता है। अब हम तो साल छः महीने में आते हैं और तुम लोग तो साल भर का खेंच लेते हो और न तो विनायक भाई साहब और न ही गन्नू भैया और न ही छपपू भैया से कोई पैसा लेते हो। मने कि सारे घर का खर्चा हम ही उठाएं। मेजर शेयर हमारा और खप्पू भैया का ही तो होता है बाकी तो सब मुफत में मजे कर रहे हैं।“

पप्पू भैया के लिए यह अनपेक्षित था वे अचकचा गए। बाकी लोग भी भैांचक थे। क्योंकि अकसर मुन्नू किसी भी मसले पर कोई विवाद में नहीं पड़ते थे और फैसलों को शांत भाव से मान लिया करते रहे। यह रूख सभी के लिए चौंकाऊ था।

” तुम अपनी चोंच बंद करो और यदि ये मंजूर नहीं है तो कुछ मत दो हम सब लोग तुम्हें पढ़ाए हैं। डाक्टर बनाएं है। तो ये सब खरचा तो हम लोग कर ही लेंगे। दिमाग खराब कर दिया इस घामड़पने ने। “

” ऐसा है न यदि सब लोग बराबरी से देंगे तो कोई विवाद की हालत बनेंगे ही नहीं और जरा कायदे से बात करो पप्पू भैया। अब सब लोग बड़े हो गए हैं। बात पैसे की नहीं है जिम्मेदारी की है जिसे सबको सब को समझना चाहिए। पैसा तो हम देते रहे हैं और देते ही रहेंगे। “

” हम नहीं लेने वाले अब तुमसे पैसे तुम रखो अपने पैसे अपने पास। हास्पीटल की दवाई बेच कर और पेशेंट्स की मजबूरी का फायदा उठाकर कमाए गए पैसे से हमें नहीं लेना पैसे। “

अब नंबर आठ दुलहिन ने एन्ट्री ली और फनफनाते हुए बोलीं

” देख लिया न आपने। यानि डाक्टर बनाने का मुआवजा लिया जा रहा है और मैंने तो मना किया था आने का आपको ही पड़ी रहती है कि चलो इन्दौर चलो इन्दौर। मैं तो जा रही पलासिया और आपको जब आना हो तब आ जाना फिर कल हम चलें वापस अपने गांव जह पर आप हास्पीटल की दवाई बेच कर और पेशेंट्स की मजबूरी का फायदा उठाकर आप पैसा कमाते हो। “

और उन्होंने सामान बांधा। दादू ने नंबर तीन ने उन्हें रोकने की कोशिश की। दादू बोलीं

” अरे दुलहिन तुम काहे इन आदमियन की बातों मे पड़ रही हो ये सब आपस में लड़ झगड़ कर एक हो जाएंगे तनिक गम रखो और रूको जरा अभी। बात इत्ती बड़ी न बढ़ाओ। “

नंबर तीन बोलीं

” अरे रूको मुन्नू की दुलहिन। न जाओ। ये सब तो चलता रहेगा। अभी देखना शाम को सब एकसाथ बईठ कर गपियाएंगे। तुम बवंडर ना खड़ा करो। हां नहीं तो हां“

बहरहाल वे रूक गईं पर ये विवाद यहीं नहीं रूका बाद में भी इसकी गूंज चलती रही। पर हां उसके अगले साल एक और चूल्हा जो ऊपर वालों के नाम पर कि कुछ लोग नीचे आने में अक्षम हैं के नाम पर गन्नू की दुलहिन की रसोई में शुरू हो गया। यह टूट की शुरूआत थी। जिसमें दो खेमे बहुत साफ हो गए थे दो आठ चार और कुछ हद तक सात भी ऊपर थीं हातांकि उनके आदमी यानि डिप्टी कलेक्टर पूरी कोशिश करते रहे कि सब एक साथ ही चले पर धीरे धीरे अलगाव बढ़ रहा था और कभी कभार संपत्ति विवाद या अपने प्रभुत्व को सिद्ध करने के बहाने झंझट हो ही जाती रही। फिर दो से तीन चूल्हे हुए और अंततः हुआ यूं कि सबके चूल्हे हो ही गए अलग। इसका सबसे बड़ा नुकसान हुआ कालिकाप्रसाद को जिनके यहां खाना जाना बंद हो गया। जो एक दिन के बाद दर दर भटक रहे थे। सुबह से जो दिखा

” दुलहिन चाय नहीं मिली अब तक “

या ”खाना कौन देगा अब दिन का बहुत जोर से भूख लग रही है अब तो“

यहां भी उनकी मदद के लिए उनकी पत्नी यानि दादू ही आई थीं और नंबर तीन से बोलीं थीं

” अरे नंबर तीन तनिक ससुर जी का ध्यान रख लिया करो चाय, नाश्‍ते और खाने का जौन लगे ऊ हमसे ले लेना “

अब लेन देन की बात तो तुम ना ही करो तो नीक होगा। बस आपने जो कहा वो होता रहेगा

उसके बाद मजाल है जो कालिका प्रसाद के किसी भी खाने में नागा हुआ हो।

***