Mukhbir - 18 in Hindi Moral Stories by राज बोहरे books and stories PDF | मुख़बिर - 18

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मुख़बिर - 18

मुख़बिर

राजनारायण बोहरे

(18)

बीहड़

पुलिस आये दिन उन दोनों से पूछने-ताछने आ धमकती । वे दोनों क्या बताते ! पुलिस हाथ मलती रह जाती ।

उन चारों के फ़रार होने की खबर सुनके गांव में सबसे ज्यादा हिकमतसिंह को डर गया । उसने अपने घर पर लठैतों की फौज बिठा ली ।

महीना भर तक जब कोई वारदात नहीं हुई तो गांव के लोगों ने यह कहके अपने मनको समझा लिया कि वे लोग बागी नहीं बने बल्कि इतनी बेइज़्ज़ती के होने से लाज-शरम की वजह से वे लोग कहीं अंत गांव में जाकर रहने लगे हैं ।

लेकिन जल्दी ही उन सबका यह भरम टूट गया ।

तब उन्हे गांव से जाये हुए डेढ़क महीना हो चुका था कि एक दिन गांव वालों को पता चला कि गांव से मील भर दूर, शहर से तगादा करने आये एक मुनीम की मोटरसाइकिल चार लोगों ने रोककर उसके पास रखे बीस हजार रूपये छीन लिये हैं । मुनीम ने जो हुलिया बताया, वो गंगा घोसी के चारों बेटों से मिलता-जुलता था ।

सारे इलाके में जाहिर हो गया कि गंगा के बेटे बीहड़ में कूद गये ।

अगले कई दिनों तक यह क्रम चला कि गंगा जिस रस्ते से निकलते, गांव के लोग झुक-झुक के उससे जुहार करते । गांव के हर मोहल्ले के लोग किसी न किसी बहाने उसके पास आने लगे और उनमंे से हरेक यह जताता कि पूरे गांववासी गंगा का पूरा सम्मान करते हेै, हर ऊंच-नीच में उसके साथ हैं । पहले तो वह इस आवभगत और आत्मीयता का मतलब नहीं समझ पाया लेकिन फिर यकायक उसको लग उठा था कि बेटों के बागी बन जाने से उसकी तो प्रतिष्ठा ही बढ़ गई ।

अपने गांव में गंगा को इतना सम्मान मिला कि वह फूला न समाया । वह पत्नी से यही चर्चा करता रहता । उसे लग रहा था कि डाकू बनके उसके बेटों ने पूरी दुनिया के सामने अपने बाप का नाम ऊचा किया है, खानदान का नाम उछार दिया है ।

अपने बेटों के लिए उसका दिल आशीषों से भर उठा । वह प्रायः गांव के फगवारे कन्हई को अपने घर बुला लेता और सीताकिशोर के दोहे सुनाने का आग्रह करता। अपनी सारंगी की रैं, पैं-पैं के बीच कन्हई लम्बी तान ले सुनाने लगता-

घर घर में चरचा चलत नामवरी हो जात

जब लरिका जय बोलिके भरकन में कढ़ि जात

पीरी माटी भुरभुरी उपजा में कमजोर

मनुस कहां से होंयेगे मृदुल और गमखोर

उधर उन चारों भाइयों का बीहड़ की जिंदगी से पहला-पहला परिचय था, सो उन्हे भारी तकलीफ हो रही थी । घूमने के लिए या ढोर चराने के लिए बीहड़ों में आना और बात थी, हमेशा के लिए रहने के वास्ते बीहड़ों में आ जाना और बात । पीली मिट्टी के वे ही ऊंचे-नीचे ढूह पहले कितने लुभावने लगते थे, लेकिन अब वे मौत का घर दिखाई देते थे- पता नहीं कौन किस टीले के पीछे छिपा हो, और घात लगा के उन पर टूट ही पड़े । न कोई ऊंचा पेड़, न दूसरी कोई छाया, ख्ुाला आसमान और ऊंची-नीची विपदा भरी धरती, बस यही आसरा था उनका । जाने कितनी बांबी और जाने कितनी खोह दिखती थी उन्हे जिनमें सांप-बिच्छू से लेकर गोहरे तक बिचरते रहते । एक दो दिन में ही अकुला उठे वेे । दिन भर भूखे-प्यासे रहने, आदमजात से छिप के रहने में, आगत संकटों की कल्पना में डूब कर डरते रहने में, और किसी तरह रोटी जुटाने में ही उनकी सारी ऊर्जा नष्ट हुई जा रही थी । बीहड़ में खुले आसमान तले इधर उधर भागते रहने और अधपेटे खाना खाने के कारण वे लगातार कमजोर होते जा रहे थे । दो-चार छोटी-मोटी लूट करके उनने जो थोड़ा बहुत रूपया कमाया, वो तो रोटी-पानी के इंतजाम में ही पानी की तरह खर्च हो चुका था। उन्हे ताज्जुब था कि जो रोटी गांव में इतनी सहज है, बीहड़ में इतनी मंहगी और दुर्लभ क्यों हो जाती है ।

उन्ही दिनों की बात है । एक रात वे लोग अमराई में सोये पड़े थे कि अनायास उन्हे एक डाकू गिरोह ने घेर लिया था । जागे तो उनकी घिग्घी बंध उठी थी । यह देख कर डाकू ने उन्हे आश्वस्त किया ।

वह डाकू उन्हे मारने नहीं, संरक्षण देने आया था।

वह था डाकू समरथ रावत -आदिवासियों का नया मसीहा !

उसने कृपाराम को आशीष दिया-‘‘ डरो मती हमसे, हमको अपना बड़ा भैया मानो ! जब हमे पता लगा कि तुम इते तकलीफ में हो तो हमसे सहन न भई, हम तुम्हे लेनेआये हैं।........चलो कछू दिन के लाने जि इलाके से बाहर निकरि चलो । .........हम बताहें तुम्हे कै, कौन-कौन अपयें दोस्त हैं और कौन-कौन दुश्मन !..... अपयें दुश्मन को अकेला मति जानो-जे मनुवादियों को पूरो समाज है अपओं दुश्मन ।......इन सबने मिलिके हमे गांव-खेड़े में खूब पदाओ, अबि अपनो जमानो आ रहो है । चलो निस्फिकर होकर हमाये संग चले चलो !‘‘

वे विमुग्ध से होते उसके पीछे चल दिये ।

समरथ ने अपने सिर पर रखी पोटली में से रोटी निकाल कर उन्हे खिलाईं फिर ढोर की तरह तलैया में मुंह डाल के पानी पीना बताया ।

इस तरह समरथ ने उन्हे बागी जीवन के पाठ पढ़ाना शुरू किया ।

मुखबिर लायक आदमी पहचानना, उस पर नजर रखना और फिर उसे मुखबिर बनाना । उससे सूचनायें लेना, उसके मार्फत दूसरे मुखबिर बनाना जैसे कई गुर बड़े धीरज से सिखाये समरथ ने उन्हे । समरथ कहता था-‘‘बागी का जीवन क्षण भंगुर है ! पता नहीं कौन दगा कर दे और बागी लाश बनके धूल चाटता दिखे ! इसलिये बागी के लिये सबसे ज्यादा जरूरी है विश्वस्त मुख़बिर रखना । जिसके जितने ज्यादा मुख़बिर होंगे, वो उतना ज्यादा ताकतवर होगा और उतनी ही ज्यादा लम्बी उमर होगी उसकी । बागी तो वैसे भी एक चलती-फिरती लाश है । बस जितने दिन का भोगमान है, उतने दिन ऐश कर लो, चल फिर लो, बाद में तो पुलिस वाले इस शरीर की ऐसी दुर्गत करेंगे कि खटिया से बधा गांव गांव घूमेगा । वे कहेंगे- लो देखो फलां बागी को।कितना दहाड़ता था, अब लाश धूल खाती फिर रही है ।‘‘

कृपाराम ने तभी निश्चय कर लिया था कि जितने दिन जियेंगे, शान से जियेंगे । भरपूर खायेंगे-पियेंगे और ऐसी ऐसी वारदातें करेगे कि नाम जहार हो जाये, अखबारों में रोज कारनामे छपे ।

सचमुच अखबारों की खबरों से बड़ा प्रेम था उन सबको । एक पोटली में गुड़ी-मुड़ी करे ढेर सारे अखबार लादे फिरते थे वे सब ।

समरथ उन दिनों चम्बल में एक तूफान की तरह आतंक मचाता घूम रहा था ।

पहली डकैती दिन-दहाड़े वीर पुर गांव में डाली थी समरथ ने कृपाराम के साथ । समरथ ने योजना बनाते वक्त समझाया था-‘‘मुखबिर ने खबर करी है कि हरिराम के यहां कोई हथियार नहीं है और गांव-मोहल्ले में उसका कोई शुभचिंतक भी नहीं है, सो उसके यहां डकैती डालने पर कोई आदमी उसकी मदद को हथियार लेकर नहीं आने वाला । इन दिनों उसकी एक बेटी अपनी ससुराल से मायके आई है, जिसके पास आधा किलो पीला और पंसेरी भर चांदी है । बस हरिराम के घर पहुंच कर अपने को उसी लड़की को ढूढ़़ निकालना है और उसका जेवर छुड़ा लेना है, हो गया काम फतह।‘‘

ठीक दस बजे वे लोग अपने ठांव से चले और बारह बजते-बजते वीरपुर में दाखिल हो गये । मुखबिर ने बताया था कि गांव में घुसते ही बांये हाथ की पहली गली में हरिराम का मकान है । आगे-आगे हाथ में पचफैरा लिए समरथ चल रहा था, उसके पीछे था कृपाराम । वे लोग वेधड़क हरिराम के घर में जा घुसे । समरथ के चार साथी बाहर पहरा देते रहे और बाकी उसके साथ भीतर पिड़ गये । पुलिस जैसी पुरानी सी वरदी, हाथों में हथियार और बाबा-महात्माओं से लहराते जटाजूट देखकर घर की औरते समझ गई कि आज आफत आ गयी सो वे बुक्का फाड़ के रो उठी । रोने-धोने की आवाजें सुनीं तो समरथ ने सबसे पहले हरिराम को ढूढ़ा-उसके सीने पर बंदूक रखके निर्देश दिया कि यह रोना-धोना बंद कराओ और अपनी सिमरदा वाली बेटी को बुलाओ, उसके जेवर ले जायेंगे ।

हरिराम को काटो तो खून नहीं । देर होती देखी तो श्यामबाबू ने आगे वढ़ कर हरिराम में चार-छह रहपट रसीद कर दिये । हरिराम सिसकी लेकर रो उठा लेकिन अपनी जगह से हिला तक नहीं । कृपाराम ने मौके की नजाकत को समझा और आंगन में जाकर उसने औरतों को सामूहिक रूप से संबोधित करते हुए आवाज में कड़की लाके कहा-‘‘ देखो बाइयो, हमे तुम सबसे कोई मतलब नही है । हरिराम की सिमरदा वाली लड़की के जेवर चहियें हमे, वो आके खुदई चुपचाप अपने जेवर दे जाये, तो ठीक रहेगा ! नहीं तो तुम सबको बेइज्जत होना पड़ेगा ।‘‘

औरतों की आंखे उस नव ब्याहता लड़की तरफ उठ गईं तो वह चीख मारके रो उठी । कृपाराम के इशारे पर श्यामबाबू आगे बढ़ा और उसने उस लड़की के झोटरा ( चोटी के बाल ) पकड़ लिए-‘‘चल ससुरी अपने बाप-मताई को बचाना चाहती है तो सीधे से अपने गहने-गुरिया उतार दे।‘‘

रोती-कलपती लड़की ने अपने तमाम जेवर उन्हे सोंप दिये, जिन्हे पाकर समरथ बड़ा खुश हुआ और हरिराम और उसके सारे रिश्तेदारों कोे चुप रहने की धमकी देता वापस चल पड़ा था। लौटते में उस रात वे लोग बीस किलामीटर से ज्यादा चले होंगे तब डेरा जमाये थे उनने । इस पहली लूट ने कृपाराम और उसके भाइयों को बिना रक्तपात के डकैती करने का नया हुनर सिखाया था, उन्हे इस पूरी डकैती के पीछे मौजूद मुख़बिर की भूमिका का भी महत्व पता चला था । फिर तो कई डकैतियां और कई अपहरण किये उन चारों ने समरथ के साथ ।

साल भर के भीतर ही उन चारों के हाथ में हथियार थे और कृपाराम की गांठ मेें थे, चारों के हिस्सा के रूपये एक लाख । हालांकि पुलिस रिकॉर्ड में उनके नाम की मिसल खुल गईं थी और उनके सिर पर बाकायदा ईनाम भी घोषित हो गया था ।

कृपाराम को तो अब भी अपने जीवन के बदलने की चाह थी, लेकिन उसके तीनों लंपट और उचक्के भाइयों को खूब आनंद आने लगा था इस जिंदगी में ।

अब न उनकी किसी हरकत पर घर मं कोई कहलान आना थी न पिता की मार झेलना थी । अब वे अपनी मरजी के मालिक थे ।

समरथ और कृपाराम हमेषा चिंतित दिखाई देते उन्हे । वे पूछते तो पता लगता कि मुखबिर लगातार खबर भेज रहे हैं कि पुलिस उनकी गैंग के पीछे मुखबिर छोड़ रही है, हिकमतसिंह भी अपने गुण्डे भेज रहा हैे। वे हंसते-वे का हमारो बाल उखाड़ लेंगे ! तुम दादा जबरई डरपत रहतु हो ।

कृपाराम को आज भी याद है वे डरपाती काली गहरी रातें, मुखबिरों के मार्फत आने वाली झूठी-सच्ची खबरें और अपने मताई-बाप को पुलिस द्वारा दी जा रही पुलिस प्रताड़ना के दर्दनाक किस्से ।

‘‘ रास्ता चलते तुमको खाना कहां से मिल जाता था ? ‘‘ एस ए एफ का उप कप्तान सिन्हा मुझको बीच में टोकते हुये बोला ।

‘‘ इसके लिये क्या चिंता थी साहब ? रास्ता चलते जो आदमी मिल जाता, उससे हर चीज छीन लेते थे वे लोग । अब कुछ न कुछ तो हरेक के पास मिल ही जाता है न ! कोई खाने पीने का सामान रखे जा रहा है तो कोई कपड़े या जेवर वगैरह, किसी के पास तो बन्दूक और कारतूस भी मिल जाते थे।‘‘ मैंने उन्हे समझाया ।

‘‘ और फिर रात-दिन झकरन में उलझते-बींधते भटकने के कारण हम सबको सबसे ज्यादा चहिये होते थे जूता और कपड़ा । सो अपने शिकार से बागी तो कपड़ा तक उतरवा लेत हते साहब । --- कई दफा तो हमने ही कपड़ा और जूता छीन के पहने ।‘‘लल्ला पंडित बीच में बोल पड़ा ।

‘‘ फिर तो तुम लोगों के खिलाफ भी मुकदमा बने होंगे ।‘‘ रघुवंशी हमे परेशान करने की दृष्टि से मजा लेते हुये बोला ।

‘‘ मुकदिमा को तो पतो नहीं साहब, हां इतनो पतो है कि महीना भर के भीतर हमारी हालत ऐसी हो गयी थी कि हम भी उनके संगी साथी लगने लगे थे । हम भी उन जैसे रहन लगे थे और उन जैसे ही कपड़ा पहनत हते । वैसे ही बड़े-बड़े बाल और वैसी ही गाली-गुफ्तार की भाषा । हम सबके शरीर से भी वैसी ही बदबू आने लगी थी जैसी कि बागियों के बदन से आती थी । उन दिनों अगर पुलिस इनकाउंटर करती तो गलती से हमको भी बागी समझ के मार डालती ।‘‘ कहते कहते मैं मन ही मन बोल रहा था ‘ पुलिस कोे बागी समझाने के बहाने की क्या जरूरत ! वो तो जिसे चाहे बागी मान कर मौत के घाट उतार सकती है ।‘

‘‘ तुम्हे घिन नाइ आत हती का, गिरराज इतने दिन तक बिना नहाय धोय के रहे तब !‘‘ नाक सिकोड़ता हैड कानिस्टबिल हेतम सिंह यकायक मुझसे पूछ रहा था जैसे उसे मेरे बदन से अब भी बदबू आ रही हो ।

‘‘ पहले पहल तो खूब घिन आई, रोटी पानी तक न खा सके कई दिन तक । बहुत कहें पै बागी मानें ही नहीं तो हम का करते । पिटत-पिटत टूट गये थे हम मन ही मन, और िफर जब बागियन ने बतायो कै पकड़ को जानबूझ कर नहलाया नहीं जाता तो हम चुप रहि गये । वे लोग न तो खुद नहाते न पकड़ को नहाने देते थे । नहाने का मतलब है असगुन होवो, सो वे लोग खुद भी अघोरी बने घूमत रहतु हैं ।‘‘

‘‘ उन तीन महीनो में वे अकेले तुम्हे लिये घूमत रहे कि उनने और कोई वारदात भी करी थी ?‘‘ सिन्हा के प्रश्न अनंत थे ।

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