Chindi Chindi sukh thaan barabar dukh - 3 in Hindi Moral Stories by Divya Shukla books and stories PDF | चिंदी चिंदी सुख थान बराबर दुःख - 3

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चिंदी चिंदी सुख थान बराबर दुःख - 3

चिंदी चिंदी सुख थान बराबर दुःख

(3)

उस रात कुंवर चुपचाप चले गये | न कुछ बोले न ही उनके चेहरे पर ही दुःख या पछतावा था बल्कि, उकताहट ही दिखी, उस दिन के बाद हम ने भी किसी से कुछ नहीं कहा |

बस मन ही मन सोचते रहे इस नन्ही सी बेटी को लेकर कहाँ जायें | किस पर भरोसा करें | यही सोचते-बिचारते दस पंद्रह दिन और बीत गये |

हम बिना कुछ बोले अपना काम धाम पहले की तरह ही निपटाते रहे | माँ बेटे दोनों को यही लगा, अब इसने समझौता कर लिया है | वैसे भी जायेगी कहाँ ! वो जानते थे मायके में तो ठौर मिलने से रही और बड़ी जेठानी शहर में तो अपने पास बुलायेंगी नहीं | वो वैसे भी बड़ी तेज़ स्वभाव की हैं सास से दो दिन भी नहीं पटती ठाढ़े जवाब देती | अम्मा उन्ही से सीधी रहती उनके एक बेटा और एक बेटी हैं, जेठ लखनऊ में मास्टर हैं | हमको बस यही एक आस दिखी | बस कुछ दिन का सहारा मिल जाये फिर तो कहीं कुछ भी काम करके हम माँ बेटी अपना गुजारा कर लेंगे |

बहुत सोच कर अब जाने का फैसला कर ही लिया और उस दिन सुबह जल्दी ही सारा काम निपटा दोपहर की बस से जाने का निर्णय कर लिया |

बस फिर हमने अपना और बिटिया का सामान लिया और जाने के लिये तैयार हो गये, एक हाथ से बैग दूसरे हाथ से बेटी का हाथ थाम कर हम बाहर जाने लगे तो अम्मा दरवाजे के बीच आ कर खड़ी हो गईं | उन्होंने आवाज़ दे कर सबको बुला लिया | कुंवर बाहर के दालान में बैठे थे जल्दी भाग कर आये | ससुर जी घर पर नहीं थे | दोपहर का खाना खाने वह घर आते बाकी समय उन्हें घर से कोई मतलब नहीं | वह बस दुकान और चक्की के हिसाब-किताब में लगे रहते बाकी जो अम्मा कहती उस पर मुहर लगा देते, अम्मा कुंवर की तरफ देख कर बोली --

'' रोक बेटा इसे कहाँ जा रही है ये समझा न इसको कौन कमी है जो घर छोड़ कर चल दी |

नाते रिश्तेदारी में हमार नाक कटवाई ये, सुन अगर देहरी से बाहर पाँव निकाली तू तो इस घर में कोई जगह नहीं होई तुम्हरे लिये, अरे इतनी बेसरमी तो नहीं देखी कहीं जिद ठान ली | अब जब लड़का मना कर दिया तो जबरन गले पड़ी जाय रही है या तो बियाह करो नहीं तो ये घर से निकल जायेंगी | जबरन कहीं ब्याह होता है अब बिटिया बड़ी हो रही है चाचा है पाल पोस कर ब्याह देगा भतीजी को | और तुम घर में रहो न जईसे अब तक रहीं कहा तो कुंवर दूनो को रख लेगा घर की बात भीतर ही रहे तो बेहतर | अब कुंवर की दुल्हिन के साथ तनिक समझौता तो तुमहूँ को करना होगा | चलो सामान रखो अब लड़कपन न करो, देखो सच तो ये है कोरी कुँवारी से ब्याह करे या पांच बरस की बिटिया की बैपरी महतारी से |''

इतना सुनते ही हमारे पूरे बदन में क्रोध से आग लग गई इतने दिनों का लिहाज़ शरम सब हम भूल गये, अम्मा हाथ पकड़ कर हमें भीतर ले जाने लगी एक झटके से अपना हाथ छुड़ा लिया और कहा

'' सही कहा आपने अम्मा कोरी कुँवारी लड़की से जरुर ब्याह करे पर ये तो बताइए आपका लड़का कुंवारा है ? ये हमसे अच्छा कौन जानता है | इसी बैपरी महतारी ने आपके बेटे को तीन बरस खूब बैपरा | हर रात इस्तेमाल किया है | अब इन्होने हमें इस्तेमाल किया या हमने इन्हें बात तो एक ही हुई अब तो कुंवर जी भी कोरे नहीं रहे ''--

''आप हमें इसी घर में बहू बना कर लाईं थी अब रखैल बन कर रहने की सलाह दे रही हैं ?

जाने दीजिये,अब अम्मा बहुत हो गया | अब हम नहीं रह पायेंगे यहाँ |''

बस हम बेटी को लेकर मायके आ गये कुछ दिन भाई के पास रह कर बिटिया को वहीँ छोड़ दिया | वह मामा मामी से खूब हिली मिली थी इस लिये हम निश्चिन्त थे |

भाई भाभी को सब बता कर हम लखनऊ आ गये जेठानी के पास | उन्हें सब पता था |अस्पताल से लेकर घर तक की सारी बात वह जानती थी |

हमने उनसे कहा हम को बस काम मिलने तक सहारा दे दीजिये | वह मान भी गईं |

सारा घर का काम हमने संभाल लिया और पास ही के सेंटर में टाईपिंग भी सीखने लगे |

हिंदी टाईपिंग सीखने में कोई परेशानी भी नहीं हुई |

तीन चार महीने सब ठीक रहा | जेठानी भी खुश थीं | उन्हें आराम था, पर शादी की खरीदारी के लिये अम्मा और कुंवर जब से कई चक्कर यहाँ आये तब से यहाँ के माहौल में कड़वाहट आने लगी न जाने क्या भर दिया अम्मा नें | जेठानी कान की कच्ची तो ये पहले से ही थी पर अब बहुत शक भी करने लगी | बात बात पर बिगड़ना और ताने देना कुछ दिनों से रोज़ का काम हो गया था | पर आज तो सीमा पार हो गईं |''

इतना कह कर वह रो पड़ी मेरा मन भी बहुत खराब हो गया उस दिन पार्लर वगैरह सब जल्दी बंद कर के मै घर वापस आ गई |

मै बार -बार यही सोच रही थी कितनी पीड़ा कितने अपमान से गुजरी होगी वह |
तभी तो नहीं रोक पाई और खोल ही दी पीड़ा की वो पोटली जिसके भार तले अब वह सांस भी नहीं ले पा रही थी | अगले दिन जब मै जब सेंटर पहुंची तो रूपा पहले ही आ चुकी थी और काम में लगी थी, दोपहर तक बहुत व्यस्तता रहती उसके बाद ही सांस लेने की फुरसत मिलती |
आज जैसे ही मै खाली हो कर बैठी रूपा पास आकर खड़ी हो गई | उसे नजर उठा कर देखा ही था कि वह बोल पड़ी -

'' दीदी आप हमसे नाराज़ तो नहीं हो | कल हम ने आपसे सब कुछ बताया कुछ भी नहीं छुपाया | यह भी नहीं सोचा आप हमारे बारे में क्या सोचेंगी,पर आप से सब साझा करके मन हल्का हो गया | सच कहूँ तो यह भी लग रहा था आप क्या सोच रही होंगी | कहीं सब की तरह हमको गलत समझी तो ? बस यही सोच कर सो नहीं पाये, आप ही बताईये क्या हम गलत है ? ''

इतना कह कर वो मेरी तरफ देखने लगी मै उसकी तरफ देख कर अभी भी उसके अतीत में ही डूबी थी | बार-बार सोचती | क्या औरत कोई मिट्टी की हांड़ी है जो एक बार चूल्हे पर चढ़ गई तो
जूठी हो गई और उस जूठी हांडी में मुंह मारने वाला मरद कभी जूठा नहीं होता आखिर क्यूँ ?

उस दिन मैने एक निश्चय भी किया आज के बाद अब इस बारे में कोई बात नहीं | फिर मैने उससे कहा -

'' नहीं रूपा तुम ने कुछ गलत नहीं किया | गलत तो तब होता जब तुम उनकी बात मान लेती |अब बस आज से इस बारे में कोई बात नहीं | बस अपना काम करो अभी बहुत कुछ सीखना बाकी है |''

मेरी बात सुन कर उसकी पनियाई आँखों में मुस्कान तैर गई और सच में उस दिन के बाद अतीत मैने कभी नहीं कुरेदा, और उसे और कहा -

'' रूपा भूल जाओ वह सब | अब तुम्हें नये सिरे से जीवन शुरू करना है |अतीत को थामे रहने से वर्तमान और भविष्य के रास्ते नहीं खुलते | उस कड़वे काले अतीत को पीछे छोड़ कर आगे की सोचो और इसके लिये तुम्हे सबसे पहले अपने पाँव पर खड़ा होना है | फिर बेटी का भविष्य भी तो सोचना है | घबराओ मत, हम हैं न | हम सब सिखायेंगे बस तुम लगन से सीखो | ''

अब वह बहुत मन लगा कर सीखती थी | जैसे-जैसे समय बीतता गया उसके हाथों में सफाई आती गई | साल भर होते होते वह पूरी तरह से पारंगत हो गई | उसमे गजब का आत्मविश्वास आ गया |अब वह पहले वाली रूपा नहीं रही | उसमें एक सलीका आ गया | जो उसके पहनावे से लेकर उसकी बोलचाल में भी झलकने लगा | वह बहुत मेहनत करती थी थोड़ा बहुत पैसा तो उसे यहीं से मिल जाता था | मेरी सहेली पूर्वा भी उसे बहुत स्नेह करती | वह हाईकोर्ट में वकील थी और बहुत सारी उन संस्थाओं से भी जुड़ी थी जो औरतों और बेटियों के लिये काम करती थी | उसका दायरा बहुत विस्तृत था | उसके सम्पर्क में सब तरह की कामकाजी स्त्रियाँ थी | हर वर्ग की जिसमें स्कूल टीचरों से लेकर मेडिकल कालेज़ की डाक्टर और महिला अधिकारी भी थी | हम दोनों ने यही सोचा अगर इन्ही लोगों से बात की जाय कि ये लोग अपने घर पर ही रूपा को बुला कर काम करवा लें तो इसकी भी बहुत मदद हो जायेगी और उनका भी समय बचेगा | इसके लिये पूर्वा और मैने बहुत मेहनत की उन्हें यह समझाने में उनकी थोड़ी सी मदद किसी स्त्री का पूरा जीवन बदल सकती है इसलिये प्लीज़ इसकी छोटी भूलों को माफ़ करियेगा |''

शुरू-शुरू में पूर्वा और मै ही उसे पहुंचा देते, पर ये हमेशा संभव नहीं था | धीरे-धीरे वह खुद जाने लगी | वह सुबह से निकलती और कभी कभी शाम के सात आठ बज जाते तब तक तो रात होने लगती | एक दिन मैने उसे समझाया वो शाम छ बजे के बाद कहीं न जाये और बिलकुल अनजान घर भी जाने से मना कर दिया करे | वह अब वयस्त रहने लगी थी | हफ्ते में एक दिन वह मेरे पास जरुर आती कुछ पूछने और पूरे हफ्ते की रिपोर्ट देने कुछ सलाह लेने के लिये भी |

काम के सिलसिले में उसका तरह -तरह की औरतों से मिलना होता और तमाम तरह के खट्टे-मीठे अनुभव भी होते जो उसके लिये और उसके काम के लिये मददगार ही थे | वह बहुत भागदौड़ करती थी | उसका गोरा रंग धूप और कड़ी मेहनत से तांबई हो गया था पर वह थकी नहीं | धीरे-धीरे उसके हाथ में ठीक-ठाक पैसे आने लगे | नब्बे के दशक में पांच छह हज़ार रूपये मासिक वह कमा ही लेती | इन पैसों के लिये वह कितना पैदल चलती जिससे टेम्पो या बस के किराये के कुछ पैसे बचा सके,रोज़ सुबह आठ बजे के बाद वह घर से एक बैग कंधे पर और एक हाथ में लेकर निकलती और शाम सात बजे तक ही लौट पाती | अब वह ट्रेंड ब्युटीशियन थी | उसके हाथ में सफाई भी आ गई और उसे काम भी बहुत मिलने लगा | कुछ दिनों बाद वह अपनी बेटी को भी ले आई और जेठानी के बच्चों के ही स्कूल में ही उसका एडमिशन करवा दिया | कुछ दिन तो शांति से गुज़रे अब कुछ पैसे भी जेठानी को देती और अक्सर घर का सामान भी ले ही आती | पर वह हमेशा असंतुष्ट ही रहती | कभी पैसे का रोना कभी घर में जगह की तंगी का बहाना कर हर दूसरे तीसरे दिन क्लेश करती | रूपा अभी एक एक पाई अपनी बेटी के लिये जोड़ रही थी | इसीलिए बाहर कहीं रहना नहीं चाहती घर का किराया तो जो लगता सो लगता ही पर बेटी को अकेले कैसे छोड़े यह सबसे बड़ी समस्या थी,एक दिन जब वह काम से थकी हारी लौटी तो जेठानी ने उसे नया फरमान सुना ही दिया

'' सुनो रूपा अब तुम महतारी बिटिया अपना खाना अलग बनाओ और जल्दी ही कमरा दूंढ़ लो | हमरे बच्चन की पढ़ाई खराब हो रही है अब एतना दिन तुमका राखे तुम्हरे जेठ की बंधी तनखाह में हम अपने ही बाल बच्चे पाल ले बहुत है अब तो तुमहू कमाने लगी हो | ''

'' अभी हम कहाँ जायेंगे दीदी ? इतनी जल्दी कमरा कहाँ मिलेगा अकेली औरत को | फिर नेहा को अकेले कहाँ छोड़ेंगे कितना खराब समय है | आप के पास रहती है तो हम को कोई फिकर नहीं होती | बिटिया अपनी बड़ी माँ के पास तो है ही | कभी देर सबेर हो जाती है तो भी कोई चिंता नहीं होती | दीदी उसका तो ख्याल करो ये आपकी ही बेटी है | आप जिस कोने में कहिये हम माँ बेटी गुजारा कर लेंगे |

खाना भी अलग बना लेंगे पर इस छत का सहारा न छीनो हमसे | ''

पर उसकी जेठानी नहीं मानी | बस इतनी कृपा किया सीढ़ी के नीचे खाना बनाने और दुछत्ती में सोने की जगह दे दी | जब की दो कमरे का मकान था बरामदा अलग से | अगर चाहती तो सिर्फ कमरे में तो सोने भर देती पर नहीं वह नहीं मानी | दो तीन महीने की किसी तरह बीते और तब उसे वही पास में ही कमरा किफायती किराये पर मिल गया | मकान मालकिन भी बहुत सहृदय थी रूपा की सारी परेशानी पड़ोसन होने के नाते अरसे से देख सुन रही थी | उन्होंने बड़े प्रेम से माँ बेटी को सहारा दिया |

रूपा का काम और बेटी की पढ़ाई अब अच्छी तरह चलने लगी | यहाँ उसे कभी लगा ही नहीं वो किरायेदार है | अपनी ही बड़ी बहन के घर जैसा माहौल वैसा ही स्नेह मिलता उसे | अब उस ने धीरे धीरे घर गृहस्थी का सामान भी जुटाना शुरू कर दिया | उसने सबसे पहले टेलीफोन लगवाया | मुझे याद है फोन लगते ही सबसे पहला फोन मुझे ही किया | वो बहुत खुश थी और मुझे भी बहुत ख़ुशी हुई | फोन उसके लिये जरूरी भी था | उसी से उसे काम की बुकिंग मिलती थी वरना अक्सर अच्छे पैसे वाले काम छूट जाते तो वह बहुत दुखी होती | फिर तो एक एक कर के उसने अपनी मेहनत और पसीने की कमाई से घर में फ्रिज, गैस सब कुछ खरीद लिया |

उधर जेठानी उसकी निंदा पुराण में कोई कमी नहीं रख रही थी | उस पर हर तरह के लांछन लगा चुकी पर अब तो रूपा सब झटक देती और अपने काम में लगी रहती |

***