Bhagwan ki Bhool - 7 in Hindi Moral Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | भगवान की भूल - 7

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भगवान की भूल - 7

भगवान की भूल

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग-7

अगले दिन रविवार था छुट्टी थी और वह दोनों आ धमकीं। दोनों मेरे लिए मिठाई-फल लेकर आई थीं। रौब झाड़ने के लिए पति की नीली बत्ती लगी गाड़ी से आईं थीं। जो पड़ोसियों के लिए कौतुहल का विषय बन गई। मां-बेटी में न जाने कैसा जादू था कि सामने आते ही पल में मेरा गुस्सा छूमंतर हो गया। आधे घंटे में दोनों मुझे अपने वश में करके चल दीं। दोनों मेरी सौ पेंटिंग्स की सीरीज की बात कहना नहीं भूली। मेरे लाख मना करने पर अंततः यह हामी भरवा ही ली कि सोचने दीजिए। उनके जाने के बाद जैसे मैं उनके प्रभाव से मुक्त हुई। सोत-सोते यह निर्णय ले लिया कि कभी नहीं। मगर अब दोनों पेंटिंग के शीर्षक मुझे बेचैन कर रहे थे कि एक मुझे ईश्वर की भूल तो दूसरी ईश्वर का आश्चर्य बता रही है। तो क्या मैं वाकई ईश्वर की गलती की सजा भुगत रही हूं। और यदि आश्चर्य हूं तो भी साफ ही तो है। सामान्य जीवन कहां जी रही हूं।

आखिर सबके जैसा एक सामान्य आरामदायक जीवन हमें भी क्यों नहीं दिया। मां को सुंदरता दी तो ऐसी कि वह उनके लिए अभिशाप बन गई। वह भी तो सामान्य जीवन न जी सकीं। पापा और वह सारा जीवन इस सुंदरता के कारण उत्पन्न बातों के कारण ही तो सारे परिवार समाज से कटकर अभिशप्त जीवन जीते आधे अधूरे ही चल दिए। हालांकि इसे उनका वहम भी कह सकते हैं। हां मेरा वहम नहीं है। मुझे तो दुनिया में भगवान ने एक मजाक ही बना कर भेजा है। दुनिया की हर चीज सारी इच्छाएं सारी संवेदनाएं सब कुछ तनमन में ठूंसकर भेजा मगर उन्हें पूरा करने पाने का जो रास्ता हो सकता है वह सब बंद कर दिया है। बस कुछ है जो बिना मांगे ही मिल जाता है। लोगों की हंसी, अपनी खिल्ली उड़ाते लोगों के चेहरे।

मैं उस रात बिल्कुल न सो सकी। रात के आखिरी पहर आते-आते सोचने लगी कि आखिर कब तक चलेगी ऐसे यह ज़िन्दगी । शादी-ब्याह का कोई मतलब ही नहीं। मां-बाप विचारे ढूंढ-ढूंढ़कर स्वर्ग सिधार गए। मैंने भी मना किया था कि और बड़ा कार्टून नहीं बनना। कार्टून का एक और पूरा परिवार नहीं बनाना। पता नहीं लोग कैसे यह कहते हैं कि भारत ऐसी जगह हैं जहां कुछ हो ना हो शादी ज़रूर हो जाती है। पता नहीं .... । किसी बच्चे को अपना सकूं इसके भी सारे रास्ते बंद हैं। और इस भूख का क्या करूं जो खाने-पीने के आलावा तन की भूख है। जो इस अकेले घर में रोज-रोज बढ़ती जा रही है। और जब रात को यह भूख बढ़ती है तो तन-मन मचल-मचल कर चला जाता है डिंपू के पास। कई दिन, कई हफ्ते, फिर कई महीने इसी उधेड़ बुन में निकल गए कि आखिर ज़िंदगी जियूं तो जियूं कैसे ? ऐसे तो वह दिन दूर नहीं जब मां-बाप की तरह डायबिटिज, बी.पी, हॉर्ट की पेशेंट बनकर फिर कई साल दवा-दारू के सहारे घिसटते-घिसटते जीकर मर जाऊंगी।

यदि मैं गॉड के मिस्टेक में ही अपने लिए कोई अवसर निकालूँ । उस मिस्टेक को अवसर में तब्दील कर दूं।

ऐसे ही मन में होते तर्क-वितर्क प्रश्न-प्रतिप्रश्न के बीच कई और महीने बीत गए। रोज कुछ अच्छा होता तो कुछ बड़ा तकलीफदेह भी। लोगों की हंसी उड़ाती नजरें जो पहले तीखी बर्छी सी लगती थीं। अब वह हवा के झोंकों सी आकर मानों मुझे सहलाकर चली जातीं। नौकरी करते-करते चार साल पूरे होने को आ गए थे। पितृपक्ष आया तो लगा कि कैसे वक्त बीत गया पता नहीं चला। मां को भी गुजरे तीन साल हो गए। सारे विधि-विधान के अनुसार पंडित को बुला कर मां-पिता दोनों को पितृपक्ष में पिंडदान किया। कई लोगों के लिए यह आश्चर्य भरा रहा ।

ब्राह्मणों को इस अवसर पर भोजन कराने, वस्त्र आदि देने की परंपरा से अलग हटकर मैंने केवल जो ब्राह्मण सारी क्रियाओं को संपादित कराने आए थे उन्हें एक सेट कपड़ा खाने-पीने की चीजें देकर विदा किया। इसके अलावा चार-चार पूड़ियों और सब्जी की दो सौ पैकेट एक हलवाई से बनवा कर डिंपू ननकई के बेटे को लेकर शहर के अंदर मंदिर आदि पर जो भी भिखारी मिला उसे बांट दिया। भिखारियों छोटे-छोटे बच्चों को खाने के लिए एकदम टूट पड़ने, मचल उठने को देखकर मेरा मन भीतर-भीतर ही रो पड़ा।

उस दिन फिर तमाम रातों की तरह मैं सो न सकी लेकिन वह रात जीवन की सबसे अहम रात बन गई। मुझे आगे क्या करना है इन सारी बातों को मैंने अंतिम रूप दे दिया। पहला यह तय किया कि दो में से एक प्लाट बेचकर एक पर अनाथालय कम स्कूल के लायक बिल्डिंग बनवाऊंगी। उसमें सड़क पर पेट की आग बुझाने के लिए दर-दर भटक रहे बच्चों को रखूंगी। जहां उनके लिखने-पढने खाने-पीने का इंतजाम होगा। एन.जी.ओ जैसा कुछ बनाऊंगी। जो सरकारी मदद मिल सकेगी लूंगी। अब तक मैं पहले जो कर चुकी थी वो भी इसमें मददगार साबित होगा। मैंने चित्रा आंटी से खूब संपर्क बढ़ा लिया। उन्हें महीने में एक बार घर ज़रूर बुलाती।

वह भी रौब झाड़ने के लिए नीली बत्ती गाड़ी लाना न भूलतीं। मगर मैं इसका प्रयोग अपना दब-दबा बनाने के लिए करती रही। मुहल्ले के छुट्-भैए लफंगों और डिंपू को भी राइट टाइम रखने में यह रौब काम आ रहा था। रही सही कसर गीता को बुला कर पूरी कर लेती थी। पुलिसवर्दी में कुछ कांस्टेबिलों के साथ जब वह आती जीप लेकर तो और दब-दबा कायम होता। नाली, सड़क के एक विवाद को गीता को बुलवा कर चुटकी में सही करवा दिया था। इससे भी मेरी इमेज बहुत पहुँच वाली बन चुकी थी।

अपनी व्यक्तिगत समस्याओं के चलते मैंने एक और काम यह किया था कि मां की मृत्यु के डेढ़ साल बाद ही ननकई को सपरिवार घर पर बुला लिया था रहने के लिए। उसे ऊपर एक कमरा दे दिया था। पहले वह आने को तैयार न हुई लेकिन मैंने जब समझाया कि कब तक किराए पर धक्के खाती रहोगी। तुम मुझे एक पैसा किराया नहीं देना। अभी तक जो किराया दे रही हो वह बचाती रहना। इस बीच कोई मकान एलाट करवा लेना और फिर बनवाकर चली जाना।

उसे मैंने अपना किचेन भी दे दिया कि वहीं बनाओ खाओ। मैं सारा सामान दे दिया करूंगी। मेरा भी खाना-पीना, चाय-नाश्ता सब तुम्हारे हवाले। तुम्हें जो लाना हो लाओ, नहीं तो कोई बात नहीं। शुरू में वह बहुत हिचकी मगर फिर मान गई। मैं इतना सामान मंगवाती थी कि उसके परिवार के हिस्से का भी करीब आधे महीने का हो जाता था।

ऑफ़िस वह मेरे साथ ही आती-जाती थी। तो आने-जाने का किराया भी उसका बचता था। कार जैसी सुविधा अलग थी। मुझे फायदा यह हुआ कि चाय-नाश्ता, खाना-पीना सब बना बनाया मिलने लगा। काम वाली को छुड़वा दिया। सबसे बड़ी बात कि घर में तीन सदस्य और आ गए तो सुरक्षा का एक माहौल बना। अब घर सांय-सांय कर काटने को नहीं दौड़ता था। अपना रास्ता तय करते ही मैंने माता-पिता के नाम से एक संस्था रजिस्टर कराई। दो में से एक प्लाट पर जो इस काम के लिए ज़्यादा मुफीद था जिस पर एक कमरा बना था उसी पर बोर्ड लगवा दिया। बाऊंड्री पापा ने ही बनवायी थी। चित्रा आंटी की खूब मदद ली। उनकी नीली बत्ती हर जगह काम आसान कर देती।

गीता यादव का भी सहयोग मिलता। लोगों से सुनती थी कि पुलिस वालों से दूर रहो लेकिन वह मेरा एक हाथ बन गई थी। और बदले में कुछ नहीं ले रही थी। बीच-बीच में दूसरे जिलों में भी उसकी तैनाती हुई लेकिन उसने संपर्क नहीं तोड़ा। जाते-जाते अपनी महिला सहयोगियों से आज भी मिलवाकर जाती है। फिर जाते ही वापस ट्रांसफर की कोशिश में जुट जाती है। और जल्दी ही लौट भी आती है। गीता के विपरीत चित्रा आंटी बदले में सौ पेंटिंग्स की सीरीज के लिए कहना नहीं भूलतीं। सच यह था कि मैं इसके लिए पूरे मन से कभी मना नहीं कर पाती थी। बस टालती थी। एक बार मैंने हंसी में ही उनसे यहां तक कह दिया कि आंटी शुरुआत मेरी मिनिषा की न्यूड पेंटिंग से करो।

एक लंबी एक बौनी, वास्तव में यह न्यूड पेंटिंग ली झुआंग पिंग की बेटी की बनाई गई न्यूड पेंटिंग की तरह तहलका मचा देगी। इस पर मिनिषा मुझे बांहों में भर कर ठहाका लगा कर हंस पड़ी थी। मां से बोली थी ‘मॉम दिस इज ए ग्रेट चैलेन्ज फॉर यू’। मां बोली थी ‘या आई एक्सेप्टेड ... । लेकिन तुम दोनों तो तैयार हो।’ उस क्षण मैं फिर सिहर उठी थी भीतर तक कि यह आंटी तो पीछा ही नहीं छोड़ती। और अब तो अपनी भविष्य की योजनाओं को लेकर मैं खुद उनका पीछा नहीं छोड़ना चाहती थी।

वे गॉड्स फ़ॉल्ट का फायदा उठाना चाह रही थीं। और अब मैं उनकी नीली बत्ती का फायदा उठाने में लग गई। अंततः एक दिन न्यूड पेंटिंग्स कि सीरीज के लिए अपनी सहमति देते हुए मैंने एक प्रस्ताव भी रखा कि आंटी उस दिन जो मजाक में कहा था आज पूरी गंभीरता के साथ कह रही हूं कि इस सीरीज को बजाय सिर्फ़ मेरी सीरीज के मिनिषा और मेरी सीरीज बनाएं तो सही मायने में आर्ट की दुनिया में तहलका मचेगा, आप कुछ असाधारण कर पाएंगी। और प्रदर्शनी यहां के बजाय मुंबई या दिल्ली में रखें जिससे सही एक्सपोजर मिल सके।

मेरी बात सुनकर वह बोली ‘तनु सच यह है कि इसके डैडी इसके लिए तैयार नहीं हैं। इसलिए तुम यदि खुशी-खुशी तैयार हो तो ठीक है। हां प्रदर्शनी की जहां तक बात है तो यदि तुम तैयार होती हो तो इस सीरीज की प्रदर्शनी अमेरिका में होगी। मिनिषा के डैडी वहां सब कुछ अरेंज करा देंगे। तुम तैयार होगी तो तुम्हें भी ले चलेंगे। इससे यहां किसी को तुम्हारे बारे में पता चलने का खतरा नहीं रहेगा। दूसरे जो इंकम होगी उसमें भी तुम्हारा शेयर होगा।‘

उस दिन जब आंटी गईं तो मुझे लगा कि वो भारी मन से गई हैं। मुझे अपनी भविष्य की योजना मुट्ठी से फिसलती रेत की तरह निकलती लगी तो अगले दिन मैंने प्रदर्शनी अमेरिका में ही हो इस शर्त पर आंटी की किसी भी पेंटिंग के लिए मॉडलिंग करने की सहमति दे दी। सोचा जब पेंटिंग के लिए पहले ही न जाने कितनी बार मां-बेटी के सामने निर्वस्त्र हो चुकी हूं तो और बार करने से क्या फर्क पड़ेगा। मां-बेटी भी तो मेरे सामने निर्वस्त्र हो चुकी हैं। भले ही यह उनका एक हथियार था मुझे कंविंस करने के लिए।

आखिर भगवान की भूल का परिणाम इस शरीर का कुछ तो प्रयोग हो। इसे एक ठूंठ सा छोड़ देने का क्या फायदा। फिर मैं अपनी योजनानुसार जुट गई अपना मिशन पूरा करने में। संस्था के काम में सरकारी नौकरी के कारण कोई विघ्न बाधा न आए इसका तरीका आंटी के पति महोदय बताते रहे। अनाथालय की बिल्डिंग कछुआ चाल से बनवाती रही। जब तक वह कुछ काम लायक बन पाई तब तक छः साल निकल गए। आंटी के काम की भी यही गति रही और वह अलग-अलग पोज में मेरी बमुश्किल सैंतीस पेंटिंग्स बना पाईं।

मुझे पहली दो-चार पेंटिंग के अलावा किसी में कुछ नयापन नजर नहीं आया। हां इस बीच मिनिषा ने अलग-अलग पोज में मेरी पचास से ऊपर पेंसिल स्केच बना डाले जो वाकई शानदार थे। मिनिषा मुझसे ज़्यादा देर मेहनत नहीं करवाती थी। वक्त ज्यादा लगने का कारण यह भी था कि मैं ज्यादा वक्त नहीं दे पाती थी। शुरू में मैं डरी थी कि मां-बेटी उत्साह में यह सब कहीं किसी को दिखा न दें। लेकिन फिर उन्हें हिफाजत से इन पेंटिंग्स के लिए ही विशेष रूप से बनवाए गए बक्सों में बंद करते देख डर खत्म हुआ था। आंटी के हसबैंड भी आर्ट और ऑर्टिस्ट के बड़े कद्रदान थे। तो काम सारा अच्छा चलता रहा। काम के प्रति मां-बेटी का समर्पण देख मुझे भी अपने उद्देश्य को पूरा करने की प्रेरणा मिलती रही।

समय या लापरवाही के कारण मेरे शरीर में कोई बड़ा परिवर्तन मोटापा न आ जाए इसके लिए मुझे योग करने संतुलित आहार लेने का एक तरह से आदी बना दिया था। मैं इसे किए बिना रह ही नहीं सकती थी। इसका मुझे रिजल्ट दिख रहा था कि इन छः वर्षों में भी मेरे शरीर, कार्य क्षमता में कोई बड़ा फ़र्क नहीं आया था। मां-बेटी भी यह सब करके अपने को मेनटेन किए हुए थीं।

ऐसे ही देखते-देखते एक और वर्ष बीत गया। एक दिन एक और पेंटिंग पूरी कर मां-बेटी और मैं ऑर्ट रूम में ही बैठी कॉफी की चुस्कियां ले रही थी कि तभी आंटी अचानक ही बोली तनु तुम्हारा पास पोर्ट बनवाना है, संभव है कि इस साल के अंत तक अमेरिका चलना पड़े। हम लोग वहां प्रदर्शनी की तैयारी में लगे हुए हैं। मेरे कुछ रिलेटिव्स हैं जो वहां हमारी मदद कर रहे हैं।

मैंने कहा ‘लेकिन आंटी आपकी पचास पेंटिंग भी नहीं हुई हैं। इतनी जल्दी कैसे हो जाएगा।’ तो वह बोलीं ‘मेरी और मिनिषा की मिलाकर सौ हो रही हैं। इतने से ही काम आगे बढ़ाएंगे। सौ के चक्कर में अभी न जाने कितने और साल लग जाएं।’ मैंने कहा ‘ठीक है। लेकिन मैं कभी बाहर गई नहीं’ तो वह बोलीं ‘तुम चिंता क्यों करती हो। तुम तो हमारे साथ रहोगी। सब कुछ हम अरेंज करेंगे, तुम्हें बस साथ चलना है।’ मैं अपनी सहमति देकर चली आई।

आंटी ने अपने कहे अनुसार जल्दी ही पासपोर्ट भी बनवा दिया। फिर एक दिन बोलीं कि ‘तनु इस दिवाली के अगले ही दिन हम लोगों को अमेरिका चलना है। मैं, तुम, मिनिषा और उसके डैडी साथ चल रहे हैं, दो लोग और भी हैं, बाकी लोग वहीं हैं। अब कुछ ही महीने हैं जब तुम ऑर्ट की दुनिया में छा जाओगी।’ मैंने कहा ‘आंटी आप दोनों भी’ तो वह बोलीं ‘हां, हम तीनों।’ उस दिन मैं बहुत खुश थी। गॉड्स फ़ॉल्ट अमेरिका जाएगी।

मगर यह सोच-सोच कर बार-बार शर्म महसूस कर रही थी कि मिनिषा के फादर, उसके सामने कैसे फेश करूंगी। पेंटिंग्स के जरिए तो मैं एक तरह से उन सबके सामने नग्न ही रहूंगी। इस सारी उधेड-बुन के बीच सारी तैयारियां चलती रहीं। वहां के मौसम के हिसाब से मेरे लिए कपड़े भी आंटी ही अरेंज कर रही थीं। इस बीच आर्ट के बारे में जो भी लिटरेचर जानकारी मुझे मिली उसके बारे में जानने-समझने की पूरी कोशिश की। एक चीज यह भी समझी कि ऑर्टिस्ट अपने मॉडलों को तो लोगों के सामने इस तरह लाते नहीं। आंटी क्यों ला रही हैं। फिर सोचा हो सकता है कि ऐसा होता ही हो। किताबों में सब कुछ तो नहीं मिल जाता।

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