Kaun Dilon Ki Jaane - 4 in Hindi Moral Stories by Lajpat Rai Garg books and stories PDF | कौन दिलों की जाने! - 4

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कौन दिलों की जाने! - 4

कौन दिलों की जाने!

चार

क्रिसमस से अगला दिन

रानी ने सुबह उठकर जैसे ही बाहर का दरवाज़ा खोला तो देखा कि बाहर कोहरे की चादर फैली हुई थी। कोहरा इतना गहरा था कि सामने वाले घरों के खिड़की—दरवाज़े तक दिखाई न देते थे। स्ट्रीट लाईट्‌स की रोशनी सड़क तक भी नहीं पहुँच पा रही थी, ट्‌यूब—रोड के चार—पाँच फीट के घेरे में ही सिमट कर रह गई थी। चारों तरफ पूर्ण निस्तब्ध्ता छाई हुई थी, कहीं किसी पंछी तक का स्वर सुनाई नहीं देता था। छः बज चुके थे, फिर भी घुप्प अंधेरा था। रात टी.वी. पर दिखा रहे थे कि शिमला में काफी वर्षों के पश्चात्‌ क्रिसमस के अवसर पर ‘स्नोफॉल' हो रहा था। शिमला के मौसम का ट्राईसिटी के मौसम पर तत्काल असर देखने को मिलता है। कहावत भी है कि शिमला को छींक आती है तो ट्राईसिटी को जुकाम हो जाता है। इस सर्दी के मौसम में अभी तक कोई विशेष ठंड नहीं पड़ी थी। लगता ही नहीं था कि सर्दी का मौसम आ चुका है, कोहरा तो दूर की बात थी। लेकिन आज शिमला की बर्फीली हवा ट्राईसिटी में उतर आई थी, अतः बाहर खड़े होने पर वातावरण में शीतलता के कारण रानी को शरीर में झुरझुरी—सी अनुभव हुई। वह अन्दर आकर रजाई में दुबक गई। कुछ देर उपरान्त रमेश उठा। उसके फ्रैश होने के बाद रानी सुबह की चाय बना लाई। चाय अभी समाप्त भी नहीं हुई थी कि रमेश के मोबाइल की घंटी बज उठी। कॉल सुनने के बाद रमेश ने दो घूँट में ही चाय का कप खाली कर रानी से कहा — ‘एक ‘अर्जेंट' काम के लिये मुझे दिल्ली जाना पड़ रहा है। तुम नाश्ता तैयार करो, मैं तैयार होकर आता हूँ। ड्राईवर को फोन करके आठ बजे तक आने के लिये कह दो और जब आ जाये तो उसे गाड़ी का टैंक फुल करवाने के लिये भेज देना।'

‘आज ही वापस आओगे या रात दिल्ली में रुकोगे?'

‘रात तक आ जाऊँगा। हो सकता है लेट हो जाऊँ, लेकिन आऊँगा जरूर, क्योंकि कल मुझे एक जरूरी मीटिंग अटैंड करनी है। बाहर के गेट पर ताला मत लगाना। जाते हुए मैं ड्रार्इंगरूम को ताला लगा दूँगा। जब भी आऊँगा, आकर सो जाऊँगा। तुम्हें डिस्टर्ब नहीं करूँगा, तुम निश्चिंत होकर सोई रहना।'

‘ड्रार्इंगरूम को ताला लगाकर जाने की जरूरत नहीं। जब भी आओगे, मैं दरवाज़ा खोल दूँगी।'

‘नहीं—नहीं। हो सकता है, मैं आधी रात के बाद वापस आऊँ। बिना वजह मैं तुम्हें नींद में डिस्टर्ब नहीं करना चाहता।'

रानी और कुछ कहे बिना नाश्ता बनाने के लिये रसोई में व्यस्त हो गई।

रमेश के दिल्ली जाने के बाद रानी ने आलोक को फोन लगाया। फोन मिलने पर पूछा — ‘आलोक, आज घर पर ही रहोगे या कहीं जाना है?'

उधर से उत्तर आया— ‘आज कहीं नहीं जाना, घर पर ही हूँ। बोलो, क्या बात है?'

‘मैं पटियाला आना चाहती हूँ।'

‘मोस्ट वेलकम। कब तक पहुँचोगी?'

‘सीज़न के पहले कोहरे ने चारों तरफ अपना साम्राज्य फैला रखा है। मेड अभी आई नहीं है। उसके काम करने के बाद ही निकल पाऊँगी। एक—डेढ तो बज ही जायेगा। मैं लंच बनाकर लाऊँगी।'

‘रानी, तुम लंच बनाकर मत लाना।'

‘क्यों? जब लंच के वक्त आ रही हूँ तो लंच इकट्ठे करेंगे।'

‘लंच तो इकट्ठे करेंगे, किन्तु तुम लंच लेकर मत आना। तुम्हें एक बात याद है जो मैंने कही थी जब मैं तुम्हारे पास घर पर आया था?'

‘बातें तो हमने बहुत की थीं, लेकिन तुम किस बात की याद दिला रहे हो?'

‘मैंने कहा था कि जब कभी पटियाला आओगी तो अपने हाथ का बना खाना खिलाऊँगा।'

‘हाँ—हाँ, बिल्कुल याद है। मेरी जीभ तो अभी से तुम्हारे हाथ का बना खाना खाने को लपलपाने लगी है।'

‘इसीलिये तुम्हें लंच लाने से मना कर रहा था। ठीक है, लंच पर तुम्हारा इन्तज़ार रहेगा।'

इसके बाद फोन बंद कर रानी स्नान करने बाथरूम में चली गई। लच्छमी के आने से पहले ही रानी ने अपने नित्यकर्म निपटा लिये थे। उधर जब रानी का फोन आया तो आलोक अभी रजाई में बैठा अखबार पढ़ रहा था, क्योंकि मौसम काफी ठंडा था और आज उसका कहीं जाने का कोई कार्यक्रम भी नहीं था। अतः जब उसकी मेड आई तो उसको ‘क्या—क्या करना है' समझाते हुए कहा — ‘जसवन्ती, मिक्स वेज बनाने के लिये फ्रिज से फूल गोभी, गाजर और मटर निकाल लो और छौंक लगाने के लिये प्याज़, टमाटर, अदरक, लहसुन, धनिया बारीक काट लेना। सब्जी मैं खुद छौंकूँगा, तुम छः पराँठे बना देना। इतने में मैं नहाकर आता हूँ।'

जसवन्ती को आलोक का छः पराँठे बनाने के लिये कहना कुछ अटपटा—सा लगा, क्योंकि वह दो या तीन से ज्यादा पराँठे कभी भी नहीं बनवाता था। उसने सोचा, साहब से पूछूँ कि किसी ने आना है क्या, किन्तु अपनी जिज्ञासा को दबा कर वह अपने काम में व्यस्त हो गई।

दस बजे के लगभग कोहरा छँटना शुरू हुआ। ग्यारह बजे तक ठंडी—मीठी धूप निकल आई थी। ठीक एक बजे रानी की कार आलोक की कोठी के बाहर थी। कोठी का मेन गेट खुला था। रानी ने कार पैसेज मे लगाई और हॉर्न बजाया। हॉर्न सुनते ही आलोक बाहर आया। रानी ने आलोक द्वारा खरीदी गई साड़ी पहनी हुई थी। नमस्कार प्रतिनमस्कार के पश्चात्‌ आलोक ने कहा — ‘वेलकम! इस मजेंटा कलर की साड़ी में तुम सचमुच महारानी लग रही हो।'

‘तुम्हारी पसन्द है, अच्छी क्यों न लगेगी? जैकेट भी खूब जंच रही है तुम पर।'

इस प्रकार एक—दूसरे के परिधान पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने घर के अन्दर प्रवेश किया। अन्दर आकर ड्रार्इंगरूम में बैठे। सादगी व साफ—सफाई में सुरुचिता स्पष्ट झलकती थी। शीशम की लकड़ी का फाईव सीटर सोफा—सेट तथा उसी लकड़ी का सेंट्रल टेबल था, टेबल का टॉप ग्लास का था। सामने वाली दीवार पर आलोक और रश्मि का पोर्टेट साईज फोटो सुनहरे रंग के फ्रेम में टँगा हुआ था। रानी ने फोटो को गौर से देखते हुए पूछा— ‘यह फोटो कब की है?'

‘यह बेटे के विवाह के समय खचवाई थी।'

‘रश्मि की पर्सनैलिटी बड़ी मनमोहक है। चेहरे का नूर देखते ही बनता है। अफसोस कि इस देवी के दर्शन मेरे नसीब में नहीं थे। लगता है, किसी की नज़र लग गई!'

रश्मि के प्रति रानी की भावनात्मक टिप्पणी सुनकर आलोक की आँखें नम हो आईं। मुँह दूसरी ओर कर रूमाल से आँखों को पोंछा और मन के भाव छिपाकर रानी के पास रखे पैकेट को लक्ष्य करते हुए पूछा — ‘इसमें क्या है, या सुदामा की तरह मेरे लिये लाई हुई भेंट मुझसे ही छिपाई जा रही है?'

‘इसमें छिपाने जैसी कोई बात नहीं है,' और साथ—की—साथ रानी ने पैकेट खोलकर हाथ से बुना हुआ स्नोव्हाइट ऊनी स्वेटर निकाला और आलोक को देते हुए कहा — ‘वर्षों से हाथ से स्वेटर बुनना छूट चुका था। तुमसे मिलने के बाद मन किया कि तुम्हें अपने हाथ की बनाई हुई कोई ऐसी चीज़ भेंट करूँ जो तुम्हारे दिल के पास रहे।'

आलोक ने जैकेट उतारी और स्वेटर पहन लिया और पूछा — ‘खुश?'

‘बहुत। सर्दियों में जब इसे पहना करोगे तो कम—से—कम मेरी याद तो आया करेगी।'

‘तुम्हारी याद सर्दियों में इसे पहनने के वक्त ही क्यों आयेगी —

हर शाम आँखों पर, तेरा आँचल लहराये

हर रात यादों की, बारात ले आये

मैं साँस लेता हूँ, तेरी खुशबू आती है

इक महका—महका सा, पैगाम लाती है

मेरे दिल की धड़कन भी, तेरे गीत गाती है

पल—पल दिल के पास, तुम रहती हो।'

‘आलोक, दीवानगी की हद तक प्यार करने लगे हो, लेकिन —

अज़ीज इतना ही रखो कि जी सम्भल जाय,

अब इस कदर भी न चाहो कि दम निकल जाय।'

‘रानी, दीवानगी ही एकमात्र रास्ता है, जिसके द्वारा ज़िन्दगी के भेदों तक पहुँचा जा सकता है। और प्यार अब थोड़े ही हुआ है, यह तो बचपन में ही हो गया था। जहाँ तक चाहत का सवाल है, इसकी सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती, यह तो असीम होती है। अफसोस इतना ही है कि सही वक्त पर संकोच के मारे अपनी चाहत व्यक्त नहीं कर पाया। मन तो चाहता था कि बचपन की दोस्ती आगे बढ़े। दूसरे, संकोच एकतरफा नहीं था। जब तुम पहली बार लस्सी लेने आई थी और माँ से मेरे बारे में पूछा था और उन्होंने तुम्हें मुझसे मिलने के लिये ऊपर जाने को कहा था, अगर कहीं तुम ऊपर आ गई होती या जिस दिन मैं घर पर अकेला था और तुम लस्सी लेने आई थी, उस दिन मन की इच्छा मन में दबाये वापस न हो गई होती, तो हो सकता है, हमारे जीवन का घटनाक्रम कुछ और ही होता! लेकिन नियति को यह स्वीकार न था। विधि के विधान को कौन बदल सका है? तुमने तो स्वयं स्वीकार किया है कि पहली ‘किस' वाले दिन से ही मन—ही—मन तुमने मुझे अपना बना लिया था। तुमने अपने मन के भाव तो इसी से प्रकट कर दिये थे। मैं ग्रेजूएशन करने के बाद पटियाला आ गया। एम.ए. करने के बाद वहीं लेक्चररशिप मिल गई और मैं पटियाला का होकर ही रह गया। मुझे नहीं पता था कि विवाह के उपरान्त तुम मोहाली में हो। एक बार जीवन की राहें अलग—अलग होने के बाद हमारे बीच की 60—65 किलोमीटर की भौगोलिक दूरी मिटने में लगभग चालीस वर्ष लग गये। खैर छोड़ो, यह बताओ, चाय लोगी या सूप?'

‘सूप बनाना है, या बना रखा है?'

‘तुम पाँच मिनट बैठो, मैं अभी आया।'

‘मैं भी आती हूँ।'

‘आज घर पर तुम पहली बार आई हो, रसोई में अगली बार।'

रानी इस बीच ड्रार्इंगरूम में रखी बुकशेल्फ में सलीके से रखी हुई पुस्तकों के टाइटल्स देखने लगी। बुकशेल्फ पुस्तकों से भरी हुई थी। कुछ विशेष टाइटल्स जिनपर रानी की नज़र पड़ी, वे थे — रामचरित मानस, महाभारत, श्रीमद्‌ भागवत पुराण, स्वामी रामसुख दास जी की श्रीमद्‌ भागवत गीता पर टीका, चाणक्य—नीति, कालिदास की काव्य—कृतियाँ ‘मेघदूत' व ‘कुमारसम्भव', कबीर की ‘दोहावली', मीरा की ‘पदावली', सूरदास के ‘सूरसागर' व ‘भ्रमरगीत', जायसी का महाकाव्य ‘पद्‌मावत', रहीम की ‘सतसई', बिहारी की ‘सतसई', गांधी की आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग', नेहरू की ‘डिस्कवरी ऑफ इण्डिया', टैगोर की नोबेल पुरस्कार से पुरस्कृत काव्यकृति ‘गीतांजलि' व उपन्यास ‘गोरा', बंकिम चन्द्र चट्‌टोपाध्याय का उपन्यास ‘आनन्द मठ', मिर्ज़ा गालिब का ‘दीवाने—गालिब', शेक्सपीयर के सम्पूर्ण नाटकों व गीतों का संग्रह, मिल्टन का महाकाव्य ‘पैराडाइज लॉस्ट', चार्ल्स डिकेन्स के नॉवेल ‘डेविड कॉपरफील्ड' व ‘ऑलिवर टविस्ट', टॉलस्टाय का नॉवेल ‘वार एण्ड़ पीस', दॉस्तोवस्की का नॉवेल ‘क्राइम एण्ड़ पनिशमेंट', मैक्सिम गोर्की का नॉवेल ‘द मदर', आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित औपन्यासिक कृति ‘बाणभट्‌ट की आत्मकथा', जयशंकर प्रसाद का महाकाव्य ‘कामायनी', मुंशी प्रेमचन्द के उपन्यास — गोदान, गबन, निर्मला, सेवासदन, रंगभूमि, कर्मभूमि, कायाकल्प, प्रेमाश्रम, प्रतिज्ञा व श्रेष्ठ कहानियों का संग्रह, अज्ञेय के उपन्यास ‘शेखरः एक जीवनी' व ‘नदी के द्वीप', यशपाल के उपन्यास ‘झूठा सच' व ‘दादा कामरेड', धर्मवीर भारती का काव्य नाटक ‘अन्धा युग' व उपन्यास ‘गुनाहों का देवता', इलाचन्द्र जोशी का उपन्यास ‘जहाज का पंछी', अमृत लाल नागर के उपन्यास ‘बूंद और समुद्र' व ‘अमृत और विष', राजिन्दर सिंह बेदी का उपन्यास ‘एक चादर मैली—सी', श्री लाल शुक्ल का सामाजिक व राजनैतिक परिस्थितियों पर व्यंग्यात्मक उपन्यास ‘राग दरबारी', विष्णु प्रभाकर के उपन्यास ‘अर्धनारीश्वर' व ‘आवारा मसीहा', फनीश्वर नाथ रेणु का उपन्यास ‘मैला आँचल', भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास ‘चित्रलेखा' व ‘भूले बिसरे चित्र', विमल मित्र का उपन्यास ‘साहब, बीबी और गुलाम', शरतचन्द्र के सम्पूर्ण साहित्य की ग्रन्थावली, अमृता प्रीतम की आत्मकथा ‘रसीदी टिकट' व उपन्यास ‘पिंजर', शिव कुमार बटालवी की काव्य—कृति ‘लूना', बलबन्त गार्गी का आत्मकथात्मक उपन्यास ‘नेकिड ट्राएंग्ल', हरिवंश राय बच्चन की काव्यकृति ‘मधुशाला' व आत्मकथा के दो भाग —‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ?' व ‘नीड़ का निर्माण फिर', रामधरी सिंह ‘दिनकर' का काव्य—नाटक ‘उर्वशी', मैथिलीशरण गुप्त का महाकाव्य ‘साकेत', राहुल सांकृत्यायन का ऐतिहासिक कहानियों का संग्रह ‘वोल्गा से गंगा' व बुद्ध की जीवनी ‘महामानव बुद्ध', कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘मित्रो मरजानी' व ‘ज़िन्दगीनामा', नानक सह का उपन्यास ‘पवित्र पापी', मोहन राकेश के नाटक ‘आधे अधूरे' व ‘आषाढ़ का एक दिन' तथा उपन्यास ‘अंधेरे बंद कमरे', सआदत हसन मन्टो की चुनिंदा कहानियाँ, भीष्म साहनी का उपन्यास ‘तमस', मू भण्डारी का उपन्यास ‘आपका बंटी', राजेन्द्र यादव के उपन्यास ‘सारा आकाश' व ‘उखड़े हुए लोग', आचार्य चतुरसेन के उपन्यास ‘वैशाली की नगरवधु' व ‘वयं रक्षामः', वृन्दालाल वर्मा का ऐतिहासिक उपन्यास ‘मृगनयनी', कमलेश्वर का उपन्यास ‘कितने पाकिस्तान', शिवानी का उपन्यास ‘कृष्णकली', जैनेन्द्र कुमार का उपन्यास ‘सुनीता', उपेन्द्रनाथ ‘अश्क' का उपन्यास ‘गिरती दीवारें', रांगेय राघव के उपन्यास ‘कब तक पुकारूँँ' व ‘मुर्दों का टीला', हरिशंकर परसाई का व्यंग्य—संग्रह ‘ठिठुरता हुआ गणतन्त्र', दुष्यन्त कुमार का काव्य—संग्रह ‘साए में धूप', सुरेन्द्र वर्मा का नाटक ‘सूर्य की अन्तिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक', आचार्य रजनीश ‘ओशो' के प्रवचन—संग्रह ‘सम्भोग से समाधि की ओर' व ‘मैं मृत्यु सिखाता हूँ', मालती जोशी का उपन्यास ‘वो तेरा घर ये मेरा घर', मृदुला गर्ग के उपन्यास ‘चित्तकोबरा' व ‘मैं और मैं', दलीप कौर टिवाना के उपन्यास ‘ऐह हमारा जीवणा' व ‘तेरे मेरे सरोकार', खुशवन्त सिंह का नॉवेल ‘ट्रेन टू पाकिस्तान', कमला दास की आत्मकथा ‘माय स्टोरी' व नॉवेल ‘एल्फाबेट ऑफ लस्ट', विक्रम सेठ का नॉवेल ‘ऐ सूटेबल ब्वॉय', चेतन भगत के नॉवेल ‘द 3 मिसटेक्स ऑफ माय लाइफ' व ‘वन इण्डियन गर्ल'।

जब आलोक सूप बनाकर लाया तो रानी आकर सोफे पर बैठ गई। सूप पीते—पीते आलोक ने पूछा — ‘लगता है, पढ़ने का काफी शौक है, बड़े ध्यान से पुस्तकों को देख रही थी?'

‘थोड़ा—बहुत शौक है।'

‘क्या—क्या पढ़ रखा है, आजकल क्या पढ़ रही हो?'

‘ऐसा कोई रेगूलर रूटीन नहीं है। हिन्दी की ‘फेमिना' और ‘हरिगंधा' सब्सक्राइब की हुई हैं। कॉलेज के दिनों में ‘धर्मयुग' और ‘सारिका' रेगुलर पढ़ा करती थी। उन दिनों ‘धर्मयुग' में मू भण्डारी का उपन्यास ‘आपका बंटी' धारावाहिक के रूप में प्रकाशित हुआ था। इतना दिल को छूने वाला था कि ‘धर्मयुग' के आगामी अंक का बड़ी बेसब्री से इन्तज़ार रहता था। ‘मर्चेंट ऑफ वेनिस' तथा ‘डेविड कॉपरफील्ड' कोर्स में पढ़े थे। वैसे प्रेमचन्द के कई उपन्यास तथा कहानियाँ, शेखरः एक जीवनी, झूठा सच, गुनाहों का देवता, आषाढ़ का एक दिन तथा कुछ छुट—पुट किताबें पढ़ी हैं। इससे टाईम पास भी हो जाता है और मन बहलाव भी। राजेन्द्र यादव का उपन्यास ‘सारा आकाश' तो वही है न जिसपर इसी नाम की वासु चटर्जी ने मूवी बनाई थी?'

‘प्रेमचन्द के उपन्यास व कहानियाँ, शेखरः एक जीवनी, झूठा सच, गुनाहों का देवता, आपका बंटी, आषाढ़ का एक दिन तो हिन्दी साहित्य की सर्वश्रेष्ठ पुस्तकें हैं। जितनी बार चाहे इन्हें पढ़ें, हर बार नये—नये अर्थ व जीवन के सत्य उद्‌घाटित होते हैं। हाँ, फिल्म ‘सारा आकाश' राजेन्द्र यादव के उपन्यास पर ही बनाई गई है। फिल्म तुमने देखी है?'

‘हाँ, पापा के साथ देखी थी। आम फिल्मों से अलग किस्म की मूवी थी। पापा को लीक से हटकर बनी फिल्में देखने का शौक था। इसमें नव—विवाहित पति—पत्नी एक ही घर में रहते हुए भी छः महीने तक एक—दूसरे से नहीं बोलते।'

‘मैंने फिल्म तो नहीं देखी, लेकिन लेखक उपन्यास के प्रारम्भ में स्पष्ट करता है कि वास्तविक जीवन के जिस पति—पत्नी को आधार बनाकर उसने यह कहानी लिखी थी, वे लोग तो नौ वर्ष एक साथ, एक ही कमरे रहते हुए आपस में बिल्कुल नहीं बोले थे। उपन्यास लिखते हुए उसे लगा कि नौ वर्ष वाली बात पाठकों के गले नहीं उतरेगी, इसलिये उसने उपन्यास में ‘न बोलने वाली' समयावधि घटाकर एक वर्ष कर दी थी। फिल्मकार ने एक वर्ष के अन्तराल को घटाकर छः महीने कर दिया, क्योंकि दर्शक को बिना ठोस कारण के एक वर्ष का समय भी बहुत अधिक लगना था।'

रानी सोचने लगी, क्या ऐसा सम्भव है कि कोई दो व्यक्ति एक साथ रहते हुए भी नौ वर्ष तक आपस में न बोलें। उत्तर उसके मन ने दिया, तुम भी तो रमेश के साथ इतने अर्से से निभाती आ रही हो बावजूद इसके कि उसके पास तुम्हारे साथ बिताने के लिये समय का सदा अभाव रहता है अथवा यह कि उसके लिये अपनी भौतिक व शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के अतिरिक्त तुम्हारे अस्तित्व का कोई अर्थ ही नहीं।

रानी के मुख की गम्भीर मुद्रा देखकर आलोक ने पूछा — ‘क्या सोचने लग गई, कोई गम्भीर बात मन को उद्वेलित कर रही है?'

‘मैं सोच रही थी कि दो व्यक्ति दिन—रात साथ—साथ रहते हुए नौ वर्ष तक बिना बातचीत किये कैसे रहे होंगे?'

‘रानी, मुझे भी असम्भव—सा लगता है कि दो व्यक्ति नौ वर्ष एक साथ, एक ही कमरे में रहते हुए आपस में बिल्कुल न बोले हों, किन्तु जब लेखक ने सच्ची घटना का उल्लेख किया है तो मानना ही पड़ेगा। वैसे भी देखें तो बहुत—से परिवारों में पति—पत्नी के बीच संवादहीनता की स्थिति भयावह स्तर तक बनी रहती है।'

रानी को लगा जैसे आलोक अनजाने में यह बात कहते हुए रमेश और उसके सम्बन्धों पर ही टिप्पणी कर रहा था।

‘आलोक, कभी सोचा है कि पति—पत्नी के बीच संवादहीनता का मुख्य कारण क्या हो सकता है?'

‘यह व्यक्तिगत मसला है। प्रत्येक केस में अलग—अलग कारण होते हैं, हो सकते हैं। कोई एक कारण चिह्नित करना मुश्किल है। लेकिन छोड़ो इसे, यह लम्बे विचार—विमर्श का विषय है। इस पर फिर कभी फुर्सत में बात करेंगे। अभी तो सूप खत्म करो, फिर अलमारी में रखी पुस्तकों में से तुम्हें जो पसन्द हों, साथ ले जाने के लिये निकाल लेना।'

सूप पीने के बाद रानी उठकर बुकशेल्फ के नज़दीक गई। सआदत हसन मन्टो की चुनदा कहानियाँ, ‘आपका बंटी', ‘रसीदी टिकट', ‘सारा आकाश' व ‘मित्रो मरजानी' निकालीं। आलोक ने निकाली हुई पुस्तकों को देखते हुए कहा — ‘तुमने अभी कहा था कि ‘आपका बंटी' तो तुमने धारावाहिक के रूप पढ़ रखा है, शायद दुबारा पढ़ना चाहती हो! बाकी पुस्तकें भी बहुत अच्छी हैं, तुम्हें पसन्द आयेंगी। ये तो घर जाकर आराम से पढ़ना। अब खाना खा लेते है। अपने हाथ से खाना बनाने की बात आधी ही पूरी कर पाया हूँ; सब्जी ही मैंने बनाई है, पराँठे तो मेड के हाथ के बने हुए ही खाने पड़ेंगे।'

खाना खाते हुए आलोक ने पूछा — ‘अगर छः बजे तक रुक सको तो खाना जल्दी से निपटाकर तीन बजे वाला फिल्म का शो देख सकते हैं।'

‘छः बजे तक तो कोई दिक्कत नहीं। कौन—सी फिल्म लगी है?'

‘फूल थियेटर में पुरानी फिल्में चल रही हैं। तीन बजे वाले शो में ‘रब्ब ने बना दी जोड़ी' फिल्म चलेगी। छः—सात साल पहले जब यह फिल्म रिलीज़ हुई थी तो देख नहीं पाया था। कई दोस्तों ने इसकी बहुत तारीफ की है। न देखी हो तो देख आते हैं।'

‘मैंने भी नहीं देखी। दरअसल, मैंने बहुत कम फिल्में देखी हैं।'

‘क्यों फिल्में देखने का शौक नहीं है क्या?'

‘शौक तो है, किन्तु अकेले जाने को मन नहीं करता। जो थोड़ी—बहुत फिल्में देखी भी हैं, उनमें से अधिकतर तो मेरी दो—तीन फ्रैंड्‌स हैं, उनके साथ ही देखी हैं। रमेश जी को फुर्सत ही बहुत कम मिलती है। उनके साथ देखी फिल्में तो अँगुलियों पर गिनी जा सकती हैं।'

आलोक जब रानी को मिलने मोहाली गया था, तब उसका व्यवहार तथा उसकी अपने विवाहित जीवन को लेकर कही गई कुछ बातें आलोक को भावातिरेक की अभिव्यक्ति लगी थीं; यह जानते हुए भी कि रानी ने जो कुछ कहा था, वह कहीं उसके अन्तर्मन में वर्षों से दबा हुआ था। लेकिन आज रानी की यह बात सुनकर आलोक को लगा, जैसे रानी रमेश के साथ अपने विवाहित जीवन की किसी रिक्तता, अपूर्णता की ओर संकेत कर रही है, किन्तु आज भी उसने अपनी ओर से कुछ कहा या पूछा नहीं।

खाना खाने के बाद रानी बोली — ‘सब्जी वाकई ही बहुत स्वादिष्ट बनी है।'

‘रानी, मैंने यह सब्जी बिना तेल या घी के बनाई है।'

‘वो कैसे?'

‘यह सब फिर कभी बताऊँगा। अब फिल्म के लिये चलते हैं वरना लेट हो जायेंगे।'

फिल्म समाप्त होने पर थियेटर से बाहर आये। दिन छोटे होने के कारण सूर्य डूब चुका था। इन दिनों शाम एकाएक उतर आती है। सुबह की भाँति कोहरा भी छाने लगा था। अँधेरे के साये गहराते जा रहे थे। सड़क किनारे लगे पेड़ सर्द धुँधलके में छायामात्र दिखाई दे रहे थे। कार में बैठने के बाद फिल्म की प्रशंसा करते हुए रानी बोली — ‘फिल्म अच्छी थी। इसमें शाहरुख खान बिल्कुल तुम्हारी तरह लगते हैं।'

‘कहाँ शाहरुख और कहाँ मैं? वैसे हमें कभी भी दो व्यक्तियों की तुलना नहीं करनी चाहिये, क्योंकि परमपिता परमात्मा ऐसा कलाकार है, जिसकी प्रत्येक कलाकृति दूसरी कलाकृति से सर्वथा भिन्न व अनूठी है। यह बात न केवल चेतन जगत्‌ में देखी जा सकती है, अपितु जड़ जगत्‌ में भी यह तथ्य हर जगह देखा जा सकता है।'

‘बात तो तुम सौ प्रतिशत सही कह रहे हो।'

बातों का रुख एक बार फिर बचपन की ओर मुड़ गया। आलोक याद करने लगा — ‘रानी, एक बात बताऊँ, जो शायद मैंने तुम्हें कभी नहीं बताई।'

‘वैसे तो हम एक—दूसरे से हर बात कर लेते थे, फिर भी हो सकता है, जो बात तुम्हारे मन में है, मुझे पहले से मालूम न हो। इसलिये कह डालो।'

‘एक बार रमा ने मुझसे अकेले में कहा था कि वह भी तुम्हारी तरह मुझसे दोस्ती करना चाहती है। मैंने पूछा, किस तरह की दोस्ती? तो वह कहने लगी, जिस तरह तुम रानी के साथ पतंग उड़ाते हो, कभी मेरे साथ भी उस तरह से पतंग उड़ाओ ना। उसकी यह बात सुनकर मुझे लगा, उसे हमारे बीच दोस्ती से बढ़कर एक—दूसरे के प्रति जो लगाव पैदा हो चुका था, उसकी भनक लग गई है, सो मैंने उसे यह कहकर टाल दिया था कि रानी और मेरे बीच जो दोस्ती है, वह हर किसी के साथ नहीं हो सकती। मेरे इतना कहने पर वह नाराज़ हो कर चली गई थी और कई दिनों तक उसने मुझसे बात भी नहीं की थी।'

‘एक बार खेलते हुए रमा ने मुझे यह बात बताई थी और पूछा था कि तुम्हारे और मेरे बीच क्या चल रहा है? मैंने कहा, ऐसा कुछ भी नहीं जैसा वह सोच रही है, किन्तु उसकी तसल्ली नहीं हुई। कई दिनों तक मेरे साथ भी उसने बात नहीं की थी। फिर धीरे—धीरे वह हमसे पहले की तरह ही मिलने—जुलने लग गई थी। आलोक, तुम्हेंं याद होगा, एक दिन सर्दियों की रात में खूब अंधेरा था। तुम गली में खड़े थे और जैसे ही मैं घर से निकली, हम आलिंगनबद्ध हो गये थे। उसी समय करतारी अम्मा ने हमें कहीं देख लिया था और सुबह घरवालों को कहा था कि रानी और आलोक बड़े हो गये हैं, इनके मिलने—जुलने पर नज़र रखनी चाहिये। मम्मी ने सीधे तो नहीं, घुमा—फिराकर मुझे तुमसे अकेले में मिलने से मना किया था। इसके बाद हमने घर वालों तथा मोहल्ले वालों की नज़रों से बचना शुरू कर दिया था। अब जब हम साथ होते हैं तो लगता है, वही बचपन के दिन लौट आये हैं। लगता ही नहीं कि हम दादा—नाना—नानी बन चुके हैं!'

‘बहुत सही कह रही हो। ऐसे लगता है, जैसे उम्र का पहिया पीछे की तरफ घूम गया हो। एक शे'र याद आ रहा हैः

मीलों लंबी ज़िन्दगी, बरसों दौड़—दौड़,

बाकी सब विस्मृत हुआ, याद रहे कुछ मोड़।'

इस प्रकार बचपन की बातें करते—करते वे घर पहुँच गये। कालोनी में हर तरफ सन्नाटा पसरा हुआ था और अँधियारा उतर रहा था। कार में बैठे—बैठे रानी ने आलोक को कहा — ‘अब चलती हूँ। घर पहुँचते—पहुँचते आठ बज जायेंगे।'

‘रात घिरती आ रही है, मौसम भी ठीक नहीं लग रहा, कोहरा भी घना होता जा रहा है। ऐसे में अकेली जा पाओगी?'

‘जाना तो है। अकेली आई हूँ तो अकेले ही जाना पड़ेगा।'

रानी के उत्तर से आलोक को लगा, ड्राइविंग को लेकर रानी के मन में कहीं कोई दुविधा है। अतः पूछा — ‘पहले भी कभी रात में ऐसे मौसम में अकेले ड्राइविंग की है?'

‘ऐसे मौसम में तो क्या, हाईवे पर रात में अकेले ड्राइविंग का यह पहला ‘एक्सपीरिंयस' होगा। दिन में तो अकेले बहुत ड्राइविंग की है। लोकल में रात को भी ड्राइविंग हो जाती है।'

‘ऐसे में तुम्हें अकेले नहीं जाने दे सकता। मैं भी चलता हूँ। रात को किसी होटल में रुक जाऊँगा। सुबह बस से वापस आ जाऊँगा।'

‘तुम क्यों तकलीफ करते हो, मैं आहिस्ता—आहिस्ता ड्राइव करके चली जाऊँगी।'

‘इसमें तकलीफ वाली क्या बात है, गैर समझती हो मुझे?'

अपने मनोभाव उजागर करते हुए रानी ने प्रतिप्रश्न किया — ‘तुम्हें गैर समझती तो

यहाँ तक आती?'

प्रश्न रूप में उसका उत्तर सुनकर आलोक को बड़ी प्रसन्नता अनुभव हुई। उसने कहा — ‘अन्दर आ जाओ। मैं ब्रीफ—केस में रात को रुकने के लिये कपड़े आदि रख लूँ, फिर चलते हैं।'

रानी ने कार लॉक की और दोनों अन्दर आ गये। आलोक ने शीघ्रता से ब्रीफ—केस तैयार किया और बोला — ‘चलोे, कार मैं चलाता हूँ।'

‘नहीं, कार तो मुझे ही चलाने दो। रात को हाईवे ड्राइविंग का एक्सपीरिंयस भी हो जायेगा। फिर तुम तो साथ में बैठे ही होंगे।'

आलोक ने और ऐतराज़ नहीं किया और रानी ने कार स्टार्ट की और मोहाली के लिये चल दिये। कोहरे की वजह से डेढ़ घंटे के सफर में लगभग अढ़ाई घंटे लगे। मोहाली पहुँच कर आलोक बोला — ‘रानी, मुझे किसी ठीक से होटल में छोड़ दो, सुबह पटियाला के लिये बस पकड़ लूँगा।'

होटल पहुँच कर रानी बोली —‘चैकआऊट टाईम तो बारह बजे होता है। सुबह ही निकलने की क्या जरूरत है! वहाँ कौन—सा काम अटका होगा! ज्यादा—से—ज्यादा मेड के आने की ही तो फिक्र होगी, उसे कॉल करके आने से मना कर देना। रमेश जी चाहे रात को दिल्ली से लेट आयेंगे, फिर भी सुबह ऑफिस टाईम से ही जाना होगा, क्योंकि उन्होंने एक जरूरी मीटिंग अटैंड करनी है और मैं मेड के जाने के तुरन्त बाद नाश्ता लेकर आऊँगी।'

‘जैसा तुमने कहा कि रमेश जी रात को लेट आयेंगे तो अभी घर जाने की तो कोई जल्दी नहीं होनी चाहिये। आओ, डिनर इकट्ठे ही कर लेते हैं।

‘अच्छी प्रोपजल है, मुझे मंजूर है। इस तरह घर जाकर डिनर बनाने तथा अकेले खाने से भी राहत मिल जायेगी।'

डिनर करने के बाद आलोक को ‘गुड नाईट' बोलकर तथा अगली सुबह नाश्ते की प्रतीक्षा करने की कहकर रानी घर की ओर चल दी।

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