सबरीना
(24)
‘हर रोज शराब, हर रोज नए देहखोर, नए ठिकाने।‘
प्रोफेसर तारीकबी हमेशा के लिए विदा हो गए थे। हर कोई उनसे जुड़ी स्मृतियों का जिक्र कर रहा था। डाॅक्टरों ने दानिश को डिस्चार्ज कर दिया था, लेकिन उसे बीच-बीच में स्मृति-लोप के दौरे पड़ रहे थे। डाॅक्टरों का कहना था कि ये सब कुछ दिन में ठीक हो जाएगा। सबरीना, जारीना, डाॅ. मिर्जाएव, छोटा चारी, डाॅ. मोरसात और सुशांत प्रोफेसर तारीकबी के घर पर बैठे थे। वहां सभी खामोश थे और एक-दूसरे से नजरे बचाने की कोशिश करते हुए लग रहे थे। सुशांत ने एक-एक कर सबको देखा, जैसे वो पूछना चाह रहा कि अब आगे क्या ? उसे अपने शेड्यूल के लिहाज से एक दिन बाद समरकंद निकलना था। उनके साथ प्रोफसर तारीकबी जाने वाले थे, लेकिन अब, सब कुछ बदल गया था। सुशांत को लगा कि उसे अपना कार्यक्रम स्थगित कर देना चाहिए और ताशकंद में ही रुकना चाहिए। बीते तीन दिनों में सबरीना के साथ सुशांत का शब्दहीन-संवाद काफी गहरा हो गया था, वो कुछ भी कहे बिना ही सब कुछ समझ लेती थी।
‘ क्या सोच रहे हो प्रोफेसर, अब यहां रुककर क्या करोगे ? चलना चाहिए, हम सभी को समरकंद चलना चाहिए।’ सबरीना ने खामोशी को तोड़ा। वो जारीना और डाॅ. मिर्जाएव की ओर देखने लगी। उन्होंने भी हां में सिर हिलाया। पर, चलने से पहले तय हुआ कि प्रोफेसर तारीकबी के घर को एक बार व्यवस्थित कर दिया जाए। फिर सबने उदासी झाड़ी और घर को संभालने में लग गए। इस काम के लिए स्टूडैंट्स को भी बुला लिया गया। कुछ ही घंटों में पूरा घर तरतीबवार कर दिया गया। वामपंथ के सारे पुरोधाओं को भी दीवारों से उतारकर कोने में संभालकर रख दिया गया। सबरीना ने प्रोफेसर तारीकबी के खतों की फाइल अपने पास रख ली। उसे हमेशा ही लगता है कि इन खतों में कुछ ऐसा है जो वे बचाकर और छिपाकर रखना चाहते थे।
सुशांत को लग रहा था कि कुछ अधूरा है। उसने सबरीना से पूछा, कहीं से कुछ मोमबत्तियों का इंतजाम हो सकता है। सबरीना ने हां कहा और छोटा चारी पड़ोस के स्टोर से मोमबत्तियां ले आया। सुशांत ने अंदर के कमरे में लगी प्रोफेसर तारीकबी की तस्वीर को उतारा, साफ किया और मेज पर उनके टैबल-लैंप से सटाकर रख दिया। स्टील की एक बड़ी प्लेट में कई मोमबत्तियां रखकर उन्हें जला दिया। सबरीना बाहर निकली और कुछ देर वापस लौटी तो उसके हाथ में काले गुलाब थे। उसने करीने से उन्हें फोटो के सामने रख दिया। वो फोटो से बाहर झांकती प्रोफेसर तारीकबी की आंखों को देखकर मुस्कुरा पड़ी। उस पल में सभी को लगा कि जैसे प्रोफेसर तारीकबी भी मुस्कुरा रहे हैं।
पूरे माहौल से दुख और परेशानी की धुंध धीरे-धीर छंट रही थी, सुशांत ने महसूस किया कि प्रोफेसर तारीकबी यहीं तो हैं। जारीना ने सुझाव दिया कि आज रात यहीं रुक जाएं और सुबह समरकंद के लिए निकल जाएंगे। इस पर सभी सहमत हुए और फिर देर रात तक लोगों के आने-जाने का सिलसिला चलता रहा। प्रोफेसर तारीकबी की पसंदीदा नमकीन चाय और रूसी पाव के साथ डिनर किया गया। शायद हर किसी के दिमाग में सुशांत का ख्याल था और सभी को पता था कि प्रोफेसर तारीकबी सुशांत का कितना ख्याल रखते थे। कभी चुप्पी और कभी यादों में रात बीत गई। सुबह जल्द ही स्टेशन पहुंचना था, चार टिकट बुक थे। अब प्रोफेसर तारीकबी की जगह जारीना साथ जा रही थी। ताशकंद रेलवे स्टेशन के तीसरे प्लेटफार्म से गाड़ी रवाना होनी थी। ये वही प्लेटफार्म था, जिससे सप्ताह में एक दिन फरगाना के लिए गाड़ी जाती है। प्रोफेसर तारीकबी इसी प्लेटफार्म पर आकर बैठते थे। जारीना ने प्रोफेसर तारीकबी के टिकट को बदलवाया नहीं था। सुशांत को लगा कि शायद यहां पर कोई हिन्दुस्तानी तारीका काम करता होगा, जब लोग राजधानी और शताब्दी गाड़ियों में टीटीई से सात नंबर की सीट हासिल कर लेते हैं और टीटीई जब अपनी सीट के दाम वसूल लेता है तो उसका खुशी देखते ही बनती है।
ताशकंद से समरकंद के बीच हाईस्पीड ट्रैन चलती है, जो करीब तीन घंटे में पहुंच जाती है, लेकिन प्रोफेसर तारीकबी ने हाईस्पीड की बजाय एक्सप्रेस ट्रैन से टिकट बुक कराए हुए थे। इस ट्रैन में चलने की उन्हें बरसों पुरानी आदत थी, वे इसे बदलना नहीं चाहते थे। हालांकि, सबरीना बताती है कि उन्हें हाईस्पीड ट्रैन से डर लगता था। सबरीना ने कहा कि उनका वश चलता तो वे मास्को भी इसी ट्रैन से आया-जाया करते। ट्रैन तयशुदा वक्त पर आई और कुछ ही देर में रवाना हो गई। ट्रैन की आंतरिक हालत अच्छी थी, सीटे वैसी ही थी जैसी कि भारत में चेयर-कार होती हैं। चारों को उस जगह सीट मिली जहां वे एक-दूसरे के सामने मुंह करके बैठ सकते थे, कोच के ठीक बीच में। ट्रैन को गति पकड़ने में ज्यादा वक्त नहीं लगा। डा. मिर्जाएव अभी ठीक महसूस नहीं कर रहे थे, वे जल्द ही सो गए। सबरीना खिड़की से बाहर की ओर देखती रही और सुशांत सबरीना को देखने लगा। उसके चेहरे पर बहुत-से भाव आ-जा रहे थे। सुशंात थका हुआ था, लेकिन उसकी थकान इतनी ज्यादा थी कि उसे नींद नहीं आ रही थी। उसने बात शुरू करने के लिहाज से जारीना से पूछा, ‘ तुम प्रोफेसर तारीकबी के संपर्क में कैसे आई।’
‘ वैसे ही, जैसे सबरीना आई थी!‘ जारीना ने बहुत सपाट ढंग से जवाब दिया। सुशांत ने उसे ऐसे देखा, जैसे उसकी बात समझ न पाया हो।
‘ हां, मैं भी नाइट-क्लब से पकड़ी गई। नाइट-क्लब बड़ा दमदार शब्द लगता है ना! है ना सर! असल में, वो सेक्स-क्लब होता है। अमीर उज्बेकों और विदेशियों को लड़कियां परोसने का अड्डा। वहां जाओ, फ्लोर पर डांस करो, शराब पिओ और लड़की लेकर होटल चले जाओ। यही धंधा है, इसे जिस भी नाम से पुकार लो, क्या फर्क पड़ता है।’ जारीना ने बात खत्म की और फिर फीकी-सी हंसी हंस दी। सुशांत का मन अजीब-सा हो गया। उसे समझ ही नहीं आया कि उसके आसपास मौजूद लोगों के पास इतनी दुखभरी कहानियां क्यों हैं! और इन आपबीती कहानियों को सुनकर किस तरह रिएक्ट करे। वो चुप रहा, लेकिन जारीना बताना चाह रही थी। पिछले दो दिन में उसके हौसले और हिम्मत को सुशांत देख ही चुका था।
‘ मेरे पिता ने मास्को में किसी रूसी औरत से शादी कर ली थी। इसके बाद मां ने भी दोबारा शादी कर ली। मैं आठ-नौ बरस की थी। मेरे सौतेले पिता बेहद गुस्सैल आदमी थे। मैंने कई साल उनकी मारपीट झेली। एक बार उन्होंने कांच का गिलास मुंह पर फेंक दिया था। ये देखिए, मेरी ठुड्डी, ठीक बीच से कट गई थी। मैं अच्छा गाती थी, रोज-रोज की मारपीट ने मेरे गीतों को दुखभरा कर दिया था। आपने सुने हैं कभी, दुखभरे गीत उज्बेकी! नहीं! सुनाउंगी आपको।’
‘ फिर तुम भी घर से भाग आई !‘ सुशांत ने अनुमान लगाते हुए बात को आगे बढ़ाया।
‘ नहीं, मैं घर से नहीं भागी थी। एक दिन मैंने अपने सौतेले पिता का मुकाबला किया, उन्होंने मुझे पीटा और मैंने उन्हें बुरी तरह पीटा। उन्होंने मुझे घर से निकाल दिया। मैं सड़कों पर भटकने लगी और हर किसी की निगाह में आ गई। पता ही नहीं चला, मैंने कब नाइट-क्लब की राह पकड़ ली। हर रोज शराब, हर रोज नया देहखोर और नए होटल। बस, यही जिंदगी थी। ना गीत रहे, ना गाने की इच्छा रही।‘
‘फिर ?’ सुशांत ने पूछा।
‘ असल में, सोवियत संघ के बिखरने के बाद पूरी दुनिया में ये मैसेज जा रहा था कि उज्बेकिस्तान देह-व्यापार का अड्डा है। सरकार की भी बदनामी हो रही थी। सरकार ने लीपा-पोती के लिए एक आयोग बनाया और सारे क्लबों की जांच का ऐलान किया। शायद, मेरा वक्त अच्छा था, मैं एक दिन पकड़ी गई और मुझे आयोग के सामने पेश किया गया। मुझे सजा का डर नहीं लगा, कहीं गहरे में कोई खुशी थी कि अब कुछ अच्छा होगा। प्रोफेसर तारीकबी उसी आयोग में थे। और मैं उस नर्क से आजाद हो गई।’
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