Bhraman ki Beti - 8 in Hindi Moral Stories by Sarat Chandra Chattopadhyay books and stories PDF | ब्राह्मण की बेटी - 8

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ब्राह्मण की बेटी - 8

ब्राह्मण की बेटी

शरतचंद्र चट्टोपाध्याय

प्रकरण - 8

पूजा पाठ तथा सात्विक जलपान से निवृत्त होकर नीचे उत्तर आये धर्मावतार गोलोक चटर्जी किसी कार्यवश बाहर निकल ही रहे थे कि कुछ याद आ जाने के कारण लौट आये और एक बरामदे से दूसरे बरामदे में घूमने लगे। अचानक रुककर ज्ञानदा को मीठी डांट लगाते हुए चिन्तित स्वर में बोले, “छोटी मालकिन, तुम्हें कितनी बार समझाऊंगा कि स्वास्थ्य की चिन्ता सबसे पहले। ऐसा भला कौन-सा काम है, जिसे निपटना जरूरी हो गया है?”

हंसिया से तरकारी काटती पूर्ववत् अपने काम में जूटी रही, मानो उसने चटर्जी के खडा़ंऊं की खट-खट को और कण्ठ से निकली बक-बक को सुना ही न हो।

कुछ देर की चुप्पी के बाद गोलोक के पूछा, “भगवान का धन्यावाद! यह प्रियनाथ की औषधि का प्रभाव है। वैसे तो यह आदमी सनकी है, किन्तु वैद्यक में साक्षात् धन्वन्तरि है। उसकी दी गयी दवा को उसके निर्देशों के अनुसार लेती रहना। लापरवाही करने से भयंकर परिणाम भुगतना पड़ सकता है।”

ज्ञानदा बिना किसी बात का उत्तर दिये अपना काम करती रही।

थोड़ी देर तक ज्ञानका के चेहरे पर ताकने के बाद गोलोक ने कहा, “प्रियनाथ को सुबह-शाम तुम्हारी देखभाल करने को कह दिया है। क्या वह सुबह आया था?”

नीचे सिर झुकाकर बैठी ज्ञानदा ने गरदन हिलाकर उत्तर दिया, “हाँ।”

प्रसन्न होकर गोलोक बोले, “कैसे नहीं आयेगा, मेरे आदेश का पालन न हो, ऐसा कैसे हो सकता है? रांड दाई कहां गयी है? प्रियनाथ की दवा खाने पर, यदि तुम महेनत में अपने को खपाती रहीं, तो लाभ कैसे होगा? क्या सारे नौकर-चाकर मर गये है, जो तुम्हें काम करना पड़ रहा है? मैं यह नहीं होने दूंगा। उठो, ऊपर जाकर आराम करो। मधुसूदन, तुम्हारा ही भरोसा है।”

ज्ञानदा को इस निर्देश देने के रूप में अपने लौकिक और धार्मिक कृत्यों को सम्पन्न समझकर निश्चिंत हुए गोलोक बाहर जाने को उद्यत हुए।

गोलोक के खड़ाऊं की आवाज से उन्हें जाता निश्चित समझकर अब तक झुका रखे, मुरझाये और दुःख से स्याह पड़े अपने सिर को ऊंचा करके रोने से सूजी और लाल हो गयी आँको से आँसू टपकती हुई ज्ञानदा गोलोक के चेहरे पर अपनी दृष्टि टिकाकर रुंधे गले से बोली, “क्यों जी, क्या तुमने प्रियनाथ की लड़की से ब्याह करने का निश्चय कर लिया है? देखो, इस विषय में मुझे अन्धकार में रखना ठीक नहीं। सब कुछ सच-सच बता दो।”

घबराहट के कारण गोलोक सहसा मुंह न खोल सके, किन्तु प्रयन्तपूर्वक अपने को संभालकर बोले, “क्या संध्या की बात कर रही हो? मेरे साथ तो उन लोगों ने कोई बात नहीं की। तुम्हें किसने कहा है?”

“किसी ने कहा हो, इससे क्या फर्क पड़ता है। क्या तुमने रासमणि को लड़की वालों के पास अपना प्रस्ताव पहुंचाने के लिए नहीं भेजा? यहाँ तक कि विवाह का मुहूर्त अगला अगहन भी निश्चित कर लिया। आपको अपने इष्टदेव की सौगन्ध है, मिथ्या-भाषण न करना।”

“अच्छा, तो यह सारी शैतानी उस ब्राह्मणी की है; मैं अभी उसकी खबर लेता हूँ।”

ज्ञानदा बोली, “बात बदलो नहीं, यदि यह सत्य है, तो आपने मेरा सर्वनाश क्यों किया?” कहती हुई दुखिया के आँसू छलक आये।

गोलोक किसी के द्वारा सुने जाने की आशंका से भयभीत हो उठे और दूबे स्वर में वोले, “यह तुम क्या कर रही हो? कोई सुन लेगा, तो फिर दोनों कहीं के नहीं रहेंगे। रासमणि तुमसे मजाक कर रही होगी। इसमें कुछ भी सच्चाई नहीं है।”

बिलखती हुई ज्ञानदा बोली, “सत्य को कब तक छिपाओगे? रासमणि मौसी मेरे साथ मजाक कभी नहीं कर सकती। यह शत-प्रतिशत सत्य है। आप तो कुछ भी कर सकते है; क्योंकि आपकी दृष्टि में जो आप करेंगे, वहाँ धर्म और न्याय होगा।”

“जह मैं कहता हूँ गलत है, तो तुम मानती क्यों नहीं हो? अरे हंसी-मजाक में मेरे मुंह से निकल गया होगा, वरना संध्या तो मेरी नातिन है। अब चुप हो जाओ, किसी नौकर-चाकर के कान में कुछ पड़ गया, तो अनर्थ हो जायेगा। यह कहकर गोलोक झट से वहाँ से चलकर गायब हो गया।”

इस बीच नौकरानी ने एक अन्य नौकरानी के साथ ज्ञानदा के ससुर जी के घर पर आ पहुंचने की सूचना ज्ञानदा को दी, जिसे सुनकर ज्ञानदा का खून पानी बन गया। उसे चुपचाप और सुने को अनसुना करके बैठा देखकर नौकरानी फिर बोली, “मौसी जी, वहाँ की किसी नौकरानी को साथ लेकर तुम्हारे ससुर जी इधर आये हैं।”

आँसू पोंछकर उत्सुक दृष्टि से नौकरानी की ओर देखती ज्ञानदा इस प्रकार कांपने लगी, मानो उसने किसी भूत को सामने देख लिया हो।”

ज्ञानदा के पीले पड़े औक उदासी से बुझे चेहरे को देखकर दासी ने पूछा, “मौसी जी, क्या आपकी तबीयत खराब है?”

ज्ञानदा से उत्तर न पाकर नौकरानी ने अपने प्रश्न को फिर से दोहराया।

ज्ञानदा ने “हाँ” कहने के बाद दासी से पूछा, “बाबू जी कब आये हैं?”

दाली बोली, “उनेक आने की सही समय का मुझे पता नहीं। मैंने तो उन्हें अभी देखा है, वह आंगन में खड़े होकर बाबू साहब से बातचीत कर रहे थे।”

ज्ञानदा ने पूछा, “क्या गोलोक बाबू के साथ?”

“हाँ-हाँ, उन्हीं के साथ। मुझे उन्होंने ही उनके इधर आने की सूचना देने के लिए भेजा है। अरे...वह तो स्वयं तुम्हारे पास चले आ रहे हैं।”

यह कहकर नौकराना वहाँ से चलती बनी। इतने में लाठी की समीप आती आवाज से स्पष्ट हो गया कि आने वाले सज्जन लाठी की सहायता के बिना नहीं चल पाता, इसके अतिरिक्त शायद वह आँखों का काम भी लाठी से लेते हैं।

इसी बीच एक अधेड़ आयु की महिला के पीछे लाठी के सहारे धीरे-धीरे से चलता एक वृद्ध पुरुष ज्ञानदा के सामने आ खड़ा हुआ और पूछने लगा, “मेरी बेटी कहां है?”

ज्ञानदा ने उठकर वद्ध ससुर के चरण-स्पर्श किये और उनके चरणों की रज को अपने सिर पर रखा। अपने सामने खड़ी बहू का चेहरा न देख पाने पर भी वृद्ध ने अपनी बहू को पहचान लिया। आशीर्वाद देने के बाद बिलखते हुए वह बोले, “बुढ़िया सास और ससुर को भुलाकर तुम यहाँ कैसे पड़ी हो बेटी?”

वृद्ध के साथ आयी दासी ने ज्ञानदा को प्रणाम करने के बाद कहा, “बाबू जी ठीक ही तो कह रहे हैं। बूढ़ी दिन-रात एक ही रट लगाये रहती है, मेरी बेटी को जल्दी से घर ले आओ। मेरे लिए अपनी बहू को भुलाना कैसे सम्भव है?”

ज्ञानदा ने मुंह नहीं खोला। उसने अपने आँसू पोंछे, फिर बूढ़ ससुर का हाथ पकड़कर उन्हें घर के भीतर ले गयी। उसने अपने हाथ से आसन बिछाकर बूढ़े को बिठाया और फिर चुपचाप उनके सामने खड़ी हो गयी।

वृद्ध बैठकर बोला, “आने से पहले मैंने चटर्जी महाशय को दो पत्र भेजे, किन्तु एक का भी उत्तर न मिलने पर सोचा, बड़े लोग छोटे लोगों के पत्र का उत्तर देने की परवाह कहां करते है, किन्तु बेटी, तू तो हमारे उस घर की लक्ष्मी है। अतः पत्र न मिलने पर भी तुम्हें लेतने के लिए तो मुझे आना ही था।”

साथ आयी दासी बोली, “जीजा जी के बहुत बड़े आदमी होने में तो कोई सन्देह नहीं, किन्तु फिर भी, घर की बहू को पराये घर में इतने दिनों तक तो नहीं रखा जा सकता विशेषतः जब बहिन ही नहीं, तो फिर...।”

बुद्धि बीच में ही बोल उठे, “सद्दो, इन बातो को कहने का कोई लाभ नही।” फिर ज्ञानदा की और उन्मुख होकर वह बोले, “बहू, तुम्हारी सास काफी बीमार है, उसने आज अच्छा मुहूर्त निकलवाकर तुम्हे लिवा लाने को मुझे भेजा है।”

सुद्दो दासी बोली, “सच पूछो, तो तुम्हें देखने के लिए बुढ़िया के प्राण अटके है। कई दिनों से वह मुझे तुम्हारे पास आने को कहे जा रही थी। उसकी साध है कि मरने से पहले एक बार बहू का चेहरा देख ले। बस, इसीलिए वह अभी तक जीवित है।”

कहते हुए सद्दो का गला रुंध गया और आँखे गीली हो गयीं। वृद्ध बोले, “चटर्जी महाशय कहते हैं कि उन्हें हमारे दोनों पत्र नहीं मिले। हम तो यही सोचते रहे कि बड़े आदमी होने पर भी साधु पुरुष है, इसीलिए उत्तर की प्रतीक्षा करते रहे। हमें आशा थी कि चटर्जी महाशय लिखेंगे कि आपकी बहू है, आप ले जाइये, मुझे इसमें भला क्या आपत्ति हो सकती है? पत्र का उत्तर तो नहीं मिला, किन्तु आते ही वह बहू को भेजने के लिए तत्काल तैयार हो गये। इतना ही नहीं, पालकी लाने को आदमी भी भेज दिये। यही तो साधु पुरुष के लक्षण हैं। वह हमारे प्रति आभार जताते हुए बोले-आपने हमारे संकट में बहू को भेजकर हमारा बहुत बड़ा उपकार किया है। आपको अब उसकी आवश्यकता है, तो मैं उसे क्यों रोककर रखूंगा? आज ही आपके साथ उसे रवाॉना किये देता हूँ।”

अब तक अवसादग्रस्त बनी ज्ञानदा बोली, “क्या चटर्जी जीजा ने अपने मुंह से आज ही मुझे रवाना करने की बात कही है?”

सौदामिनी प्रसन्नता से उछलती हुई बोली, “साधु पुरुष जो ठहरे। उन्होंने यहाँ तक कहा की खा-पीकर जल्दी से चल दीजिए, ताकि तीन बजे की गाड़ी पकड़ सके और फिर कल सवेरे आराम से अपने घर पहुँच सके। जब घर में बुढ़िया बीमार पडी हो, तो में आपको पल-भर के लिए भी रुकने को नहीं कह सकता।” फिर वह ज्ञानदा की और उन्मुख होकर बोली, “बुढ़िया तो दिन-रात तुम्हारे नाम की माला जपे जा रही है।”

चकित और व्यथित हुई ज्ञानदा ने पुनः पूछा, “क्या जीजा जी ने यथाशीध्र मुझे भेजने की अपनी सहमति प्रकट की है?”

वृद्ध बोला, “हाँ, बेटी, बेटी हाँ, नहीं तो क्या हम झूठ बोल रहे है? फिर यह भी तो सोचो, वह तुम्हे किसलिए रोके रख सकते है?”

ज्ञानदा की इस पूछताछ से दासी सौदामिनी काफी नाराज हो गयी थी। उसके व्यवहार से उसकी नाराजगी साफ भी हो गयी। वह बोली, “सासा मर रही है, बूढ़े ससुर स्वयं इतनी दूर से लेते आये हैं और बहूजी बार-बार सवाल-पर-सवाल किये जा रही हैं, यह भी कैसा तमाशा है? अच्छा, यह बताओ, कि अब तुम्हें कोई क्यों रुकने के लिए कहेगा? यदि तुम्हे विश्वास नहीं आता, तो स्वयं अपने जीजा स पूछ लो।”

पास खड़े गोलोक ने यह सुना, तो खड़ाऊं की आवाज करते हुए उधर चले आये और वृद्धको सम्बोधित करते हुए बोले, “मुखर्जी साहब क्षमा करे, अब बैठकर बातचीत करने का समय नहीं है। नहाने-धोने औक खाने-पीने के लिए बी समय चाहिए। फिर शुभ मुहूर्त भी निकला जा रहा था। मुखर्जी साहब, हमें कुछ कष्ट अवश्य होगा, किन्तु आपकी बहु को हम रोककर नहीं रख सकते। आपकी आवश्यकता मेरी आवश्यकता से कहीं अधिक और बढ़-चढ़कर है। यदि मै झंझटों में न फंसा होता, तो ज्ञानदा को स्वयं आपके पास छोड़ आता। आप लोगों का एक भी पत्र नहीं मिला, अन्यथा यह हो ही नहीं सकता की मैं उत्तर न दूं। आपको इधर आने का कष्ट ही क्यों करना पड़ता? डाकिये साले बदमाश हो गये हैं, पत्रो को इधर-उधर कर देते हैं। काली, कहां मर गया है, हु्क्का तैयार करके इधर क्यों नहीं लाया? हाँ, मुखर्जी साहब, उठिये, अब सोच-विचार में समय गंवाना उचित नहीं है। ज्ञानदा, जल्दी करो, नहीं तो तीन बजे वाली गाड़ी नहं पकड़ सकोगं। चोंगदार बाहर बैठा है, सच तो यह है कि जब से घरवाली नहीं रही, तब स कुछ याद ही नहीं रहता। मधुसूदन, तुम्हीं लाज रखना, तुम्हारा ही भरोसा है।”

गोलोक यह कहकर सारे मकान को खड़ाऊं की आवाज से गुंजाते हुए दूसरे कमरे में चल गेय। ज्ञानदा बिना कुछ बोले जड़-पत्थर बनी जीजा को जाते देखती रही।

भोलू ने आकर कहा, “मौसी जी, लल्लू नहाने की हठ कर रहा है, क्या उसे नदी पर ले जाऊं?”

ज्ञानदा को कुछ सुनाई नहीं दिया और इसीलिए वह उत्तर में कुछ नहीं बोली।

वृद्ध ने उठते हुए कहा, “बेटी, तुम जल्दी से तैयार हो जाओ, मे बाहर तुम्हीरी प्रतीक्षा में बैठा हूँ।”

सद्दो दासी बोली, “बहू जी, आज मेरी षष्ठी तिथि है, इसलिए मैं भात नहीं खाऊंगी।”

ज्ञानदा उठकर खड़ी हो गयी और द्दढ़ स्वर में बोली, “मुझे आपके साथ नहीं जाना है।”

वृद्ध ससुर चकित होकर बोले, “जाने के लिए आज कि दिन शुभ है, फिर क्यों नहीं जाना है?”

दासी अपने लिए फलाहार कहने की बात भूल गयी और बोली, “भट्टाचार्य जी से मुहूर्त निकलवाकर ही घर से चले है बहूरानी!”

ज्ञानदा ने द्दढ़तापूर्वक कहा, “बाबू जी, मैं नहीं चलूंगी।”

गोलोक का दस-बाहर वर्ष का लड़का दौडकर आया और ज्ञानदा से लिपट गया। वह बोला, “मौसी, मुझे नदी पर नहाने के लिए जाने की अनुमति दे दो ना।” ज्ञानदा ने बिना कुछ बोली उसे लड़के को अपनी छाती से चिपका लिया और फिर बिलख-बिलखकर रोने लगी।

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