Raahbaaz - 3 in Hindi Moral Stories by Pritpal Kaur books and stories PDF | राहबाज - 3

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राहबाज - 3

मेरी राहिगिरी

(3)

फ्लिंग का नतीजा

निम्मी सो चुकी थी. बच्चे ज़ाहिर है अपने अपने कमरों में थे. सो ही चुके थे वे भी. निम्मी ने मेरी हलचल पर एक बार आँख खोल कर मुझे देखा था फिर करवट बदल कर सो गयी थी. उसे मेरे देर से आने की आदत है. कभी काम की वजह से तो कभी देर रात तक होने वाली मेरी बिज़नस पार्टियों की वजह से.

आज जैसी मदमस्त वजह पहले कभी हुयी नहीं थी. एक अजीब सी बात मैंने अपने अन्दर उस रात महसूस की थी. पहली बार ऐसा हुआ था कि मैंने निम्मी के साथ बेवफाई की और मेरे मन में किसी तरह का कोई पश्चाताप या ग्लानी का भाव नहीं था.

जैसे कि मैं कोई बड़ा कारनामा अंजाम दे कर आया होऊं. जैसे कि मैंने किसी अच्छे काम में अपनी आहुति दी हो. मैं अपने इस विचार पर बेहद शर्मिंदा भी था लेकिन इसे अपने मन से निकाल नहीं पा रहा था.

ये भाव मेरे अन्दर क्यूँ था. मैं समझ नहीं पाया था. शायद इसलिए कि रोज़ी आम औरतों से बिलकुल अलग, अपनी शर्तों पर जीने वाली खुदमुख्तार औरत थी और हम दोनों ने सोच समझ कर इस रास्ते पर अपने क़दम बढ़ाए थे. न उसकी तरफ कोई शक शुबहा मुझे महसूस हुआ न मेरे ही मन में ऐसा कुछ था.

मैं आपको पहले ही बता चुका हूँ कि मैं निम्मी से बहुत प्यार करता हूँ. लेकिन इस प्यार का मतलब ये तो नहीं है कि मैं सारी ज़िंदगी उसके पल्लू से बंधा हुआ काट दूँ. एक आम मर्द की तरह मेरे भी अरमान रह रह कर जाग उठते हैं और ज़िंदगी को दबा कर या मज़लूमियत के जामे में बिताने को मैं बेवकूफी और जहालत समझता हूँ.

लेकिन खुद मैं इस चक्कर में कैसी कैसी जहालतें कर जाता था ये मुझे बहुत बाद में पता लगा था. बहरहाल रोज़ी और मेरा मिलना अब बढ़ गया था. उस हफ्ते लगभग हर रोज़ हम मिले. दो बार उसके घर उसी तरह डिनर पर. एक बार लंच पर. और दो बार एक होटल में जहाँ मेरी बिज़नस की मीटिंग्स हुआ करती थीं. वहां मैं अक्सर एक कमरा भी बुक किया करता था. उसी कमरे का सदुपयोग मैंने और रोज़ी ने किया था.

हमें मिलते हुए एक-डेढ़ महीने से ऊपर हो चुका था. ज़िंदगी में एक नया बेहद खूबसूरत अंदाज़ दाखिल हो गया था. मैं एक बार फिर प्यार और रोमांस के हिंडोले पर झूल रहा था. हर सुबह एक नयी उम्मीद के साथ उगने लगी थी कि एकाएक जाने क्या हुआ कि रोज़ी ने मेरा फ़ोन लेना बंद कर दिया. बिलकुल उसी तरह अचानक जैसे उसका पहला फ़ोन आया था और वो मेरे दफ्तर आयी थी. उसी तरह अचानक उसने मेरा फ़ोन लेना बंद कर दिया.

मेसेज किया तो उसका जवाब भी नहीं आया. इसी तरह पांच-छह दिन निकल गए. रोजी की कोई खबर नहीं मिली मुझे. आखिरकार मैं घबरा गया. दौड़ा-दौड़ा उसके घर गया तो घर बंद था. फैक्ट्री पहुंचा तो सामना उसके पति कार्ल से हुआ. हम सामान्य बातचीत में लग गए. मुझे कहना पड़ा कि उस तरफ किसी काम से आया था तो उससे मिलने चला आया. लेकिन रोज़ी दिखाई नहीं दी. मै आधा घंटा बैठा रहा कि किसी सूरत रोज़ी के बारे में कुछ पता लग जाए. लेकिन कुछ पता नहीं चला. न वो नज़र आयी न कार्ल ने ही उसका कोई ज़िक्र किया.

निराश, हताश मैं बाहर आया और गाडी में बैठा ही था कि उसका फ़ोन आ गया. मैने फौरन लिया और बोला, "यार कहाँ हो तुम? गायब ही हो गयी हो? मैं कितना परेशान हूँ मेरी जान."

रोज़ी ने मेरी बात बीच में ही काट दी, "सुनो, तुम इस वक़्त फौरन होटल पहुँच जाओ. और मेरा इंतजार करो मैं तुम्हारे पीछे-पीछे पहुँचती हूँ."

"लेकिन कुछ बताओ तो हुआ क्या है?" मेरी परेशानी वो शायद समझ नहीं रही थी.

"तुम वहां पहुँचो मैं आ रही हूँ न. बताती हूँ. सब्र रखो." कह कर उसने फ़ोन काट दिया.

क्या करता? होटल पहुंचा. कमरे की चाबी ली और उसके लिए मेसेज छोड़ कर कमरे में आ गया. दिल खुश हो गया था. रोज़ी से मिलने की उम्मीद में मन में जोश भर आया था. मैं बाथरूम में जाकर फ्रेश हुआ. मुंह धोया. अपने बैग में ऐसे ही मौकों के लिए रखा परफ्यूम कानों के पीछे लगाया.

मैं रोज़ी से मुलाक़ात के लिए मुस्तैदी से तैयार था जब दरवाजे पर नॉक कर के वह भीतर आयी.

बैंगनी रंग की लॉन्ग स्कर्ट, बूट्स, सफ़ेद स्वेटर और डायमंड कानों में पहने आती हुयी रोज़ी पर इस वक़्त मैं मर भी सकता था. मुझे लगा जैसे उसका हुस्न पिछले एक महीने में कई गुना बढ़ गया था. मैंने बाहें फैलायीं तो वो फ़ौरन मुझ में सिमट गयी. मुझसे कद में छह इंच नाटी रोज़ी का बदन बेहद हल्का फुल्का था और मैं भारी कद-काठी का पंजाबी आदमी.

कुछ पल हम दोनों ही बोलने की हालत में नहीं थे. मैं बेकाबू हुआ जा रहा था. रोज़ी ने मुझे खुद से अलग किया और सोफे पर बैठने का इशारा किया. मैं बैठा तो उम्मीद थी कि वो मेरी बगल में बैठेगी. लेकिन वो मेरे सामने बैठ गयी.

मैं निराश तो हुआ लेकिन इस बात को बढ़ाने की बजाय मैंने पूछा, "यार हुआ क्या है? क्यूँ नहीं बात करती हो? क्या गलत हो गया मुझसे? कुछ बताओ तो सही. मैं खुद को ठीक करूँ." मेरी उदासी मेरे हर लफ्ज़ से टपक रही थी.

रोज़ी ने आराम से बैठ कर पीठ सोफे पर टिकाई और एक गहरी नज़र मुझ पर डाल कर बोली,

"अनुराग, मैं जो कहने वाली हूँ उसके बाद शायद तुम ज़िन्दगी भर मुझ से बात ना करो और शायद मुझ से नफरत भी करने लगो लेकिन मेरी बात गौर से सुन लो और उसके बाद जैसे चाहो मुझसे बर्ताव करना. लेकिन मैं जो कर चुकी हूँ, दुनिया की कोई ताकत मुझे उससे पीछे नहीं हटा सकती."

मैं खामोश हो गया. मेरे दिल धक-धक कर रहा था. आखिर ऐसा क्या हुआ है या किया है इस छोटी सी नाज़ुक सी रोज़ी ने?

वो फिर कुछ देर चुप बैठी रही. मेरा दिल किया उसके पास जा कर बैठूं और उसे बाहों में ले कर उसकी मुश्किल आसान कर दूँ. लेकिन उसके चेहरे पर कुछ ऐसा था जो मुझे रोक रहा था. उसकी आँखें सख्त हो आयी थी, जैसे अपने अन्दर डूब कर देख रही हों. वे ऐसा कुछ देख रही थीं जो बता देना खासा मुश्किल लग रहा था इस वक़्त रोज़ी को.

आखिर उसने अपना मुंह खोला, "अनुराग, आय एम प्रेग्नेंट."

मैं हैरान हो गया. ये बात वो मुझे क्यूँ बता रही थी? मैं उसका पति नहीं था.

ओह! तो इसका मतलब है मैं इसके लिए ज़िम्मेदार हूँ. एकबारगी मुझे लगा मैं सोफे से नीचे गिर पडूंगा. खुद को संभाला और उसकी तरफ सवालिया नज़र डाली. मेरी जुबान को लकवा मार गया था.

उसकी आँखों ने जवाब दिया, "हाँ."

मैं उठा और उसकी तरफ अपनी बाहें फैला दीं. लेकिन वो बैठी रही. उसने मुझे भी बैठने का इशारा किया और बोली, "इससे पहले कि तुम कुछ अंदाज़े लगाओ, सलाहें दो और मुझे अपना पूरा सपोर्ट देने की बातें करो. लेट मी टेल यू... मैं ये बच्चा रखूंगी. ये सिर्फ मेरा बच्चा है. तुम्हारी इसको ले कर कोई ज़िम्मेदारी नहीं है. "

"लेकिन तुम कैसे..... और कार्ल..... कार्ल को ठीक नहीं लगेगा ये." मैं उस वक़्त सिर्फ इतना ही सोच पा रहा था. टुकड़ों टुकड़ों में.

"देखो. उसकी फ़िक्र करने की तुम्हें ज़रुरत नहीं है. वो मेरा मामला है. "

"नहीं रोज़ी ये सिर्फ तुम्हारा मामला नहीं है. ये मेरा भी मामला है. "

"यानी तुम एक और बच्चे का बाप बनने की खुशी मनाना चाहते हो?" रोज़ी जानती है मेरी पारिवारिक स्थिति के बारे में.

"खुशी तो है मुझे. झूठ नहीं बोलूँगा. लेकिन डर भी गया हूँ. "

"किस बात से डर गए हो?"

"कि अगर किसी को पता चल गया तो मेरे और तुम्हारे दोनों के लिए मुश्किल खडी हो जायेगी. "

"अनुराग, तुम डरो मत. हम दोनों के अलावा कौन जानेगा? कैसे जानेगा? तुम बताओगे? या मैं बताऊंगी?" उसकी आँखों में एक अजीब तरह की चमक कौंध रही थी.

ये मैं तब से ही देख रहा था जब से वो कमरे में दाखिल हुयी थी लेकिन अब वो चमक कुछ और भी भड़कीली हो गयी थी.

"नहीं, हम दोनों ही नहीं बताएँगे. लेकिन हम दोनों तो जानते हैं न."

"हाँ, जानते हैं."

"तो?"

"तो?"

"यार, तुम समझ नहीं रही हो. ये पेचीदा मसला है. इस पर हमें विचार करना होगा." मैं झुंझला गया था.

"देखो अनुराग, ये बिलकुल पेचीदा मसला नहीं है. सुनो. मेरी बात गौर से सुनो. मैं इस वक़्त बहुत शिद्दत से अपना बच्चा पैदा करना चाहती हूँ. इस वक़्त ही नहीं पिछले दो साल से. और कंसीव नहीं कर पा रही. मैंने अपने सारे टेस्ट करवा लिए और सब ठीक निकले. तब मेरी डॉक्टर ने मुझे कार्ल के टेस्ट करवाने को कहा. उसका मानना है कि कमी कार्ल में होने की संभावना बहुत ज़्यादा है. उसकी कई वजहें हैं. कार्ल हार्ट पेशेंट है और लम्बे समय तक ड्रग्स भी लेता रहा है. नशे के लिए. लेकिन मैंने कार्ल को टेस्ट करवाने को नहीं कहा क्यूंकि कार्ल को बच्चों का न तो शौक है और न ही उनसे कोई ख़ास लगाव. इसके अलावा जब भी मैंने खुद के कंसीव नहीं कर पाने पर अफ़सोस किया है, उसने मुझे यही कहा है कि हम दोनों ही ठीक हैं. मैं क्यूँ इस पचड़े में पड़ना चाहती हूँ? वो अपने ज़िन्दगी से मुतमईन है. मैं ही हूँ जिसे और भी चाहिए ज़िन्दगी से. " रोज़ी इतना बोल कर जब चुप हो गयी तो अचानक सारी कहानी मेरे दिमाग में साफ़ हो कर बिजली जैसे कौंध गयी.

"यानी तुमने जान-बूझ कर ये सब किया. याने तुम मुझ से एटरेक्टेड नहीं थी. सिर्फ एक बच्चा हासिल करने के लिए तुमने मुझे इस्तेंमाल किया?" मैं हैरान था. गुस्से में भी था और निराश भी.

"नहीं. इसी लिए मैं खुद मिल कर सारी बात तुमसे कहना चाहती थी. तुम मुझे बहुत अच्छे लगे थे पहले दिन से ही. याद है पहले ही दिन मैंने तुमसे तुम्हारा विजिटिंग कार्ड मांग लिया था."

ये बात बिलकुल सही कही थी रोज़ी ने. आम तौर पर महिकाएं कार्ड नहीं मांगती. मुझे अटपटा लगा तो था लेकिन रोज़ी एक मॉडर्न बिज़नस वुमन है इसलिए ये बात नार्मल भी लगी थी.

"तो मैंने तुम्हें करीब से जानने के लिए तुमसे दोस्ती की और पाया कि तुम एक जेंटलमैन हो. एक ऐसा आदमी जिसका बच्चा मैं पैदा करना चाहूंगी. रेस्ट इज़ हिस्ट्री. "

उसकी आँखों की चमक और बढ़ गयी थी. मैं तबाह हो गया. मेरा दिल किया रोज़ी को बाँहों में ले कर चूमता ही चला जाऊं. लेकिन वो किसी और ही मूड में थी.

"यहाँ आओ. मेरे पास." मैं रोक नहीं पा रहा था खुद को.

"नहीं अनुराग, अब हमें एक दूसरे से दूर रहना होगा. पहली बात तो ये कि मैं चालीस की हो चुकी हूँ. इस वक़्त ये गर्भ मेरे लिए बहुत कीमती भी है और बहुत नाज़ुक भी. मैं हर तरह से इसे संभालना चाहती हूँ. मैं तुम्हारा जितना भी शुक्रिया अदा करूँ, कम होगा. एक बात हमेशा याद रखना अनुराग! मैं उम्र भर के लिए तुम्हरी कर्ज़दार हो गयी हूँ. हम एक दुसरे से अब जितना हो सके दूर रहेंगे. हम दोनों की फॅमिली लाइफ में इस बात से कोई परेशानी नहीं खडी होनी चाहिए. इसका सीधा उपाय यही है कि अब हम कंभी भी न मिलें. जब बच्चा पैदा होगा तो मैं तुम्हें उससे एक बार मिलवा दूंगी. बस. "

मैं भौचक्का सा रोज़ी की बातें सुन रहा था. यानी रोज़ी ने सब कुछ प्लान कर के किया था और मुझे हवा तक नहीं लगने दी. ज़ाहिर है मैं खुश भी था, डरा हुआ भी, रोमाचित भी, घबराया हुया भी. मुझे बिलकुल समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या महसूस कर रहा हूँ.

रोज़ी भी इतना सब कुछ विस्तार से बता देने के बाद खामोश हो गयी थी. शायद उसे भी समझ नहीं आ रहा था कि अब वो क्या करे या फिर क्या कहे. कुछ देर हम दोनों इसी तरह आमने-सामने बैठे रहे. फिर वह उठी थी और उसके साथ ही मैं भी उठ खड़ा हुआ था. हम दोनों ने लगभग एक साथ ही एक दुसरे को आलिंगन में लिया था और अलग हुए थे.

जाते-जाते रोज़ी ने एक बार फिर कहा था, "अब हम नहीं मिलेंगे. बच्चा हो जाने पर मैं उसे एक बार तुमसे मिलवा दूंगी. "

मैं चुपचाप खड़ा उसे जाते हुए देखता रहा और जब वो चली गई तो बंद हुए दरवाजे को देखता मैं सोफे पर बैठ गया था. उस रात मैं घर नहीं गया था. वहीं उसी कमरे में रुका रहा. निम्मी को फ़ोन कर के कह दिया कि मीटिंग में बहुत देर हो जायेगी. उसके बाद डिनर में ड्रिंक्स हैं सो मैं ड्राइव नहीं करूँगा और होटल में कमरा ले कर सो रहूँगा. उसने नाराज़गी ज़ाहिर तो की थी मगर लगा कि मेरी बात से वो आश्वस्त थी.

मैं सो नहीं पाया था. लगभग पांच बजे तक वाइन की एक बोतल पूरी गटक गया. खाना मंगवाया तो था. लेकिन ज्यादा कुछ खा नहीं पाया. सोचता रहा. रोज़ी को याद करता रहा. उस अजन्मे बच्चे के बारे में भी बार बार मन में ख्याल आने लगा. जैसे ही उसका ख्याल आता अपने दोनों बच्चों के चेहरे आँखों में उतर आते. साथ ही उतर आता निम्मी का चेहरा भी.

ये मैं कैसी मुश्किल में घिर आया था? कुछ समझ नहीं पा रहा था. दिमाग में बातें, भावनाएं, विचार; सब बवंडर की तरह उठ रहे थे और एक दुसरे को घायल कर रहे थे. नसें तन रही थीं.

ऐसे में वाइन का हल्का मीठा- मीठा नशा मुझे बेहतरीन सहारा देता है, सो उसी के सहारे मैंने पूरी रात काट ली थी. कमरे की खिड़की का पर्दा मैंने जाने कब हटा दिया था. जनवरी में सुबह बहुत देर से होती है. सुबह का सूरज हल्की रोशनी बिखेरने लगा था जब मुझे हल्की नींद की खुमारी होने लगी.

मैंने इरादा किया था कि सुबह जल्दी घर चल जाऊंगा लेकिन अब लगा इस हालत में ड्राइव नहीं करना चाहिए. मैंने घड़ी देखी. सात बजे थे. निम्मी बहुत पहले ही उठ गयी होगी. मैंने उसे फ़ोन लगाया उसने एक ही घंटी पर उठा लिया, "कहाँ हो तुम? कब आओगे?"

"यार अब जा के पार्टी ख़त्म हुयी है. अब मुझे नशा भी है नींद भी आ रही है. मैं सोने लगा हूँ. मुझे एक बजे तक फ़ोन कर के उठा देना अगर नींद ना खुले तब तक तो. तब घर आउंगा."

"ठीक है. गाडी में से फ्रेश कपडे ले लेना. " पत्नी आखिर पत्नी ही होती है.

निम्मी जैसी पत्नी किस्मत से मिलती है. निम्मी हमेशा मेरी गाडी में फ्रेश कपड़ों का एक जोड़ा रख देती है. अंडरवियर समेत. जानती है ऐसी पार्टियाँ मेरे साथ अक्सर हो जाती हैं. इस तरह की पार्टियों में वो भी एकाध बार आयी हैं जहाँ सुबह हो जाती है और उसके बाद होटल के कमरे में ही सोना होता है. नशा या थकान या फिर दोनों वजह से.

उसे ये सब पसंद नहीं सो अब वो पार्टियों में मेरे साथ नहीं जाती और मैं कुछ ज्यादा ही आज़ाद और आवारा हो गया हूँ. इसी आजादी के नतीजे में एक और बच्चे का बाप भी बनने जा रहा हूँ. एक बार फिर उस अजन्मे बच्चे का ख्याल दिल में आ गया. मैंने सोचा तो लगा अभी तो उसका दिल भी धडकना शुरू नहीं हुआ होगा. मैं अपने ही दिल की धडकनें सुनता हुआ नींद में गाफिल हो गया था.

दोपहर में आँख खुली तो पहला ख्याल उसी अजन्मे बच्चे का आया. रोज़ी पर क्षोभ भी था. मुझसे कह कर तो देखती. मैं कहाँ मना करने वाला था? लेकिन यूँ इस तरह अंजाने में मुझसे मेरा अंश लिए जाने पर मैं हैरान था. बेहद परेशान भी. कुछ भी कहूँ मगर मैं इस राज़ को किसी पर भी नहीं खोल सकता था.

इसी के साथ निम्मी का भी ख्याल आया. निम्मी को अगर पता चल गया तो उसका क्या हाल होगा. कितना भरोसा करती है मुझ पर. लेकिन क्या मैं उसके भरोसे के लायक हूँ? इस बात पर मैं अक्सर चुप्पी साध कर अपने अंदर बैठ जाता हूँ. कभी भी इसका इमानदारी से जवाब नहीं दे पाता. सच बोलने की ताकत नहीं है. झूठ बोलना नहीं चाहता.

एक बार निम्मी ने मजाक मजाक में ही मुझ से पूछा था कि कहीं मैं अपना दिल कहीं और तो नहीं लगा बैठा हूँ. मैं डर गया था.

हकलाता हुआ हंस पड़ा था और उसी से सवाल कर बैठा था, "क्यूँ मैं इतना खराब आदमी हूँ?"

"नहीं तुम तो सही आदमी हो. इसीलिये तो तुम से शादी की है मैंने." वह भी हंसी थी.

"फिर ये सवाल क्यूँ पूछती हो."

"पूछ ही लेना चाहिए. कही और दिल लगा लिया हो और मुझे कहीं और से पता लगे तो मेरा दिल नहीं टूट जायेगा? ये नेक कम अगर होना है तो तुम ही करो ना. " वह अभी भी हंस ही रही थी.

मैं समझ रहा था ये निम्मी का अपने तरीके का रोमांस था. जो मेरी निजी ज़िन्दगी के बेहद निजी पलों की पर्दादारी को समझ नहीं आते थे. मैं उसकी रौ में नहीं बह पाया. थोड़ी देर मुझे देखती बैठी रही. फिर उठ कर बोली थी, "रहने दो यार. तुम तो शादी के बाद कैसे से हो गए हो. बिलकुल अन रोमांटिक." और कमरे से बाहर चली गई थी.

शादी मेरे लिए कई कामों की तरह एक काम ही तो था ज़िन्दगी का. प्रेम करना भी. निम्मी से प्रेम करना भी. क्यूंकि वो मेरी नज़र में मेरे मोहल्ले की सबसे खूबसूरत और मेरी हमउम्र लडकी. सो उसे प्रेम किया, हासिल किया और शादी कर ली. ये काम ख़त्म हुआ.

अब आगे चलना था. सो चल पडा. अपना बिज़नस स्थापित किया. बढ़िया से चला रहा हूँ. दो बच्चे कर लिए. उन्हें भी बढ़िया तालीम दिलवा रहा हूँ. अब और क्या चाहिए?

लेकिन यहीं आ कर एक धमाका मेरे दिल में हुआ. क्या? सब काम अपने हिसाब से कर रहे हो? अच्छा? तो ये नया बच्चा? ये किस प्लानिंग में था?

मुझे एकाएक रोज़ी पर बहुत जोर का गुस्सा आया. दिल किया उससे बात कर के उसे बताऊँ कि मैं उस पर कितना गुस्सा हूँ. फ़ोन भी उठा लिया. उस पर निम्मी के तीन मिस्ड कॉल थी. फ़ौरन उसे फ़ोन लगाया.

वो झुंझलाई हुयी थी. "यार तुम उठ गए हो तो घर आ जाओ. "

"क्या हुआ. सब ठीक तो है?" मैं परेशान हो गया.

"हाँ ठीक है. नहीं भी ठीक है तो तुम्हे क्या? मत आओ. घर तुम्हारा कहाँ है? घर तो सिर्फ मेरा है. मैं पडी रहूँ यहाँ सडती हुयी. तुम्हें क्या? मत आओ." और उसने फ़ोन काट दिया था.

***