Bhraman ki Beti - 7 in Hindi Moral Stories by Sarat Chandra Chattopadhyay books and stories PDF | ब्राह्मण की बेटी - 7

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ब्राह्मण की बेटी - 7

ब्राह्मण की बेटी

शरतचंद्र चट्टोपाध्याय

प्रकरण - 7

एक दिन तालाब से नहाकर घर लौटती जगदधात्री की रहा में अचानक रासमणि से भेंट हो गयी। रासमणि का चेहरा इस प्रकार उदास और बुझा हुआ था, मानो वह अभी-अभी कही से पिटकर आयी हो। समीप आकर आँसू बहाती हुई रासमणि रुंधे कण्ठ से बोली, “जगदधानी रानी, बड़ी भाग्यशाली हो और तुम्हारी लड़की भी लगता है कि पिछले जन्म मे बहुत पुण्य कर्म किये है।”

कुछ समझ पाती और लड़की के उल्लेख से परेशान हुई जगदधात्री बोली, “मौसी, कुछ साफ-साफ बता, तू कहना क्या चाहती है? तुम्हारी यह पहेली-जैसी बातें मेरी समझ से बाहर हैं।”

रासमणि बोली, “जो भाग्य तेरी लड़की लेकर आयी है, उस पर तो सबका ईर्ष्यालु होना स्वाभाविक है। अब तू इन्हीं भीगे कपड़ो और बालों से भगवान को प्रणाम करके कृतज्ञता का प्रदर्शन कर। गणेश, दुर्गा आदि कुलदेवियों का पूजन कर। हाँ, मेरा ईनाम देना न भूल जाना, मैं तो सने की गोट लूंगी, यह बात ध्यान में रख ले।”

हैरान-परेशान जगदधात्री बोली, “बे-सिर-पैर की हांके जाओगी या कुछ साफ-साफ बताओगी भी।”

हंसती हुई रासमणि बोली, “साफ सुनना चाहती है तो ले सुन। तुम माँ-बेटी के पिछले जन्म के पुण्यों का ही यह फल है। कहां तो लड़का मिलने की चिन्ता से दिन-रात घुल रही थी, कहां अब पूरे गाँव पर शासन करेगी।”

सुनकर जगदधात्री आँखें फाडकर रासमणि को देखने लगी। रासमणि अपनी रौ में कहती गयी, “मुझे भी पहले विश्वास नहीं हुआ था. सपना-जैसा लगता था, किन्तु बघाई हो, यह सत्य है।”

जगदधात्री ने कठोर स्वर में कहा, “मौसी, तुमहारी बकबक सुनते-सुनते मैं परेशान हो गयी हूँ। सीधे तोर पर साफ-साफ क्यों नहीं कहती?”

जगदधात्री के हाथ को अपने हाथ में लेकर धीरे-से उसके कान में रासमणि ने कहा, “जगदधात्री, इस बात को अभी अपने तक रखना, हवा न लगने देना। विध्न-बाधा डालने वाले अपना रंग दिखाने पर उतारू हो जाते है। चटर्जी भैया को केवल मुझ पर भरोसा है, इसलिए आज सुबह उन्होंने मुझे बुलाकर कहा कि संध्या की माँ को सूचित कर दे कि उसे लड़की के बारे में चिन्ता करने कोई आवश्यकता नहीं। उसका हाथ थामने के लिए मैं तैयार हूँ। अब वह अपनी टांग-पर-टाग रखकर चैन की नींद सोये। मैंने सोच-विचारकर यह निर्णय लिया है। इससे एक तो ब्राह्मण के वंश-धर्म की रक्षा हो जायेगी और दूसरे, गाँव की लड़की गाँव मे ही रह जायेगी।”

रासमणि की बात पूरी होने से पहले ही जगदधात्री पछाड़ खाकर धरती पर गिर पड़ी।

रासमणि ने पूछा, “क्या हुआ जगदधात्री?”

अपने को संभालकर जगदधात्री बोली, “मौसी, लगता है कि तूने धूप में बाल सफेद किया हैं, नहीं तो गोलोक मामे के मजाक को इतनी गभ्भीरता से न लेती। क्या चार जनों द्वारा उठाया जाने वाला बूढ़ा दूल्हा बनेगा?”

रासमणि बिना झेपे अपनी कहती रही, “बेटी, मर्द की भी कभी आयु देखी जाती है? स्वास्थ्य अच्छा हो तो सत्तर की आयु का मर्द सत्रह वर्ष की छोकरी से विवाह रचाता है। बेटी, मुझे भी पहले यह मजाक लगता था, किन्तु गोलोक न् कभी हलकी बात करता है और न ही झूठ बोलता है। उन्होंने पूरी गंभीरता से यह सब कहा है। मैं तो आशीर्वाद देती हूँ की यह सम्बन्ध स्थिर हो जाये। इसे अपना सौभाग्य समझो बेटी। जाओ, घर आनन्द मनाओ।”

जड़ बनी जगदधात्री चुपचाप खड़ी रही। उसके पैरों के नीचे से मानो धरती खिसक गयी थी।

रासमणि ने जगदधात्री के चेहरे को देखे बिना कहना चारी रखा। वह बोली, “इसी अगहन के महीने में विवाह हो जाना चाहिए, इसके बाद अच्छा लगन नहीं निकलता है। गोलोक भैया की इच्छा है... लड़की बी तो अप्सराओं से बढ़-चढ़कर है, बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों का मन भी डुला सकती है, फिर मुखजी भैया तो एक साधारण मनुष्य ही हैं।”

इसके बाद वह फिर बोली, “बेटी, तू गीले कपड़ों मे काफी देर से खड़ी है। जा, घर जाकर कपड़े बदल, मैं तुम्हारे घर आकर सारी बातें करूगी।”

यह कहकर रासमणि अपने घर को चल दी और जगदधात्री लड़खड़ाते पैरों से अपने घर आ गयी। घर पहुंचकर ठाकुरद्वार के बाहर बैठी वह टप-टप आँसू बहाने लगी।

इकलौती लड़की संध्या जहाँ अपने माँ-बाप की लाडली है, वहाँ रूप-सौन्दर्य और गुण-बुद्धि में भी अप्रतिम है। गोलोक को अपनी लड़की सौंपने की अपेक्षा उसे कुएं धकेल देना अधिक बेहतर समझती है। गोलोक लड़की के नाना की आयु का है। ऐसे बूढ़े से लड़की की ब्याहने से अच्छा तो उसकी हत्या कर देना है। जगदधात्री इस सत्य को भली प्रकार समझती है, किन्तु मुंह से “न” निकालते ही नहीं बनता, क्योंकि कुलीन ब्राह्मण परिवारों में तो यह सब चलता ही है। उसके सामने इस प्रकार के अनेक उदाहरण है, इसलिए वह अत्यधिक व्यथित, चिन्तित और परेशान है। लगातार रो रही है। उसे डर है कि कहीं ऐसी स्थिति न आ जाये कि इस नरपिशाच से पीछा छुड़ाना ही कठिन हो जाये?

एक पत्र को पढ़ती हुई भीतर प्रविष्टहोती संध्या ने आवाज दी, “माँ, कहां हो तुम?”

तुरन्त ही आँसू पोंछकर सामान्य बनने की चेष्टा करती हुई जगदधात्री बोली, “हाँ, कहो बिटिया! क्या बात है।”

“माँ के रुंध गले से चौंकी संध्या ने सपीम आकर धीरे-से सहानुभूति दिखाते हुए पूछा, “मां, क्या हुआ है?”

लड़की के चेहरे से अपना चेहरा हटाती हुई माँ बोली, “कुछ भी तो नहीं?”

माँ के और अधिक समीप आकर अपने आँचल से उसके आँसू पोंछती हुई संध्या ने पूछा, “क्या बाबू जी ने कुछ उल्टा-सीधा कह दिया है?”

जगदधात्री ने कहा, “नहीं तो।”

माँ के कथन पर विश्वास न करती संध्या माँ के समीप बैठ गयी और दार्शनिक शैली में बोली, “माँ, सबको सदैव मनचाहा नहीं मिलता। इसमें दुःख मनाने वाली कोई बात नहीं। एक बात और, जब सब लोग बाबू जू को सनकी कहते हैं, तो तुम भी उन्हें ऐसा समझदार उनके सुने को अनसुना क्यों नहीं कर देती हो?”

जगदधात्री बोली, “लोगों का क्या आता-जाता है? वे जिसे जो समझना-कहना चाहें स्वतंत्र हैं, किन्तु मैं ऐसा समझ भी लूं, तो क्या मुझे उनकी जली-कटी सूनने से मुक्ति मिल जायेगी?”

संध्या आज तक यह नहीं समझ पायी थी कि किसकी जली-कटी को सुनकर सुनने बाले के मन पर क्या बीतती है, उसे कैसी गहरी वेदना झेलनी पड़ती है? आज भी उसकी स्थिति वही थी। अतः संध्या आज भी माँ की बात सुनकर अपने निरीह, सरल, परोपकारी और लोकसेवा के प्रति समर्पित पिता का बचाव करती हुई बोली, “माँ, यदि मेरे वश में होता, तो मैं पिता जी को लेकर ऐसे किसी वन-प्रान्त अथवा पर्वत-प्रदेश में चली जाती, जहाँ पिताजी का ऐसे लोगों से पाला ही न पड़ता।”

लड़की की ठोड़ी को चूमकर जगदधात्री हंसती हुई बोली, “पिता के लिए तेरी यह चिन्ता और भावना सचमुच प्रशंसनीय है, किन्तु मेरे लिए तो उससे आधा स्नेह भी नहीं, मानो मैं तुम्हारी सौतेली माँ हूं।”

“अच्छा तो माँ, क्या तुम समझती हो कि मैं तुम्हें प्यार नहीं करती?”

“किन्तु पिता के लिए तो तू अपने प्राण न्यौछावर करने को तैयार रहती है, मेरे ऐसा भाग्य कहां? अब इसी एक बात को देख ले, तुझे भली प्रकार से मालूम है कि तुम्हारे बाबू की दवाई से किसी रोग की कोई लाभ नहीं होता, फिर भी, बाबू की दवा के सिवाय औक किसी की दवा को लेने को तैयार नहीं। यहाँ तक कि अपने स्वास्थ्य के उत्तरोत्तर बिगड़ते जाने की भी तुम्हें कोई चिन्ता नहीं है।”

प्यार से माँ के गले में अपने दोनों हाथ डालकर हंसती हुई संध्या बोली, “माँ, यह तो सत्य है। मैं किसी भी दूसरे डॉक्टर को बाबू के समकक्ष मान ही नहीं सकती।”

“मानती हो न कि तुम अपने पिता में असीम भक्ति रखती हो?”

संध्या बोली, “माँ रहने दो, पिताजी के उपचार से मुझे काफी लाभ हुआ है, अब में पहले से काफी ठीक हूँ।” इसके बाद विषय बदलने की गरज से संध्या बोली, “माँ, दूले की बहू चली गयी। यह अच्छा ही हुआ कि इस आफत से छुटकारा मिला। क्यों. ठीक है न मां।”

आश्चर्य प्रकट करती हुई माँ ने पूछा. “कबी गयी?”

“ठीक से मालूम नहीं, शायद सवेरा होते ही चली गयी है।”

संध्या के भोलेपन का अभिनय माँ को छल न सका। उसने पूछा. “तुझे तो यह मालूम ही होगा कि वह कहां गयी है।”

संध्या ने उदासीनता और बेपरवाही से कहा, “शायद अरुण भैया ने उसे अपनी कोठी के पीछे बाग में जगह दे दी है। वहाँ उड़िया माली की एक कोठरी खाली पड़ी थी, वही उसे दे दी गयी है।”

माँ ने पूछा. “अरुण के पास तूने उसे भेजा होगा?”

संध्या मन-ही-मन इस उलझन से मुक्त होने का उपाय सोचने लगी। असत्य का आश्रय लेती हुई वह बोली, “अरुण भैया के पास मैं किसी को क्यों भेजने लगी? इस बारे में मुझे कुछ भी मालूम नहीं।”

इसके बाद इस विषय की चर्चा से माँ का ध्यान हटाने की नीयत से संध्या ने अपने हाथ में थामा पत्र माँ के सामने रख दिया और बोली, “असल बात जो तुम्हें बतानी थी, वह तो बतायी नहीं। मेर संन्यासिनी दादी की यह पत्र आया है। वह कभी झूठ नहीं बोलती। इससे लगता कि वह यहाँ साथ रहने के लिए आ रही है।”

जगदधात्री ने पूछा, “सासू माँ का पत्र है क्या? कब आ रही हैं वही?”

यही सासू माँ काशी छोड़कर एक दिन के लिए इधर आने को कभी सहमत नहीं हुई थीं। जगदधात्री ने इकलौती बेटी संध्या के विवाह में सम्मिलित होने के लिए बहुत अनुनय विनय की थी। सास कन्यादान का पुण्य लेने को तो सहमत नहीं हुई थी, किन्तु उसने विवाह में सम्मिलित होने का अनुरोध मान लिया था।

अपने विवाह के उल्लेख से शर्माती हुई संध्या बोली, “माँ, अपने पत्र के उत्तर को स्वयं पढ़ लो न?”

इसी के साथ पत्र माँ के हाथ में देकर संध्या बोली, “माँ, अभी तक तुमने गीली धोती ही पहन रखी है। मैं अभी तुम्हारे सुखे वस्त्र लायी।” कहती हुई संध्या तेजी से चली गयी।

पत्र को माथे ले लगाकर जगदधात्री अपने से बोली, “माँ बहुत दिनों के बाद तुम्हारा चित द्रवित हुआ है।”

करती हुई धीरे-से ठाकुरद्वारे की ओर चल दी। इसी बीच प्रियनाथ ऊंचे स्वर में चिल्लाते हुए घर में प्रविष्ट हुए। वह बोले जा रहे थे, “दो दिन देखने नहीं जा पाया तो “हाईकोपाड्रिया” ने जोर पकड़ लिया।”

जगदधात्री की अपने पति से प्रायः बातचीत होती ही नहीं थी, किन्तु आज अचानक बारह बजे उनके घर आ जाने और बड़बड़ाने पर उसने पूछ ही लिया, “किसे क्या हो गया है?”

प्रियनाथ बोले, “अरुण को हाइकोपाड्रिया हो गया है। मेरी जाचं-परख में मीन-मेख निकालना किसी के बाप के भी बस में नहीं है। विपिन तो इस रागवाचक शब्द के अर्थ तक को नहीं जानता होगा।”

अरुण का नाम इस चर्चा से न जुड़ा होता, तो जगदधात्री इस बातचीत में रुचि न दिखाती, किन्तु अब स्थिति भिन्न थी। उसने उत्सुक होकर पूछा, “क्या हुआ अरुण को?”

प्रियनाथ के कहा, “अभी तो सब बताया है, किन्तु इस शब्द के अर्थ को जब ठीक से अरुण ही नहीं समझ सका, तो तुम लोग क्या समझोगे? विपिन थोड़ी-बहुत प्रैक्टिस तो करता है, फिर भी, इस रोग के बारे में वह कुछ नही जानता। सब लोग अपना माल-असबाबा बांध रहे थे, जमीन-जायदाद बेचकर इस स्थान को छोड़कर किसी दूसरे स्थान पर जाने की तैयारी चल रही थी। हारान कुण्डू को सूचना दे दी गयी थी कि संयोगवश मैं वहाँ पहुंच गया। अब क्या करुं, जहाँ एक दिन जाना नहीं हों पाता, वही कि स्थिति बिगड़ जाती है। मैं अकेला आदमी ठहरा, जाऊं भी, तो कहां-कहां जाऊं? अरी संध्या बेटी, जरा, “मेडिका-मेटेरिया” पुस्तक तो ला दे, ताकि अरुण के लिए दवाई का चुनाव कर लूं?”

पिता की आवाज को सुनकर एक मोट-सी पुस्तक को हाथ में लिए संध्या बोली, “आयी पिताजी।”

जगदधात्री व्याकुल होकर अपने पति से बोली, “ठीक से बताओ, अरुण को क्या हुआ है?”

चौंककर प्रियबाबू बोले, “बताया तो है, वह मनोरोग से ग्रस्त हो गया है। अपना सारा सामान हारन कुण्डू को कौड़ियों के दाम बेचकर आज ही यहाँ से कूच करना चाहता है? यह सब मेरे होते कैसे सम्भव है? दो सौ पावर की एक बूद...।”

सुनकर संध्या का चेहरा बुझ गया। जगदधात्री व्याकुल कण्ठ से बोली, “सारी सम्पत्ति बेचकर गाँव को छोडने की बात करना तो पागलपन का लक्षण है।”

हाथ के संकेत से प्रियनाथ ने कहा, “इसे पूरे तौर पर पूरा पागलपन नहीं कहा जा सकता। पागलपन को इन्सेनिटी कहते हैं और उसकी ओषधि अलग है। हाँ, विपिन के लिए इस अन्तर को समझाना अवश्य सहज नहीं।”

लड़की की ओर देखने के बाद पति को घूरती हुई जगदधात्री दृढ़ स्वर में बोली, “मुझे तुम्हारी बेकार की बातों को सुने में कोई रुचि नहीं। सीधे-सीधे यह बताओ कि क्या अरुण ने गाँव छोड़ने का मन बना लिया है?”

“ऐसा था और इस दिशा में तैयारी चल रही थी, किन्तु...।”

“क्या हारान कुण्डू से सारी सम्पति खऱीदने की बातचीत कर ली गयी है?”

“हाँ, उस पाजी के तो पौ बारह हो रहे है, किन्तु मैं...।”

“अच्छा, क्या इस तथ्य की जानकारी गाँव के अन्य लोगों को भी है?”

“मेरे सिवाय किसी भी अन्य व्यक्ति को कुछ मालूम नहीं।”

“क्या तुम मेरा एक काम करने की कृपा करोगे? अरुण को केवल यह कहना है कि तुझे चाची ने इसी समय घर पर बुलाया है।”

संध्या चुपचाप खड़ी सब सुन रही थी, उसने एक भी शब्द मुंह से नहीं बोला था। जगदधात्री की दृष्टि उस पर गयी, तो वह यह देखकर चकित हो गयी कि लड़की का चेहरा उतर गया है। उसके होंठ कांप रहे हैं और उसका अंग-अंग शिथिल हो गया है, फिर भी, वह संभलकर दृढ़ स्वर में बोली “माँ, उन्हें यहा बुलाकर क्या एक बार फिर अपमानित करना चाहती हो? उन्होंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है, जिसका दण्ड तुम उन्हें देना चाहती हो?”

चकित हुई माँ ने पूछा, “संध्या, यहाँ अपमान किये जाने की बात कहां से आ गयी?”

संध्या बोली, “माँ, मैं नहीं चाहती कि तुम उन्हें अपने इस घर में बुलाओ।”

जगदधात्री ने कहा, “क्या घर में बुलाकर सुख-दुःख बांटना भी कोई अपराध है?”

संध्या बोली, “माँ, उनके सुख-दुःख से हमें क्या लेना-देना? वह चाहे इस गाँव में रहे या यहाँ से चले जायें, हमें इससे क्या अंतर पड़ता है। तुम उनके बारे में इतनी परेशान क्यों हो रही हो? फिर पिता की और उन्मुख होकर वह बोली, “पिताजी, आपको उन्हें बुलाने के लिए जाने की कोई आवश्यकता नहीं।” इसके बाद वह माँ से दृढ़ शब्दों में बोली, “यदि तुमने हठ नहीं छोड़ा, तो मैं उनके आने से पहले ही तालाब में डूब मरूंगी।”

यह कहती हुई संध्या माँ के उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही वहाँ से दूर चली गयी।

चिन्तित-विस्मत होने से जड़ बनी जगदधात्री वहीं खड़ी रही। प्रियनाथ उच्च स्वर में बोले, “बेटी, पुस्तक दे जाती, तो औषधि ढूंढ़ लेता।”

संध्या न लौटकर पुस्तक ला दी और प्रियनाथ पुस्तक में से दवा ढूंढ़ने में व्यस्त हो गये।

कुछ देर की चुप्पी के बाद जगदधात्री अपने पति से बोली, “क्या तुमने लड़की को कुंआरी रखने की ठान ली है?”

“ऐसी बात क्यों कहती हो? उसका विवाह होगा और अवश्य होगा।”

“आखिर कब होगा? जब बूढ़ी हो जायेगी, तब?”

प्रियनाथ “हूँ” करके रह गये।

“एक दिन रसिकपुर क्यो नहीं चले जाते?”

विशिष्ट दवा पर अंगुली रखकर प्रियनाथ ने पूछा, “क्या वहाँ किसी को कोई कष्ट है? क्या किसी ने सन्देश देकर बुलाया है।”

ठण्डी सांस छोड़कर बोली, “जयराम मुखर्जी के नाती के साथ बात चल रही थी न। जाकर एक बार लड़के को देख तो आओ।”

प्रियनाथ बोले, “जाना चाहूं तो, तो कब जाऊं? एक समय भी यहाँ मेरे न रहेने पर लोग किनते अधिक परेशान हो जाते है? अरुण का हाल तो तुम्हें मालूम है, चटर्जी का आदमी भी उसकी साली की जाचं के लिए बुला गया है।”

जगदधात्री ने आश्चर्य से पूछा, “ज्ञानदा को क्या हो गया है?”

प्रियनाथ बोले, “खान-पान की बदपरहेजी से अपच हो गया लगता है, इससे उसका जी मचलाता है। अरुण के पास से लौटता हुआ ज्ञानदा को देखता आऊंगा।”

जगदधात्री बोली, “चटर्जी के यहाँ डॉक्टरों की कोई कमी नहीं है। तुम अपने कर्तव्य-कर्म को महत्व दो। रसिकपुर जाकर एक बार लड़के को देख आओ, फिर जो मन में आये, वह करते रहो।”

पत्नी की विह्वलता से द्रवित प्रियनाथ थोड़ा होश मे आये और धीमे-से बोले, “देखना क्या है, सुना है लड़का एकदम आवारा है।”

जगदधात्री आँसू टपकाते हुए बोली, “नशा करता है, तो क्या आवारागर्दी करता है, तो क्या उससे विवाह करते लड़की सुहागिन तो बन जायेगी। जब मेरे माँ-बाप ने तुम-जैसे आदमी के हाथ सौंपने में क्या आपति है? कहती हुई वह अपने आँचल से आँसू पोंछकर बाहर को चल दी।”

प्रियनाथ कुछ देर तक जड़ बने बैठे रहे, फिर सांस छोड़कर अपने से बोले, दो-दो रोगियों की चिकित्सा करनी है। इस तनाव की स्थिति में कही औषधि का चुनाव करना सम्भव है? कहकर उन्होंने पुस्तक को बगल में दवाया और बाहर की राह ली।

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