Dekhat Jag Baurana Jhuthe Jag Patiyana in Hindi Moral Stories by Vijay Vibhor books and stories PDF | देखत जग बौराना, झूठे जग पतियाना………

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देखत जग बौराना, झूठे जग पतियाना………

पांच सौ साल पहले कबीर ने साधु को पहचानने की यह निशानी बताई थी – “साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय, सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय॥” त्याग, संयम, सादगी और सहजता को साधुता की कसौटी मानने वाले कबीर को भारत में आने वाली सदियों में ‘साधु’ और ‘बाबा’ की बदल चुकी परिभाषा का इल्म नहीं रहा होगा।

किसी विचार या किसी इच्छा को आगे बढ़ाना ‘क्रमागत उन्नति’ का हिस्सा है, यही एकमात्र रास्ता है शुद्धता के साथ उसे साकार करने का। इसमें समय की कोई क़ैद नहीं है, हो सकता है विचार को अपने अंतिम निखार तक पहुँचने में कई जीवन लग जायें, तब जाकर वो हासिल हो जो पहले जीवन में सोचा था। वर्तमान समय में कई जीवन लग जायें? ये संभव नहीं है, आपको परस्थितियों और हर क्षेत्र के नागरिकों की नब्ज़ अच्छी तरह समझते हुए और कहाँ किसको निशाना बनाना है इसका ग्राफ तैयार करने वाली एक टीम खड़ी करने की ज़रूरत है, बस। इसके अलावा आपके पास क्या है, क्या कुछ आपके पास नहीं है? भूल जाएँ और सारी मर्यादायें, सारी शिक्षा, सारे जीवन मूल्य दाँव पर लगा दीजिए, बस किसी भी तरह टॉप कर जाइए| कुछ मत सोचिए, बस आइए और इस दौड़ में शामिल हो जाइए| जब आप सफल हो जाएँगे, तो एक सफल व्यक्ति कहलायेंगे| फिर देखिए कैसे दुनिया आपके क़दमों में होगी? कोई आपसे पूछने नहीं आएगा कि आप कैसे सफल हो गये, आप तो योग्यता भी नहीं रखते?

देश-दुनिया में कहीं भी देख लीजिए धार्मिक गुरुओं, बिजनिस मैन के आनन-फानन में कामयाब होने की एक लंबी लिस्ट मिल जाएगी। इन्हीं की छत्रछाया में आज राजनेता अपने शुद्ध मकसद को छोड़ कर एक अलग ही राह पर चल निकले हैं। सरकार की छवि निखारने का काम स्वयं जनहित कार्य न कर जनता की गाढ़ी कमाई से विज्ञापन के जरिए कारपोरेट जगत से करवाने लगे हैं।

लोकतंत्र में कारपोरेट जगत और राजनीतिज्ञ का लंगोट तक का साथ है और आज आध्यात्मिकता की अज्ञात गुफाओं-कंदराओं से निकल कर धर्म के आभामंडल को ऐश्वर्य, चाकचिक्य और अय्याशी की परिधि तक समेट कथित धार्मिक गुरुओं की राजनीतिज्ञों से साठगांठ भी गहरे जड़ जमा चुकी है। धर्मगुरुओं के राजनीति की दुनिया में घालमेल इनकी सियासी महत्वाकांक्षाओं के चलते बाबाओं से काल्पनिक लाभ की आस लगाने के साथ ही उनके समर्थकों को वोट बैंक के तौर पर देखा जाने लगा है। यही वजह है कि ऐसे धर्मगुरुओं में किसी रूहानियत की गैर-मौजूदगी के बावजूद राजनेता उनके आशीर्वाद के लिए तत्पर रहते हैं और ऐसे बाबाओं-गुरुओं को प्रश्रय देते हैं। चंद अपवादों को छोड़ कर आज धर्मगुरुओं की मकबूलियत का पैमाना धन, जमीन, ऐश-ओ-आराम के साधन और सियासी रसूख बन चुके हैं, जिन्हें बरकरार रखने के लिए वे आपराधिक कृत्यों और साजिशों में शामिल होने तक से गुरेज नहीं करते। दरअसल इनकी ख्याति और कुख्याति साथ-साथ चलती रहती हैं। धर्म और आस्था के नाम पर चलने वाले गोरखधंधे और इनके सरगना की भूमिका निभा रहे बाबाओं के धत्कर्मों को सवालों के घेरे में ला दिया है। हैरत तब होती है जब इन गुरुओं की असलियत सामने आ जाने के बाद भी उनके अंध-समर्थक जी-जान से उनके पीछे खड़े रहते हैं और खुले आम सड़कों पर लाठी, हॉकी स्टिक और बंदूक संभाले हजारों की संख्या में महिला और पुरुष अनुयायी उपद्रव करते नजर आते हैं। दरअसल सहिष्णुता और आंतरिक लोकतंत्र, समता, स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की आज़ादी आदि आदि के आड़ में ये सब सरपट दौड़ रहा है।

दूसरी तरफ उद्योगपति और नेता मिलकर सौदेबाज़ी करते आए हैं। नियमों को ताक पर रखकर अरबों रुपये के मोबाइल सर्विस लाइसेंस बेचे जाते हैं। अरबों रुपये के गैस ब्लॉक फोन पर नीलाम हो जाते हैं। शेयर घोटाले पर बनी संसदीय समिति से खुले आम डील, मंत्रियों के ट्रांसफर रोकने के लिए सांसदों को पैसे देकर पीएम पर दबाव बनाना, लोन माफ़ करने के लिए सरकारी बैंकों के अध्यक्ष ब्लैकमेल हो जाते हैं और बिकने वाले लोगों में सुप्रीम कोर्ट के जज भी शामिल पाए जाते हैं। कोई आरोप लगाए तो आरोप झूठे भी हो सकते हैं, लेकिन अगर देश का सबसे अमीर व्यक्ति देश की सबसे बड़ी अदालत के जज को खरीदने की बात खुद कर रहा हो तो आप क्या कहेंगे? अगर देश का संचार मंत्री और उसका ओ.एस.डी. खुद संचार के सारे तंत्र को नीलाम कर रहा हो और सारी बातें फ़ोन पर रिकॉर्ड हो रही हों तो इस साक्ष्य को लेकर आप क्या कहेंगे? भारत बिक रहा है…. ऐसी बात आपत्तिजनक ही नहीं है… बल्कि ऐसा तो कोई सपने में भी नहीं सोच सकता है। लेकिन जो इस देश में फैसले लेते हैं, जो इस देश की पूँजी सम्भालते हैं और जो इस देश के कर्णधार हैं, वो वाकई गणराज्य बेचने पर आमादा हैं। सिर्फ इसलिए कि किसी रुसूखवाले ने चुनाव के दौरान उनको फाइनेंसिंग की थी और उसको किसी भी क़ीमत पर राज्यसभा में भेजना है फिर चाहे उसके लिए कुछ विपक्षी वोट निरस्त ही क्यों न करने पड़ें, भले ही बेतुकी दलील देनी पड़े कि “विधयकों द्वारा वोट देने के लिए प्रयुक्त ‘पेन’ विधानसभा सचिव द्वारा दिया गया पेन नहीं था, इसलिए वोट खारिज किए जा रहे हैं।”

ऐसी ऐसी घटनाओं से त्रस्त जनता जब बदलाव चाहती है तो ऐसा डुगडुगीबाज सपनों का सौदागर आ जाए जो चुनाव में धन्नासेठ से निवेश करवाकर चुनाव में अपने भाषण में हर वो लच्छेदार बात, जो परेशान नागरिकों को सुनने में अच्छी लगें, सत्ताधारी को नलायक़ व्यक्तित्व घोषित करे, परिवर्तन के सपने बेच दे। “सपने” खरीदने में जनता का कोई सानी नहीं, बस मात्र सपनो के बदले ही वोटों के रूप में कीमत चुका देते हैं। ये मौजूदा अवैध और अनैतिक “चुनावी अर्थशास्त्र” अंगद के पैर की भांति जम चुका है।

देश के हालात खेती, किसानी, मज़दूरों, बेरोज़गारी और आर्थिक नीतियों के मोर्चे पर ज़मीनी जन संघर्षों का स्वाद तो कब का भुला दिया लगता है। देश का मध्य वर्ग, किसान, मज़दूर, नौजवान अपने आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश से बहुत मायूस है। लेकिन क्या उसकी मायूसी को स्वर देने का माद्दा किसी राजनेता में बचा है?

गाँधीजी ने स्वराज या स्वतंत्रता का सपना देखा था। जब पूरा देश 15 अगस्त 1947 की मध्य रात्रि में रौशनी करके अपने-अपने हिस्से की आज़ादी मना रहा था, गाँधीजी कलकत्ता के अपने कमरे में अंधेरे में बैठकर बता रहे थे कि महज़ अँग्रेज़ों का देश से चले जाना उनकी स्वतंत्रता का हिस्सा नहीं था। यही कारन है कि आज भी किसी युनीवार्सिटी, किसी चौराहे से ‘लेके रहेंगे आज़ादी’ की आवाज़ें सुनाई पड़ती हैं। संघर्ष और राजनीति के लिए युवा शक्ति उर्वर साबित हो सकती हैं लेकिन युवाओं को भविष्य में आरामपरस्त रोटी की चिंता ज्यादा सताती है इसी कारन उनका झुकाव सरकारी नौकरी की तरफ ज्यादा होता हैं। राजनीति से युवा शक्ति को घृणा सी है ये ही कारन है कि भृष्ट, निकम्मे और नाकारा जन-प्रतिनिधि लगातार सत्तासुख भोग रहे हैं। हम जाति, धर्म व ऐसे ही अन्य संकीर्ण आधार पर अपने लिए ही गड्ढे खोद रहे है और अपने कर्मों के फल आप और हम ही भुगत रहे हैं। ख़ुदगर्ज़ दुनियाँ में ख़ुदगर्ज़ लोग ही रहते हैं शरीफ़, इमानदार, सेवक राजनिति से दूर ही रहता है इसिलिए राजनिति गंदी हो रही है। देश का हर वह नागरिक आज बेचैन है जो देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को और परिपक्व होते हुए देखना चाहता हैं। और ये कॉर्पोरेट फाइनेंसिंग रुके बिना संभव नहीं है | बिलकुल साफ़ गणित है| आज देश के उस आम नागरिक को सिस्टम से नफ़रत सी हो चुकी है जो इस लूट का हिस्सा नहीं बन पा रहा। ऐसे गुरुघंटालों और उनके अंध-भक्तों को देख कबीर फिर याद आते हैं – संतो देखत जग बौराना, सांच कहौ तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना।