इस दश्त में एक शहर था
अमिताभ मिश्र
स्वतंत्र भारत की सबसे बड़ी परिघटना संयुक्त परिवारों का टूटना और एकल परिवार का बनना है
गजानन माधव मुक्तिबोध
प्रस्तावना या भूमिका
(इतिहास और भूगोल)
यह जो कुछ आपाधापी, रेलमपेल, धूल धुंआ, मारामारी आज इस सड़क पर दिखाई देती है कि इस पार से उस पार जाने में कम से कम दस मिनट और अधिक से अधिक पूरा दिन लग सकता है, पहले ऐसा नहीं था। तब यह इलाका शहर के बाहर था, शहर से बहुत दूर था यह इलाका। आज से तकरीबन तीस चालीस साल पहले यह इलाका काफी शांत था। सड़क के दोनों ओर इमली के पेड़ हुआ करते थे, जिनके नीचे से निकलने में लोग दिन में भी घबराते थे। शाम होते न होते सियारों की हुआ हुआ सुनाई देने लगती थी। फिर भी चूंकि ये हवाई अड्डे का रास्ता था और यहीं पर हुआ करता था दूसरी पलटन का कारोबार, ग्राउंड जिसके कारण दिन में कुछ रौनक रहती थी।
बड़े गणपति सुभाष प्रतिमा के थोड़ा आगे एअरोड्रम की ओर बढें तो एक धर्मशाला हुआ करती थी, उसके आगे कुछ कच्चे मकान, एक गरीब सी परचून की दुकान फिर पेट्रोल पंप और उसके आगे पुल। यह पुल तब बहुत छोटा था। आज तो फ्लाइओवर हो गया है जो नीचे से एक पुल के ऊपर से जाता है और ये पूल पीलियाखाल नाले पर है जो तब साफ पानी का हुआ करता था, आज की तरह सड़ांध मारता गंदा नाला नहीं था यह। लोग इस नाले में नहाते भी थे और इस का पानी भी पीते थे अब तो जानवरों में भी सुअरों के सिवा उस नाले की ओर रुख नहीं कर सकता। पुल के एक ओर अखाड़ा था और दूसरी ओर मिश्रबंधु का बाड़ा । जिसमें मुख्य मकान के अलावा कुछ छोटे मकान, कुछ कुंए, सामने कुछ टप्पर डली झोंपड़ियां और एक मंदिर बजरंगबली का जो मुख्य मकान में है और नाले के किनारे शंकरजी का मंदिर, वहीं पर एक झिरिया है और मंदिर की ओर जाने वाली सीढ़ियों के नीचे एक कमरा जिसमें पहलवान और बच्चा रहते थे। मकान सड़क से काफी अंदर है, पर अब बाहर से दिखता है यह मकान। पहले नहीं दिखता था यह मकान, घने पेड़ों के पीछ छुपा था यह मकान। बहुत पुराने समय का मकान था, उस जमाने में घर में घुसने का मुख्य द्वार इतना बड़ा था कि हाथी तक घुस जाए और खिड़कियां दरवाजे के बराबर बड़ी थीं। पीलियाखाल के रहने वालों लोगों के लिए यह इलाका किसी अलग से गांव से कम नहीं है, बल्कि यदि कोई अंदर घुस जाए तो उसे लगेगा कि उत्तरप्रदेश के किसी गांव में घुस आए हों। नाला पार करते ही यह जगह सन्नाटे में गुम हो जाती है। पर सड़क से कुछ हट के बांई ओर जहां मिसिर लोग रहते हैं वहां कुछ न कुछ हलचल बनी रहती है। घर के अंदर का भूगोल कुछ यूं हुआ करता था कि घर के प्रवेश द्वार से घुसते ही आंगन पड़ता है बांई ओर बजरंग बली का मंदिर और दांयी ओर एक कमरा और उससे लगे दो कमरे जो नाले के ठीक ऊपर हैं। ये पहले नंबर के भाई के हिस्से के कमरे थे। मंदिर के बगल से एक कमरा है जिसमें दादी रहतीं रहीं। ठीक सामने मंदिर के एक बड़ा सा कमरा है जो चौका है जहां एक ठो चूल्हा है जिसमें घर के सभी लोगों का खाना बना करता था और खाना भी यहीं हुआ करता था। इस बड़े कमरे से जो सीढ़ी जाती है उसके एक छोर पर तीसरे नंबर के भाई का कमरा हुआ करता था। दूसरी तरफ एक दालाननुमा रास्ता था जिसकी ऊंचाई कुछ कम थी उसके आगे एक कमरा जो विदेशी चाचा यानि नंबर चार भाई का था। उसके एक तरफ नंबर सात यानि तहसीलदार साहब का कमरा था। दूसरी तरफ घूम कर यानि आंगन के दूसरी तरफ पहली मंजिल पर दो नंबर के भाई का कमरा था फिर आगे बड़े डाँक्टर यानि आठवें नंबर के दो कमरे और घूमकर फिर नंबर तीन का कमरा था। मकान के बाहरी हिस्से में बांई तरफ छः नंबर का कमरा मुख्य द्वार से लगा हुआ छोटे डाँक्टर यानि नंबर नौ के दो कमरे और दांयी ओर दो कमरे पांच नंबर वाले भाई के थे उसके आगे एक कमरा और था जो नंबर तीन के पास था। जिसके ठीक नीचे नाला है पीलियाखाल नाला। मंदिर और मंदिर के आगे का बड़ा कमरा सभी के लिए है। जहां सारे लोग पूजा में शामिल हो कर पंचायत करते हैं, औरतें गौनई और एक दूसरे की लगाई बुझाई यहीं करती रहीं हैं। लड़के शैतानियों के प्लान यहीं बनाते रहे। बड़े लोग राजनीति खेल और घरेलू मसलों पर चिल्ला चिल्ला कर यहीं लड़ते हैं।
यह वह समय था जब घरों में गुसलखानों का चलन नहीं था और न ही प्रावधान। तब सारे लोगों के लिए खुला मैदान था जिसे जंगल कहा जाता था जो इन्हीं मिसरों के पास था और सालों साल शौचालय के बतौर इस्तेमाल करते रहे। पहली बार बड़े डाँक्टर की बहू के लिए बकायदा गुसलखाना बना और वह भी घर के बाहर। जिसे मिसिर खानदान के मिस्त्री यानि नंबर छः ने बनाया। जिसमें शुरुआती दिनों में वही अकेली जाती रहीं फिर बाद को सारी औरतें जाने लगीं।
आजादी आए हुए ज्यादा समय नहीं हुआ था तब। मिश्रा जी के बाड़े के ठीक आगे हुआ करती थी बांडे की चाल। जिसमें किराएदार रहा करते थे ज्यादातर नौकरीपेशा, कुछ कामगार, कारीगर और दुकान में काम करने वाले। एकाध वकील। मिश्रा जी के मकान के आगे की खोलियों में कुछ किराएदार रहते थे जो बेहतर थीं उनमें और कुछ में काम करने वाले भी। मसलन शंभू, धापू बाई, मीरा, और दो प्रमुख किरदार और थे एक मन्नू पंडित और सिद्धू झुरई नाईयों की जोड़ी। किराएदारों में पांडेजी जिन्हें गज्जू मामा के नाम से जाना जाता था और एक थे वाजपेयी जी जिन्हें भी मामाजी कहा जाता था वे एक महत्वपूर्ण समाचारपत्र के संस्थापक संपादक रहे।
दो मंदिर होने से और पूजापाठ का माहौल होने से यहां आवक जावक और रौनक भी ज्यादा रही उस समय। तो ये तो भूगोल है और अब हम कुछ कुछ इतिहास भी जान लें तो सही रहेगा।
जैसा कि इस खानदान के किस्सों में चलता रहा है कि सबसे पहले एक ब्रम्हचारी बाबा यहां आए थे इत्र के व्यापार के सिलसिले में और ये जगह उन्हें बहुत अच्छी लगी और व्यापार की अच्छी संभावनाएं भी लगीं सो बस्ती के बाहर उन्होंने अपना निवास जमाया और हनुमान जी का मंदिर बनाया और कल कल बहती पीलियाखाल नदी के किनारे एक ठो शिवमंदिर भी बनाया। तब जमीन की मारामारी नहीं थी और उन्होंने बकायदा अपना ठीया बनाया। मंदिर कुछ दिनों के लिए मन्नू पंडित के बाप के हवाले किया और वापस कन्नौज पहुंचे और अपने भाई विश्वंभरदयाल को मना कर सपरिवार यहां ले आए। और विश्वंभर अपने साथ कन्नौज की खुशबू लेकर आ गए। ठेठ कनौजिया ब्राम्हण बीस बिस्वा ब्राम्हण यानि कहने और मानने को सबसे उच्च कोटि के बामन जो करते हैं इत्र का व्यापार खुशबू का व्यापार। खुशबू गुलाब की खुशबू केवड़े की खुशबू मोगरे की खुशबू हर फूल की और तो और खुशबू मिट्टी तक की भी। पर इस सिलसिले को खतम हुए भी एक जमाना बीत चला है। इत्र के आखिरी व्यापारी इस खानदान के रहे कालीप्रसाद जो विश्वंभर बाबा के अकेले पुत्र रहे। उन्होंने यह कारोबार समेट दिया और अपने नौ बेटों को अलग अलग व्यवसायों में जाते हुए देखा और केवल मात्र दर्शक की भूमिका निभाई। और अर्जित संपत्ति से सिर्फ कुछ खुरचननुमा बड़े बेटे विनायक यानि बड़े भैया ही पा पाए वरना तो कालिकाप्रसाद ने जो आनंद उठाए हैं इस संपत्ति के उसके बारे में इस समय के बच्चे सोच भी नहीं सकते अंदाज भी नहीं लगा सकते।
बच्चे एक और बात का अंदाजा नहीं लगा पाते थे कि बाबा घर से दूर एक कुटिया में क्यों रहते हैं और दादी घर में मंदिर के पास बने कमरे में। कुछ बड़े लड़कों ने अपनी जासूसी, थोड़ी सी विकसित बुद्धि और छठी इन्द्रिय की भनक से यह रहस्य जान लिया था पर छोटे बच्चों के लिए यह जानकारी रहस्य ही रहती जिसे वे बाबा की दी हुई गोलियों की मिठास और कमरे की खुशबू में भूले रहते थे और जब उन्हें समझ आता तब तक गोलियों की मिठास को वे भूल चुके होते थे और इत्र की महक उनका दम घोटने लगती थी। इस बारे में हम भी समय आने पर जान लेंगे।
इस सबसे पहले हुआ यूं था कि कालिकाप्रसाद की दस संतानें हुईं जिनमें नौ बेटे और एक बेटी। पर ये बेटे बेटी पले बढ़े अपनी मां के दम पर और खुद के प्रयासों से। कालिकाप्रसाद की अपनी दुनिया थी वे उसमें मस्त थे। अपने बाप के पैसे उड़ाते। उनके बेटों को इसकी भनक तक बहुत बाद में पड़ी कि उनकी एक और दुनिया है।
ये कहानी जिस समय से प्रारंभ हो रही है वो समय है जब परिवार एक थे बल्कि संयुक्त परिवार बरकरार थे। सब सगे थे एक दूसरे के। आस पड़ौस से भी आस रहती थी और सांस भी बंधी रहती थी। शहर भी जिन्दा था तब बकायदा लोगों के दुख सुख में शिरकत करता हुआ। ठठा कर हंसता या दहाड़ कर गुस्सा या धाड़ें मार कर रोता हुआ ये शहर धड़कता था तब लोगों के दिलों में। कई लोगों का आसरा था ये शहर। एक छोर में यदि कुछ होता तो दूसरे छोर पर दर्द की लकीरें खिंच जातीं या खुशी से लबरेज हो जाता हर कोना। यूं लगता कि गोया ये शहर पूरा का पूरा एक बड़ा परिवार हो जिसमें सबकी अपनी जगह है, पहचान है। बेघर शब्द बहुत बाद को ईज़ाद हुआ था। जब पहला परिवार टूटा था और बेटे बहू अपना चूल्हा अलग कर चुके थे। तो ये जो कहानी है उसी जिन्दा शहर की याद है। उन्हीं संयुक्त परिवारों की याद है जो समय के साथ साथ रेशा रेशा उधड़ते गए और कब सब नंगे हो कर शहर की मौत का अंतहीन मर्सिया गाने लगे। तो ये जो कहानी है उसी मरते हुए शहर की धीमी धीमी मौत की दास्तान है जो घट रही है और एकदम खुलेआम घट रही है। तो ये जो परिवार है धीरे धीरे बिखरा और यूं बिखरा कि अब समेटने का तो दूर अब परिवार के भीतर का भी पूछो मत। अब उसी दिन लीला साइकिल वाला अनुराग भैया को दस गालियां सुना कर गया और सबने सुनी पर अनसुनी कर दी। पहले होता तो अब तक लीला दस झापड़ खा चुके होते और उनके बाप दादा तक तर चुके होते। बहुत साफ लिखावट है कि अब वे दिन गए। अब न शहर वो है न घर न परिवार जो है सो अकेले। जो इतराते फिरते थे अपने परिवार के नाम पर वो परिवार अब तितर बितर हो चुका है। निशान तक नहीं बचे। न नाला न कुंएं न दरवाजे के बराबर खिड़की न दरवाजे न चाचा न ताऊ। तो ये जो कहानी है उसी याद की याद में है जो हम सबकी यादों में है वह शहर नहीं बचा जहां कुछ घर थे कुछ रास्ते थे कुछ अड्डे थे कुछ तो था जहां रहा जा सकता था अब तो बस बाजार है दुकान हैं और व्यापार है और। बेचने वाले हैं खरीदने वाले हैं।
अब उस धड़कते शहर के लिए उस जिन्दादिल घर के लिए उन धड़कते शहरों के नाम पर उन जिन्दादिल घरों के नाम पर ये चन्द फूल हैं दो मिनट का मौन है जो पसरा है इन शहरों और घरों पर। तो उस मौन में से कुछ आवाजें सुनी जाए और उन गिरती दीवारों की संध में से कुछ जीवन तलशा जाए जो पता नहीं कहां बिला गया इस बाजार की आपाधापी में। अब नहीं पता है किसी को कि कौन उसका पोता है कि उसका भतीजा क्या पढ़ाई कर रहा है कि फिलहाल उनके बड़े भाई के बेटे किस देश में हैं। किसके कब बेटा हुआ कौन कब मर खप गया अब किसी को पता नहीं चलता। वरना पहले तो किसी की छोटी सी छोटी बात की खोज खबर सबको रहती थी और न सिर्फ रिश्तेदार बल्कि कई दफे तो घर तक परिचितों को एकदम अनजान आदमी छोड़कर जा सकता था और वो बकायदा चाय नाश्ता करके ही जाता था।
तो ये सब बदल चुका है अब। ना वो संयुक्त परिवार रहे और न ही वो गली मोहल्लों की जगह बची। गलियां हैं तो वो किसी घर तक नहीं पहुचती, किसी मंजिल तक नहीं पहुंचाती। बस एक दुकान से चलती है तो उससे बड़ी दुकान और फिर उससे बड़ी और बड़ी। ये शहर पूरा का पूरा बाजार में बदलने को तैयार है बस । तो न तो ये वो शहर है और न ही वो घर बचा जिसे हम संयुक्त परिवार के रूप में जानते हैं जिसमें एक छत के नीचे नौ भाई एक बहन अपने भरे पूरे परिवार के साथ रहते हों और ना वो कोई शहर बचा जहां इस तरह के परिवार हों कई और आपस में उनमें संबंध हो। आना जाना हो। उठना बैठना हो। धौल धप्पा हो, रिश्तेदारियां हों, नातेदारियां हों। नाम से कोई न जाने बस रिश्ते ही हो जैसे मामा, भैया, काका, बाबा, बुआ, । या नाम भी जाने तो साथ में रिश्ता हो कि जैसे महाकाल चच्चा, राजन भैया, छोटू मामा, या पुल पार वाली मामी, झीरी किनारे वाली चच्ची । नाम भी हो तो पप्पू, गुड्डू, लल्लू, लल्लन, बिट्टी, गुड्डो हो तो समझ में आता है। तो ये जो सिलसिला है न ये अब है ही नहीं तो बचा क्या अब शहर या कस्बा या बस्ती अब तो बस दुकान है और बाजार है। घर अब जब बचे ही नहीं तो बस्ती कैसी और शहर कैसा। अब तो बस सौदा है। भाव है कीमत है खरीदना बेचना है। तो ये जो पूरा किस्सा फैला है बेतरतीब सा जिसे पढ़ सुनकर आप इतिहास को जानते हैं सभ्यता को जानते हैं जो मर गईं बेनिशान सी तो ये भी उन्हीं गुमनाम लोगों की गुम चुके परिवारों की मर चुके कसबों बस्तियों शहरों के लिए बिखरी बिखरी श्रृद्धांजलि है, खिराजे अकीदत है। और फूल भी कहां चढ़ाऊं ये सवाल है जिसे आखिर में आप भी महसूस करेंगे।
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