Kaun Dilon Ki Jaane - 1 in Hindi Moral Stories by Lajpat Rai Garg books and stories PDF | कौन दिलों की जाने! - 1

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कौन दिलों की जाने! - 1

कौन दिलों की जाने!

एक

दीपावली के पश्चात्‌ शादी—विवाह के लिये शुभ मुहूर्त आरम्भ हो जाता है। नवम्बर मास के अन्तिम दिनों में ‘महफिल' बैंक्वट, जो सम्भवतः ट्राईसिटी का सबसे बढ़िया व महँगा विवाह—स्थल है, में एक विवाह—समारोह का आयोजन था। अमावस्या की रात्रि थी। आसमान में लाखों—करोड़ों तारों का वैभव फैला हुआ था। हल्की—हल्की, मीठी—मीठी, तन को सुहाती ठंड थी। बैंक्वट में विभिन्न प्रकार की लाईटों तथा अनुपम फूल—सज्जा की व्यवस्था की गई थी। कुल मिलाकर अलौकिक दृश्य प्रस्तुत था। वरपक्ष मोहाली का नामी—गिरामी परिवार है। वधुपक्ष वाले चाहे पटियाला के रहने वाले थे, फिर भी उपस्थित मेहमानों में बाहर से आये हुए लोगों की पर्याप्त सँख्या थी। इस प्रकार लॉन निमन्त्रित लोगों से खचाखच भरा हुआ था। आजकल प्रायः विवाह के मुख्य समारोह का आयोजन वर और वधु दोनों पक्ष एक ही स्थान पर करते हैं, इसलिये रिश्तेदार और मित्रगण मिलाकर अच्छा—खासा हजूम हो जाता है। दूसरे, आजकल निमन्त्रण पर एक—आध नहीं, प्रायः परिवार के सभी सदस्य पहुँचते हैं। प्रायः ऐसे भीड़ भरे माहौल में कुछ बिन—बुलाये मेहमान भी अपनी जिह्‌वा के स्वादतन्तुओं को सन्तुश्ट करने के लिये पहुँच जाते हैं। वैसे तो इतनी ‘गैदरिंग' में इन पर किसी की नज़र पड़ती नहीें और पड़ भी जाये तो सामने वाला सोचता है, क्यों बात का बतंगड़ बनाया जाये, हो सकता है कि ये लोग दूसरे पक्ष के हों। ‘स्टिल' व वीडियो फोटोग्राफी के साथ—साथ ड्रोन के माध्यम से भी फोटोग्राफी की जा रही थी और उत्सव की प्रत्येक गतिविधि को लॉन तथा हॉल के हर कोने में लगी टी.वी. स्क्रीन पर प्रदर्षित किया जा रहा था ताकि कहीं पर भी खड़ा अथवा बैठा व्यक्ति उत्सव की हर झाँकी का अवलोकन सहजता से कर सके। ऐसे ही माहौल में प्रोफेसर आलोक शर्मा घूम—फिर कर पंडाल की सजावट व परोसी जाने वाली डिशेज़ का ज़ायजा ले रहे थे।

लॉन में एक तरफ कॉकटेल, मॉकटेल व फ्रैश फ्रूट्‌स की स्टॉल्स थीं तो दूसरी तरफ स्नैक्स की दस—बारह स्टॉल्स थीं। वैसे तो प्रत्येक स्टॉल पर मेहमानों का रश था, लेकिन गोल—गप्पों की स्टॉल पर महिलाओं ने कब्जा—सा ही जमाया हुआ था। अधिकांश पुरुष गोल—गप्पों का स्वाद लेने के इच्छुक होने के बावजूद अपना नम्बर न आता देखकर आगे सरक लेते थे। इसलिये इस स्टॉल पर एक—आध सहनशील पुरुष ही अपनी बारी आने की प्रतीक्षा में खड़ा दिखाई दे रहा था। पंजाबी ढाबा विशेष आकर्षण का केन्द्र था। अमृतसरी कुल्चे व सरसों के साग तथा मक्की की रोटी का स्वाद चखने वालों की अच्छी—खासी भीड़ इस जगह थी। लॉन में बाईं ओर जय—माला की स्टेज़ बनाई गई थी, जिसके पार्श्व में चारों तरफ छितरायी चाँदनी के बीच नृत्य करते मयूर की छवि बड़ी मन—लुभावनी थी। इसके साथ ही डी.जे. फलोर था। जय—माला में अभी देरी थी। डी.जे. फ्लोर पर छोटे—छोटे बच्चे थिरक रहे थे। उनके माँ—बाप अथवा बड़े बहिन—भाई पास खड़े उनका उत्साह बढ़ा रहे थे तथा उनकी फोटो खींच रहे थे। अनगिनत वेटर अतिथियों तक स्नैक्स पहुँचा रहे थे। हॉल की छटा भी अप्रतिम थी। बीचों—बीच विभिन्न प्रकार के सलाद तथा क्रॉकरी सजाई हुई थी। हॉल की दो साईडों में पंजाबी, राजस्थानी व काँटिनेंटल डिशेज़ का अलग—अलग प्रबन्ध था। इतनी विविधता के होते हुए भी प्रौढ़ तथा बुजुर्ग अतिथियों का झुकाव ताज़ा तड़के वाली पीली दाल और तवे की चपाती की तरफ ही अधिक था। बच्चे और युवा नूडल्स, चाऊमिन, पास्ता पसन्द कर रहे थे। एक ओर केसर—युक्त दूध की कड़ाही, गर्म जलेबियाँ, साथ में रबड़ी, मूँग—दाल का हलवा, गाजर का हलवा, गुलाब जामुन की व्यवस्था थी तो उससे आगे ठंडी स्वीट—डिशेज़ में कसाटा, बटर—स्कॉच, वनिला, स्ट्राबेरी आदि आईस—क्रीम के साथ ‘स्टिक' वाली कुल्फी उपलब्ध थी। हॉल के शेष भाग में बैठकर खाने वालों के लिये टेबल—कुर्सियाँ लगाये गये थे। कहने का अभिप्रायः कि प्रत्येक आयुवर्ग के अतिथियों की हर सुख—सुविधा का पूर्ण ध्यान रखा गया था। प्रोफेसर शर्मा को यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि प्राइवेट सिक्योरिटी जोकि प्रायः ऐसे अवसरों पर होती ही है, के अतिरिक्त किसी भी प्रकार की आपात्कालिक स्थिति से निपटने के लिये फायर ब्रिगेड तथा एम्बुलेंस की गाड़ियाँ भी बैंक्वट के प्रवेश—द्वार के पास तैयार खड़ी थीं। ऐसी व्यवस्था का उपलब्ध होना निश्चय ही एक प्रशंसनीय व सराहनीय पहल थी, जबकि वर अथवा वधु पक्ष की ओर से कोई भी वीवीआईपी अथवा मन्त्री आदि नहीं आया हुआ था।

घूमते—फिरते प्रोफेसर शर्मा की नज़र पाँच—छः महिलाओं के झुँड़ में खड़ी एक महिला पर अटक गई। वह महिला जानी—पहचानी सी लगी। याद करने की कोशिश की, मस्तिष्क पर जोर डाला। कुछ ही पल बीते कि मन ने कहा, यह तो रानी लगती है! एक क्षण दुविधा में गुज़रा। दूसरे ही क्षण वे उस महिला को सम्बोधित कर रहे थे — ‘क्षमा करना, यदि मैं गलत नहीं समझ रहा, आप रानी ही हैं?'

रानी— ‘माफ करना, मैंने पहचाना नहीं आपको।'

रानी के उत्तर ने आलोक को आश्वस्त कर दिया कि सामने वाली महिला है तो रानी ही। प्रफुल्लित मन से कहा — ‘कैसे पहचानोगी, लगभग चालीस वर्ष हो गये होंगे हमें आखिरी बार मिले हुए।'

‘ओह, तो आप आलोक हैं!'

इतना कहने के साथ ही अन्तःकरण में पनपी प्रसन्नता से रानी की आँखें चमक उठीं। चिरकाल के पश्चात्‌ मिले इन लोगों की बातें चल ही रही थीं कि अन्य महिलाएँ इन्हें अकेला छोड़कर इधर—उधर हो गईं।

‘खूब पहचाना। मन में डर था कि कहीं मैं गलत न होऊँ! खैर, बड़ी प्रसन्नता हुई इतने वर्षों पश्चात्‌ तुमसे मिलकर।'

‘आलोक, मैं भी अपनी खुशी शब्दों में बयां नहीं कर सकती!'

इतना कहते ही रानी के ध्यान में आया कि उसकी सहेलियाँ उन्हें अकेला छोड़कर इधर—उधर चली गईं हैं। आलोक से मिलने की इतनी प्रसन्नता थी कि सहेलियों का उन्हें अकेले छोड़ जाना बुरा लगने की बजाय अच्छा ही लगा। उसने आगे कहा — ‘आप अकेले ही आये हैं या मिसेज़ शर्मा भी साथ हैं?'

‘रश्मि यानी मिसेज़ शर्मा का तो चार वर्ष पूर्व स्वर्गवास हो गया था।'

‘ओह! वैरी सैड। आलोक, मुझे यह दुःखद समाचार सुनकर बड़ा अफसोस है। ज़िन्दगी के इस पड़ाव पर जीवन—साथी का बिछुड़ जाना वास्तव में बड़ा कष्टदायक होता है, लेकिन हम कर कुछ नहीं सकते। प्रभु की इच्छा के आगे किसी का कोई जोर नहीं चलता। सब्र करने के सिवाय और कोई चारा नहीं होता,' रानी ने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए पूछा — ‘आपके बच्चे?'

‘बेटा और बेटी हैं। दोनों विवाहित हैं, अपने—अपने जीवनसाथियों के साथ आस्ट्रेलिया में सैटल्ड हैं। बेटा और बहु डॉक्टर हैं। दामाद चार्टड अकाउंटेंट्‌स फर्म में सी. ए. हैं। अपना बताओ, तुम्हारे ‘जनाब' क्या करते हैं?'

‘हमारा इम्पोर्ट—एक्सपोर्ट का बिज़नेस है। रमेश जी मेरे पति खूब व्यस्त रहते हैं। साथ आये हुए हैं। यार—दोस्तों के संग पैग लगा रहे होंगे। इसीलिये मैं अपनी सहेलियों के संग गपशप कर रही थी।'

‘ओह, फिर तो मैंने सहेलियों की महफिल में खलल डाल दिया!'

‘नहीं, ऐसा कुछ नहीं। इतने लम्बे अर्से के बाद आपसे मिलकर बहुत अच्छा लग रहा है। कभी घर आओ, फुर्सत में बैठकर बचपन की यादों को ताजा करेंगे।'

दोनों एक—दूसरे के मोबाइल नम्बर नोट कर रहे थे कि रानी का पति वहाँ आ पहुँचा। बिना इस ओर ध्यान दिये कि रानी के साथ कोई और व्यक्ति खड़ा है, आते ही तनिक आवेश में रमेश बोला — ‘रानी, मैं कब से तुम्हें ढूँढ़ रहा हूँ। आओ, घर चलें।'

रमेश के आवेशयुक्त व्यवहार को नज़रअन्दाज करते हुए रानी ने आलोक का परिचय करवाते हुए कहा — ‘रमेश जी, आप आलोक हैं, मेरे बचपन के दोस्त।'

जैसे ही रानी ने परिचय करवाया, आलोक ने दोनों हाथ जोड़कर नमस्ते की। रमेश ने आलोक की नमस्ते का प्रतिनमस्ते से उत्तर न देकर औपचारिकतावश हाथ बढ़ाते हुए ‘हैलो' कहा। आलोक ने बड़ी गर्मजोशी से हाथ मिलाया, किन्तु रमेश की ओर से नितान्त औपचारिकता का भाव तथा किसी भी तरह की उत्सुकता का अभाव उससे छिपा न रहा। यह कहना अधिक उचित होगा कि रमेश आलोक की उपस्थिति को सहज ढंग से स्वीकार नहीं कर पा रहा था, इसीलिये उसने रानी को उलाहने भरी आवाज़ में कहा — ‘रानी, देरी हो रही है, हमें चलना चाहिये।'

‘आपने खाना खा लिया?'

‘स्नैक्स से ही पेट भर गया है। तुमने न खाया हो तो खा लो,' रमेश ने ऐसे कहा जैसे रानी पर अहसान जता रहा हो।

‘मैं भी स्नैक्स और अमृतसरी कुल्चा ले चुकी हूँ, इसके बाद और कुछ खाने की गुँजाइश नहीं है।'

‘तो फिर चलो,' रमेश की आवाज़ में तल्खी कायम थी।

विवशतावश रानी ने आलोक को ‘बॉय' कहते हुए विदा ली। रमेश चुपचाप आगे बढ़ लिया।

विवाह—समारोह से वापस आने के बाद कुछ तो व्हिस्की पी होने के कारण और कुछ सारे दिन की भाग—दौड़ के कारण रमेश ने कपड़े बदलकर जैसे ही सिर तकिये पर रखा, उसकी आँखों में नींद उतर आई, किन्तु बचपन व किशोरावस्था के संधिकाल की कल्पना को पंख लगाने वाली अनुभूतियों व स्मृतियों को दिल के किसी कोने में सदा—सदा के लिये सँजोकर जीवन—पथ की आगामी यात्रा की पथिक रानी को इतने लम्बे अन्तराल के पश्चात्‌ अनायास आलोक के मिलने की खुशी के कारण तुरन्त नींद न आई।

समय व्यतीत होने के साथ—साथ जीवन में घटित घटनाओं की स्मृतियाँ मानव—मस्तिष्क में परत—दर—परत जमा होती रहती हैं। कौन—सी घटना किस स्मृति को कब उभार कर सामने ला दे, यह सब विधि—नियन्त्रित है। आलोक के मिलन से रानी के स्मृतियों के भण्डार की किशोरावस्था की दहलीज़ पर कदम रखते दिनों की सुगन्ध—भरी सुप्त स्मृतियाँ जाग्रत हो गईं, जिन्हें आजतक किसी अपने के साथ साँझा करने का अवसर ही नहीं आया था। ऐसा अपना था भी कौन, जिसके साथ वह उन यादों को साँझा कर सकती! पुरुष तो बहुधा अपनी अंतरंग मित्रमंडली में ऐसी यादों व घटनाओं का उल्लेख करने में झिझकते नहीं, बल्कि कुछ तो ऐसे में डींग हाँकने में सीमाओं का अतिक्रमण करने से भी नहीं सकुचाते, किन्तु स्त्रियों को इन मामलों में बहुत चौकन्ना रहना पड़ता है। उनकी देह का व्याकरण बड़ा दुरूह विषय है। ज़रा—सी भूल—चूक सेे जीवन की तमाम खुशियाँ दाँव पर लग सकती हैं। रानी के मस्तिष्क—पटल पर देर रात तक यही स्मृतियाँ चलचित्र की भाँति घूमती रहीं। एक कसक—सी मन को कचोटती रही कि रमेश के अचानक आ जाने से आलोक से दिल की बातें खुलकर नहीं हो पाईं। लेकिन, भविष्य के लिये एक आशा भी जाग्रत हो गई थी और इसी आशा के सहारे होठों पर मुस्कान लिये वह नींद में खो गई।

सुबह रमेश कुछ देरी से उठा। फिर भी नित्यकर्म निपटाने के पश्चात्‌ समाचार पत्र पढ़ने पर लगने वाले समय को बचाकर समय से तैयार हो गया तथा नाश्ता करके ऑफिस चला गया। रात को आलोक से विदा लेने के बाद से रानी का मन बेताब था। एक तो रमेश द्वारा औपचारिक शिष्टाचार न निभाकर आलोक की अवहेलना करने से उसके मन को ठेस लगी थी, दूसरे इतनी लम्बी कालावधि के पश्चात्‌ मिलने पर भी रमेश द्वारा घर लौटने की जल्दी करने के कारण आलोक से मन की कोई बात नहीं कर पायी थी। इसलिये मेड लच्छमी के जाने के तुरन्त बाद रानी ने आलोक को फोन मिलाया। ग्यारह बज चुके थे। काफी देर तक रिंग जाती रही। आलोक गहरी नींद में था। कोई ‘रिस्पॉन्स' न पाकर रानी ने रीडायल किया। इसबार आलोक ने बिस्तर से बिना उठे हाथ लम्बा कर साईड टेबल पर रखा मोबाइल उठाया। स्क्रीन पर रानी का नाम फ्लैश हो रहा था। उनींदरे स्वर में ‘हैलो' कहा। उधर से आवाज़़ आई — ‘आलोक, क्या अभी सो रहे थे?'

उठकर बैठते तथा स्वर को सामान्य करते हुए आलोक ने उत्तर दिया — ‘हाँऽऽ, विदाई के बाद सुबह सात बजे घर पहुँचा था। बिस्तर पर पड़ते ही नींद ने आ घेरा। सारे दिन व रात की थकावट की वजह से अभी नींद में ही था।'

‘सॉरी आलोक, आपको नींद में डिस्टर्ब कर दिया। क्या आप लड़की वालों की तरफ से विवाह में आये थे, रात को पूछ ही नहीं पायी कि आप कहाँ रहते हैं?'

‘अरे नहीं, सॉरी की कोई बात नहीं, बल्कि तुम्हारी मधुर आवाज़़ से आज की सुबह का आगाज़ हुआ है तो उम्मीद करता हूँ कि दिन बहुत बढ़िया गुज़रेगा। और हाँ, मेरे घनिष्ठ मित्र की बेटी की शादी थी।'

‘ऐसा क्यों नहीं करते कि दोपहर बाद यहाँ आ जाओ। पटियाला से मोहाली है ही कितनी दूर! घंटे—सवा घंटे का ही तो सफर है। इकट्ठे चाय पीयेंगे और बचपन की बातें दुहरायेंगे।'

‘रानी, आज तो नहीं, फिर कभी। आज शाम को तो मुझे एक साहित्य—गोष्ठी में जाना है।'

रानी जल्द—से—जल्द आलोक से मिलकर अपने मन की अवस्था से उसे परिचित करवाना चाहती थी। अतः आलोक के उत्तर से उसे थोड़ी निराशा हुई। उसे याद आया कि रमेश ने शनिवार को मुम्बई जाना है, अतः उसने कहा — ‘अगर आज नहीं आ सकते तो संडे को सुबह ही आ जाओ। सारा दिन अपना ही होगा।'

‘क्यों, रमेश जी संडे को भी छुट्टी नहीं करते क्या?'

‘संडे को छुट्टी तो रहती है, किन्तु इस ‘वीक—एण्ड' पर वे बिज़नेस टूर पर मुम्बई जा रहे हैं।'

‘ठीक है। अगर अचानक कोई कार्यक्रम न आ गया तो रविवार को मिलते हैं।'

***