umaade in Hindi Love Stories by Dr Fateh Singh Bhati books and stories PDF | उमादे

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उमादे

जैसलमेर की राजकुमारी उमादे भटियाणी के अप्रतीम सौन्दर्य और विलक्षण बौद्धिक चातुर्य की प्रसिद्धि वायु में फैली सुगन्ध की भाँती चारों दिशाओं में फैलती जा रही थी | राज्य की सीमाओं को लाँघ कर उनकी ख्याति मारवाड़ रियासत तक पहुँचते देर नहीं लगी | जिस समय यह समाचार मारवाड़ के महाराजा राव मालदेव के कानों तक पहुंचा उसी समय उन्होंने मन ही मन तय कर लिया कि उमादे को शीघ्रातिशीघ्र मारवाड़ की महारानी बनाएँगे | अविलम्ब एक विश्वासपात्र दूत जैसलमेर के लिए भेज दिया गया | दूत ने अगले ही दिन समाचार पहुँचाया कि विशाल राज्य मारवाड़ के महाराजा राव मालदेव राजकुमारी उमादे से विवाह रचाकर वह जैसलमेर रियासत के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ना चाहते है | जैसलमेर जैसी छोटी सी रियासत के लिए यह अतीव प्रसन्नता का विषय था | वैसे भी महाराजा मालदेव की वीरता से निकट के राज्य ही नहीं दिल्ली की सल्तनत भी शंका खाती थी, ऐसे में इन्कार का अर्थ था राज्य से हाथ धो बैठना | महारावल लूणकरण ने तुरन्त महारानी व अन्य विश्वासपात्रों से सलाह करके सहमती जताते हुए दूत को विदा किया |

निश्चित समय पर अपने लश्कर व सम्पूर्ण तामझाम के साथ राव मालदेव विवाह हेतु जैसलमेर बारात लेकर आए | जैसलमेर जोधपुर के जैसा समृद्ध राज्य नहीं था, इसलिए वैसी विलासितापूर्ण सुविधाएँ तो नहीं दे पाए पर सम्बन्धों के महत्व को समझते हुए अपनी और से कोई कमी नहीं रखी, विवाह की सारी रस्में पूर्ण हुई, राजकुमारी उमादे भटियानी राव मालदेव की अर्धांगिनी हुई |

महल में पुष्पसज्जित सेज पर उमादे को इंतजार करते हुए अर्धरात्रि से भी ज्यादा हो गई तो उसने अपनी दासी भारमली को देखने भेजा की इतनी देरी किस कारण हो रही है ? भारमली वहाँ पहुंची, महाराज तो अपने साथियों के साथ संध्या काल से अभी तक एक के बाद एक मदिरा का प्याला गटकते जा रहे थे | वह महाराज के निकट पहुँच बताने लगी की सहस्त्रों बोतल मदिरा से भी नशीली उमादे प्रथम मिलन के इन्तजार में आपके लिए पलकें बिछाए बैठी है और आप है की इस मदिरा को अधरों से लगाए बैठे है |

मदिरा के पश्चात तो कामाग्नि कुछ ज्यादा ही सक्रिय हो उठती है, उस मदिरा का असर था या भारमली के सोन्दर्य से परिपूर्ण कमनीय देह से उठती गंध का नशा महाराज उसे अपने बाहुपाश में भर बैठे | वह कुछ बोल पाती इससे पूर्व एक इशारा हुआ और सभी साथी बाहर | अब बचे केवल महाराज मालदेव, मदिरा और दासी भारमली, वो कुछ कहना, समझाना चाह रही थी पर उसकी वहां कौन सुनता ? वह तो दासी थी | उसका तो धर्म यही था की जो आदेश दिया जाए मुस्कराते हुए उसका पालन करे | दासियों के अधर हँसने, मुस्कराने के लिए होते है, बोलने के लिए नहीं | महाराज तो उस पर पूर्ण रूप से मुग्ध हो चुके थे, उन्होंने उसे इशारा किया दीप बुझाने का |

दीप बुझ गए, पर नियति हंस रही थी, अट्टहास कर रही थी, कि इन्सान कितना मूर्ख होता है स्वंय ही दीप बुझाता है और फिर नियति को दोष देता है की उसके जीवन में इतना अँधेरा क्यों ? उसके बाद वह सब हुआ, जो नहीं होना चाहिए था |

उधर उमादे उन्नीदी आँखों से इन्तजार करती रही, न महाराज का पता और न ही भारमली वापस आई | तीन प्रहर रात्रि बीत चुकी, महाराज कुछ होश में आए तो भारमली ने फिर समझाया की महारानी उमादे आपका इन्तजार कर रही है और आप मेरे साथ...| अब शायद मदिरा का असर कुछ कम होने लगा तो उसकी बात समझ आई | उन्होंने भारमली को अपने बाहुपाश से मुक्त किया |

भारमली भागते हुए सीधे उमादे को जगाने महल में पहुंची पर जिसकी किस्मत रूठ गई हो उसको नींद कैसे आती ? वह तो अश्रुओं की धार से भविष्य के लिए बुने गए सपनों को मिटा रही थी | भारमली उसकी दासी कम और सखी ज्यादा थी उसने कुछ भी नहीं छुपाया | जैसलमेर में पानी के कुए बहुत गहरे होते थे शायद इस गहरे पानी का असर था की उमादे में भी बहुत गहराई थी | रिश्तों की निकटता बनाए रखने के लिए, सम्बन्धों में माधुर्य बना रहे, इसके लिए वह जानती थी अनेक बार जानते हुए भी गरल पीना पड़ता है | यह सोच कर उसने तय कर लिया की मदिरा के नशे में महाराज ने एक गलती की है, उसे वह इस तरह क्षमा करेगी की किसी अन्य को तो क्या उन्हें भी पता नहीं लगे | उसने भारमली को इतना ही कहा अब यह बात पुनः तू अपने आपसे भी मत कहना, जाओ और महाराज को बुला कर ले आ |

भारमली ने जाकर अर्ज किया महाराज महलों में पधारो, पर यह क्या ? महाराज ने फिर से उसे अपनी मजबूत भुजाओं में जकड़ लिया वह चाहते हुए भी नहीं छुड़ा पाई |

उसने बहुत समझाया बोली हुकम उस समय तो आप मदिरा के नशे में थे पर अब....होश-ओ-हवास में ऐसा गुनाह मत कीजिए | रात्रि के तीन प्रहर हो गए है और राजकुमारी उमादे सुहाग की सेज़ पर आपका इन्तजार कर रही है | आप तो अपराध कर ही रहे है मुझे उन्होंने सदैव छोटी बहन की भान्ति स्नेह दिया उसे भी अपराध की भागी बना रहे है, हुकम यह गुनाह मत कीजिए |

सुनो दासी...वह तो अब मेरी पत्नि है जीवन पर्यन्त उसके साथ रहना ही है | ऐसा सौन्दर्य, ऐसी कमनीयता, आज के बाद कहाँ मिलने है ? इन अधरों के रसपान के अवसर कौनसे रोज़ रोज़ आने हैं | उन्माद में इन्सान अँधा और बहरा हो जाता है | कुछ दिखे नहीं इसलिए फिर दीप बुझा दिए गए | भारमली बोलती रही पर उसे अनसुनी कर दी गई | रात्रि के अँधेरे में फिर उसी अपराध का दोहराव हुआ, जिस पर नियति हँसी थी |

उमादे को इन्तजार करते हुए चौथा प्रहार भी बीत गया | प्रभात में ग्लानी से भरी गीली आँखें लिए भारमली पहुंची, उसे स्वयं पर, अपने रूप सौन्दर्य पर घृणा हो रही थी जो उसकी बचपन की सखी के सपनों के विध्वंस के कारण बने थे | वह गहरे अवसाद में थी, इस अपराध की दोषी स्वयं को मान रही थी | न मैं वहां जाती और न ऐसा सब कुछ होता | वह पहली बार उमादे को इतनी गौर से देख रही थी | फूलों जैसी नाज़ुक राजकुमारी जिसे किसी चीज़ का पल भर भी इन्तजार नहीं करना पड़ा आज पूरी रात सुहाग की सेज़ पर पति का इन्तजार करती रही, आँसू बहाती रही | पति किसी और के साथ सुहागरात मनाता रहा और वह ‘कोई’ उसके सामने खड़ी है फिर भी उमादे पूर्णतः स्थिर, आवाज़ में कोई कम्पन नहीं, मेरे प्रति कोई आक्रोश नहीं, गुस्सा नहीं | इतना ही नहीं उमादे ने ही उसे समझाया की मेरी किस्मत ही ऐसी थी इसमें तेरा क्या दोष, तू तो दासी है तेरा तो काम ही आज्ञा का पालन करना था |

उस रात्रि जो पाप हुआ, किसी के अरमानों का गला घोंटा गया, किसी की भावनाओं, संवेदनाओं की हत्या की गई वह राज उमादे, भारमली और महाराज मालदेव और सोनार किले में स्थित महलों की दीवारें जानती थी या वह जो सर्वव्यापी है, जिससे हम सब चाहते हुए भी अपने अपराध छुपा नहीं सकते है | उमादे ने किसी से कुछ नहीं कहा, भारमली को मना कर ही दिया था, महाराज किस मुंह से कहते ? मूक दीवारें कुछ कह नहीं सकती थी और सर्वव्यापी तो कहता किसी से कुछ नहीं, समय आने पर निर्णय थोपता है | सूर्योदय के साथ, मंगणियारों के मधुर स्वरों के साथ बईसाराज को विदाई दी गई |

बारात जोधपुर पहुंची, राव जोधा की नगरी उमादे के स्वागत में पलकें बिछाए इन्तजार कर रही थी | सभी महारानियों के धेर्य का बाँध टूटा जा रहा था | देखने को उत्सुक थी की वे सभी एक से बढ़कर एक सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति थी इसके बावजूद जैसलमेर की इस राजकुमारी के सौन्दर्य में ऐसा क्या था कि राव मालदेव को जीवन के उतरार्ध में विवाह का निर्णय लेना पड़ा |

बधावे की सारी परम्पराओं, रिवाजों के पश्चात महारानियों ने अपनी जिज्ञासा शान्त करने हेतु घूंघट उठाया | घूँघट के विलोप होते ही जैसे सभी महारानियों को सांप सूंघ गया, सभी की वाणी पर विराम लग गया | गौरवर्णा, नवपुष्पित गुलाब की पंखुड़ियों से ओष्ठ, समुद्र सी गहराई लिए नयन, मुख पर आभा मण्डल ऐसा की जैसे सैकड़ों सूर्य एक साथ प्रदीप्त हो उठे, जिनके प्रकाश से आँखें चोंधिया जाए, सीधे शब्दों में कहा जाए तो इस सौन्दर्य की देवी को देखने के पश्चात महाराज तो क्या देवराज इन्द्र भी होते तो विवाह को प्रस्तुत हो जाते |

सभी महारानियों की दृष्टि एक दूसरी से टकराई और बिना किसी स्वर के शंका का आदान प्रदान हो गया की अब जोधपुर के इन महलों में उनका तो क्या राव मालदेव का भी राज नहीं रहेगा, वे नाम के महाराज भले ही रहें, असल में राज तो महारानी उमादे का रहेगा | अपने साम्राज्य के विखंडित होने के भय ने सभी को एक कर दिया, शीघ्र कोई योजना बनाने का विचार किया जाने लगा | अब समय आ गया था राजप्रासादों में रची जाने वाली पारिवारिक और राजनैतिक साजिशों को रचने की, कुटिल चालों को चलने की | सभी महारानियों में ये भावना गहरी बैठ गई थी की कुछ भी करना पड़े, करना चाहिए यदि एक बार उमादे के पैर महलों में पड़ गए तो उनके पैरों को बाहर का रुख करना होगा |

इन सब से अलग उमादे के मन में क्या चल रहा था ? कोई नहीं समझ पाया | उसके कोमल ह्रदय पर, अन्तर्मन पर, कितनी बड़ी चोट लगी थी ? दाम्पत्य का पवित्र रिश्ता एक दूसरे की हर गलती क्षमा करने की क्षमता रखता है पर अपने अर्ध को किसी और के साथ पूर्ण होते, एकाकार होते देखना उसके जीवन का सबसे दर्दनाक क्षण होता है | महाराज तलवार से घाव करते तो शायद इतना चोटिल नहीं होती, जितनी गहरी चोट उसे भारमली के साथ उनकी उस हरकत से लगी थी | इसके उपरान्त भी एक बार उसने क्षमा कर दिया जो शायद महाराजा की वीरता से कहीं अधिक बड़ा कृत्य था लेकिन जब दूसरी बार भारमली बुलाने गई तो उस अतृप्त भोगी ने पुनः वही कृत्य दोहराया तब उमादे का कोमल ह्रदय असहनीय वेदना से टूट गया, टुकड़े टुकड़े होकर बिखर गया | जिसके लिए सुन्दर स्त्री भोग का सामान है वह क्या जाने प्रीत क्या होती है ? दाम्पत्य के प्रेम में किस भान्ति दो तन होते हुए भी उनके मन एकाकार हो जाते है, वह क्या समझे ? जिसके लिए उमादे या दासी में कोई भेद नहीं, वे दोनों ही बस भोग्या है, वह क्या समझेगा नारी का सम्मान, उसकी इज्ज़त क्या होती है ? अब उस मालदेव को समर्पित कर देना तो अपने अन्तर्मन, आत्मा को मारकर ही सम्भव था | यही कारण था कि बधावे के रीति रिवाज़ों के पश्चात उमादे ने महाराज के सामने शर्त रख दी कि वह राजप्रासादों के भीतर पाँव भी नहीं रखेगी | सुनते ही महाराज तो बहुत दुखी हुए पर महारानियों के लिए ख़ुशी का सन्देश था | शीघ्र ही उनके रहने के लिए अलग स्थान पर व्यवस्था की गई |

जैसलमेर में हुए पाप पर नियति अपना निर्णय थोपने की तैयारी कर चुकी थी |रात्रि में जब महाराज वहां पहुंचे तो बहुत मिन्नतें की, अपनी गलती के लिए के लिए क्षमा मांगकर विस्मृत करने के लिए कहा | पर न जाने किस मिट्टी की बनी थी उमादे ? टस से मस नहीं हुई और बोली महाराज जिसके लिए अर्धांगिनी और दासी का महत्व समान है वह सम्बन्धों, रिश्तों, संवेदनाओं, मर्यादा, इज्ज़त. सम्मान इनको जीवनपर्यन्त नहीं समझ सकता | वैसे भी इन्सान से एक बार भूल हो जाए तो उसे गलती कहते है, उसी भूल को जब दोहराया जाता है तो वह गलती नहीं उसके द्वारा किया गया निर्णय होता है जो क्षमा योग्य नहीं है | इस दासी भारमली को आप महलों में ले जाएँ | ये सदैव आपकी सेवा में रहेगी साथ ही वचन दें की आप कभी मुझे स्पर्श नहीं करेंगे और मेरे लिए जोधपुर से अन्यत्र रहने की व्यवस्था करवाएँ | ऐसा नहीं करते है तो मैं अभी आपके सामने स्वयं को अग्नि को समर्पित कर देती हूँ |

अगले ही दिन महाराज के कुछ विश्वासपात्र सिपहसालारों और रक्षकों के साथ उमादे प्रस्थान कर गई | नारी के सम्मान और इज्ज़त के लिए महलों के ऐश्वर्य, आराम, सुख चैन त्याग कर छोटे से ग्राम ‘गोगुन्दा’ में जा बसी | जहाँ ‘रूठीरानी’ के नाम से विख्यात हुई |

मानव चरित्र भी कितना उलझा हुआ होता है ? एक तरफ़ सदैव मृत्यु का वरण करने को तत्पर योद्धा जीवन पर्यन्त देह और भोग से ऊपर नहीं उठ पाया | दूसरी तरफ़ अप्रतीम देहिक सौन्दर्य के कारण ही जिसका वरण किया गया उसके लिए देह और भोग का कोई महत्त्व नहीं | वो पति से बेहद प्यार करना चाहती थी | रिश्तों को, सम्बन्धों को, मन से जीना चाहती थी | उसके रूठने में कोई द्वेष, कोई प्रतिशोध, कोई कुण्ठा नहीं बल्कि यह सन्देश कि नारी या पत्नी केवल देह नहीं | जहाँ केवल तन का मिलन ही हो मन का महत्त्व नहीं उस सम्बन्ध को कुछ भी कहा जाए दाम्पत्य नहीं है | मन से पत्नी का सम्मान और इज्ज़त सर्वोपरि नहीं वह कैसा दाम्पत्य ? उस पतिव्रता का दुर्भाग्य था की जिसके लिए उसका रूठना था वह व्यक्ति आजीवन प्रेम के इस चरम रूप को समझ नहीं पाया | आजीवन कष्ट पाकर भी अन्त में जब पति की देह नहीं रही तब उसी रिश्ते में स्वयं को मिला लिया, एकाकार कर लिया | जैसे ही गोगुन्दा समाचार पहुंचा की जिससे रूठी थी वह अनंतयात्रा को चल पड़ा है तो उमादे शीघ्र ही जोधपुर के लिए चल पड़ी | वहां पहुँचते ही बिना क्षण भर का विलम्ब किए उनकी पगड़ी के साथ स्वयं को अग्नि को समर्पित कर दिया |

उसके त्याग ने रिश्तों को उस ऊँचाई तक पहुँचाया जिसे सदियों तक स्मरण किया जाएगा, श्रेष्ठता की यह उष्णता अनेको दम्पतियों को प्रेरित करेगी, दाम्पत्य का अर्थ समझा पाएगी |